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अपरिचित हैं। आदमी दुनिया के कोने-कोने की जानकारी कर लेता है, नक्षत्र-तारों की गति का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त कर लेता है, सागर की अतल गहराई तक पहुंच जाता है, फिर भी स्वयं से अनजान रह जाता है। 'मैं त्रैकालिक आत्मा की सत्ता हूं, अतीत में था और भविष्य में भी रहूंगा'इस तथ्य से परिचित होना स्वयं को जानना है। यह आत्मस्वरूप का ज्ञान ही परमात्मस्वरूप का ज्ञान है। आत्मस्वरूप की पहचान के बिना व्यक्ति अपना परमात्मस्वरूप नहीं पहचान सकता। यह कैसी विडंबना है कि व्यक्ति परमात्मा से तो मिलना चाहता है, पर स्वयं के अस्तित्व से अनभिज्ञ रहता है! रामकृष्ण परमहंस द्वारा अंतर्बोध
रामकृष्ण परमहंस के पास एक व्यक्ति आया। नमस्कार करके निवेदन की भाषा में बोला-'महात्माजी ! आप पहुंचे हुए योगी हैं। मैंने सुना है कि आपको प्रभु के साक्षात दर्शन होते हैं। मेरे पर भी अनुग्रह करें। एक बार मुझे भी प्रभु से मिला दें। भगवान के दर्शन से मेरी जिंदगी सफल हो जाएगी।' रामकृष्ण परमहंस ने कहा-'तुम्हारी इतनी भावना है तो मैं प्रयत्न करूंगा। ऐसा करो कि तुम अपना पता मुझे दे दो। जब-कभी अवसर आएगा, मैं तुम्हें भगवान से मिला दूंगा।'
रामकृष्ण की बात सुनकर वह व्यक्ति अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने तत्काल अपनी जेब से कागज निकाला,कलम निकाली और पता लिखने लगा। उसने अभी एक-दो अक्षर ही लिखे थे कि रामकृष्ण ने सजग करते हुए कहा-'देखो, पता स्थायी होना चाहिए, कभी जरूरत पड़ सकती है।' वह व्यक्ति बोला-'महात्माजी! मैं स्थायी पता ही लिखकर आपको दे रहा हूं।' ऐसा कहकर उसने अपना पता लिखकर रामकृष्ण के हाथ में कागज थमा दिया। रामकृष्ण ने एक क्षण के लिए कागज पर दृष्टि डाली और पूछा- क्यों, यह तुम्हारा बिलकुल स्थायी पता है ना?' वह व्यक्ति बोला-'हां, महाराज! बिलकुल स्थायी पता है। आपके मन में संदेह क्यों पैदा हो रहा है?' रामकृष्ण ने कहा-'संदेह की बात नहीं है, पर यह काम ही कुछ इस ढंग का है। भगवान से मिलनेवाले को अपना बिल्कुल स्थायी पता देना होता है। यदि पता स्थायी नहीं होता है तो भगवान से मिलने की भावना साकार नहीं हो सकती।........."अच्छा, तुम सदा इस पते पर मिलते तो हो?' वह व्यक्ति बोला-'हां, लगभग इस पते पर मैं मिल जाता
आत्मा: महात्मा : परमात्मा
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