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१३ : स्वयं की उपासना
परमात्म-उपासना का उद्देश्य
यः परमात्मा स एवाहं, योऽहं स परमं ततः।
अहमेव मयोपास्यः, नान्यः कश्चिदितिस्थितिः॥
लोग परमात्मा को बड़ा मानते हैं, पर मैं तो स्वयं को ही बड़ा मानता हूं। इसलिए स्वयं की उपासना को ही महत्त्व देता हूं कि पर स्वयं की उपासना धूप, दीप, संगीत और भजनों से नहीं होती। यह तो महज औपचारिक बात है। उपासना का वास्तविक स्वरूप है-उप सामीप्येन आसना-उपासना। जिसे पाने की चाह है, उसके निकट जाने का नाम है उपासना। व्यक्ति किसके निकट जाए? यहां मनुष्य ने एक भूल की है। अपना सामीप्य छोड़कर वह विजातीय तत्त्वों को अपना मानता है। विजातीय तत्त्व आगंतुक होते हैं। हम उन्हें अपना क्यों मानें? आज मैं यहां आया हूं। सिरसा के लोग मुझे अपना मानते हैं तो भूल करते हैं। मैं तो राही हूं। राही को स्थायी मान लेना क्या भूल नहीं है?
आपका प्रश्न हो सकता है कि क्या व्यक्ति को परमात्मा को पाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए; संतों की उपासना नहीं साधनी चाहिए। बंधुओ! परमात्मा को पाने की चेष्टा करने की मनाही मैं कब करता हूं? संतों की उपासना करने का निषेध कब करता हूं? वस्तुतः परमात्मा को पाने का प्रयत्न करने और संतों का सान्निध्य साधने का उद्देश्य स्वयं की उपासना ही है, स्वयं को पाना ही है। मूलतः हमारी ज्योति और सुषमा तो हमें प्राप्त ही है। केवल उसे पहचानने की अपेक्षा है। परमात्मा को पाने का प्रयत्न या संतों की उपासना उसी की पहचान के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए है। इस पुरुषार्थ से व्यक्ति को अपना आत्म-स्वरूप पहचानने के उद्देश्य की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। - यदि यह प्रेरणा नहीं मिलती है, अपनी पहचान नहीं होती है तो कहीं स्वयं की उपासना
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