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इसका उद्देश्य यही है कि लोग हिंसा और अहिंसा की बात गहराई से समझें। यदि लोग तत्त्व ही नहीं समझेंगे तो हिंसा और अहिंसा का विवेक कैसे कर सकेंगे? कैसे तो हिंसा का परित्याग कर सकेंगे और कैसे अहिंसा का पथ स्वीकार कर सकेंगे? आपमें से कोई कह सकता है कि जैन-दर्शन की अहिंसा का पालन करना व्यक्ति के लिए संभाव्य नहीं है। यह तो जीतेजी मरने की-सी बात है। इस संदर्भ में मैं एक बात कहना चाहता हूं। जैनदर्शन ने मन, वचन और काया से संपूर्ण हिंसा की विरति की जो बात कही है, वह अहिंसा का आदर्श रूप है। उस आदर्श को केवल वीतराग जी सकते हैं। हालांकि छद्मस्थ साधु-साध्वियां भी संपूर्ण अहिंसा का महाव्रत स्वीकार करते हैं, तथापि उसमें स्खलना की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। जहां-कहीं स्खलना होती है, उसका उन्हें प्रायश्चित्त स्वीकार करना होता है। अब रही गृहस्थों की बात। जैन-तीर्थंकर यह बात बहुत अच्छी तरह से जानते थे कि आदर्श तक कोई-कोई ही पहुंच सकता है। गृहस्थ अनेक प्रकार के पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्वों से बंधा हुआ होता है, इसलिए वह संपूर्ण अहिंसक नहीं बन सकता। चाहेअनचाहे उसे अनेक प्रकार की हिंसक प्रवृत्तियां करनी ही होती हैं। अतः उन्होंने गृहस्थ समाज के लिए अहिंसा अणुव्रत की बात कही। यानी जिस हिंसा के बिना उसका काम चल सकता है, उस हिंसा से वह बचे। अनावश्यक हिंसा न करे। संकल्पजा हिंसा न करे। क्रूर न बने। मूलतः अहिंसा की पालना व्यक्ति-व्यक्ति की क्षमता पर निर्भर करती है। मुझे यह बात स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं कि व्यक्ति-व्यक्ति की क्षमता अलग-अलग होती है। सब व्यक्तियों की क्षमता एक जैसी नहीं होती। इसलिए अहिंसा की पालना में तरतमता रहती है, पर मुझे यह बात उचित नहीं लगती कि अपनी क्षमता की कमी के कारण तत्त्व ही अस्वीकार कर दिया जाए। ऐसा करना व्यक्ति का अहं प्रकट करता है। 'मैं नहीं पहुंच सकता, फिर भी तत्त्व तो है ही'-यह बात व्यक्ति के ध्यान में तभी आ सकती है, जब स्वयं के अहं का विसर्जन किया जाए। वर्षों से चंद्रलोक में जाने की बात हो रही है। बावजूद इसके, वहां तक वही व्यक्ति पहुंच सकता है, जो सामग्रीसंपन्न है, सक्षम है। यही तो कारण है कि रूस और अमेरिका-ये दो ही राष्ट्र वहां तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि अन्य राष्ट्र चंद्रलोक में पहुंचने की बात अस्वीकार कर दें।
जैनधर्म और अहिंसा
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