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व्यक्तियों के अनुभव बहुत गहरे होते हैं। वय परिणत होने पर पारिणामिकी बुद्धि का भी विकास हो जाता है। अतः गुरुवृद्धों की सेवा करने से दुःखों से छुटकारा हो सकता है।
दूसरी बात है-अज्ञानियों के संसर्ग से दूर रहना। अज्ञानी व्यक्ति दिग्मूढ़ होते हैं। वे स्वयं तो पतित होते ही हैं, दूसरों को भी लक्ष्य से भटका देते हैं। प्राचीन ग्रंथों में एक श्लोक पढ़ने को मिलता है
बालसखित्वमकारणहास्यं, स्त्रीषु विवादमसज्जनसेवा। गर्दभयानमसंस्कृतवाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति॥ - मूर्ख से मैत्री, अकारण हंसी, स्त्रियों के साथ विवाद,
असज्जन की सेवा, गधे की सवारी, अशिष्ट वाणी-इन छह बातों से व्यक्ति लघुता को प्राप्त हो जाता है।
आप देखें, इनमें एक कारण अज्ञानी के साथ मित्रता या उसका संसर्ग माना गया है।
तीसरा मार्ग है-स्वाध्याय। जिस स्वाध्याय से जीवन-पथ प्रशस्त हो, उसका अनुशीलन करना चाहिए। आज पढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अखबार पढ़ना तो आम बात हो गई है, पर यह स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्याय आत्मा की खुराक है, स्वयं की आत्मा का अध्ययन है, आत्मदर्शन का साधन है। इसलिए ऐसे साहित्य का अध्ययन किया जाना चाहिए, जो हमें आत्मा की खुराक दे सके, आत्मा के दर्शन करा सके।
चौथा उपाय है-एकांतवास। एकांतवास का अर्थ है-मन, वाणी और शरीर को एकांत में रखना। मोक्षार्थी रात-दिन बुरे वातावरण में रहे तो साधना में बाधा पैदा हो जाती है, इसलिए एकांतवास का बड़ा महत्त्व है। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए बताई गई नव बाड़ों में पहली बाड़ है-एकांत निसेवना। जिन साधकों ने गहरी साधना की, उन्होंने एकांतवास भी किया।
एकांत निसेवना का एक अर्थ ध्यान भी है। स्वाध्याय और ध्यान में अंतर रहता है। स्वाध्याय चिंतन-मननप्रधान होता है। उसमें एकाग्रता सधने पर भी किसी-न-किसी रूप में व्यग्रता बनी रहती है। हालांकि ध्यान का भी प्रारंभिक बिंदु एकाग्र चिंतन होता है, अतः वहां भी व्यग्रता रहती है, तथापि उसकी चरम स्थिति में व्यक्ति विचारशून्यता की अवस्था में पहुंच जाता है। वहां व्यग्रता नाम का कोई तत्त्व नहीं रहता।
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