Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 04
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SINST Iftamannam] [[]|| [HD] firi MIKAHI RAGHI15\|||\UARIDDHI IiHOW|10 (18TN1949 MIREONElect नमः अनन्तलब्धिनिधानाय भगवते इन्द्रभूतये । निःशेषनिर्ग्रन्थागमामरसरिहिमाचलभगवड्रीसुधर्मस्वामीसूत्रित लक्ष्मीवल्लभप्रणितटीकासमेतंगूर्जरभाषानुवादयुतं * श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ (चतुर्थो भागः) प्रकाशकः-जामनगरवास्तव्यपंडित 'हीरालाल हंसराज' इत्यस्य 'श्री जैनभास्करोदय प्रेस' इति मुद्रणालये मेनेजर वालचंद्र हीरालाल इत्येतेन मुद्रितम् विक्रमसंवत्-१९९३ पण्यं रुप्यकत्रयम् खिस्त्यब्दः-१९३० For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीजिनाय नमः॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८६॥ ॥ श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रम् भाग ४॥ भाषांतर अध्य०१५ ॥८६॥ تاناشایسنان اللبناني في حياتنا (मूलका-श्रीसुधर्मास्वामी टीकाकार-श्रीलक्ष्मीवल्लभगणी) (मूल, मूलार्थ, टीका अने टीकाना भाषांतर सहित ) ॥ अथ पंचदशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ चतुर्दशेऽध्ययने निर्निदानस्य गुणः प्रोक्तः, स च निर्निदानगुणो हि मुख्यवृत्त्या भिक्षोरेव भवति अतो भिक्षोर्लक्षणमाह ___चतुर्दश अध्ययनमा निर्निदाननो गुण कह्यो पण ते निनिंदानाख्य गुण मुख्य वृत्तिथी तो भिक्षुनेज होय माटे आ पंचदश अध्ययनारंभमां भिक्षुनांज लक्षण कहे छे.. मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्म । सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने ॥ संथवं जहिज अकामकामो अन्नायएसी परिवए जे स भिक्खू ॥१॥ (मोण चरिस्सामि) हुँ' मुनिपणु ग्रहीश (धम्म रायेच्च) धर्मने अंगीकार करीश (सहिए)बीजा स्थवीर साधुओनी साथे रहे तो होय (उज्जुकडे) माया रहित तथा (निआणछिने) नियाणारुपी शल्यने छेदीने तथा (संथ) संबंधीओना परीचयने (जइिज) तजतो For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८६२॥ B. होय तथा (अकामकामे) कामभोगनी इच्छा रहित तथा (अन्नायएसी) अशातैषी (परिब्वए) विचरे(स भिक्खू) ते भिक्षु कद्देवाय छे. उत्तराध्य व्या०-य एतादृशः सन् परिव्रजेत् , अनियतमप्रतिबद्धं यथास्यात्तथा विहरेबिहारं कुर्यात् स भिक्षुरुच्यते. स यन मूत्रम् इति कः? यः पूर्व मनस्येवं जानाति, अहं मौनं, मुनीनां कर्म मौनं साधुधर्म चरिष्यामि श्रामण्यमंगीकरिष्यामि. किं ॥ ८३२॥ कृत्वा ? धर्म दशविधं पंचमहाबतदीक्षां समेत्य प्राप्य, पुनर्यो दीक्षां गृहीत्वा संस्तवं पूर्वपश्चात्संस्तवं परिचयं कुटुंब स्नेहं जह्यात् त्यजेत्. परं कीदृशः सन् ? सहिए इति सहितः स्थविरेबहुश्रुतैः साधुभिः सहितः, साधुयेकाकीन तिष्टेत्. 'इक्कस्स कओ धम्मो' इत्युक्तत्वात्. अथवा कथंभूतः सन् ! स्वहितः सन् , स्वस्य हितं यस्य स स्वहित आत्महिताभिलाषी. पुनः कीदृशः? उज्जुकडे ऋजु सरलं कृतं मायारहितं तपो येन स ऋजुकृतः, अशठानुष्टानकारीत्यर्थः. पुनः कीदृशः ? 'नियाणछिन्ने छिन्ननिदानो निदानशल्यरहित इत्यर्थः. पुनः कीदृशः ? अकामकामो न विद्यते कामस्य कामोऽभिलाषो यस्य सोऽकामकामः कामाभिलाषरहितः. पुनः कीदृशः ? 'अन्नायएसी' अज्ञातैषी, यत्र कुले तस्य साधोस्तपोनियमादिगुणो न ज्ञातस्तत्रैषयते ग्रासादिकं गृहीतुं वांछते, इत्येवंशीलोऽज्ञातैषी. य एवंविधः स भिक्षुरित्युच्यते. अनेन सिंहतया निःक्रम्य सिंहतया विहरणं भिक्षुत्वनिबंधनं प्रोक्तं साधूनां. चतुर्भगी यथा-सिहत्ताए निक्खमंति सिहत्ताए विहरंति. सियालत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरंति. सिहत्ताए निक्खमंति सियालत्ताए विहरंति. सियालत्ताए निक्खमंति सिहत्ताए विहरंति. एवं चतुर्भग्युक्ता. तत्र सर्वोत्तमा सिंहतया निःक्रमणं सिंहतया च पालनं, तच्च यथा स्यात्तथा ॥१॥ पुनराह دعوا وعوف الوعود الفعل الفار اليمامهما For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम ॥८६३ ॥ تاحالشان الوان المالك في قناتنا الاعلانات مناوئاد जे आवो थइने परित्रज्या गृहण करे, अनियत रीते तथा प्रतिबंध रहित जेम थाय तेम विहार करे, ते खरो भिक्षुक कहेवाय; ते कोण ? जे प्रथमथी मनमां जाणे के-'हुँ मौन-मुनिनुं कर्म, साधुधर्म आचरीश, श्रमणपणानो अंगीकारकरीश.' केम करीने ? भाषांतर धर्म-दशविध पंचमहाव्रत दीक्षा पामीने-दीक्षा गृहण करीने, संस्तव आगळ पाछळना परिचय-कुटुंबस्नेह आदिकने त्यजी दीये, अध्य०१५ वळी स्थविर बहुश्रुत साधुओए सहित विचरे 'साधुये एकला न रहेg; 'एकलाने धर्म केवो ? आम कहेल छे. सहिए पदनो स्व- NE८६३ ॥ हिते पाठ मानीयेतो-पोताना हितमां वर्ती आत्महिताभिलाषी रही पुनः केवो ? ऋजु-सरल छे कृत जेतुं अर्थात् मायारहित तपः सम्पन्न; शठता रहित अनुष्ठान करनारो. वळी नियाणछिन्न छेदी नाखेल छे निदान जेणे एवो-नियाणारूपी शल्यथी रहित, तथा अकामकाम-जेने कामनी अभिलाष नथी एवो अने अज्ञातेशी जे कुलमां साधुना तपोनियमादि गुणो जणाया न होय तेवा कुलमांथी ग्रासपिंडादिकनी एषणा करवानुं जेनुं शील छे तेवो; जे उपर कहेला लक्षणोथी युक्त होय ते 'भीक्षु' एम कहेवाय. आ विवेचन उपरथी साधुए यथार्थ भिक्षुपणुं धारण करवा-'सिंहभावे नीकळी जq तथा सिंहभावेज विहार करवो' एम समनाव्युं. साधुना चार भांगां कह्यां छे; जेवां के-सिंहपणे परिव्रज्या ग्रहण करची अने सिंहपणेज पाळवी, (१). शियाळपणे दीक्षा लेवी अने शियाळपणेज पाळवी, (२), सिंहपणे दीक्षा ठेवी अने शियाळपणे पाळवी, (३), तथा शियाळपणे दीक्षा लेवी अने सिंहपणे पाळवी, (४), आ चारे प्रकारमा प्रथम प्रकार=सिंहपणे दीक्षा ग्रहण करवी अने सिंहपणेज पाळीने विहरवू; आ चारेमां श्रेष्ठ छे.१ | रागोवरयं चरिज लाढे । विरए वेयवियायरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे । कम्हिवि न मुच्छिए स भिक्खूE (लाढे) प्रधान एवो साधु (राओ वरय') राग रहितपणे [चरिज] विचरे तथा [पिरए] विरतीवाळो होय [वअवि] आगमज्ञानी तथा SHO Ro: For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ८६४॥ [थायरक्खिए] पोतार्नु दुर्गतिथी रक्षण करतो होय (पण्णी) प्राज्ञ तथा जे [अभिभूय] परिषहने सहन करी रहेतो होय तथा जे उत्तराध्य- [सव्वदंसी) सर्वने पोता जेवाज जोता होय [जे] जे(कम्हिवि)कोइने विषे(न मुछिए)मूर्छावाळो न होय(स भिक्खू)ते भिक्षु कहेवाय यनमूत्रम् ___व्या०-पुनः स भिक्षुरित्युच्यते. स इति कः ? यो रागोपरतं यथा स्यात्तथा रागरहितं यथा स्यात्तथा चरेत्. ८६४॥ परं कीदृशः सन् ? विरतोऽसंयममार्गान्निवृत्तः पुनः कीदृशः सन् ? वेदविदात्मरक्षितः, वेद्यते ज्ञायतेदर्थोऽनेनेति वेदः S सिद्धांतस्तस्य वेदनं विद् ज्ञानं वेदवित् सिद्धांतज्ञानं, तेनात्मा रक्षितो दुर्गतिपतनायेन स वेदविविदात्मरक्षितः पुनः कीदृशः? पन्ने पाज्ञो हेयोपादेयधुद्धिमान, पुनर्योऽभिभूय परीषहान् जित्वा तिष्टतीत्यध्याहारः पुनः कीदृशः? सर्व| दर्शी, सर्व प्राणिगणमात्मवत्पश्यतीति सर्वदर्शी. पुनर्यः कस्मिंश्चित्सचित्ताचित्तवस्तुनि न मूछितोऽलोलुप इत्यर्थः॥२॥ पुनः ते भिक्षु कहेवाय. ते कोण ? जे रोगोपरत राग रहित जेम थाय तेम विचरे, केवो थइने ? विरत असंयम मार्गथी निवृत्त थइने, तेमज वेदविदात्मरक्षित-सिद्धांत ज्ञानवडे दुर्गति पतनथी जेणे पोतानो आत्मा रक्षित छे एवो, वळी माज्ञ=आ वस्तु हेय-त्याज्य छे तथा आ उपादेय ग्राह्य छे; आवी विवेक बुद्धिवाळो, तथा जे अभिभूय परीषहादिकने जीतीने (स्थित थयेलो)। DEL आटलो अध्याहार छे. पुनः ते केवो ? सर्वदर्शी सर्व पाणिगणने आत्मसमान जोनारो, तथा कोइपण सचित्त अथवा अचित्त वस्तुमा odil मूर्छित लोलुप न थाय तेवो. २ आकोसवहं विदित्तु धीरे । मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते । अविग्गमणे असंपहिहे । जे कसिणं अहियासए स भिक्खू।। [आक्कोसवहं] आक्रोश थये सते [चिहत्तु] स्वकृत कर्मचें फळ छे जाणी (धीरे मुणी) धीर एवो साधु (लाढे) संयममा तत्पर तथा For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८६५॥ (निश्चं आयगुत्ते) आत्म रक्षक (चरे) विचरे, तथा [अवव्वग्गम ने] अव्यग्र अने (असंपहिले) असंप्रहृष्ट (जो) जे साधु (कसिणं) उत्तराध्य आकोशादिकने (अहिआसए) सहन करे [स भिक्खू] ते साधु कहेवाय ॥ ३॥ यन सूत्रम् व्या०-पुनः स भिक्षुरित्युच्यते. स इति कः? य आक्रोशश्च वधश्चानयोः समाहार आक्रोशवधं वाक्तजनताडनं REL ॥८६५01 विदित्वा स्वकर्मफलं ज्ञात्वा धीरस्तदाकोशवधादिसहनशीलो मुनिर्वाग्गुप्तियुक्तःसन् चरेत् साधुवम॑नि विहरेत्. पुनः कीदृशः सन् ! लाढः साध्वनुष्टाने तत्परः पुनः कीदृशः? नित्यमात्मगुप्तः, गुप्तोऽसंयमस्थानेभ्यो रक्षित आत्मा येन स गुप्तात्मा, प्राकृतत्वाद्विपर्ययः. पुनः कीदृशः? अव्यग्रमना अनाकुलचित्तः पुनः कीदृशः? असंप्रहृष्ट आक्रोशादिषु न प्रहर्षवान्, कश्चित्कदाचित्कस्मैचिद् दुर्वचनैनियति तदा हर्षितो न भवतीत्यर्थः पुनर्यः कृत्स्नं समस्तमाक्रोशवधमध्यास्ते सहते समवृत्तिर्भवति स साधुरित्यर्थः. ॥ ३॥ भिक्षु तो ते कहेवाय के जे-आक्रोश तथा वध ए बेयनो समहार आक्रोश वध कहेवाय, वाणीथी दुर्वचन कहेवां ते आक्रोश तथा ताडन-मार मारवो ते वध; ज्यारे कोइ गाळो दे अथवा मार मारे त्यारे 'आ माराज कोइ कर्मनुं फल छे' एम जाणीने धीरते आक्रोश तथा वधने सहन करवाना शीळवाळो मुनि, पोते वाग्गुप्ति=युक्त वाणीने बराबर नियममा राखीने विचरे, साधुमार्गमा विहार करे. केवो बनीने? लाढ-साधुना आचारमा तत्पर रहेतो तथा नित्ये आत्मगुप्त-पोताना आत्मानुं असंयम स्थानोथी रक्षण करतो, (प्राकृत होवाथी पदविपर्यायी छे.) पुनः ते केवो? अव्यग्रमना=जेनुं मन जराय आकुल न थाय तेवो अने पोते असंप्रहृष्ट-कदाच कोइ अन्यजनने आक्रोशादिक करे तो ते जोइने हर्षित न थतो तथा जे कृत्स्न=समस्त गाळो तथा मार वगेरेने सहन करे, ते भिक्षुक कहेवाय. For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८६६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंत सणास भत्ता । सीउण्हपि विविहं च दंसमसगं ॥ अव्वग्गमणे असंपहिछे । जे कसिणं अहियासए स भिक्खु । (पतं) निःसार एवा (सयणासणं) शयन, आसन विगेरेने ( भत्ता) भजीने (च) तथा (विविदं) विविध प्रकारना ( सी उन्हं शीत उष्ण [दंसमसमं] डांस, मच्छरादिना परिसहोने पामीने (अव्वग्गमणे) अव्यय के मन जेनुं [असंपहि] असंप्रहृष्ट [जो] जे साधु (कसिणं) ते समग्र [अहिआसर] सहन करे [स भिक्खु] ते साधु कहेबाव छे, ४ व्या० - पुनर्यः प्रांतमसारमप्रधानं शयनमासनं, उपलक्षणत्वाद्भोजनाच्छादनादिकं भजित्वा सेवयित्वा पुनः शीतोष्णं च पुनर्विविधं दंशमाशकं रुधिरपानकरं जंतुगणं सकलं प्राप्य अव्यग्रमना भवेत् स्थिरचित्तो भवेत् पुनर्यः सम्यक् शयनासन भोजनाच्छादनलाभात्, शीताद्युपद्रवरहितस्थानला भात्, तथा दंशमशकादिरहितस्थानला भादसंप्रहृष्टो भवति हर्षितो न भवति, समसुखदुःखो भवति, एतादृशः सन्नतत्सर्वमध्यास्ते स भिक्षुरित्युच्यते ॥१॥ फरीने जे प्रांत = असार अप्रधान शयन, आसन, तथा उपलक्षणथी भोजन, आच्छादान वगेरे भजीने=सेवीने तेमज शोत उष्ण तथा विविध डांस मच्छर वगेरे रुधिर पी जनारा सकळ जंतुगणने पामीने पण अव्यग्रमना=जेनुं मन व्यग्र = आकुळ न थाय एवो स्थिरचित्त होय तथा जे कोइ वखते सारं सूत्रानुं बिछानुं, आसन = बेसवानुं, उत्तम भोजन, आच्छादन ओढवानुं, मळे; शीत टाढ वगैरे उपद्रव रहित स्थान मळे तथा डांस मच्छरादि विनानुं स्थान मळे तो तेना लाभथी असंप्रहृष्ट=जराय हर्षित न थाय किंतु सुखदुःखमां समान भाववाळो होय; एवो होइने उपर कहेलां सर्वेने जे सहन करे ते भिक्षु कद्देवाय ४ नो सक्कियमिच्छई न पूयं । नोवि य बंदणगं कओ पसंसं ॥ से संजए सुब्बए तबस्सी । सहिए आयगवेसएस भिक्खु For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१५ ॥८६६ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८६७॥ [सक्किभं] सत्कारादिकनी (णो इच्छइ) इच्छा करतो न होय (पूर्व) वस्त्र [न] न इच्छतो होय (वि अ) तथा [बंदणगं] वदनने (नो) इच्छतो न होय [पसंसं ते प्रशंसाने (कओ) क्याथी इच्छे ? (सें एवो (संजए) यतनायाळो (तवस्सी) तपस्वी (सहिए) सहित भाषांतर (आयगवसेअ) गवेषणा करनार होय (स भिक्खू) ते भिक्षुक-साधु कहेवाय. ५ JE अध्य०१५ ___ व्या०-स भिक्षुर्भवेत्. स इति कः? यः सत्कृतं सत्कारमात्मनः सन्मुख जनानामागमनमभ्युत्थानादिक, विहारं ||८६७॥ कुर्वतोऽनुगमनेन संप्रेषणं, इत्यादिकं नो इच्छति. पुनर्यः पूजां वस्त्रपात्राहारादिभिरी नेच्छति. अपि च पुनवेदनक द्वादशावतपूर्वकं नमनं, तदपि न वांछति, कुतश्चित्पुरुषात्प्रशंसामपि नो इच्छति. स संयतः. सम्यग् यतते साध्वनुठाने यत्नं कुरुते इति संयतः. पुनः कीदृशः? सुव्रतः शोभनव्रतधारकः. पुनर्यः सहितः सर्वजीवेषु हितान्वेषी, अथवा ज्ञानदर्शनाभ्यां सहित: पुनर्य आत्मानं कर्ममलापहारेण शुद्धं गवेषयतीत्यात्मगवेषकः. पुनर्यस्तपस्वी. ॥५॥ तेज भिक्षु होय के जे सत्कृत-सत्कृत-सत्कार, अर्थात्-पोते ज्यां जाय त्यां महाजनोनु सामा आवq तथा उभा थइ आदर | आपत्रानु अने विहार करे त्यारे घणे दूर सूधी बळावा आवद्यु; इत्यादिकने न इच्छे. वळी जे पूजा-वस्त्र पात्रां आहार वगेरेनी अर्चा पण न इच्छे तेमज बंदनवारवार आवृत्तिपूर्वक नमन तेने पण न इच्छे, एटलुंज नहिं कोइ पुरुषने मोडेथी पोतानी प्रशंसाने पण न इच्छे ते संयत-साधु अनुष्ठान करवामां यत्नवान रहे ते संयत, तथा सुव्रत शोभन ब्रतोने धारण करे तेम सहित सर्व जीवोमां हितान्वेषी रहेनार, अथवा ज्ञान तथा दर्शनवडे युक्त-महित, अने जे कर्ममळना अपहरणवडे शुद्ध आत्मानो गवेषक रही तप आचरे ते भिक्षु.५ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JEL BEI उचराध्ययन सूत्रम् ||८६८॥ भाषांतर अध्य०१५ ॥८६ जानकाowomसीकसार जेण पुण जहाइ जीवियं मोहं वा कसिणं निअच्छइ ।। नरनारि पजहे सया तवस्सी।न य कोऊहलं उवसेवई स भिक्खू॥ (पुण) वळी [जेण] जेनाथी [जीविअं] संयमनो (जहाइ) त्याग थयो होय (वा) अथवा जेनाथी कसिणं समन [मोहं] मोहनीय कर्मनो | [निअच्छइ] बंध थाय तेम होय (तवस्वी) तपस्वी मुनि (पजहे) त्याग करे (य) जे साधु (कोऊहलं) कौतुकने(नउपसेवइ)न पामे [सभिक्खू] व्या०-यः पुनस्तं हेतुं जहाति तं कं? येन हेतुना येन कृतेन जीवितं संयमजीवितव्यं जहाति. पुनयन कृत्वा मोहं वा मोहनीयकर्म कषायनोकषायरूपं कृत्स्नं संपूर्ण नियच्छति बनाति. तादृशं नरं नारी स्त्री सदा सर्वदा प्रजह्यात्, कोऽर्थः? येन पुरुषस्त्र्यादिना कृत्वा संयमं याति, येन कृत्वा मोहकर्मोदयः स्यात् , तंप्रति यस्त्यजेत् स भिक्षुरित्यर्थः. पुनर्यस्तपस्वी तपोनिरतः, पुनर्यः कौतूहलं स्यादिविषयं, अथवा नाटकेंद्रजालादिकौतुकंन चोपसेवते, स भिक्षुरित्युच्यते. जे साधु ते हेतुने त्यजी दीये के जे करवायी जीवित संयम जीवित वजाय, तेमज ये करवाथी मोह-कषाय नोकपायरूप समग्र मोहनीय कर्मबंधन करे, तेवां नर तथा नारी-बीने सदा सर्वदा प्रकर्षे करी वजी दीये. शुं का ? जे स्त्री पुरुषादिकने लीधे संयम जाय अथवा जेना करवाथी मोहनीय कर्मोनो उदय थाय तेवांने जे त्यजे ते भिक्षु. वळी जे तपस्वी तपः परायण कौतूहल= स्त्रीआदिक विषय अथवा नाटक इंद्रजालादिक कौतुक जोवानी उत्सुकता तेने न उपसेवे, ढुकडो न जाय ते भिक्षुक कहे वाय. ६ छिन्नं सरं भोममंतरिक्खं । सुविणं लक्खणदंडवत्थुविजं ॥ अंगवियारं सरस्स विजयं । जो विजाहिं न जीवई स भिक्ख [जो] जे साधु [विजाहि] आ विद्याओवडे [न जीवह] आजीविका न करे [स भिक्खू ते भिक्षुक [छिन] छिन्न विद्या [सरं] स्वर विद्या [भोम] भौम विद्या (अंतकिक्ख) आंतरिक्ष विद्या [सुविण] स्वप्नविद्या [लक्खण] लक्षणविद्या दिंडदंडविद्या [चत्यु For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८६९॥ विज] वस्तु विद्या [अंगविआरं] अंगविकार वि० [सरस्स विजय] स्वरविजयविद्या कहेवाय छे. ॥७॥ भाषांतर __व्या०-पुनः स भिक्षुरित्युच्यते. स कः? य इत्यादिभिर्विद्याभिन जीवत्याजीविकां न करोति. ताः का विद्याः? अध्य०१५ छिद्यते इति छिन्न, वस्त्रादीनां मृषकादिना दशनं, अग्न्यादिप्रज्वलनं, कज्जलकर्दमादिना लिंपनं स्फटनमित्यादिशुभाशुभविचारसूचिका विद्या छिन्नमित्युच्यते. यदा हि वस्त्रे नूतने किंचिद्विकारे सति विचारः क्रियते, यदुक्तं-रत्नमालायां ||८६९॥ निवसंत्यमरा हि वस्त्रकोणे । मनुजाः पार्श्वदशांतमध्ययोश्च ।। अपरेऽपि च रक्षसां त्रयोंशाः । शयने चासनपादुकासु चैवं ॥१॥ कजलकर्दमगोमयलिप्ते । वासमि दग्धवति स्फटिते वा ।। चिंत्यमिदं नवधा विहितेऽस्मि-निष्टमनिष्टफलं च सुधीभिः ॥ २॥ भोगप्राप्तिर्देवतांशे नशंशे। पुत्राप्तिः स्याद्राक्षसांशे च मृत्युः ।। प्रांते सर्वाशेऽप्यनिष्टं फलं स्यात्। प्रोक्तं वस्त्रे नूतने साध्वसाधु ॥ ३॥ वनपरिधानशुभाशुभफलसूचकयंत्रम्| देवः रक्षः। देवः । इत्यादिविद्यया जीविकां न कुर्यात्स साधुः. पुनर्यः सरमिति स्वरविद्यां न प्रयुक्त, JE | मनुजः रक्षः | मनुजः | स्वरं हि-षड्जऋषभगांधार-मध्यमः पंचमस्तथा ॥ धैवतो निषधः सप्त । संत्रीकंठोद्भवाः | देवः रक्षः | देवः । स्वराः॥१॥ षड्जं रोति मयूरो । पंचमरागेण जल्पते परभृत् ।। इत्यादिविद्या इत्यादिसंगीतशास्त्रं. पुनीम, भूमौ भवं भोमं भूकंपादि. अंतरिक्षमुल्कापातादि, ऋतुं विना वृक्षादिफलनमित्यादिलक्षणा विद्या. स्वप्नं स्वमगतं शुभाशुभलक्षणं स्वप्रविद्या. लक्षणं स्त्रीपुरुषाणां सामुद्रिकशास्त्रोक्तं, तुरंगगजादीनां शालिहोगजपरिक्षादिशास्त्रोक्तं, दंडं दंडविद्या, वंशदंडादिपर्वसंख्याफलकथनं. वास्तुविद्या प्रासादानां गृहाणां विचारकथनं For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर अध्य०१५ यन सूत्रम् ॥८७०॥ ॥८७०॥ شاندار موجود वास्तुशास्त्रोक्तं. अंगविद्या शरीरस्पर्शनस्य नेत्रादीनां स्फुरणस्य वा विचारोंगविचारशास्त्रं. पुनः स्वरस्य विजयो दुर्गाशृगालीवायसतित्तरादीनां स्वरस्य विजयस्तस्य शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः. य एताभिविद्याभिराजीविकां न करोति स भिक्षुारत्यर्थः ॥७॥ भिक्षु ते कहेवाय के जे आवी विद्याओथी जीविका न करे. ए विद्याओ कइ ? छेदाय ते छिन्न कहेवाय; वस्त्रादिकने उंदर बगेरे करडे अथवा अग्निथी बळे, काजळ कादव वगेरेथी लीपाय, फाटे; इत्यादिक उपरथी शुभ अशुभ फळ कहेवू ए छिन्नविद्या कहेवाय छे. ज्यारे नवा वस्त्रमा कंइ विकार थाय ते उपर विचार कराय छे. रत्नमालामां कहेल छे के-'वस्त्रना खूणाओमां देवो वसे छे, पडखे बच्चे तथा छेडाओमां मनुष्यो अने चाकीना त्रण अंश राक्षसना छे, एवी रीते शयन आशन तथा पादुकामां पण समजवू.१' काजळ कादव छाणवडे वस्त्र लेपाय अथवा बळे किंवा फाटे त्यारे बुद्धिमाने नवप्रकारे इष्ट अनिष्ट फळनो विचार करवानो छ. २ देवाताशमा भोगमाप्ति, मनुष्याशमा पुत्रमाप्ति अने राक्षसाशमा मृत्यु थाय; माते सर्वांशमा पण इष्ट तथा अनिष्ट फळ जाणवू, आम नवा वखना विषयमा सारां नरतां फळ कयां छे वहीं वस्त्र पहेरवाना विषयमां शुभ अशुभ फळ थाय छे ते मूचनन करनाऊं यंत्र आपवामां आवे छे. । देव । राक्षस | देव । इत्यादि विद्याभोवडे आजीविका न करे ते साधु; वळी जे स्वर विद्यानो प्रयोग न करे; | मनुष्य राक्षस मनुष्य | स्वर षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत अने निषाद; आ सात स्वरो तंत्री बीणा तथा | देव राक्षस | देव | कंठथी उत्पन्न थाय छे. षड्ज स्वर मयूर बोले छे; पंचम स्वर कोयल उच्चारे छे, इत्यादि संगीत لالالالالالالالالافلاکیانفجالبكالكونج التقنا لللنا وانا For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् 5 ॥८७१॥ वगेरे पशुपक्षाना शरीर स्पर्श, मनाना दंडनी गांठो لالالالالالناع ومحاولاد ماندالانفتابفيالغلاف विद्या; भौम भूमिसंबंधी धरतीकंप घगेरे, आंतरिक्ष उल्कापातादिक, ऋतु विना वृक्षादि फळे इत्यादि विद्या; स्वमविद्या स्वप्न उपरथी शुभाशुभ फळ कहेवानी विद्या; लक्षण-स्त्रीपुरुषोनां सामुद्रिक शास्त्रमा कहेलां चिन्हो तथा शालिहोत्र तथा गजपरीक्षामां कहेलां भाषांतर घोडां तथा हाथीना लक्षण जाणवानी विद्या; दंडविद्या बांसना दंडनी गांठगे गणीने फळ कहे ते तथा वास्तुविद्या प्रासाद, घर JE अध्य०१५ वगेरेना विचारवाल्लं वास्तु शास्त्र, अंगविद्या-शरीर स्पर्श, नेत्रादिकनुं फरकवं, इत्यादि विचार, तथा स्वरनो विजय एटले दुर्गा ।।८७१॥ शीयायडी कागडो तितिर वगेरे पशुपक्षीना अवाज उपरथी शुभाशुभ फळ कहेवानो अभ्यास; आ सघळी विद्याओवडे जे आजीविका करतो न होय ते भिक्षु जाणवो. ७ आ गाथामां निरुपण करेली विद्याओनो साधुए जीविका तरीके उपयोग करवानो निषेध करवामां आव्यो छे. मंतं मूलं विविहं विजचितं । वमणविरेयणधूमनेत्तसिणाणं ॥ आउरे सरणं आयतिगच्छियं च । तं परिबाय परिब्बए स भिक्खू ॥८॥ [मंत मंत्र तथा मूलं] मुळीयां विविहं विजचित] विविधविचार तथा विमण चमन विरेअण] रेच धम] धूमाडो नित्त अंजन |DE [सिणाणं] स्नान करावq [आउरे सरणं मातादिकर्नु स्मरण करवु [च तथा [तिगिच्छत्तं] चिकित्सा करवी [तं] ते [परिण्णाय] शपरिझाए जाणीने जे साधु [परिव्वए] संयममार्गमां विचरे [स भिक्खू] ते भिक्षुक कहेवाय. व्या०-पुनः स भिक्षुरित्युच्यते. स इति कः? य एतत् सर्व परिज्ञाय परि समंताद ज्ञात्वा परिज्ञाय परिव्रजेत् साधुमार्गे चरेत, 'जाणियब्वा नो समायरियव्वा' इत्युक्तेः. एतत् किं किं ? मंत्रं ओम् हीमप्रभृतिकं स्वाहांत देवाराधनं. For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८७२॥ मूलं मूलिका राजहंसीशंखपुष्पीशरपुंखादिगुणमूचकं शास्त्रं, पुनर्विविधं नानाप्रकारं वैद्यचितं. वैद्यकशास्त्रस्यौषधचिकिउत्तराध्य-16 त्सालक्षणस्थ चिंतनं वर्जयेत्, विदलं शूली कुष्टी मांसं ज्वरी घृतमित्यादि. पुनर्वमनं वमनादिकरणोपायं, अथवा वमयन सूत्रम् नफलं, ज्वरादौ वमन श्रेष्टं, तथा विरेचन विरेचगुणकथनं तदौषधप्रयोगचिंतनं, धूमो मनःशिलादिसंबंधी भूतत्रासना॥८७२।। दिकः, नेत्रशब्देन नेत्रसंस्कारकं गुटीचूर्णादिकं, स्नानमपत्यार्थ मंत्रौषधीभिः संस्कृतजलैमूलादिस्नानं, अथवा रोगमुक्तस्नानं वा. पुनरातुरे इति आतुरस्य रोगादिपीडितस्य हा मातरित्यादिस्मरणं, आत्मनश्चिकित्सितं रोगप्रतिकारचिंतनं परित्यजेत्. एतत्सर्व परिज्ञायात्मनः परस्य वोभयथा परिव्रजेत्, साधुमार्ग यायादित्यर्थः ॥ ८॥ भिक्षु तो ते कहेवाय के जे-आ (कहेवाशे ते) सघळु यथावत् जाणीने परिव्रजे-साधुमार्गे विचरे. 'जाणवू पण आचरवू नहिं' | एम कहेल छे तेथी. हवे शुं शुं न करवू? ते कहे छे-मंत्र-ओह्रीं वगेरे स्वाहांत देवाराधन; मूळ राजहंसी, शंखपुष्पी, शरपुंखा, Ra इत्यादिना गुणोनुं सूचन करनारुं शास्त्र; वळी विविध प्रकार वैद्यचितन औषधि चिकित्सा आदिक, शूळरोगवाळाए दाळ न खावी, कुष्ठीये मांस न खावू, ज्वरवाळाए घी न खावू इत्यादि विचारने वर्जबा. तेमज वमन-चमन करवाना उपाय तथा तेनुं फळ, 'ज्वरादिकमां वमन सार' इत्यादि, तथा विरेचन रेचनना गुणो कहेवा तेम तेनां औषधोना प्रयोग विचारवा, धूम-भूत भगाडवा माटे मणसल वगेरेना धूप देवा, नेत्र शब्दे करी नेत्रने सारी करनार गोळी चूर्ण-सुरमो वगेरे, तथा स्नान-छोकरां थवा माटे मंत्र तथा औषधिथी संस्कार करेल जलवडे न्हावू, अथवा रोगमुक्त थया पछीनुं माथे पाणी नाखवानुं स्नान, वळी आतुर रोगादि पीडितने 'हे मा!' इत्यादि स्मरण तथा आत्मा-पोतानु चिकित्सित-रोगना उपाय, चिंतन; आ सघळ पोतानु तथा परनुं सारी रीते जाणीने For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८७३॥ भाषांतर अध्य०१५ ॥८७३॥ ज्ञपरिज्ञाथी जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञावडे वर्जीने परिव्रजन करे=पाधुमार्ग संचरे. ८ खत्तिगणउग्गरायपुत्ता । माहण भोइय विविहा य सिपिणो॥ नो तेसि वयह सिलोगपूइयं । तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ९॥ खित्तियगण उग्गरायपुत्ता] क्षत्रि राजाओ मल्लो, रक्षको अने राजकुमारो [माहण] ब्राह्मण [भोइम] भोगवाळा मंत्री [विविहा] विविध प्रकारना [सिप्पिणो] शिल्पीओ [तेसि] आ सर्वेनी [सलोगपू] प्रशंसाने [नो पयह कहेवी नहि [त] ते सर्वेने [परिन्नाय] जाणीने | [परिब्बए] संयममार्गमा विचरे [स भिक्खू] ते भिक्षुक. ९ व्या०–स भिक्षुरित्युच्यते. स इति कः? यस्तेषां गाथोक्तानां श्लोकः कीर्तिर्यथा, एते भव्याः पूज्या इति, एते पूजायोग्याः, एतेषां पूजा कर्तव्या, एतेषां कीर्तिकरणे, एतेषां पूजाया उपदेशे च न कश्चिल्लाभः स्यात् , साधुनेतेषां कीर्तिपूजे न कर्तव्ये इत्यर्थः एते के के? ये क्षत्रिया राजानः, तथा गणा मल्लादीनां समूहाः, पुनरुग्राः कोपाला, राजपुत्रा राजकुमाराः, ब्रह्मणाः प्रसिद्धाः, भोगिनो भोगवंशोद्भवाः, अथवा भोगिनो विषयभोक्तारः, च पुनर्विविधा नानाप्रकाराः शिल्पिनश्चत्रकारसूत्रधारस्वर्णकारलोहकारादयो ये वर्तते, तान् परिज्ञायोभयथा ज्ञात्वा साधुः साधुमार्गे परिव्रजेत्॥९॥ ते खरो भिक्षु कहेवाय के जे आ गाथामां कहेलानी कति जेम के--'आ भव्य छे तथा पूज्य छे, ए पूजवा योग्य छे एनी | पूजा करवी जोइए' इत्यादि एओनी कीर्ति करवामां तेमज एओनी पूजाना उपदेशमां साधुने कोइ लाभ नथी; माटे साधुए एम कोइनी श्लाघा वखाण अथवा पूजा कशुं करवू न जोइए ए कोण कोण ? क्षत्रिय राजाओ, गण-मल्ल वगेरेना समूहो, उग्र-कोट For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir बाळ वगेरे, राजपुत्र राजकुमारो, ब्राह्मणो, भोगी वैभवीवंशमा जन्मेला, अथवा विषयो भोगवामां परायण रहेनारा, तथा विविध उत्तराध्यप्रकारना शिल्पजनो कारीगरो, चित्रकार, सुतार, सोनी, लुहार वगेरे; ए तमामने चे प्रकारे जाणीने अर्थात्-ज्ञपरिज्ञाथी जाणी मत्या भाषांतर यन सूत्रम् 16 ख्यान परिज्ञावडे वर्जीने साधुमार्गे विचरे ते भिक्षु.९ अध्य०१५ ॥८७४॥ गिहिणो जे पन्वइएण दिहा । अप्पम्बईएण च संयुया हविजा । तेसि इह लोइयफलहा । जो संघवं न करइ स भिक्खूundl ११८७४॥ [जे जे [गिहीणो] गृहस्थीमोने [पम्बइएण] प्रवज्या लीधा पछी [दिहा] जोया होय [य] अथवा [अप्पम्बइपण] प्रवज्या लीधा पहेलां BEL [संथुआ] परिचय करेला [हविजा) होय [तेसि] ते गृहस्थीओ साथे [इहलोइअफलट्ठा) मा लोकना फळना अर्थे [जो जे साधु [संथवं] परिचपने [न करे न करे [स भिक्खू] ते भिक्षुक. १० यस्तैहस्थैः सह इहलोकफलार्थ संस्तवं परिचयं न करोति, प्राकृतत्वात् तेसिमिति तृतीयास्थाने षष्ठी. तेहस्थैः कः? ये गृहस्थाः परिव्रजितेन गृहीतदीक्षेण दृष्टाः चशब्दः पुनरर्थे. पुनरप्रव्रजितेनाऽगृहीतदीक्षेण गृहस्थाश्रस्थितेन संस्तुताः कृतपरिचयाः स्युः, तैः सहालापसंलापमिहलोकस्वार्थाय न कुर्यात् , स साधुरित्यर्थः ॥१०॥ जे साधु ते गृहस्थोनी साथे आलोकसंसंधी फळने अर्थ संस्तव-परिचय करतो नथी.(अहीं माकृत होवाथी तृतीयास्थाने षष्ठी विभक्ति .) ते केवा गृहस्थो ? जे गृहस्थो परिबजित-दीक्षा ग्रहण करीने दीठा होय; 'च' शब्द 'पुनः'ना अर्थमां छे तेथी-वळी ज्यारे प्रबजित न हतो. एट ले दीक्षा ग्रहण करी नहोती पोते गृहस्थाश्रममां वर्ततो हतो त्यारे-जे जे गृहस्थोनी साथे परिचय कर्यो होय तेओनी साथे आ लोकनो स्वार्थ साधवा आलाप भाषण तथा संलाप-कंई सारु लगाडवानां वाक्योना उच्चार न करे ते साधु खरो भिक्षु कहेवाय, For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८७५॥ जं किंचि आहारपाणगं । विविहं खाइमसाइम परेसि लधुं ॥ जोतं तिविहेण नाणुकंपो । मणवयणकायसुसंयुडे न स भिक्खू ॥ ११ ॥ JEभाषांतर [सयणासणपाणभोअण] शयन, आसन, पान, भोजन, तथा [विविह] विचित्र प्रकारनु खाइम साइम] खादिम अने स्वादिमःए वस्तु अध्य०१५ ओने [अदप] नहि देता एवा [परेसि] गृहस्थीओए (पडिसोहिए] माग्या छतां निषेध करायो एवो जे निय] साधु [तत्थ] ते | |८७५॥ नही देनार उपर [न पदूसर] द्वेष न करे [स भिक्खू] ते भिक्षुक. ११ ___व्या०–स भिक्षुर्न भवति. म कः? यः परेसि इति परेभ्यो गृहस्थेभ्य आहारमन्नादिकं, पानकं दुग्धादिकं, पुनविविधं नानाप्रकारं खादिम खजूरादिकं, स्वादिम लवंगादिकं लब्ध्वा, तमिति तेनाशनपानखादिमस्वादिमादिना चतुविधेन, त्रिविधेन मनोवाकाययोगेन नानुकंपते, ग्लानयालादीनोपकुरुते. कोऽर्थः? योऽशनपानखादिमस्वादिमाहारं लब्ध्वा बालवृद्धानां साधूनां तेनाहारेण संविभागं न करोति स साधुन भवतीत्यर्थः, 'असंविभागी नहु तस्स मोक्खं' इत्युक्तेः. पुनः साधुः कीदृग्भवति ? मनोवाकाययोगेन सुतरां संवृतः पिहिताश्रवद्वारः ॥ ११ ॥ ते भिक्षु न कहेवाय. कोण ? जे जे परगृहस्थोथी, आहार अन्नादिक, पानक-द्ध आदिक, वळी विविध नाना प्रकारनां खादिम-खजूर वगेरे खावाना पदार्थो तथा स्वादिम स्वादिष्ट लवींग वगेरे पामीने ते अशनपान खादिम स्वादिमादिक चतुर्विध वस्तुओवडे, मन वाणी तथा कायाए करीने अनुकंपा न करे, अर्थात् गृहस्थो पासेथी मळेला ए पदार्थोमांथी चाळ तथा वृद्ध साधुओने संविभाग न आपे ते साधु न कहेवाय, को छे के–'जे पुरुष पोताने मळेला पदार्थोमांथी सत्पात्रीने विभाग नथी आपतो For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८७६॥ तेने मोक्ष मळतो नथी.' माटे साधु मन वाणी तथा कायाना योगे करी संत आश्रय द्वारर्नु आवरण करी वर्ते. ११ सयणासणपाणभोयणं । विविहं ग्खाइमसाइम परेसि ।। अदए पडिसेहिए निअंठे । जे तत्थ न पउस्सई स भिक्खू॥१२ भाषांतर [ज किचि जे काइ थोडु पण [आहारपाण] आहार पाणी तथा [विविह] विविध प्रकारनु [खाइमसाइम] खादिम अने स्वादिम Deअध्य०१५ [परेसिं गृहस्थीओ पासेथी (लधु) पामीने (ज) जे साधु [त] ते आहारादिकवडे [तिविहेण] त्रण प्रकारे [नाणुकंपे] उपकार करे 11८७६॥ नहिं परंतु [भणवकोयसु संवुडे मन, वचन, अने कायावडे उपकार करे (स भिक्खू) ते भिक्षुक. १२ __व्या०-पुनर्थः शयनासनषानभोजनं, पुनर्विधं खादिमस्वादिम, परेण गृहस्थेनादत्ते, अथवा गृहे साधौ प्रतिषिद्धे सति तस्मिन् गृहस्थे प्रदेषं न करोति, न प्रवेष्ठि. कोऽर्थः? यदा कश्चित्साधुः कस्यचिद् गृहस्थस्य गृहे गतस्तस्य च गृहस्थस्य गृहे प्रभूतं शयनं शय्या, चाशनं मोदकादिकं, पानं खजूरद्राक्षादिपानीयं, शर्करादिजलं, प्रासुकं तंडुलप्रक्षालन| जलं या, भोजनं तंडुलदाल्यादि, पुनर्विविधं नानाप्रकारं खादिम खजूरनालिकेरगरिकादिकं, स्वादिम लवंगलाजाति फलतजादिकं वर्तते, परं स गृहस्थः साधवे न प्रददाति, अथवा पुनर्निवारयति, यथा रे भिक्षो ! अत्र नागंतव्यमिति | तद्वाक्यं श्रुत्वेति न जानाति, धिगेनं गृहस्थं दुष्टं, यः प्रभूते वस्तुनि सति मह्यं न ददाति, अथ च मां निवारपतीति | द्वेष न विधत्ते, स निग्रंथः साधुभिक्षुरित्युच्यते. ॥ १२ ॥ वळी जे निग्रंथ साधु, शयन आसन पान भोजन तथा विविधप्रकार खादिम तथा स्वादिम पदार्थों परगृहस्थे पाताने न दोधा अथवा साधुने प्रतिषेध को तो पण ते गृहस्थना उपर प्रदेष न करे. शुं का? ज्यारे कोइ साधु गृहस्थने घरे तेणे पुष्कळ शयन कापUCbDEOJULD DDLODJAUDDCDDE For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८७७॥ बिछानां, अशन-मोदकादिक, पान-खजूर दाक्षा वगेरेनां पानक, साकरतुं जळ शरबत अने प्रामुक चौखानुं धोण, भोजन भात उत्तराध्य-१५ दाळ वगेरे तेमज नानाप्रकारना खादिम खजूर तथा नाळीयेरनां टोपरां वगेरे तथा स्वादिम लवींग एळची जायफळ तज आदिक यन सूत्रम् पडयु होय. पण ते गृहस्थ साधुने दीये नहि अथवा वळी रे भिक्षो? अहीं क्या आव्या चाल्या जाओ' आम कही निवारे निषेध ॥८७७|| करे तो ते वाक्य सांभळीने साधु मनमा एम न लावे के-'आ दुष्ट गृहस्थने धिक्कार छे जे आटआटलां वस्तुओ पड्या छे छतां मने कंइ नथी आपतो एटलुंज नहिं पण उलटो मने निवारे छे' आवो विचार लइ प्रवेष करे ते भिक्षुक कहेवाय छे. १२ । आयामगं चेव जवोदणं च । सीयं च सोवीरजवोदगं च ।। नो हीलए पिंडं निरसं तु । पंत कुलाई पविए स भिक्ख।। [आयामग] धान्यनु ओसामण [चेव] तथा [जवोदण च] यवनु भोजन [सी] शीतल भोजन [च तथा (सोवीरजवोदग) कांजी EET तथा यवनु धोयेल पाणी [नीरसं तु] नीरस पवा पण [पिड] पिंडनी जे साधु [नो हीलए] हीलना न करे, [पतकुलाणि] निधन। मनुष्योना कुळमा [परिव्वए] गोचरी माटे अटन करे [स भिक्खू ते भिक्षुक. १३ व्या-या प्रांतानि कुलानि परिव्रजेत् , प्रांतानि दुर्यलानि, चित्तवित्ताभ्यां दुर्बलानि, एतादृशानि कुलान्याहारार्थ परिव्रजेत् , सर्वदा धानिनामेव कुलेषु यो न याति, सर्वदा दानशौंडानामेव कुलेषु न याति, ततो हि नियतपिंड| सेवनात्साधोधर्महानिः स्याद्. तु पुनर्य आयामकं धान्यास्याऽवश्रवणं, च पुनर्यवोदनं यवभक्त, पुनः शीतं चिरकालीनं. पुनः सौवीरं कांजिक, पुनर्यवोदकं यवप्रक्षालनजलमित्यादिकं, पुनर्यन्नीरसं पिंडं सर्वथा रसवर्जितमेतादशमाहारं पानीयं गृहस्थानां गृहाल्लब्धं यो न हीलयेन्न निदेत् , कदन्नमिई, कुत्सितं पानीयमेतदित्यादिवचनं न ब्रूते, स साधुभिरित्युच्यते.॥ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१५ ॥८७८॥ जे प्रांत कुलोमां विचरे, अर्थात्-चित्तथी तथा वित्तथी दुर्बळ होय तेवां कुळोपां आहार माटे विचरे, धनवान् गृहस्थोनांज उत्तराध्य-DE JE कुलोमां सर्वदा न जाय तेम दानमां कुशळ=उत्साहवाळा होय तेवा गृहस्थोने त्यां हमेशां भिक्षार्थ न विचरे. एका ठेकाणेथी नियत । यन सूत्रम् आहार सेवबाथी साधुने धर्महानि थाय छे. वळी जे आचामक=धाननु अवश्राण ओसाण तथा यवोदन यवनो भात ते पण शीत, ॥८७८॥ घणा वखतथी राधेलं ठरी गयेक होय तेवु तथा सौवीर कांजी तथा यबोदक यवतुं धोण; आवां जे नीरस पिंड-सर्वथा रसवर्जित आहार तथा पाणी वगेरे गृहस्थने घरेथी मळे तेने जे साधु हीलन=निंदा न करे, 'आ तो खराब अन्न छे.' 'आ पाणी कुत्सित छ' एवां वचन न बोले ते साधु भिक्षु कहेवाय छे. १३ सदा विविहा भवंति लोए। दिव्वा माणुस्सया तहा तिरिच्छा ॥ भीमा भयमेरवा उराला । जे सुच्चा न विहजइ स भिक्खू [लोए] आ लोकने विषे [दिव्या] देव संबंधी [तहा] तथा [तिरिच्छा तिर्यच संबंधी विविहा] विविध प्रकारना [भयमेरवा] भयवडे भैरव उत्पन्न करनारा [उराला मोटा [सहा] शब्दो [भवंति थाय छे. [जो जे साधु [सुधा] सांभळीने [न विहिजर बाक न पामे [सभिक्खू ते मिक्षुक. १४ ___व्या०-य एतादृशान् शब्दान् श्रुत्वा न विहज्जइ न व्यथते, धर्मध्यानान्न चलते स भिक्षुरुच्यते. एतादृशान् कीदृशान् ? ये शब्दा लोके दिव्याः. दिवि भवा दिव्याः, देवैर्भयाय कृताः, पुनर्ये शन्दा मानुष्यका मनुष्यैः कृता भानुष्यकार, तथा ये शब्दास्तिरश्चीनास्तैरश्चास्तिर्यग्भ्यो भवास्तिरश्चीना भवंति, तान् श्रुत्वा न क्षोभं प्रामोति. कीदशा शब्दाः? भयभैरवाः, भयेन भैरवा भयभैरवाः, अत्यंतसाध्वसोत्पादकाः. पुनः कीदृशाः ? उदारा महंतो भवंति.॥१४॥ paduDUCjdUJA Septeणकाजक For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥८७९॥ भाषांतर अध्य०१५ ।।८७१॥ जे आवा शब्दोने सांभळीने व्यथा न पामे-धर्मध्यानथी चलित न थाय ते भिक्षु कहेवाय. केवा शब्दो? जे शब्दो लोकमां दिव्य एटले देवोये भय देवा करेला, वळी मानुष्यक-मनुष्योए करेला, तथा जे शब्दो तिर्यमाणि पशुपक्ष्यादिके करेला; एवा ते शब्दोने सांभळीने जे जराय क्षोभ न पामे; केवा शब्दो ? भयबडे भैरव गभरावी नाखे तेवा तथा उदार महोटा होय तेवा. १४ . वायं विविहं समिञ्च लोए। सहिए खेदाणुगए य कोविअप्पा ॥ पन्ने अभिभूय सब्बदंसी। उवसंते अविहेडए स भिक्खू॥ [लोए] लोकोने विषे [विविह] भिन्न भिन्न [वाय] वादने [समिञ्च] जाणीने जे साधु [सहिए] चारित्र सहित [खेदाणुगए अ] संयमयुक्त तथा [कोविअप्पा] कोविद तथा [पण्णे] प्राज्ञ तथा [अभिभूय] उपलोंनो पराभव करीने (सम्पदसी) सर्व प्राणी वर्गने पोता समान जोनार तथा [उपसंते] उपशांत [अविहेडए] कोइने बाधा करनार थाय नहि [स भिक्खू] ते भिक्षुक. १५ ____ व्या०-य: पुनर्लोके विविधं वादं समेत्य अविहेठको भवेत् , कस्यचिद् वाधको न भवेत् , कस्यचित्पक्षपात न कुर्यात्. लोके हि यहनि दर्शनानि संति, ते परस्परं वादं कुर्वति, अन्योन्यं मतं दषयंति, मुंडा जटाधारिभिः, नग्ना वस्त्रधारिभिः, गृहस्था वनवासिभिः, इत्यादिस्वस्वमताभिप्रायवचनरूपं वादं कृत्वा कस्यापि याधां न कुर्यादित्यर्थः. कीदृशो यः? सहितो ज्ञानदर्शनचारित्रसहितः, पुनः कीदृशः? खेदानुगतः, खेदयति मंदीकरोति कर्मानेनेति खेदः | संयमः, तेनानुगतः खेदानुगतः सप्तदशविधसंयमरतः. पुनः कीदृशः? कोविदात्मा, कोविदो लब्धशास्त्रपरमार्थ आत्मा यस्येति कोविदात्मा. पुनः कीदृशः? प्राज्ञः प्रकर्षेणान्येभ्य आधिक्येन जानातिती प्राज्ञः सारबुद्धिमान्. पुनः कीदृशः? अभिभूय सर्वदर्शी, अभिभूय परीषहान् जित्वा रागद्वेषौ निवार्य सर्वजंतुगणमात्मसदृशं पश्यतीत्येवंशीलः सर्वदर्शी. For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१५ 11८८०॥ BE पुनः कीदृशः ? उपशांतः कषायरहितः स्यात् , स भिक्षुरित्युच्यते ॥१५॥ उत्तराध्य- 6 जे साधु लोकमां विविध प्रकारना वादने जाणीने कोइनो पण अवहेडक-बाधक न थाय; कोइनो पक्षपात न करे. लोकमां यन सूत्रम् घणांय दर्शनो छे ते परस्पर वाद करे छे अने एक बीजानां मतोमां क्षण आपे छे. मुंडा जटाधारिओ साथे, नग्न रहेनारा वस्त्रधारि11८८०॥ योनी साथे, गृहस्थो वनवासियोनी साथे; एम सर्वे पोतपोतानां मतना अभिप्रायवाळां वचनोपन्यासरुप वाद करे छे तेम वाद करे JEपण कोइने बाधा न करे. ए साधु सहित ज्ञान दर्शन चरित्र ए रत्नत्रये सहित बळी खेदानुगत=जेनाथी कर्म खिन्न मंद थाय ते खेद एटले संयम, तादृश संयमे अनुगत, अर्थात् सप्तदशविध संयममां निरत, वळी कोविदात्माकोविदलब्ध छे शास्त्रनो परमार्थ जेणे एवो के आत्मा जेनो ते कोविदात्मा, तथा माज्ञ=प्रकर्षथी अन्यना करतां अधिकताथी जाणनार=सार बुद्धिमान् तेमज परीषहोने | जीतीने रागद्वेषादि दोषने निवारी सर्व पाणिगणने आत्म सदृश जोवानुं शीळ जेने छे तेवो सर्वदर्शी तथा उपशांत कषाय रहित होय ते भिक्षु कहेवाय. १५ असिप्घजीवि अगिहे अमिते । जिइंदिए सव्वओ विप्पमुके॥ अणुकसाई लहु अप्पभक्खी । चिच्चा गिहं एग चरेस भिक्खु तिबेमि ॥ १६ ॥ जे साधु [असिप्पजीवी] शिल्पवडे भाजीविकानु पोषण करनार न होय तथा [अगिहे] श्री आदिकना परीचयची विरक्त [अमित्ते] JEE मित्र अने शा रहित तथा [जिइ दिए] जितेंद्रिय होय तथा [रावओ] सर्व प्रकारे परिग्रहथी [विप्पमुक्के] विरक्त (अणुकसाइ) अल्प कषायवाळो (लहुअप्पभक्खी) अल्प भोजन करनार होय तथा [गिह] घरनो [चिच्चा] त्याग करीने जे साधु [एगचरे] विचरे (स भिक्खू) ते भिक्षुक कहेवाय. १६ For Private and Personal use only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie उत्तराध्ययन सूत्रम ॥८८१॥ भाषांतर अध्य०१५ ॥८८१॥ व्या०–स भिक्षुर्भवेत् , स इति कः ? यो गृहं द्रव्यभावभेदेन द्विविधं त्यक्त्वैक एकाकी रागद्वेषरहितोऽसहायो वा चरतीत्येकचरः स्यात्. कथंभूतः सः? अशिल्पजीवी शिल्पेन विज्ञानेन जीवते आजीविकां करोतिती शिल्पजीवी, न शिल्पजीवी अशिल्पजीवी, चित्रकरणादिविज्ञानेनाजीविकां न करोतीत्यर्थः. पुनः कीदृशः? अगृहो न विद्यते गृहं यस्य सोऽगृहः स्त्रीपरिचयरहितः, अथवा गृहस्थैः सह परिचयरहितः. पुनः कीदृशः ? अमित्रः शत्रुमित्ररहितः, पुनः कीशः जितेंद्रियः, पुनः कीदृशः ? सर्वतो विप्रमुक्तो बाह्याभ्यंतरसंयोगाद्विप्रमुक्तः सर्वपरिग्रहरहितः पुनः कीदृशः ? अणुकषायो मंदकषायीत्यर्थः पुनः कीदृशः? लघ्वल्पभक्षी, लघूनि निःसाराणि वल्ल चणकनिःपावककुलत्थमाषादिषासुकाहाणि, तानि स्तोकानि भक्षितुं शीलं यस्य म लघ्वल्पभक्षी नीरसस्तोकाहारकारीत्यर्थः. अथवा लघु प्रासुकं च | तदल्पं च लघ्वल्पं तदाहारं भक्षितुं शीलं यस्य स लघ्वल्पभक्षी. अथवा लघुः क्षीणकर्मा स चासावल्पभक्षी च लघ्वल्पभक्षी, इत्यहं ब्रवीमीति सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं पाह. ॥ १६ ॥ इति भिक्षुलक्षणाध्ययनं पंचदशं संपूर्ण. ॥१५॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां भिक्षुलक्षणा| ध्ययनं पंचदश संपूर्ण. ॥१५॥ भिक्षु तो ते कडेवायके जे-द्रव्य तथा भाव एका भेदथी बेय प्रकारना घरने त्यजीने एकाकी रागद्वेष रहित, अथवा असहाय रहीने विचरे, वळी अशिल्प जीव-चित्रकळा आदि शिल्प उपर जीविका न चलावनारो तथा अग्रः स्त्री परिचय रहित, अथवा गृहस्थनी सा परिचय नहि राखनारो तथा शत्रु मित्र रहित जीतेन्द्रीय अने बाह्य अभ्यंतर बेय प्रकारना संयोगथो विमुख, सर्व परि For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ل ال उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८८२॥ شالية السفاننا ننلليالينا भाषांतर अध्य०१६ 11८८२॥ بالاسنان ميانفوندانش ग्रह रहीत अण कपास मंद कपाय वळी वाळ चणा, कळफी, अडद, विगेरे निःसार अल्प भोजन करवावाळो अर्थात् रसरहित स्वल्प आहार करनारो अथवा कर्म खमाववा अल्पभक्षी होय ते भिक्षु एम हुँ कहुं छु (आम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने का) १६ | अहिं भिक्षु लक्षण नामन पंदरम अध्ययन पुरूं थाय हे. ॥ अथ षोडशमध्ययनं प्रारभ्यते ॥ अथ षोडश अध्ययन ब्रह्मचर्य समाधीनुं आरंभाय छे. पंचदशेऽध्ययने हि भिक्षुगुणा उक्ताः, ते भिक्षुगुणा हि ब्रह्मचर्ययुक्तस्य साधोभवंति. अतःषोडशेध्ययने ब्रह्मचर्यस्य समाधिस्थानान्युच्यते पंचदश अध्ययनमां भिक्षुना गुणो कह्या पण ए भिक्षु गुणो तो ब्रह्मचर्य युक्त साधुओमां होय माटे आ षोडश अध्ययनमा ब्रह्मचर्यनां समाधिस्थानो कहेवाय छे. सुयं मे णाउसंतेणं भगवया एकमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता, जे भिक्खू सुच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमते विहरिज।। [सुधर्मास्वामी जंवूस्वामी प्रति कहे छे. हे आयुष्मन् ! ते भगवान-तीर्थकरे पम भाण्यात कथित छे ते में सांभळ्यं छे। जे-आ जैनशासनमा भगवान् स्थविरोए दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान प्राप्त निरुपित छे; जे [स्थानोने] भिक्षु सांभळी, मनमा निश्चित करी बहु संयमवान्, बहु संवरशीळ तथा बहु समाधियुक्त, तेमज गुप्त अने गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचये रद्दी सदा विहरे १ تناول الثالث من الفنانات الفالي اله For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८८३॥ भाषांतर अध्य०१६ Je|८८३॥ الانتاج والنعناع والبكاقعی شعر साकीDODADDLE व्या०-श्रीसुधर्मास्वामी स्वशिष्यं जंबूस्वामीनं प्राह-हे आयुष्मन् ! मे मया श्रुतं, तेणं इति तेन भगवता ज्ञानवता तीर्थकरेणाख्यातं, श्रीमहावीरेण स्वामिनोक्तं, आसन्नत्वात्तस्यैव ग्रहणं. पुनरिह श्रीजिनशासने स्थविरगणधरैर्भगवद्भिर्माहात्म्यवद्भिस्तीर्थकरोक्तार्थधारणशक्तिमद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानान्युक्तानि, ब्रह्मचर्यस्य कारणान्युक्तानि. कोऽर्थः ? ममैवैषा बुद्धिर्नास्ति. किंतु तीर्थकरैः पुनर्गणधरैर्गौनमादिभिः स्वापेक्षया वृद्धैरेवमुक्तं, तथैव मयोच्यते. यानि ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि भिक्षुः श्रुत्वा शब्दतः श्रवणे धृत्वा, निशम्यार्थतो मनस्यवधार्य संयमबहुलः सन् , बहुल:प्रधानप्रधानतरस्थानप्राप्त्योत्तमः संयमो यस्य म बहुलसंयमो वर्धमानपरिणामचारित्रः सन् विहरेत. पुनर्यानि ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि श्रुत्वा संवरबहुलः, संवर आश्रवनिरोधः, स बहुलो यस्य स संवरबहुलः, प्रधानाश्रवद्वारनिरोधः, पुनः समाधिबहुलो बहुलसमाधिः प्रधानचित्तस्वास्थ्ययुक्तः सन् विहरेत.पुनर्यानि ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि श्रुत्वा भिक्षुर्गुप्तो. मनोवाक्कायगुप्तियुक्तः गुप्तेंद्रियः सन् , अत एव गुप्तं नवगुप्तिसेवनाद्गुप्त सुरक्षितं ब्रह्म चरितुं सेवितुं शीलं यस्य स गुप्तब्रह्मचारी स्थिरब्रह्मचर्यधारकः सन् सदा सर्वदाऽप्रमत्तोऽप्रमादी सन् विहारं कुर्यात. यतो हि पूर्व यः साधुब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि शृणोति स साधुब्रह्मचर्यपालने स्थिरो भवति. यदुक्तं-सुच्चा जाणड कल्लाणं । सुच्चा जाणइ पावगं ॥ उभयपि जाणइ सोचा । जं सेयं तं समायरे ॥ १॥ इति श्रुत्वा जंबूः प्राह श्री सुधर्मास्वामी पोताना शिष्य जंबूस्वामीने कहे छे-हे आयुष्यमान् ! ते भगवान ज्ञानवान् तीर्थकरे एम आख्यात कथित छे, महावीरस्वामीए कहेल छे. (सन्निहित होवाथी तेनुंज गृहण कराय छे.) के-अहीं जिनशासमां स्थविर अर्थात् तीर्थकरोये कहेला अर्थोनुं धारण करवानी शक्तियाळा महात्म्यशाळी भगवान् गणधरोए दश ब्रह्मचर्य समाधि स्थानो कहेलां छे-ब्रह्मचर्यनां कारणो For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१६ ॥८८४॥ कहेलां छे | कडं? आ केइ मारीज बुद्धि नथी किंतु मारी अपेक्षाये घणाज वृद्ध एवा तीर्थकरोये तथा गौतमादि गणधरोए आम उत्तराध्य- कहेलुं छे अने हुं पण तेज प्रमाणे तमने कहुं छु; जे ब्रह्मचर्य समाधिस्थानोने भिक्षु, सांभळीने-शब्दरुपे श्रवणेद्रियमां धारण करीयन सूत्रम् तेमज अर्थबोधपूर्वक मनमां समजीने संयम बहुल जेनो संयम बहुल-अर्थात् प्रधान प्रधानतर इत्यादि स्थान प्राप्तिथी उत्तमताने पाम्यो ||८८४॥ होय तेवो एटले वधतुं जतुं छे परिणम जेनु एवा चरित्रवाळो बनी सर्वत्र विहरे; वळी जे ब्रह्मचर्य समाधिस्थान सांभळीने संवर बहुल-संवर एटले आश्रवनो निरोध, ते जेने बहुल-वृद्धिगत थयो होय ते संबर बहुल अर्थात्-प्राधानाश्रव द्वारनिरोध युक्त थयेलो तथा समाधि बहुल-बहुल समाधि, अर्थात्-प्राधान्ये करी चित्तनी स्वस्थतायुक्त बनेलो थइने विहरे. वळी जे ब्रह्मचर्य समाधि स्थानोने सांभळी भिक्षु गुप्त मन वाणी तथा कायानी त्रिविध गुप्तिथी युक्त थाय तथा सर्व इन्द्रियोनी गुप्तिमा समर्थ थाय अने एवी रीते नवगुप्तिना सेवनथी जेनुं ब्रह्मचर्य सेववानुं शीळ सुरक्षित थयुं छे एवो, अर्थात् स्थिर ब्रह्मचर्यनो धारक बनी सदा सर्वदा अप्रमतजराय प्रमाद न करतां विहार करे. कारण के-पूर्वे जे साधु ब्रह्मचर्य समाधिस्थानो सांभळे तेज साधु ब्रह्मचर्य पालनमां स्थिर थाय, काछ के-'सांभळीने कल्याण जाणे तेम पापकने पण सांभळीने जाणे; उभयने पण श्रवण करीने जाणे छे पछी जे श्रेयः सारु JE होय तेनुं आचरण करे.'१ए प्रमाणे सांभळीने जंबू पूछे छे-- कयरे खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता? जे भिक्खू सुच्चा निसम्म संयमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा. ॥