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११ : अध्यात्म और व्यवहार
जैन-धर्म अहिंसाप्रधान धर्म है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म चिंतन जैन-तीर्थंकरों ने किया है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता। पर जैन-धर्म के अहिंसा के सिद्धांत के संदर्भ में लोगों में भ्रांतियां बहुत हैं। औरों की बात तो हम दो क्षण के लिए छोड़ें, स्वयं बहुत-से जैन लोग भी यह सिद्धांत सही ढंग से समझ नहीं पाए हैं। इस कारण उनके व्यवहार और आचरण से जैन-धर्म का अहिंसा का सिद्धांत बदनाम होता है, जैन-धर्म बदनाम होता है। हम अहिंसक हैं!
पिछले दिनों भारतवर्ष पर विदेशी लोगों का आक्रमण हुआ। उस समय अहिंसा के संदर्भ में भ्रांति पालनेवाले कुछ भारतीय नागरिकों ने इस आशय की बात कही कि हम अहिंसक हैं, इसलिए शत्रु का मुकाबला नहीं करेंगे।.... मैं ऐसा कहनेवालों और सोचनेवालों से कहना चाहता हूं कि वे अहिंसा का सिद्धांत यथार्थ रूप में समझें, अन्यथा वे इस महान सिद्धांत के साथ न्याय नहीं कर सकते। सचमुच जिन्होंने भी इस प्रकार का चिंतन किया, कथन किया या व्यवहार किया, उन्होंने अहिंसा की प्रतिष्ठा कम की है, धर्म को लांछित किया है। हिंसा और मोह
जहां राष्ट्र के जान-माल की सुरक्षा का प्रश्न है, वहां हिंसा अवश्यंभावी है, क्योंकि राष्ट्र के प्रति लोगों का मोह है। मोह हिंसा है। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा कि मारना ही हिंसा नहीं है, पुचकारना भी हिंसा है। यह बहुत गहरा दर्शन है। सबको जल्दी से समझ में नहीं भी आ सकता। बावजूद इसके, है शत-प्रतिशत यथार्थ। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि अग्नि से खेती जलती है तो ओलों से भी जलती है। इसी प्रकार राग
और द्वेष दोनों ही हिंसा के कारण हैं, हिंसा हैं। अतः इनसे पापकर्म का अध्यात्म और व्यवहार
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