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मानने से था, हिंसा को धर्म मानने से था। तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो आचार्य भिक्षु ही क्यों, कोई भी चिंतनशील व्यक्ति व्यवहार की भूमिका में आवश्यक सामाजिक प्रवृत्तियों का विरोध नहीं कर सकता। हां, उनके प्रति अपना दृष्टिकोण सम्यक रखने की अपेक्षा वह जरूर बताएगा। अस्तु, आचार्य भिक्षु की आदर्श और व्यवहार के बीच सामंजस्य की दृष्टि यथार्थ की भूमिका में समझने का प्रयास हो, यह नितांत अपेक्षित है। यदि ऐसा होता है तो व्यक्ति का आध्यात्मिक पक्ष तो उज्ज्वल बनता ही है, सामाजिक जीवन भी स्वस्थ बनता है।
नोहर २३ फरवरी १९६६
- आगे की सुधि लेइ
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