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जाएंगे और उनका पैर सीधा हो जाएगा।'
ब्राह्मणों ने कहा-'यह कैसे हो सकता है! डाम लगाने से हमारा शरीर जल जाएगा।' कामदार ने कहा-'यह नहीं हो सकता तो घोड़े भी तुम लोगों को नही मिल सकते।'
बंधुओ! यह तो एक उदाहरण है। न जाने दुनिया में ऐसी कितनी गलत बातें चलती हैं, कितने पाखंड चलते हैं, पर ऐसे पाखंड चलानेवालों को समझाए कौन ? इस संदर्भ में किसी को गलतफहमी न हो, इसलिए इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं कि किसी वर्ग-विशेष का विरोध करना मेरा लक्ष्य नहीं है। मेरा उद्देश्य तो मात्र ढोंग का विरोध करना है, गलत संस्कार छुड़ाना है।
यदि जैन-धर्म में आस्था रखनेवाले यह बात समझें तो बहुत-सी निरर्थक क्रियाएं स्वयं छूट सकती हैं। जैन-दर्शन के तत्त्व वैज्ञानिक हैं। इसमें अंधविश्वास और अवैज्ञानिक बातों को कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि कम्यूनिस्ट तक भी कहते हैं कि धर्म तो जैन-धर्म ही है। संप्रदाय में असंप्रदाय
धर्म शब्द के कई अर्थ हैं। मजहब के अर्थ में भी धर्म शब्द का प्रयोग होता है, लेकिन जैन-धर्म इसे आत्म-शुद्धि के साधन के रूप में स्वीकार करता है। हालांकि संप्रदाय की आवश्यकता को भी वह अस्वीकार नहीं करता। वैसे देखा जाए तो संप्रदाय अपने-आपमें बुरा होता भी नहीं, बल्कि धर्म की सुरक्षा और उसके प्रचार-प्रसार के लिए वह अत्यंत उपयोगी है। बुरी है सांप्रदायिकता। जहां सांप्रदायिकता प्रभावी हो जाती है, वहां संप्रदाय अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता खो देता है। वह लाभ के स्थान पर अलाभ का हेतु बन जाता है। धर्म की सुरक्षा के स्थान पर वह संकीर्णता की सुरक्षा करने लगता है। धर्म के प्रचार-प्रसार के स्थान पर वह वैमनस्य व घृणा फैलाने का काम करने लगता है। मैं एक संप्रदायविशेष से संबद्ध होकर भी सांप्रदायिकता में विश्वास नहीं करता। अपने अनेकांतिक दृष्टिकोण से संप्रदाय में भी असंप्रदाय की साधना करता हूं। संप्रदाय में असंप्रदाय का अर्थ है-व्यक्ति एक संप्रदाय में रहता हुआ भी दूसरे-दूसरे संप्रदायों के अच्छे तत्त्वों के प्रति गुणात्मक दृष्टिकोण रखे। उन्हें सत्यग्राही दृष्टि से स्वीकार करता चले। वह यह सोचे, जैसे मेरे संप्रदाय में सत्य है, वैसे ही दूसरे-दूसरे संप्रदायों में भी सत्य हो सकता है। मैं अकेला संपूर्ण
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