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कड़ी दृष्टि है। आए साल कर भार बढ़ता ही जा रहा है। अनेक प्रकार की कानूनी अड़चनें उपस्थित हो रही हैं। ऐसी स्थिति में बहुत-से व्यापारियों को अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मजबूरन अनैतिक बनना पड़ता है, पर इस परिप्रेक्ष्य मैं उपस्थित सभी व्यापारियों से एक बात कहना चाहता हूं कि कठिनाइयों और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद आपको नैतिकता और प्रामाणिकता का यथासंभव खयाल रखना चाहिए । रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा-इन पांच अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति की व्यवस्था के बाद अधिक संचय नहीं करना चाहिए। अधिक संग्रह आध्यात्मिक दृष्टि से तो बुरा है ही, आज के युग में सामाजिक दृष्टि से भी अनुचित माना जाने लगा है। ऐसी स्थिति में आपमें से जो व्यापारी समय की नब्ज पहचानते हुए अपने चिंतन और व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन कर लेंगे, वे बहुत-सी कठिनाइयों से सहज ही बच जाएंगे। इसके विपरीत जो समय की नब्ज नहीं पहचानेंगे, वे कठिनाइयों के चक्रव्यूह में फंस जाएंगे। इसलिए अपेक्षा इस बात की है कि परिस्थितियां आपको बदलने के लिए बाध्य करें, उससे पूर्व ही आप संभलें । समझदारी और विवेक का तकाजा यही है ।
बदलने से आप मेरा तात्पर्य समझते ही होंगे। आप अर्जित और संचित धन पर अपना वैयक्तिक अधिकार और ममत्व कम करें। यदि आप का धन समाज के उपयोग में आता है तो वह किसी को अखरेगा नहीं । अतः आपमें से प्रत्येक व्यापारी अपना लक्ष्य स्थिर करे । लक्ष्य स्थिर है तो व्यापार में प्रामाणिकता बरते। मृगतृष्णा में न दौड़े। सचाई से जो नफा होता है, वह बेईमानी से नहीं हो सकता । बेईमानी से व्यक्ति एक-दो बार सफल हो सकता है, पर उसकी जड़ें कमजोर होती हैं। सचाई में पहले कष्ट हो सकता है, पर अंत में उसका परिणाम अच्छा आता है।
प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता को सज्जन और दुर्जन की प्रीति से तौला जाता है। दुर्जन की प्रीति शुरू में गहरी होती है, पर धीरे-धीरे समूल नष्ट हो जाती है। सज्जन की प्रीति प्रारंभ में सामान्य सी होती है, पर बढ़ते-बढ़ते इतनी गहरी हो जाती है कि अभिन्नता की भूमिका में पहुंच जाती है। भर्तृहरि ने इस तथ्य को छाया के साथ तौलते हुए कहा है
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
धर्म और व्यवहार
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