२॥ र भगवान् स्थविरोये दश ब्रह्मचर्य समाधि-स्थान प्रज्ञापित करेला छे ते क्या? के जे मिक्ष सांभळी समजी संयमबहुल, संवर. For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१६ ॥८८५॥ बहुल तथा समाधिबहुल थइ तेमज गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचर्य बनी सदा अप्रमत्त रही विहरे. २ उत्तराध्य व्या०-हे स्वामिन् ! यानि ब्रह्मचर्यस्थानानि भिक्षुः साधुः शब्दतः श्रुत्वा, अर्थतो हृयवधार्य संयमबहुलः संव रबहुलः सामाधिबहुलो गुप्तो गुप्तेंद्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमादी विचरेत् , तानि खलु निश्चयेन काराणि कानि यन सूत्रम् BEll ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि तैः स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रतिपादितानि? यानि भिक्षुः श्रुत्वा निशम्य ॥८८५| संयमबहुलः संवरबहुलो गुप्तो गुप्तेंद्रियो गुप्तब्रह्मचारी सदाऽप्रमत्ताः सन् विहरेत्. इति जंबुस्वामिनः प्रश्नवाक्यं श्रुत्वा सुधर्मास्वामी प्राह हे स्वामिन् ! जे ब्रह्मचर्यस्थानाने भिक्षु-साधु शब्दरूपे सांभळी, अर्थथी अवधारण करी संयभवहुल, संवरबहुल तथा समाधि बहुल थाय, तेमन गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्तब्रह्मचारी बनी सदा अपमादी रही विचरे, ते ब्रह्मचर्य समाधिस्थानो कयां? के जे स्थानो ते भगवान स्थविरोये प्रतिपादित कहेलां छे. आबु जंबूस्वामीनुं प्रश्न वाक्य सांभळीने मुधर्मास्वामी बोल्या इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता. जे भिक्खू सुच्चा निसम्म संयमबहुले मंवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी सया अप्पमत्ते विहरिजा. ॥४॥ ते आ भगवान् स्थविरोये निश्चये निरुपण करेलां दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थान के जेने भिक्षु सांभळी समजी संयमबहुल, संघरबहुल तथा समाधिबहुल थाय तेमज गुप्त, गुप्तेंद्रिय तथा गुप्त ब्रह्मचर्य बनी सदा अप्रमत्त रही विहरे. ३ व्या०-हे जंबू ! इमानि प्रत्यक्षं वक्ष्यमाणानि खलु निश्चयेन तानि स्थविरैर्भगवद्भिर्दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि प्रज्ञ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८८६ ॥ SS www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्तानि यानि दश ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानानि शब्दतः श्रुत्वा, निशम्यार्थतो हृद्यवधार्य भिक्षुः साधुः संयमबहुलः समाधिबहुलो गुप्त गुप्तेंद्रियो गुप्तब्रह्मचारी सर्वदाऽप्रमत्तोऽप्रतिबद्धविहारी सन् विचरेत्, तानि समाधिस्थानानि निरूपयतिहे जंबू ! आ प्रत्यक्ष कहेवामां आवशे एवां निश्चये भगवान स्थविरोये मज्ञापित करेलां दश ब्रह्मचर्य समाधिस्थानो के जेने भिक्षु सांभळी=शब्दरूपे श्रवणेंद्रियवडे गृहण करी तेमज अर्थथी हृदयमां अवधारित करी भिक्षु साधु, संयमबहुल, संवरबहुल तथा समाधिबहुल थाय अने गुप्तेंद्रिय तथा गुप्तब्रह्मचर्य बनी सर्वदा अप्रमत = प्रतिबंध रहित विहारवाळो थड़ने विचरे. ४ हवे ते समाधिस्थानोनुं निरुपण करे छे तं जहा विवित्ताइं सयणासणाई सेविज्जा से निग्गंथे, नो इत्थोपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंथे, ते तेवां के जेनिथ लाधु, विविक्त=ज्यां कोइनो अवाज न होय तेवा एकांत स्थान मां रहेलां शयन तथा आसन सेवे, पण स्त्री पशु पंडग इत्यादिधी संयुक्त युक्त जे शयन अथवा आसन होय तेने न सेवे ते खरो निगंध. ५ व्या० - तद्यथा - तानि यथा संति तथा निरूपयामि, हे जंबू ! स निग्रंथो भवेत, स इति कः ? यो विविक्तानि स्त्रीपशुपंडगादिभिर्विरहितानि शयनानि पट्टिकासंस्तारकादीनि, अर्थात् शयनादीनां स्थानानि सेवेत कायेनानुभवेत्, अथमन्वयार्थः, यः स्त्रीपशुपंडकादिरहितस्थानानि सेवेत स निग्रंथो भवेदित्यर्थः अथ व्यतिरेकेणार्थमाह-यस्मिन् सति यद्भवेत् सोऽन्वयः यस्मिन्नसति यन्न भवेत् स व्यतिरेकः. व्यतिरेकं दर्शयति-'नो इत्थीप सुपंडगसंसत्ताई सय सयणाई सेवित्ता हवइ, से नग्गंथे' हे जंत्र ! स निग्रंथो नो भवेत्, स कः ? यः स्त्रीपशुपंडकादिसंसक्तानां स्त्रीपशुपंडकादिसेवितानां For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ८८६ ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥८८७|| भाषांतर अध्य०१६ 11८८७|| शयनासनानां सेवितोपभोक्ता भवेत्. इति वचनं श्रुत्वा शिष्यः प्राह ते जेवां के-ते जेवां होय छे तेवां निरुपण करुं छु-हे जंबू ! ते निग्रंथ होय ते कोण ? जे विविक्त स्त्री पशु पंडग आदिथी रहित शयन-पाट संथारा बगेरे अर्थात् शयनादिकां स्थानोने से वे कायावडे अनुभवे अन्वयार्थ आवो छे-जे स्त्री पशु पंडग इत्यादिकथी रहित स्थानोने सेवे ते निग्रंथ होय. हवे व्यतिरेकवडे ए अर्थ कहे छे. (जेना होवाथी जे होय ते अन्वय कहेयाय तथा जे न होवाथी जे न होय ते व्यतिरेक कहेवाय.) व्यतिरेक दर्शावे छे-हे जंबू ! ते निग्रंथ न कहेवाय के जे स्त्री पशु पंढग आदिथी | संसक्त स्त्री पशु पंडग वगेरेये सेवेलां शयन आसनादिकने सेवतो उपभोग लेतो होय. ६ म०-तं कहमिति चेत् आयरियाह. मूलार्थ-ते फेम? एम [शका] करे त्यां आचार्य कहे छे. . च्या०-हे स्वामिन् ! तत्पूर्वोक्तं कथं ? केनोत्पत्तिप्रकारेण? इति चेदेवं यदि मन्यसे इति शिष्येण पृष्टव्ये सत्याचार्य आहहे स्वामिन् ! ते तमे पूर्व कपुते केम ? अर्थात् कया उत्पत्ति प्रकारे? आम मानीने शिष्य पूछचानो होय एम धारी आचार्य कहे छे. निग्गंथस्स खलु इथियपसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, मेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हविजा, केवलिपबत्ताओ धम्माओ भंसेजा, तम्हाखलु नो इत्थिपसुपंडगसंताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गंथे ।। निश्वये निग्रंथ-साधुने स्त्री, पशु, पंडग आदिके संसक्त-संयुक्त होय एवां शयन तथा आसन सेवता, ब्रह्मचारीने ब्रह्मचर्य विषये शंका थाय अथवा कांक्षा के विचिकित्सा-संशय उपजे, अथवा मेद पामे, के उन्माद-काम परवशताने पामे, अथवा दीर्घकालिक For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ሀሪሪሪክ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोग वा आतंक था अने सेने लीघे केवळ ए प्रज्ञापित धर्मथी भ्रष्ट थाय ते माटे स्त्री पशु तथा पंडग आदिके संसक-संयुक्त शयन आसन, ते निर्बंध-साधु, सेवनारो न थाय ७ - हे शिष्य ! खलु निश्चयेन स्त्रीपशुपंडकादिभिः संसक्तानि शयनासनानि सेवमानस्य निग्रंथस्य ब्रह्मचर्यधारिणोऽपि साधोर्ब्रह्मचर्ये शंकोत्पद्यते किमयमेतादृशो विरुद्धानां शयनासनानां सेवी ब्रह्मचारी भवेत् न वा ? आत्मनस्तु स्त्र्यादिभिरत्यंतापहृतचित्ततया मिथ्यात्वोदयादेव स्त्रीसेवने मैथुने नवलक्षमक्ष्मजीवानां वधो जिनैः प्रोक्तः, तत्सत्यं वा मिथ्या वेत्यादिरूपः संशय उत्पद्यते. पुनर्ब्रह्मचारिणः कांक्षा स्त्रीपशुपंडकादिभिर्मैथुनेच्छोत्पद्यते पुनर्ब्रह्मचारिणः साधोर्ब्रह्मचर्ये विचिकित्सोत्पद्यते मया ब्रह्मचर्यपालने एतावन्महत्कष्टं विधियते, तस्य ब्रह्मचर्यकष्टस्य फलं भवि ष्यति न वा ? तस्माद्वरमेतेषां सेवनं, एतेषां सेवने सांप्रतं मम सुखं जायते, एतादृशी मतिः समुत्पद्यते वाऽथवा भेदं चारित्रस्य विदारणं विनाशं लभेत, वाऽथवोन्मादं कामेन पारवश्यं प्राप्नुयान् वाथवा तादृशस्त्र्यादिसहितानि स्थानानि सेवमानस्य साधोदर्घकालिकं प्रचुरकालभावि स्यादिसेवनाभिलाषोत्कर्षत आहारादावरुचिनिंद्वाराहित्यादिदोषै रोगो दाघज्वरादिः, आतंकः शीघ्रघाती शूलादिः, रोगश्चातंकञ्चानयोः समाहारो रोगातंकं शरीरे भवेत् यतो हि कामाधिक्यात् कामिनां शरीरे दश कामभावा जायंते. युक्तं – प्रथमें जायते चिंता । द्वितीये दृष्टुमिच्छति ॥ तृतीये दीर्घनि:श्वासा-चतुर्थे ज्वरमादिशेत् ॥ १ ॥ पंचमे दयते गात्रं । षष्ठे भक्तं न रोचते ॥ सप्तमे च भवेत्कंप - मुन्मादश्चाष्टमे तथा ॥ २ ॥ नवमे प्राणसंदेहो । दशमे जीवितं त्यजेत् ॥ कामिनां मदनोद्वेगा-त्संजायंते दश स्वमी ॥ ३ ॥ इति For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ८८८॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिला انلایر उत्तराध्ययन सूत्रम् ३६ ॥८८९|| भाषांतर अध्य०१६ ॥८८९॥ الساونا وبناتنا والانتاج الحالي واللبناني مجانا स्त्रीदर्शनादश भावा उत्पद्यते. अथ पुनः केवलिप्रज्ञप्तात्केवलिप्रणीताद्धर्मात तचारित्ररूपाद् भ्रश्येद भ्रष्टो भवेत् , तस्मादेतेषां दृषणानां प्रादुर्भावात् स निग्रंथो नो भवेत्. इति प्रथमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान. एषा प्रथमा ब्रह्मचर्यतरोर्वाटिका. हे शिष्य! निश्चये स्त्री पशु तथा पंडग वगेरेथी संसक्त होय तेवा शयन तथा आसनने सेवतो होय ते निग्रंथ-साधु, भले ते ब्रह्मचर्य धारण करतो होय तो पण तेने ब्रह्मचर्य विषयमा शंका उत्पन्न थाय के-शुं आवो आश्रम विरुद्ध शयन तथा आसन सेवनारो ब्रह्मचारी होय ? के नहि ? पोताने तो स्त्री आदिकथी चित्त अत्यंत अपहृत थयेल होवाथी मिथ्यात्वोदय थवाने लीधेज 'स्त्रीसेवन मेथुन करवामां नवलक्ष जीवोनो वध थाय छे' आम जिनोए कहेलुं छे ते सत्य हशे के मिथ्या ? इत्यादिरूप संशय उत्पन्न थाय. वळी ब्रह्मचारीने कांक्षा-खी पशु पंडकादिकथी मैथुनेच्छा उपजे, तेम ब्रह्मचारी साधुने ब्रह्मचर्यमा बिचिकित्सा पण उद्भवे के-९ जे आ ब्रह्मचर्य पालन करवामां महोटुं कष्ट उठावू छु ते ब्रह्मचर्य कष्टनु कंइ फळ मने थशे के नहिं ? माटे सारुं तो ए छे के आ स्त्री आदिकनु सेवन कर. एना सेवनथी हमणां तो मने मुख उपजे छे' आवी मति उत्पन्न याय. अथवा भेद चारित्रनुं विदारण-विनाश थाय, अथवा उन्माद काम परवशताने पाये, अथवा तेवां स्त्री आदि सहित स्थानोने सेवता साधुने दीर्घकाळ लांबो समय भोगववा पडे तेवा अर्थात् स्त्री आदि सेवन करवाना अभिलाषाना उत्कर्षने लीधे आहारादिकमां अरुचि तथा निद्रारहितता वगेरे दोषोवडे रोग-दाहज्वरादि थाय तथा आतंक शीघ्र घात करे एवा शूल वगेरे (रोग तथा आतंकनो समाहार द्वंद्व छे.) शरीरमां थइ आवे. कारण के-कामनी अधिकताने कीधे कामिजनोना शरीरमां दश कामभावो उपजे छे. काछ के-प्रथम तो चिंता=चिंतन उद्भवे, पछी बीजी अवस्था दर्शनेच्छा थाय त्रीजो भाव दीर्घनिःश्वासो नाखे, चतुर्थ दशामां काम ज्वर आवे छे.१पंचम भाव गात्रोमां दाह For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥८९०॥ www.kobatirth.org अने छडी दशामां अनादि आहार न रुचे गमे, सातमो भात्र कंपनी उत्पत्ति=शरीर धुजवा मांडे, आठमी दशा उन्माद = बेलछा जेवुं जाय. २ नवम दशामां प्राण संदेह जणाय अने दशम दशामां जीवित त्याग थाय, कामिजनोने मनमां कामजन्य उगने लइ आ दशे अवस्थाओं थाय छे, ३ आवी रीते स्त्रीदर्शनथी दश भावो उत्पन्न थाय छे. ते पछी केवळ प्रज्ञप्त = केवलिए प्रणीत श्रुतचारित्ररूप धर्मथी भ्रष्ट थाय; माटे आ वधां दुषणोनो प्रादुर्भाव थाय तेथी ते निर्ग्रथ न रहे. आ प्रथम ब्रह्मचर्य समाधिस्थान छे; आ ब्रह्मचर्यरूपी वृक्षनी प्रथम वाडी कही. नोनिग्थे इत्थी कहे कहेत्ता हवइ से निग्गंथे तं कहमिति चेत् आयरिग आह, निग्गंधस खलु इत्थीणं कहं कहेमाणस्स बंभयारस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगार्थकं हविज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा, तुम्हा खलु निग्गंथे नो इत्थीणं कहं कहेज्जा. निर्ग्रथ साधुये स्त्रीआनी कथाना कहेनार न थबुं, तो तेज निर्बंथ 'ते केम थवाय ? एम शिष्य कदाच शंका करे. एम मानीने आचार्य पोतेज कहे के जो निर्बंथ-साधु स्त्रीयोनी कथा कहेवा मांडे तो निश्चये ते ब्रह्मचारी होय तो पण ब्रह्मचर्यमा शंकर थाय अथवा कांक्षा किंवा विचिकित्सा संशय उपजे अथवा भेदने पामे वा उन्मादने प्राप्त थाय अथवा दीर्घकाळ रोग वा आतंकवाळो थाय अने तेथी केवळीये प्ररूपण करेला धर्मधी भ्रष्ट थाय ते कारणथी निर्मथ साधुये स्त्रीसंबंधी अथवा स्त्रीओनी साथे कथा कनारा थषु नहिं. २ व्या० - स निग्रो भवति, स इति कः ? यः स्त्रीणामर्थादेकाकिनीनां स्त्रीणामेव कथां वाक्यप्रबंधरूपां वार्ता, अथवा For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१६ ॥