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नेहरू के शब्द याद आ रहे हैं-हमारे सैनिक चीन और पाकिस्तान से लड़ें, पर क्रूरता न हो। शत्रुओं के प्रति घृणा का भाव न हो, क्योंकि हमारा विरोध किसी व्यक्ति या जाति से नहीं है। निष्कर्ष यह कि अहिंसा का क्षेत्र अपरिग्रह है, अनासक्ति है। इनकी सुरक्षा का दायित्व वह बहुत अच्छी तरह ले सकती है, परंतु जब राष्ट्र स्वयं परिग्रह है, उसके साथ आपका अपनत्व/आसक्ति/ ममकार जुड़ा हुआ है, तब उसकी सुरक्षा अहिंसा से कैसे संभव है ? वहां हिंसा से सर्वथा कैसे बचा जा सकता है?'
___अहिंसा के संदर्भ में मेरे उपर्युक्त विचार सुनकर वह पत्रकार बोला-'अहिंसा की यह विवेचना मैंने आज ही सुनी। मुझे आज एक नया दर्शन मिला है। ये विचार जितना अधिक विस्तार पाएं, उतना ही व्यक्ति और राष्ट्र का हित है।'
मैंने कहा-'विचार-प्रसार का काम आप पत्रकार लोगों का है। फूल में खुशबू होती है, पर उसका फैलना हवा पर निर्भर है। हम अपने विचार आपके सामने रखते हैं। अब ये कहां पहुंचते हैं और कहां नहीं, यह हमारे चिंतन का बिंदु नहीं है। यह तो आपके चिंतन और कलम पर निर्भर करता है।' हिंसा और अहिंसा : यथार्थ स्वरूप
हिंसा और अहिंसा की परिभाषा अपनी सुविधा के अनुकूल नहीं हो सकती। न हि भैषजमातुरेच्छानुकारि। यानी दवा रोगी की इच्छा के अनुसार नहीं दी जाती। वह वैद्य की इच्छा के अनुसार दी जाती है। अतः हिंसा-अहिंसा का मूल स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।
हिंसा का अर्थ प्राणों का अपहरण करना ही नहीं है। गाली देना, पीटना, अंग-भंग करना आदि-आदि सारी प्रवृत्तियां भी हिंसा के अंतर्गत आती हैं। कोई व्यक्ति यहां रहता है। दूसरा व्यक्ति कलकत्ता (कोलकाता) में है। वह वहां बैठा-बैठा यहां रहनेवाले व्यक्ति के प्रति दुश्चिंतन करता है। इससे यहां रहनेवाले व्यक्ति का अनिष्ट होता है या नहीं, यह तो आगे का प्रश्न है, पर वह अनिष्ट चिंतन करनेवाला तो निश्चय ही हिंसक हो गया।
हिंसा का संबंध मूलतः व्यक्ति की अपनी वृत्तियों से है। वृत्तियों के पतन से हिंसा अवश्यंभावी है। जहां वृत्ति दूषित नहीं है, वहां हिंसा नहीं होती। मैंने अपनी शुद्ध नीति से कोई काम किया। उससे पचासों व्यक्तियों को हानि हुई। बावजूद इसके, मैं हिंसा का भागी नहीं बना। उदाहरणार्थ,
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आगे की सुधि लेइ
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