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१२ : साधना की सफलता का रहस्य
साधना-पथ
आगमों में साधक को लक्ष्य करके कहा गया है-चरे पयाई परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मण्णमाणो-साधक पग-पग पर दोषों से भय खाता हुआ, थोड़े-से दोष को भी पाश मानता हुआ चले।
___ परिशंकित होकर चलने का अर्थ है-फूंक-फूंककर चलना, सावधानीपूर्वक चलना। हम जानते हैं कि साधक के चारों ओर जाल बिछे हैं, गड्ढ़े हैं, कांटे हैं। थोड़ा-सा प्रमाद हुआ कि बंधन और पतन निश्चित है। जाल किन्हें कहा गया है? गड्ढ़े किन्हें कहा गया है ? कांटे किन्हें कहा गया है? इनका दो शब्दों में उत्तर दिया जाए तो वह उत्तर होगा-राग और द्वेष। कहीं पर व्यक्ति की प्रशंसा होती है और कहीं पर निंदा। प्रशंसा सुनकर साधक रागभाव में जा सकता है और निंदा सुनकर द्वेषभाव में। कभी उसे मनोज्ञ भोजन, मकान आदि प्राप्त हो जाते हैं और कभी अमनोज्ञ। मनोज्ञ में रागात्मक संवेदना जाग सकती है और अमनोज्ञ में द्वेषात्मक। कोई यदि यह सोचे कि मनोज्ञता और अमनोज्ञता दोनों नष्ट हो जाएं, अनुकूलता
और प्रतिकूलता दोनों समाप्त हो जाएं तो उसका सोचना व्यर्थ है। संसार है तो ये सब रहेंगी। इन्हें मिटाया नहीं जा सकता। मिटाना होगा स्वयं की राग-द्वेषात्मक संवेदनाओं को। जंगल है तो मार्ग में कांटे मिलेंगे ही। उन्हें कैसे मिटाया जा सकता है? एक बार कोई थोड़ा-बहुत बुहार भी दे तो क्या, आंधी आई कि फिर बिखर जाएंगे। ऐसी स्थिति में समाधान यही है कि व्यक्ति अपने पैरों में जूते पहन ले। फिर चाहे कितने ही कांटे क्यों न बिखरे हों, पैरों के बींधे जाने का खतरा नहीं रहेगा। साधक भी यह बात समझे। संसार में अनुकूल-प्रतिकूल सभी प्रकार की स्थितियां रहेंगी, मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के पदार्थ रहेंगे। उन्हें मिटाया नहीं जा सकता। मिटाने की अपेक्षा भी नहीं है। अपेक्षा है स्वयं को समता से भावित करने
साधना की सफलता का रहस्य
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