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मानें। मैं यह बात एक कवि के कथन के आधार पर कह रहा हूं
प्रमदा मदिरा लक्ष्मीः, विज्ञेया त्रिविधा सुरा।
दृष्टैवोन्मादयत्येका, पीता चान्यातिसचयात्।। कवि ने शराब तीन प्रकार की बताई है-स्त्री, मदिरा और धन। स्त्री देखने मात्र से व्यक्ति को उन्मत्त बना देती है। कहा तो यह जाता है कि स्त्री अबला होती है, पर उसके सामने तो बड़े-बड़े लोग परास्त हो जाते हैं। कहा गया है
• एक कंचन दूजी कामिनी, ए दो मोटी खाड़।
राजा राणा बादशाह, पड़-पड़ फोड्या हाड़।। • एक कंचन दूजी कामिनी, दो मोटी तलवार।
जाता था प्रभु मिलन को, दिया बीच में मार।। दूसरी मदिरा पीने की होती है। उसे पीकर व्यक्ति बेभान हो जाता है। तीसरे प्रकार की मदिरा है-लक्ष्मी। यह तिजोरी में पड़ी-पड़ी ही आदमी को पागल बना देती है।
इस परिभाषा के अनुसार सभी पूंजीपति शराबी हैं। और वे निर्धन भी इस उपाधि के उपयुक्त हैं, जो धन न होने पर भी उसकी लालसा में आसक्त रहते हैं। इसी के समानांतर वे अरबपति भी शराबी नहीं हैं, जो लक्ष्मी-संपन्न तो हैं, पर उसके साथ उनका कोई लगाव नहीं है। अतः पूंजीपति व्यक्ति धन के द्रष्टा बनकर रहें। गांधीजी के शब्दों में वे संपत्ति के ट्रस्टी रहें तो कोई हानि नहीं होगी। पूंजीवाद : साम्यवाद : अपरिग्रह
___ आज यदि जनता के सामने साम्यवाद का सूत्र आ जाए तो वह पूंजीपतियों को बुरा लगेगा और पूंजीवाद का सिद्धांत साम्यवादियों को अच्छा नहीं लगता। मेरा सिद्धांत है अपरिग्रह का। वह दोनों को ही अच्छा नहीं लगेगा। वस्तुतः परिग्रह तिजोरी में नहीं, बल्कि अपनी वृत्तियों में है, मन की आसक्ति में है। जिसके मन में आसक्ति नहीं है, वही सही माने में अपरिग्रही है। अतः मेरी दृष्टि में अमीरी और गरीबी दोनों ही तत्त्व उपादेय नहीं हैं। उपादेय तत्त्व है-अनासक्ति। उसका विकास होने से ही हित सध सकता है। धर्म और धन
आज आसक्ति बढ़ती जा रही है और धर्म संपत्तिशाली लोगों की
स्वयं की उपासना
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