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निधि बनता जा रहा है। हमने धर्म को अमीरों के यहां से निकालकर गरीबों तक पहुंचाया, सर्व-सुलभ बनाया। जिन्हें मंदिरों में जाने का अधिकार नहीं था, उन्हें हमने अपने यहां आने का पूरा अधिकार दिया। यदि ऐसा मान लिया जाए कि धन से ही धर्म खरीदा जाता है तो सर्वथा अकिंचन होने के कारण क्या सबसे पहले धर्म से वंचित हम ही नहीं रहेंगे ? धर्म और जीवन-व्यवहार
वास्तव में धर्म होता है तन, मन और आचार से। धन के साथ उसका कोई संबंध नहीं है। धर्मस्थानों के साथ उसका कोई संबंध नहीं है। धर्म का शाश्वत संबंध है धार्मिक से। यदि उसके जीवन-व्यवहार में धर्म नहीं है तो उसका क्या उपयोग है? गीता, वेद, पुराण, धम्मपद, आगम आदि ग्रंथों में धर्म की सुंदर-सुंदर परिभाषाएं हैं, पर उसे जीवन में न उतारें तो उसका क्या लाभ है? धर्म और सौदेबाजी
आम लोगों में एक भ्रांत धारणा है कि व्यक्ति बाजार में बैठकर जो पाप करता है, वह पाप धर्मस्थान में जाने मात्र से धुल जाता है। इस संदर्भ में आप वास्तविकता पर ध्यान दें। यह तो संभव है कि धर्मस्थान में जाने के बाद पुनः पाप न करने का संकल्प ले लिया जाए तो अलबत्ता जीवन हलका हो जाता है, लेकिन व्यक्ति धर्म के साथ सौदा करना चाहता है, यह कहां तक उचित है? अब तक जो पाप किया, वह आज खत्म हो जाएगा और आगे जो पाप होगा, उसे फिर खत्म कर लेंगे, यह सौदा है। व्यापारी-वर्ग इस माने में बहुत होशियार है। वह कहता है
बातां साटै हर मिलै तो म्हाने भी कहीज्यो।
माथां साटै हर मिलै तो छाना-माना रहीज्यो॥
यह सौदे की वृत्ति जब तक नहीं मिटेगी, तब तक सही मानी में धर्म व्यवहार्य नहीं बन सकेगा। पाप क्यों नही मिटा
अभी-अभी हमारे सामने एक प्रश्न उठाया गया कि भारत में अनेक महापुरुष पैदा हुए, यहां धर्म की गंगा बही, फिर भी पाप क्यों नहीं मिटा। मैं जहां तक सोचता हूं, ऐसा कोई देश नहीं है, जहां कोई महापुरुष पैदा नहीं हुए हों। अलबत्ता भारत को ज्यादा महापुरुष पैदा करने का सौभाग्य
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- आगे की सुधि लेड
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