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को पेशा नहीं, बल्कि पवित्र कर्तव्य समझते हैं। मैं मानता हूं, जब तक अभिभावक और अध्यापक अपने कर्तव्य और दायित्व के प्रति जागरूक नहीं बनेंगे, तब तक विद्यार्थियों के सुसंस्कारी बनने का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकेगा। धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक शिक्षा
विद्यार्थियों के सुसंस्कारी न बनने का एक बड़ा कारण है-अधूरी शिक्षा। स्कूलों में बालकों को साहित्य, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि विषयों की जानकारी तो कराई जाती है, पर धर्म की शिक्षा नहीं दी जाती। इसका कारण बनी है-राष्ट्र की तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की नीति। यद्यपि धर्मनिरपेक्षता कोई बुरा तत्त्व नहीं है, बल्कि बहुत अच्छा तत्त्व है, तथापि लोगों ने गलत रूप में परिभाषित कर इसे भी गलत बना दिया है। धर्मनिरपेक्षता का यह अर्थ कदापि नहीं कि किसी धर्म को महत्त्व नहीं देना। इसका तो तात्पर्य यह है कि किसी धर्मसंप्रदायविशेष को अतिरिक्त महत्त्व नहीं देना, सभी के लिए प्रचार-प्रसार का समान अवकाश होना। मैं जहां तक सोचता हूं, धर्मनिरपेक्षता की यह परिभाषा करने से कोई कठिनाई नहीं रहती। गहराई से देखा जाए तो धर्म के मौलिक तत्त्व सभी धर्म-संप्रदायों को समान रूप से मान्य हैं। अहिंसा और सत्य ऐसे व्यापक तत्त्व हैं, जिन्हें कोई संप्रदाय अस्वीकार नहीं कर सकता। इसी प्रकार नैतिकता, प्रामाणिकता, सदाचार आदि सर्वमान्य तत्त्व हैं। धार्मिक शिक्षा से मेरा आशय इन्हीं सब व्यापक तत्त्वों की शिक्षा देना है, पर इसमें सबसे बड़ी कठिनाई है-शिक्षणशैली की। पुस्तकों और उपदेश से यह शिक्षा नहीं दी जा सकती। यह शिक्षा अध्यापकों को अपने जीवन और जीवन-व्यवहार से देनी होगी। केवल पुस्तकों एवं उपदेश से अभीप्सित लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।
विद्यार्थियों के जीवन-निर्माण और उनके प्रशिक्षण के संदर्भ में मैंने कुछ बातें बताईं। मैं अपेक्षा करता हूं कि विद्यार्थी, अध्यापक तथा अभिभावक-तीनों ही वर्ग इन पर गंभीरता से चिंतन-मनन करेंगे। मेरे विचार में राष्ट्र-निर्माण की दृष्टि से यह विषय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। विद्यार्थी ही राष्ट्र की नींव होते हैं। इस अपेक्षा से मैं कहना चाहता हूं कि आप यह नींव सुदृढ़ बनाएं। यह नींव जितनी सुदृढ़ होगी, राष्ट्र रूपी इमारत उतनी ही मजबूत हो सकेगी। अणुव्रत-आंदोलन प्रारंभ से ही
विद्यार्थी और जीवन निर्माण की दिशा
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