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तत्त्वतः भौतिक उपलब्धि धर्म का आनुषंगिक फल है। वास्तविक फल है-शांति, आत्म-शुद्धि या पवित्रता। धार्मिक क्रिया करने से तत्काल शांति मिलती है। गौण फल बाद में मिलते रहते हैं। यदि क्रिया-काल में शांति नहीं मिलती है तो मान लेना चाहिए कि सही रूप में धर्माचरण नहीं हुआ है। इसी प्रकार धर्म करने के क्षणों में आत्मा निर्मल बननी चाहिए, पवित्रता की अनुभूति होनी चाहिए, अन्यथा इसका अर्थ यही होगा कि धर्म के नाम पर कोई भ्रम पाला जा रहा है। सिद्धि और साधक
तीसरी बात है-साध्य और साधन दोनों ठीक हैं तो सिद्धि स्वयं मिल जाएगी। चाबी ठीक लगेगी तो ताला स्वयं खुल जाएगा। अतः सिद्धि के लिए साध्य और साधन का सही निर्धारण जरूरी है।
__इन सबके साथ सबसे बड़ी अपेक्षा है साधक की। मिट्टी, पानी आदि सब होने पर भी कुंभकार न हो तो घड़ा नहीं बन सकेगा। साधक कौन ? जो मोक्ष का अधिकारी हो। अधिकारी वह होता है, जिसकी लक्ष्य के प्रति संपूर्ण आस्था हो। गीता में कहा गया है-श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्श्रद्धावान व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। भगवान महावीर ने कहा-सड्ढी आणाए मेहावी-आज्ञा में श्रद्धा करनेवाला मेधावी होता है। मेधावी मोक्ष का अधिकारी है। यद्यपि तर्क निकम्मा तत्त्व नहीं है, पर वह जिज्ञासा को समाहित करने के लिए होना चाहिए, श्रद्धायुक्त होना चाहिए। मात्र जयविजय के लिए तर्क करनेवाला परास्त हो जाता है।
__ मैं देखता हूं, वैज्ञानिकों से अधिक तार्किक कोई नहीं होता। वे बाल की खाल खींच लेते हैं, पर उन जैसा श्रद्धालु भी कोई नहीं होता। यदि उन्हें यह जच जाए कि बालू के कणों में से तेल निकल सकता है तो इस कार्य के पीछे वे जी-जान से जुट जाएंगे, मर खपेंगे, पर अपने लक्ष्य से नहीं हटेंगे। निश्चय ही श्रद्धा की दृढ़ता के बिना ऐसा कभी संभव नहीं है। ___एक व्यक्ति ने एक कुआं खोदा, पर पानी नहीं निकला। दूसरा, तीसरा, चौथा कुआं और खोदा। इसके बावजूद पानी नहीं निकला। वह निराश होकर बैठ गया। दूसरा व्यक्ति आया और उसकी स्थिति जानकर बोला-'चार क्या, पचास कुएं खोद लोगे तो भी पानी नहीं निकलेगा। चार कुएं खोदे हैं, उतनी ही खुदाई यदि एक स्थान पर कर लेते तो निस्संदेह पानी निकल आता।'
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- आगे की सुधि लेइ
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