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जैन-धर्म गुणपरक है
यही बात जैन-धर्म के बारे में हुई। जैन-धर्म का उद्देश्य और उसके सिद्धांत उतने ही व्यापक हैं, जितने कि होने चाहिए। मैं जहां तक समझ पाया हूं, जैन-धर्म के दृष्टिकोण में संकीर्णता को कहीं कोई स्थान नहीं है। जैन-धर्म व्यक्तिपरक नहीं है। वह किसी व्यक्तिविशेष को महत्त्व नहीं देता। वह उसी को महत्त्व या मूल्य देता है, जो गुणी है। वस्तुतः गुणहीन व्यक्ति किसी के आकर्षण का केंद्र नहीं हो सकता। इसी लिए तो कहा गया है
जिन मारग में देख लो गुण लारे पूजा।
निगुणां नै पूजै तका मारग है दूजा॥ गुणाः पूजास्थानम्-यह सूक्त भी इसी तथ्य का प्रतीक है। जाति और वर्ण की पूजा नहीं होती। पूजा गुणों की होती है। जैन-धर्म इसका मूर्त रूप है। स्याद्वाद : सामंजस्य की विचारधारा
जैन-धर्म के मूल तत्त्व सत्य और अहिंसा हैं। सत्य और अहिंसा से अधिक व्यापक तत्त्व और कौन-सा हो सकता है? इनके बिना किसी व्यक्ति का जीवन विकसित होना तो बहुत दूर, चलता भी नहीं। जैन-धर्म की व्यापकता का एक बहुत ही पुष्ट और स्पष्ट प्रमाण है स्याद्वाद। यह चिंतन के दृष्टिकोण को आकाश जितनी व्यापकता देता है। हम जानते हैं कि व्यक्ति-व्यक्ति का भिन्न-भिन्न चिंतन होता है। धारणा भी अलग-अलग होती है। ऐसी स्थिति में विचारों में परस्पर सामंजस्य स्थापित करना अत्यंत आवश्यक है। परिवार और ग्राम की बात आप छोड़ें, घर में भी सामंजस्य न हो तो प्रतिदिन कलह का वातावरण बना रहता है। सामंजस्य की विचार-धारा ही स्याद्वाद है। आज इसकी विशद चर्चा अप्रासंगिक हो जाएगी, अन्यथा इसे समझना बहुत आवश्यक और उपयोगी है। दृष्टि व्यापक हो रही है
__ आज का चिंतन है कि विभिन्न धर्मों के विचार और तत्त्व सबके सामने आने चाहिए। इस अपेक्षा से जनता की दृष्टि व्यापक हो रही है। आज व्यक्ति दूसरे धर्म को सुनना चाहता है। वह समय चला गया, जब आपस में तनाव और कटुता का वातावरण बना रहता था। विशेष रूप से आज का बौद्धिक वर्ग व्यापक दृष्टि से काम कर रहा है। अच्छे तत्त्व जहां भी मिलते हैं, संप्रदायभेद के बिना उनका अनुसंधान करके उन्हें जनता के धर्म और व्यवहार
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