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साधना-क्रियाएं करता है। इसलिए उसकी हिफाजत रखना भी उसके लिए आवश्यक है। अनशन है मरने की कला
जब साधक को यह महसूस होने लगे कि मेरा शरीर साधना में सहयोगी नहीं रहा है, वह बाधक बन रहा है, भारभूत बन रहा है, तब उसका पोषण करना बंद कर दे, उसकी हिफाजत छोड़ दे। इस क्रम से शरीर स्वयं छूट जाएगा। जैन-दर्शन में शरीर छोड़ने की यह प्रक्रिया अनशन के नाम से प्रसिद्ध है। अनशनपूर्वक शरीर छोड़ने को जैन-दर्शन में बहुत महत्त्व दिया गया है। एक दृष्टि से यह मरने की कला है। मैं मानता हूं, अंतिम रूप से शरीर से मुक्त होना, विदेह होना तो परम उपलब्धि और परम सौभाग्य की बात है ही, अनशनपूर्वक शरीर का परित्याग करना, मृत्यु का वरण करना भी कम महत्त्व की बात नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में अनशन का सविस्तार वर्णन उपलब्ध है। आदर्श और व्यवहार
साधक के सामने विदेह होने का लक्ष्य होता है। साधक यह लक्ष्य सामने रखकर ही साधना करता है। वैसे यह आदर्श की बात है, हर साधक वहां तक नहीं पहुंच पाता, पर कोई पहुंच पाए या न पहुंच पाए, आदर्श सदा आदर्श ही है। किसी के वहां तक न पहुंच पाने के कारण उसे नीचे नहीं लाया जा सकता। यह जैन-धर्म की ही बात नहीं है, बल्कि सभी धर्मों में आदर्श ऊंचे ही रखे गए हैं। बाइबिल में क्राइस्ट कहते हैं-'कोई तुम्हें मारे, पीटे, काटे तो भी तुम्हारा यह अधिकार नहीं है कि तुम उसके प्रतिकार में कुछ भी बोलो।' गीता में कहा गया है-आत्मना युद्धस्व। अर्थात आत्मा के साथ युद्ध करो। भगवान महावीर ने कहा है-'सभी तुम्हारे मित्र हैं। किसी को अपना दुश्मन मन समझो।' इसी प्रकार औरऔर धर्मों और महापुरुषों ने भी ऊंचे-ऊंचे आदर्शों की बातें बताई हैं।
यह बहुत स्पष्ट है कि सब लोग आदर्श तक नहीं पहुंच पाते। यदि सभी वहां तक पहुंच जाएं तो वह आदर्श ही क्या! इसी प्रकार कोई व्यक्ति जहां तक न पहुंच सके, वह भी कैसा आदर्श! आदर्श वही है, जो साध्य तो है, पर किसी-किसी के लिए है। सबके लिए व्यवहार का तत्त्व है। व्यवहार सभी निभा सकते हैं। उसे आधार मानकर सब चल सकते हैं। व्यवहार के मार्ग पर चलता-चलता व्यक्ति आदर्श तक भी पहुंच सकता है।
साधना की सफलता का रहस्य
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