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जाने की, किसी की उपासना करने की बात की फिर कोई सार्थकता सिद्ध नही होती। इस दृष्टि से अहमेव मयोपास्यः का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्या है अपना
व्यक्ति का अपना क्या है, इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यों ने कहा है'ज्ञान, श्रद्धा और आचार ही निजी संपत्ति है।' अतः इन्हें पाने का प्रयास होना चाहिए। इस तथ्य को पुष्ट करते हुए संत कबीर ने लिखा है. ज्यों तिल मांहि तैल है, ज्यों चकमक में आगि।
तेरा सांई तुज्झ में, तू जागि सके तो जागि॥ ___ व्यक्ति जग जाए तो भगवान भी जग जाता है और व्यक्ति सो जाए तो भगवान भी सो जाता है। इसलिए मैं अपने-आपके निकट जाने का प्रयास कर रहा हूं। दुनिया में वह स्वार्थी कहलाता है, जो स्वहित देखता है। लेकिन आत्म-जगत में अपने निकट जाने का अर्थ है-परमार्थी होना। स्वार्थ वह होता है, जिसमें स्वयं का हित और दूसरों का अहित हो। स्वहित के साथ औरों का अहित न हो, वह परमार्थ ही होता है। ." तब बगावत क्यों नहीं होगी।
परंतु परमार्थ को बहुत थोड़े लोग पहचानते हैं। अधिकतर लोग स्वार्थ को ही जीते हैं। स्वार्थ के कारण ही संसार में अनेक प्रकार की बुराइयां पैदा होती हैं। और बातें तो हम छोड़ें, स्वार्थी लोगों ने धर्म को भी बहुत महंगा बना दिया है। आज धर्म चंद पूंजीपतियों की संपत्ति बन रहा है। लोगों ने समझा, धन के बिना धर्म नहीं मिलता। जिसके पास धन है, वह भगवान को खरीद सकता है; मंदिर, मठ, स्थानक और गुरुद्वारा बना सकता है। मेरे मन में आया कि यदि धर्म महंगा हो जाएगा, सुख-सुविधाएं चंद लोगों को ही मिलेंगी तो बगावत क्यों नहीं होगी। इसलिए धर्म को सर्वसाधारण के लिए उपयोगी बना देना चाहिए। धर्म के लिए निर्धनधनवान, हरिजन-महाजन आदि का सवाल नहीं होना चाहिए। पूंजीपति शराबी हैं!
मुझे तो लगता है कि अमीरों की अपेक्षा गरीबों के जीवन में धर्म अधिक उतरा हुआ है। लोग कहते हैं कि पूंजीपति सुखी होते हैं, लेकिन पूंजीपति तो शराबी हैं। मेरा यह कथन एक कटु सत्य है, पर आप बुरा न
आगे की सुधि लेइ
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