८९० ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम ॥८९१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीणां जातिकुल नेपथ्यविषयां, पद्मिनी, चित्रणी, हस्तिनी, शंखिनी, मुग्धा, मध्या, प्रौढादिरूप कर्णाटलाटसिंहलादिदेशोद्भवानां नारीणां वर्णनरूपां कथांप्रति कथयिता न भवति स साधुर्भवतीत्यर्थः स्त्रीणामग्रे कथां, अथवा स्त्रीणामेव वर्णनं करोति स साधुर्न स्यादिति भावः इत्युक्ते शिष्यस्तत्कथमिति चेदेवं यदि मन्यसे, आचार्य आहहे शिष्य ! खलु निश्वयेन निग्रंथस्य साधोः स्त्रीणां कथां कथमानस्य ब्रह्मचारिणोऽपि ब्रह्मचर्ये शंका, एनां सेवामि न सेवामि वेत्यादिरूपा, अथवा आकांक्षा, अग्रेतनानां पदानां पूर्वपदे योऽर्थः स ज्ञेयः, नवरं तम्हा इति तस्माच्छंकादिदोषप्रादुर्भावात्खलु निश्चयेन निग्रंथः स्त्रीणामेवाग्रे स्त्रीणामेव केवलां कथां न कथयेत् ॥ २ ॥ इति द्वितीयं ब्रह्मसमाधिस्थानं. एषा द्वितीया वाटिका ॥ २ ॥ अथ तृतीयामाह ते खरो निर्ग्रथ होय, ते कोण ? जे स्त्रीओनी अर्थात् एकाकिनी स्त्रीओनी कथा=वाक्य प्रबंधरूप वार्त्तानो कथयिता=कहेनारो न थाय; अथवा स्त्रीयोनी पद्मिनी, चित्रिणी, हस्तिनी, शंखिनी, ए जातिओ तथा मुग्धा, मध्या, मौढा इत्यादि अवस्था विशेष प्रयुक्त नायिका भेद तेमज कर्णाटी, लाटी, सिंहली, इत्यादि देशोद्भव नारिना वर्णनरूप - कथानो कथनार न थाय ते साधु स्त्रीयोनी आगळें कथा कहे अथवा स्त्रीयोनां वर्णनरूप कथा करे ते साधु न होय आम कधुं त्यारे - 'ए केम बने ?' एम कदाचशिष्य कहे, एम धारी आचार्य कहे छे हे शिष्य ! निश्चयें स्त्रीयोनी कथा कथनार साधुने पोते ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचमां- “आने से के न सेनुं ?" आवी शंका उद्भवे छे, अथवा आकांक्षा या विचिकित्सा=संशय समुत्पन्न थाय छे; अथवा भेदने पामे अथवा उन्मादने पामे कांतो लांबा काळनो रोग तथा आतक थाय अने तोय केवळिप्रज्ञापित धर्मथी भ्रष्ट थाय, ( आ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ॥८९२ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१६ ||८९२॥ JE कांक्षाथी लइ अहिं सूधीना पदोनो पूर्ववत् अर्थ छे.) ते कारणथी नवरंभाटे शंकादि दोषोनो प्रादुर्भाव थाय तेथी निश्चये निथउत्तराध्य साधु स्त्रीयोनी आगळे तथा केवळ स्वीयो संबंधीज कथा कथननज करे २ ए प्रमाणे आ द्वितीय ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कहेवायुं आ पन सूत्रम् | द्विताया वाटिका समजवी हवे अतःपर तृतीया वाटिकानुं निरूपण कराय छे.॥८९२॥ नो निग्गंथो इत्थीहिं सद्धिं संनिसिज्जा, गए वियरत्ता हअइ से निग्गंथे. तं कहमिति चेत् आयरिय ad] आह-निग्गंथस्स खलु इत्थीहि साढू सन्निसिज्जागयस्स विहरमाणस्स यंभयारिस्स बंभचेरे संका वा० तम्हा खलु मो निग्गंथे इत्थीहिं सद्धिं सन्निसिज्जा, गए विहरेज्जा. ॥ ३ ॥ JE निग्रंथ-साधुए स्त्रीयोनी साथे निषद्या-धेसवाना आसन उपर गत-स्थित थइ विरहनार न थg. 'एम केम ?' आवी शंका कदाच AGI शिष्य करे पम घारी आचार्य कहे छे जे निग्रंथ खीयोनी साथे निषिद्या गत थइ विद्दरे ते ब्रह्मचारीने ब्रह्मचर्यमा शंका उद्भवे; [कांक्षा पदथी लइने धर्मथी भ्रष्ट थाय त्यां सुधीना पदोनो अर्थ पूर्ववत् समजी लेवानो छ.] तस्मात्-ते कारणथी निघेथे स्त्रीयोनी साथे निषिद्या उपर रही निश्चये न विहरखु. ३ व्याख्या-स निथो भवेत् , यः स्त्रीभिः सार्ध निषिद्या, निषीदत्यस्यामिति निषिद्या, पट्टिकापीठफलकचतुककाद्यासनं, तां निषिद्यां गतः स्थितः सन् विहर्ता अवस्थाता न भवेत. कोऽर्थः ? यः स्त्रीभिः सहकस्मिन्नासने नोपविशेत् स निग्रंथो भवेत्. अत्रायं संप्रदाय:-यत्रासने पुरा स्त्री उपविष्टा भवति, तत आसनात् स्त्रियामुत्थितायां सत्यां मुहर्तादनंतरं तदासनं साधोरुपविशनयोग्यं भवति 'तं कहमिति चेत् आयरिय आहे' अनयोः पदयोरर्थः For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir al. भाषांतर अध्य०१३ ॥८९३॥ उत्तराध्य पूर्ववत्. 'निग्गंथस्स खलु इत्थीहिं०' निग्रंथस्य खलु स्त्रीभिः सार्ध निषिद्यां गतस्य प्राप्तस्य विहरमाणस्य नत्र स्थितस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंकादयो दोषा उत्पद्यते. तस्मात्कारणात्खलु निश्चयेन निग्रंथः स्त्रीभिः सहैकत्रासने गतः प्रात: यन सूत्रम् मन्नो विहरेनोपविशेत.॥३॥ इति तृतीयं ब्रह्मचर्य यानं, एषा तृतीया वाटिका. ॥८९३॥ व्याख्या-निग्रंथ ते होय के जे स्वीयोनी साथे निषिद्या एटले जेना उपर लोको बेसे ते, अर्थात् पाट, बाजोठ, पाटलो अथवा चार पायावाळु कंइ आसन; ते निषिद्या उपर बेसीने विहरनार न थाय. शो अर्थ कह्यो ? जे स्त्रीयोनी माथे एकज आसन उपर न बेसे ते निग्रंथ कहेवाय अहीं एवो संप्रदाय छे के जे आसन उपर पहेलां स्त्री बेठी होय ते आसन उपरथी ते स्त्री ऊठी गया बाद एक मुहूर्त बेघडी चीत्या पछी ते आसन साधुने बेसवा योग्य थाय. 'एम केम ?' आवी कदाच शिष्य शंका करे एम मानी आचार्य कड़े छे. (आ बेय पदोनो अर्थ पूर्ववत् समजी लेवो,) स्त्रीयोनी साथे निषिद्या उपर जइ विहरता निग्रंथ साधुने निश्चय त्यां स्थित थयेला ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचर्यमा शंका आदिक दोषो उत्पन्न थाय. ते कारणथी निश्चयें निग्रंथ स्त्रीयोनी साथे एकत्र आसनगत थइने न विहरवून बेसबुं. ३ आ तृतीय ब्रह्मचर्य स्थान का; आ तृतीया वाटिका. नो निग्गंथे इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता हवइ, से निग्गंथे तं कहमिति चेत् JE आयरिय आह-निग्गंथस्त खलु इत्थीणं इंदियाई मगोहराई मगोरमाई आलोएमाणस निज्झाय मागस बंभयाJE रिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभेजा, उम्मायं वा पाउगिजा, दीहकाall लीयं वा रोगायक हविज्जा, केवलिपण्णत्ताओ धम्माभो भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थी गं इंदियाई मणोह For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥८९४॥ राई मणोरमाई आलोइज्जा निज्झाइजा. ॥ ४ ॥ निग्रंथ, स्त्रीयोनां मनोहर तथा मनोरम इंद्रियोनो आलोकनार-जोनार तथा पाछो निध्याता-मना चिंतन करनारो न होय ते निग्रंथ 'ते केम?' आवी कदाच शिष्य शंका करे एम धारीने आचार्य कहे . लीयोनां मनोहर तथा मनोरम इंद्रियोनु आलोचन करतो तथा निध्यान-चिंतन करतो होय तेबो निग्रंथ ब्रह्मचारी होय तो पण निश्चये तेना ब्रह्मचर्यमा शंका, कांक्षा, वा विचिकित्सा-संशय समुत्पन्न थाय, मेद पामे, उन्मादने प्राप्त थाय, दीर्घकाळना रोग तथा आतंक थाय; अने तेथी केबळि प्रज्ञापित धर्मथी भ्रष्ट थाय, या अ लिशापित थाय, तेटला माटे निग्रंथे स्त्रीयोना मनोहर तथा मनोरम इंद्रियो निश्चयें आलोकवा के नियात-चिंतन गोचर करवां नदि. ४ भाषांतर अध्य०१६ ८९४॥ व्या-स निग्रंथो भवति, स इति कः ? यः स्त्रीणां मनोहराणि, मनोहरंति दृष्टमात्राणि चित्तमाक्षिपंतीति मनोहराणि, पुनर्मनोरमाणि मनो रमं यनुचित्यमानान्याह्लादयंतीति मनोरमाणि, ईशानींद्रियाणि नयनवदनजघनवक्षःस्थलनाभिकक्षादीनिप्रत्यालोकयित्वा समंनाद दृष्ट्वा निध्याता, नितरां ध्याना निध्याता, दर्शनादनंतरमतिशयेन र चिंतयिता यो न भवेत् स निग्रंथो भवति. इत्युक्ते शिष्यः पृच्छति तत्कथनिति चेदाचार्य आह-हे शिष्य ! निग्रं थस्य खलु निश्चयेन स्त्रीणां पूर्वोक्तानींद्रियाण्यासमंताद्विलोकयतः, अथवा ईषदपि लोकयतः पश्यतो नितरां ध्यायमा- | Raनस्यात्यंत चिंतयता, स्त्रीणामिद्रियेषु दृष्टिं लगयित्वा स्थितस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंका दयो दोषा उत्पद्यते. तम्मा स्खलु निश्चयेन निग्रंथः स्त्रीणां मनोहराणि मनोरमागींद्रियाणि नालोकयिता न समंतात् दृष्टा, अथवा नेपदापि दृष्टा, न च तानींद्रियाणि निध्याता नितरां चिंतयिता भवेत्. स्त्रींद्रियाणां रागेण दृष्टा नितरां ध्याता साधुन भवेदित्यर्थः For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥८९५|| ॥४॥ इदं चतुर्थ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. ४. एषा चतुर्थी वाटिका ४. अथ पंचमी प्राह ते निग्रंथ थाय होय कहेवाय, के जे स्त्रीयोनां मनोहर देखतां वेतन चित्तने आक्षिप्त करनारां, बळी मनोरम-मनने रमाइ- भाषांतर नारां एटले मनमां चिंतन करतां आडाद आपे एवां इंद्रियो नयन, बदन, जघन, वक्षःस्थल, नाभि, कक्षा; इत्यादिक पति आलोक D अध्य०१३ चारेकोर दृष्टि करीने निध्याता-एटले अत्यंत प्रीति पूर्वक जोया पछी मनमा अतिशय चिंतन करनारो जे न थाय ते निग्रंथ थाय. | ॥८९५॥ आम कहेतां शिष्य पूछे छे के 'ते केम? त्यां आचार्य कहे . हे शिष्य ! निग्रंथने स्त्रीयोनां पूर्व कहेला इंद्रियोने चारे कोर दृष्टि फेरवीने निहाळतो अथवा ('आ' उपसर्गनो अर्थ 'ईषत'='जराक' एवो पण छे ते उपरथी) जरा पण ते तरफ दृष्टि करतो तथा नितरां अत्यंत ध्यान मनमां चिंतन करतो अर्थात् स्त्रीयोनां इंदयो उपर दृष्टि लगाडीने उभेला ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचर्यमा शंका आदिक दोषो समुत्पन्न पाय छे तेटला माटे निश्चयें निग्रंथे स्त्रीयोनां मनोहर तथा मनोरम इंद्रियोने नीहाळी जोनारा तथा जराय पण नजर नाखी मनमां ते इंद्रियोना निध्याता=चिंतन करनारा न य. स्त्रीना इंद्रियोने रागथी जोनार तथा तेनुं मनमां चिंतन | करनार साधु न होय. ४ आ चतुर्थ ब्रह्मचर्य समाधिस्थान का, आ चतुर्थी वाटिका, हवे पंचमी कहे छे. नो निग्गथे इत्थीणं कुडतरंसि वा, संतरंसि वा, भित्तितरंसि वा, कूईयस वा, रूहयसरना, गीयसई वा, हसियसई या, धणियसई वा, कंदियसई वा, विलवियसह वा, सुणित्ता हवइ, से निग्गंथे. तं कहमिति चेत् आयरिय आह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कुडंतरंसि वा, संतरंसि वा, भितितरंसि वा, कूड पसदं वा, मइयसई, वा, गीयसहं, वा, हसियसह वा, थणियसई वा, कंदियमई वा, सुणमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा, For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-DE यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१६ ॥८९६॥ ॥८९६|| वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभिजा, उम्मायं वा पाइणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपनत्ताओ धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं कुतरंसि वा, दृसंतरंसि वा, भित्तितरंसि वा, कूइयसई वा, रूइयसई वा, गीयसई वा, हसियसई वा, थाणियसई वा, विलवियस वा, सुणमाणे विहरेज्जा ॥५॥ निग्रंथ-साधु, कुख्य खडकेला पोषाणनी ओथे अथवा दृश्य-तंबुनी कनातनीतओथे वा भीतनी ओथें छुपा रहीने स्त्रीयोना कूजित शब्दने, वा रुदित शब्दने वा गीत शब्दने, वा हसिन शब्दने, वा स्तनित शब्दने, वा कंदित शब्दने अथवा विलपित शब्दने श्रवण करनार न थाय, ते खरो निग्रंथ 'ए केम' आवी शिष्य कदाच शंका करे एम धारी आचार्य कहे छे निश्चये निर्ग्रथने स्त्रीयोना, कुडयांतरमाथी अथवा कृष्यांतरमाथी वा भित्तिना अंतरमाथी कृजित शब्दने वा रुदित शब्दने, गीतशब्दने वा हसित शब्दने अथवा स्तनित शब्दने वा कंदित शब्दने सांभळ्तां ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचर्यमा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा समुत्पन्न थाय भेद पामे अथवा उन्माद प्राप्त थाय, दीर्घकाळना रोग तथा आतंक थइ पडे, अने तेथी केवळ प्रज्ञापित धर्मथी भ्रष्ट थवाय, ते माटे निग्रंथे निश्चये स्त्रीयोना कृजित शब्दोने वा रुदित शब्दोने वा गीतशब्दोने, हसितशब्दोने, अथवा स्तनितशब्दोने तथा विलपितशब्दोने कुड्यना अंतरमांथी अथवा दूष्यना कनातना अंतरमाथी अथवा भीतना अंतरमाथी सांभठतां विहार न करवो. ५ ___ व्या०–सनिग्रंथो भवेत् , स इति कः ? यः कुड्यांतरे कुख्य पाषागरचितं, तेनांतरं व्यवधानं कुब्यांतरं, तस्मिन् कुड्यांतरे स्थित्वेत्यध्याहारः दृष्यांतरे वा वस्त्ररचितभित्त्यंतरे परिच्छदाया अंतरे स्थित्वाः, भियंतरे मृत्तिकापक्केष्टिकाणां भित्तिव्यवधाने स्थित्वा वा, इत्थीणमिति स्त्रीणां कूइयसई संभोगसमये भोक्तुर्मनःप्रसत्तये कोकिलादिवि For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-3 यन सूत्रम् ॥८९७| भाषांतर अध्य०१६ ॥८९७॥ हगशब्दानुरूपं कृजितशब्दं, पुनः स्त्रीणां रुदितशब्द, भोगसमये प्रेमकलहजनित रोदनशन्दं वा, अथवा पुनर्गीतशब्द वा, पंचमरागादिहुंकाररूपं गीतश वा, अथवा पुनः स्त्रीणां हसितशन्दं कहकहादिकहास्योत्पादिकाहादतनिःकासनोद्भवशब्द, स्तनितशन्दं वा, भोगसमये दूरतरघनगर्जनानुकारिशब्दं वा, कंदितशब्द वा, प्रोषितभर्तृकाणां विरहिणीनां भर्तृवियोगदुःखाज्जातं, वाथवा विलपितशब्दं भर्तृगुणान् स्मारस्मारं प्रलापरूपं शब्दंप्रति यः श्रोता न भवति स निग्रंथो भवति. इति श्रुत्वा शिष्यः पृच्छति. तत्कथं केन कारणेन ? यदेवमुच्यते, इति श्रुत्वा आचार्य आह, हे शिष्य ! खलु निश्चयेन कुड्यांतरादिषु पूर्वोतस्थाने स्थित्वा स्त्रीणां पूर्वोक्तान् कूजितादिशब्दान् शृण्वतो निग्रंथस्य ब्रह्मचारिणोऽपि ब्रह्मचर्य शंका वा कांक्षा वेत्यादयो दोषा उत्पद्यते, तस्मात्कारणार खलु निश्चयेन निग्रंथः कुब्यांतरेषु स्थित्वा वीणां कूजितादिशब्दं नो शृण्वन् विचरेत्. स्त्रीणां हि कामोद्दीपकशब्दश्रोता साधुन भवेदिति भावः. इति पंचमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. एषा पंचमी वाटिका. ॥ ५॥ अथ षष्ठों प्राह निय तो ते होइ शके के जे कुब्यांतर पाषाण रचित कुड्यथी अंतरित व्यवहित रही (अहीं 'कुधनी ओथमां रही छानामाना' एटलो अध्याहार छे.) अथवा दृष्य-वस्वरचित भीत एटले तंत्रु कनात वगेरेने ओठे उभीने एवा परिच्छद आच्छादनना अंतरमा उभीने तथा भीत-पाकी इंटो तथा चूनावती अथवा माटीथी चणेल भीतने ओठे उभीने स्वीयोना कूजित शब्द-भोग समये भोक्ताना मनने प्रसन्न करवा कोयल वगेरे पक्षिना टहुका जेवो कूजित शब्द तथा स्त्रीयोनो रुदित शब्द-भोग समये प्रेम कलहयी जन्म रुदन शब्द, वळी गीत शब्द-पंचम रागादि हुंकार रुप गीत शब्द, अथवा स्त्रीयोनो इसितशब्द कह कह आदिक जखमाखाखाकसकसकारासस For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie हास्यने उत्पन्न करनार अट्टाहास्य तथा दांत काढवाथी थता शब्द, अथवा स्तनितशब्द भोग समये जाणे दूरथी मेघगर्जना यती उत्तरायहोय तेम संभळातो शब्द, कंदित शब्द जेना पति विदेश गया होय तेवी विरहिणी स्त्रीयोना पति वियोगना दुःखथी थता शब्द, भाषांतर पन सूत्रम् l तथा विलपित शब्द-पोताना पतिना गुणोने याद करी करीने विलाप करती स्त्रीयोना शब्दी; आवा प्रकारना स्त्रीयोना शब्दो प्रत्ये Jodअध्य०१६ १८९८॥ | जे श्रोता न थाय ते निग्रंथ छे एम कहेवाय. आ सांभळी शिष्य पूछे छे-'जे आ का ते केम थाय ? त्यारे आचार्य कहे छे. हे शिष्य ! निश्चयें कुख्यादिकना अंतर जेवां पूर्वोक्त स्थाने छुपा रहीने स्त्रीयोना पूर्वोक्त कूजितादिक शब्दोने सांभळनार निग्रंथ ब्रह्मचारि होय तो पण ब्रह्मचर्यमा शंका कांक्षा इत्यादिक दोषो उत्पन्न थाय ते कारणथी निग्रंथे निश्चये कुड्यादिकने ओठे रहीने स्वीयोना जितादि शब्दो न सांभळतां विचरg. स्त्रीयोना कामोद्दीपक शब्दो सांभळनार साधु न होय; एवो भाव छे. ५ एवी रीते आ पंचम ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान का आ पंचमी वाटिका. ५ नो निग्गंथे इत्थीणं पुवरयं पुब्वकीलिअं अणुसरित्ता हवइ, से निग्गंथे. तं कहमिति चेत् आहरिआह-निग्गJथस्स खलु इत्थीणं पुज्वरय पुञ्चकीलियं अणुसरेमाणस्स भयारिणो जाव धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं पुव्वरयं पुब्धकीलियं सरिज्जा.॥६॥ Indl निग्रंथ साधु पूर्वना गृहस्थावस्थामा करेलां रत-संभोग, तथा प्रथम करेली द्यूतादिक क्रीडाना अनुस्मर्ता-स्मरण करनार न थाय JEसे निग्रंथ होय. 'ते केम' एम शंका करी आचार्य कहे हे निश्चयें स्त्रीयोनां पूर्वना रत तथा पूर्वनां क्रीडितनां अनुस्मरण करनारो निग्रंथ ब्रह्मचारीना यावत् धर्मथी भ्रष्ट थाय ते कारण माटे निग्रंये खोयोना पूर्वरत अथवा पूर्व क्रीडितने निश्चये स्मरण न करवां For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर JE अध्य०१६ | ॥८९९॥ व्या-स निग्रंथो भवेत् , यः पूर्व गृहस्थत्वे स्यादिभिः सह रतं कामासनैमैथुन सेवन, पुनस्ताभिरेव समं पूर्वउचराध्य क्रीडितं गृहस्थावस्था गं पुरा यूनादिक्रीडनं कृतं, तस्यानुस्मर्ता मुहुश्चिंतयिता नो भवेत् , साधुर्भवेदित्युक्ते शिष्यः पन सूत्रम् प्राह, तत्कथमिति चेत्तदाह-हे शिष्य! खलु निश्चयेन स्त्रीभिः सह पूर्व कृतं रतं मैयुनं पूर्वकृतं यूनादिक्रीडितमनुस्मरतो ||८१९॥ वारंवारं चिंतयतो निग्रंथस्य साधोब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंकादयो दोषा उत्पद्यते. तस्मात् खलु निश्चयेननिग्रंथः स्त्रीभिः सह पूर्वरतं पूर्वक्रीडितं प्रत्यनुस्मर्ता न भवेत् , स साधुर्भवेत् ॥ ६॥ इति षष्टं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. ।। इति ३ षष्टी वाटिका. ॥ ६ ॥ अथ सप्तमी प्राह निग्रंथ ते थाय के जे पूर्व गृहस्थ पणामां स्त्री साथे रन-कामा अनादि मैथुन सेवन करेल होय तथा पूर्व गृहस्थावस्थामा जे घूतादिक क्रीडा करी होय तेना अनुस्मर्ताबारंवारचिंतन करनार न थाय, ते साधु थाय; एम कहेतां शिष्य बोल्यो 'ते केम ?' त्यारे आचार्य कहे छे, हे शिष्य ! निश्चयेज स्त्रीयोनी साये पूर्वे करेलां मैथुन तथा पूर्वे करेली द्यूतादि क्राडार्नु वारंवार अनुस्मरण चिंतन करनार साधु, ब्रह्मचारी होय तेना ब्रह्मचर्य विषयमां शंकादि दोषो उत्पन्न थाय तेथी निश्चये निग्रंथ, स्त्रीयो साथे पूर्वे करेलां रत=भोग पूर्वकृत क्रीडाओ प्रत्ये अनुस्मर्चा न थाय तो ते साधु होय. ६ ए प्रकारे षष्ठ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान कयु. आ षष्ठी वाटिका हवे सप्तमी कहे छे. नो निग्गंथे पणीयं आहार आहारित्ता हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह-निग्गंथस्स खलु पणीJoel यपाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा. तम्हा खलु नो निग्गंथे पणीयं आहारेजा ॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१६ BE९००॥ जे निग्रंथ, प्रणीत-जेमांधीधी टपकतु होय पवा आहारनो आहारिता-उपयोग करनारोन थोय ते निग्रंथ होय 'ते केम एवी उत्तराध्य-36 शंका थाय त्यां आचार्य कहे छे निग्रंथ निश्चयें प्रणीत पान भोजननुं माहरण उपयोग करे तो ते ब्रह्मचारीना प्रह्मचर्यमा शंकादि दोषो भावे, ते कारणथी निग्रंथे निश्चये प्रणीतनो आहार न लेवो. ७ ॥१०॥ व्या-स निग्रंथो भवेत् , यः प्रणीतं गलघृतादिबिंदुकं, उपलक्षणत्वादन्यदपि सरसमत्यंतधातुवृद्धिकरं कामोदीपकमाहारंप्रत्याहान भवेत. यः सरसाहारकन्न भवेत् स निग्रंथः तदा शिष्यः पृच्छति. तत्कथमिति चेत्तदा आचार्य आह, हे शिष्य ! निग्रंथस्य साधोः खलु निश्चयेन प्रणीतं सरसमाहारं भुजानस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शं| कादयो दोषा उत्पते. तस्मादित्यादिदोषप्रादुर्भावानिग्रंथः प्रणीताहारकारी न भवेत् ॥ ७ ॥ इति सप्तमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान. इति सप्तमी वाटिका. ।। ७ ॥ अथाष्टमीं प्राह निग्रंथ ते थाय के जे प्रणीतम्घीना टीपां जेमांथी झरतां होय तेवा उपलक्षणथी बीजा पण सरस, अत्यंत धातु वृद्धि करे DE तेवा कामोद्दीपक आहारनो आहर्ता न थाय जे सरस आहार करनार होय ते निग्रंथ न होय शिष्य पूछे छे 'ते केम ?' त्यारे आचार्य कहे छे-हे शिष्य ! निग्रंथ जो सरस आहारवें भोजन करे तो निश्चये ते ब्रह्मचारीनो ब्रह्मचर्यमा शंकादिक दोषो उत्पन्न थाय छ, ते माटे एवा दोषोनो प्रादुर्भाव न थाय तदर्थ निग्रंथ पणिताहारकारी न थाय; एवी रीते सप्तम ब्रह्मचर्य समाधिस्थान क{ सप्तमी वाटिका हवे अष्टमी कहे छे. नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोभणं आहारेत्ता हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह-निग्गंथस्स For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्चराध्ययन सूत्रम् ॥९० खलु हमापाए पाणभोयणं आहारेमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संकाया. तम्हा खलु नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणे मुंजिजा. ॥८॥ भाषांतर जे निग्रंथ अतिमामाथी पान भोजननो माहान होय ते निग्रंथ 'ते केम?' एम कहे त्यां आचार्य कहे के निग्रंथ, जो अतिमात्राथी ID अध्य.. पान भोजनन आहरण करतो होय तो ते ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्यमा शंकादि दोषो उद्भवे ते कारणथी निग्रंथ निश्चये अतिमात्राथी पान भोजनने न सेवे.८ ॥९०१॥ व्या०–स निग्रंथो भवेत् , योऽतिमात्राया द्वात्रिंशत्कवलाः पुरुषाणामाहारम्य मात्रा, तनोऽधिकाहारं, पानकं द्राक्षाशर्करादेर्जलमाहर्ता न भवेत्. यतो बागमे पुरुषस्य द्वात्रिंशत्कवलैराहारमात्रा, त्रियस्त्वष्टाविंशतिकवलेराहारमात्रा, नपुंसकस्य चतुर्विशतिकवलैराहारमात्रोक्तास्ति. ब्रह्मचारिणो ह्यधिकाहारपानीयं न करणीयमिति श्रुत्वा शिव्यः पृच्छति. तत्कयमिति चेत्तदाचार्यः प्राह-नियस्य खल्वतिमात्रमाहारपानीयमाहर्तुर्मात्राधिकमाहारकर्तुब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्ये शंकादयो दोषा उत्पद्यते. तस्माच्छंकादिदोषाणां प्रादुर्भावात् खलु निश्चयेन निग्रंथोऽतिमात्रया पानीयं भोजनं वा न मुझेत्. ॥८॥इत्यष्टमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. इत्यष्टमी वाटिका. ॥ ८॥ अथ नवम्युच्यते ते निम्रय थाय के जे अतिमात्रा, अर्थात् पत्रीश कोळिया पुरुषनी आहारमात्रा कही छे तेना करतां अधिक आहार ते अति| मात्रा आहार न करे स्त्रीयोने अहावीश कोलीया आहार प्रमाण कहेल छे तथा नपुंसक जे माटे चोवीश कोळिया आहारमात्रा कहेल छे. ब्रह्मचारीए तो अधिक आहार के पान न करवू. आ सांभळी शिष्य पूछे छे. 'ते केम? त्यां आचार्य कहे छे निग्रंथ जो For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम्। ॥ ९०२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमात्र आहार पाणीनुं आहरण करनार होय तो निश्चये ते ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्थमां शंकादिक दोषो उत्पन्न थाय छे. ते कारण माटे शंकादिक दोषोनो प्रादुर्भाव थाय छे तेथी निश्वये निग्रंथे अतिमात्र पान के भोजन न लेकुं ८ एम आ अष्टम ब्रह्मचर्य समाधिस्थानक आ अष्टमी वाटिका दवे नवमी कहे छे. नोनिग्गंथे विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह- निग्गंधे खलु विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थीजणस्स अहिलासणिज्जे हवइ, तओ णं तस्स इत्थीजणेणं अहिल सिज्जमाणस्स बंभयारिस्त बंभवेर संका वा० तम्हा खलु नो निग्गंथे विभूसियवत्तिए भवेज्जा ॥ ९॥ निर्ग्रथ विभूषणानुपाती - शरीर शोभानी पाछळ चीवट राखनार न होय ते निर्बंध थाय 'ते केम ?' एम पूछे त्यां आचार्य कहे छे निग्रंथ जो विभूषावृत्तिक- 'मारु शरीर विभूषित है एवी वृत्तिवाळो विभूषित शरीर थाय तो स्त्रीजननो निश्चये अभिलषणोय थाय, तदनंतर स्त्रीजनोना अभिलाषविषय बनेला प ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्य विषयमा शंकादि दोषो उत्पन्न थाय तेथी निश्चये निर्बंध विभूषित वृत्तिवाळो न थाय. ९ व्या० – स निग्रंथो भवेत्, यो विभूषानुषाती नो भवेत् विभूषां शरीरशोभामनुवर्त्तयितुमनुपतितुं विधातुं शीलमस्येति विभूषानुवर्ती, विभूषानुपाती वा, शरीरशोभाकरणोपकरणैः स्नानदंतधावनादिभिः संस्कारकर्ता न भवेत्, स साधुर्ब्रह्मचारी. इति श्रुत्वा तदा शिष्यः प्राह तत्कथमिति चेत्तदाचार्य आह- खलु निश्चयेन निग्रंथः साधुविभूषानुवर्तकः शरीरशोभाकारी विभूषितशरीरः स्नानाद्यलंकृततनुः पुमान् स्त्रीजनस्याभिलषणीयः कामाय वांछ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ॥ ९०२ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९०३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीयो भवेत् ततो णं ततः पश्चात् स्त्रीजनेनाभिलषणीयस्य ब्रह्मचारिणो ब्रह्मचर्य शंकादयो दोषा उत्पद्यते तस्माच्छंकादिदोषाणां प्रादुर्भावात्खलु निश्चयेन निग्रंथो विभूषानुवर्तिको न भवेत् ॥ ९ ॥ इति नवमं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. इति नवमी वाटिका. अथ दशमी कथ्यते निर्ग्रथ तो ते होय के जे विभूषानुपाती न होय विभूषा एटले शरीर शोभा, तेनी पाछळ पडतेमां चीवट राखत्री ए जेनुं शीळ होय ते विभूषानुपाती अथवा विभूषानुवर्ती कहेवाय शरीर शोभा करवानां साधन, स्नान दंतधावनादिक संस्कार न करतो होय ते साधु ब्रह्मचारी आ सांभळी शिष्ये पूछयुं 'ते केम ?' त्यां आचार्य कहे छे निश्वये निश्रेय = साधु जो विभूषानुवर्ती = शरीर शोभा करनार एटले स्नानादिकथी सुशोभित शरीर थाय तो तेत्रो विभूषित शरीर पुरुष स्त्रीजननो अभिलषणीय अर्थात् कामभोगार्थ वांना राखवा योग्य बने तेथी ते स्त्रीजनना अभिलाषा विषय बनेला ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्यम शंकादि दोषो उत्पन्न थाय छे ते कारणथी शंकादि दोषो प्रादुर्भूत न थवा माटे निग्रंथ विभूषानुपाती न थाय ९ नो निग्धे सद्दरूवरसगंधफासाणुबाई भवेज्जा हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह- निग्गंथस्स खलु सदरूवरसगंधफासाणुवाइयस्स वंभयारिस्स बंभचेरे संका० तम्हा खलु नो निग्गंथे सहरूवरसगंधफासाणुवाई भवेज्जा. जे निग्रंथ शब्द, रूप, रस, गंध तथा स्पर्श; ए पांच विषयोनो अनुपाती न थाय से निग्रंथ होय, 'ते केम?' एम शंका करी आचार्य कहे छे-जो निथ निश्चयें शब्द रूप रस गंध तथा स्पर्शनो अनुपाती थाय तो ते ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्यमां शकादि दोषो उद्भवे ते कारणथी निग्रंथे शब्दरूप रस गंध स्पर्शादि विषयोनी पाछळ पडनार न थवु. १० For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ॥९०३॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥ ९०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स निग्रंथो भवेत् स इति कः ? यः शब्दरूपरसगंधस्पर्शानुपाती न भवेत. शब्दच रूपं च रसश्र गंधा स्पर्शश्च शब्दरूपरसगंधस्पर्शाः, तान् अनुपतत्यनुयातीति शब्दरूपरसगंधस्पर्शानुपाती, शब्दो मन्मनादिः रूपं स्त्रीसन्धिलावण्यं, रसो मधुरादिः, गंधचंदनागुरुकस्तूरिकादिः, स्पर्शः कोमलस्त्वक्सौख्यदः, एषां भोक्ता साधुर्न स्यात् इत्युक्ते शिष्यः पृच्छति, तत्कथमिति चेदाचार्य आह निग्रंथस्य खलु निश्चयेन शब्दरूपरसगंधस्पर्शानुपातिब्रह्मचारिणो ब्रह्मच शंकादयो दोषा उत्पद्यंते, तस्माच्छंकादिदोषाणां प्रादुर्भावात्खलु निश्चयेन निग्रंथः शब्दरूपरसगंधस्पर्शानुपाती विषयासेवी न भवेत् ॥ १० ॥ एतद्दशमं ब्रह्मचर्य समाधिस्थानं. १० अधात्र सर्वेषां दशानां समाधिस्थानानां संग्रहश्लोकान् पद्यरूपानाह-तं जहा निर्बंध तो ते धाय के जे शब्दरूप रस गंध स्पर्शानुपाती न थाय. शब्द=मन्मनादिक, रूप = स्त्री संबंधि लावण्य, रस= मधुरादिक, गंध=चंदन, अगर, कस्तूरिका; इत्यादिक, स्पर्श= कोमळ -स्वक् इंद्रियने सुख उपजाननार; आ पांचेनो अनुपाती=भोक्ता साधु न होय आम कहेतां शिष्य पूछे छे 'ते केम ?' त्यां आचार्य कहे छे-निश्वये निग्रंथ जो शब्द रूप रस गंध स्पर्शादि विषय सेवे तो ते ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्यमां शंकादिक दोषो उत्पन्न याय छे. तेथी ए शंकादि दोषोनो प्रादुर्भाव न थाय ते माटे निग्रंथे निश्चये = सर्वथा शब्दरूप रस गंध स्पर्शना अनुपाती, ए विषयोनुं आ सेवन करनार न थबुं. १० आ दशम ब्रह्मचर्य समाधिस्थान कहुँ अथ हवे अत्रे सर्वदशे समाधिस्थानोना पद्य रूप संग्रह लोको कहे छे-जेबा के अं विवित्तमणानं । रहियं धीजणेण य ॥ बंभबेरस्स रक्खठ्ठा । आलयं तु निसेवए ॥ १ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ 1180811 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-३८ यन सूत्रम् ॥ भाषांतर अध्य०१६ ॥९०६॥ ॥९०५| जे विविक्त-एकांत होय तथा अनाकीर्ण-सांकडमां न होय तेमज स्त्रीजनोथी रहित होय एवा भालय-उपाश्रयने ब्रह्मचर्यनी रक्षा अर्थे साधु सेवे.१ ___ व्या०-साधुब्रह्मचारी तमालयं तमुपाश्रयं निषेवेत. तु पदपूरणे, तं के ? य आलयो विविक्त एकांतभूतः, तत्रत्य वास्तव्यस्त्रीजनेन चशब्दात्पशुपंडकैरपि रहितः, पंडकशब्देन नपुंसक उच्यते. कालाकालविभागागतसाध्वीजनं श्राद्वीजनं चाश्रित्य विविक्तत्वं ज्ञेयं, यदुक्तं-अठ्ठनीपक्खिए मोत्तुं । वायणाकालमेव य ॥ सेसकालंमि इंतीओ। नेया उ अकालचारीओ ॥१॥ तस्माद्य आलयः स्यादिभिरसेवितस्तनालयं ब्रह्मचारी साधुश्च निषेवेत इत्यर्थः. पुनर्यश्चालयोऽनाकीर्णो गृहस्थानां गृहाद दूरवर्ती. किमर्थ ? ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ, यो हि स्वब्रह्मचर्य रक्षितुमिच्छति स एतादृशमुपाश्रयं निषेवते. अत्र लिंगव्यत्ययः प्राकृतत्वात्. ॥ १॥ साधु ब्रह्मचारी ते आलय उपाश्रयने सेवे ('तु' पादपूरणार्थ छे.) ते केवो आलय ? जे आलय विविक्त एकांत भूत होय वळी त्यां वसता स्त्री जनोए तेमज 'च' शब्दथी पशुपंडक बगेरेथी पण रहित होय पंडक शब्दं करी नपुंसक कहेवाय छे. अही काळ तथा अकाळना विभाग पूर्वक आवतां साध्वीजन तथा श्राद्धीजनने आश्रय लइ विविक्तपणुं समजवानुं छे. कड्युछे के-'अष्टमी पावी मूकीने तथा वाचना समय छोडीने बाकीना काळमां स्त्रीयोने अकाले विचारनारी जाणवी ? ते कारणथी जे आलय स्त्रीआदिके सेवित न होय तेवा आलयने ब्रह्मचारी अने साधु सेवे, चळी जे आलय अनाकीर्ण होय, अर्थात् गृहस्थोनां घरोथी दूर होय, 'शा माटे ! ब्रह्मचर्यनी रक्षा अर्थे जे पोतानुं ब्रह्मचर्य जाळवत्रा इच्छे ते आवा उपाश्रयने सेवे अहिं प्राकृत होवाथी रक्षार्था=ए For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kababirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie उत्तराध्य | भाषांतर अध्य०१६ यन सूत्रम् ॥९०६॥ ॥९०६॥ بقية المنافسا للاحتفالية الحالية التالية लिंगव्यत्यय दोप नथी.१ मणपहायजणणि । कामरागविवणि ॥ बंभचेररओ भिक्खू । थीकहं तु विवजए ॥२॥ ब्रह्मचर्य पाळतो भिक्षु, मनने आह्वाद उत्पन्न करनारो तथा कामरागने वधारनारी एवी स्त्रीसंबंधी कथाने विशेष वर्जे-छोडीदीये. २ व्या०-अथ द्वितीयं-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः स्त्रीकथां विवर्जयेत् , स्त्रीणां कथा स्त्रीकथा, तां त्यजेत्. कीदृशी कथा? मनःप्रह्लादजननीमंतःकरणस्य हर्षोत्पादिकां, पुनः कीदृशी ? कामरागविवर्धनी विषयरागस्यातिशयेन वृद्धिकी. ॥२॥ हवे बीजु कहे छे ब्रह्मचर्यमां रत-परायण थयेलो भिक्षु, साधु. स्त्री कथाने व दीये स्त्रीयोनी कथाने त्यजी दीये केवी कथा ? मनः महाद जननी अंतःकरणने हर्ष उत्पन्न करनारी तथा कामराग विवर्द्धिनी, अर्थात् विषयमा प्रीति अतिशय वधनारी.२ समं च संथवं थीहिं । संकहं च अभिक्खणं ॥ बंभचेररओ भिक्खू । निच्चसो परिवजए ॥ ३ ॥ स्त्रीयोनी साथे संस्तव परिचय, तेमज फरी फरीने तेओनी साथे संकथा, ब्रह्मचर्य परायण भिक्षु नित्यशः हमेशां परिवर्जे-त्यजी दीये. व्या-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुनित्यशो निरंतरं सर्वदा स्त्रीभिः सम संस्तवमर्थादेकासने स्थित्वा परिचयं, च पुनरभीक्ष्णं वारंवारं संकथां स्त्रीजातिभिः सह स्थित्वा बढी वार्ता परिवर्जयेत् , सर्वथा त्यजेत्. ॥ ३॥ ब्रह्मचर्य रत ब्रह्मचर्य पाळवानी प्रीतिवाळो भिक्षु, नित्यशः निरंतर सर्वदा स्त्रीयोनी साथे संस्तव अर्थात् तेओनी जोडे एक आसन उपर बेसीने परिचय तथा अतीक्ष्ण-वारंवार संकथा, स्त्रीजातिनी साथे स्थिति करी घणीक बातो करवानुं परिवर्जे सर्वथा त्यजी दीये. Donopoया For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९०७॥ भाषांतर JE अध्य०१६ | ॥९०७॥ لالالالالالالالفقطافتالمانی ایتالیا نیاریفانة अंगपञ्चंगसठाणं । चामल्लवियपेहियं ।। बंभचेररओ थीणं । चक्खुगिझं विवज्जए॥४॥ स्त्रीयोना अंग प्रत्यंग अने संस्थान, तेमज सुदर लपित-भाषण तथा प्रेक्षित आदिक जे कंद चक्षुवडे गृहण कराय ते ब्रह्मचर्य परा- यण साधु विवर्जे-त्यजी दीये.४ ___ व्या०-ब्रह्मचर्यरतो साधुः स्त्रीणामंगप्रत्यंगसंस्थानं चक्षुर्लाह्यं विवर्जयेत्. अंगं मुखं, प्रत्यंगं स्तनजघननाभिकक्षादिकं, संस्थानकं कटीविषये हस्तं दत्वोच॑स्थायित्वं. पुनः स्त्रीणां चारूलपितपेक्षितं चक्षुह्यं विशेषेण वर्जयेत्. चारु भनोहरं यदुल्लपितं मन्मनादिजल्पितं, प्रकृष्टमीक्षितं वक्रावलोकनमेतत्सर्व परित्यजेत. कोऽर्थः १ ब्रह्मचारी हि स्त्रीणामंगप्रत्यंग संस्थानं चारुभणितं कटाक्षरवलोकनमेतत्सर्व दृष्टिविषयमागतमपि, ततः स्वकीयं चक्षुरिंद्रियं बलान्निवारयेदित्यर्थः. ॥४॥ ब्रह्मचर्यमां रत=आसक्त साधु, स्त्रीयोनां अंग-मुखादिक तथा प्रत्यंग-स्तन जघन नाभि कक्षादिक अवयवो अने संस्थान केड उपर हाथ दइने उभवा वगेरे स्थिति विशेषो, वली स्त्रीयोनुं चारु मनोहर उल्लपित मन्मनादिक बोलवू तथा प्रकृष्ट छे 'क्षित=तिर्यग् दृष्टिथी अवलोकन आ सघळं त्यजी दीये. शो अर्थ समजाव्यो ? ब्रह्मचारीए, स्त्रीयोनां अंग, प्रत्यंग, संस्थान, सुंदर भाषण, कटाक्षथी अवलोकन: आ सर्व पोतानी दृष्टिना विषयमा आवेल होय तो पण पोतानुं चक्षुरिंद्रय ग्राथ बलात्कारथी ते तरफथी निवारी लेवू. कूइयं रुइयं गीयं । हसियं थणियकंदियं ॥ बंभचेररओ थीणं । सोयगिझं विवजए ॥ ५॥ ब्रह्मचर्यमां रत-प्रोतिवाळो साधु, स्त्रीयोनां जित, रुदित, गीत, इसित, स्तनित, कंदिप; इत्यादिक पोताना श्रवणेद्रिय ग्राह्य थयां اظ شتلات للتكون تلك العمل النقالة For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Smmmm उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ ९०८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होय ती पण विशेषतः - इरादा पूर्वक= थर्जयां ते तरफ लक्ष्य जवा न देवु. ५ व्या० - ब्रह्मचर्यरतः स्त्रीणां कूजितं, रुदितं गीतं, हसितं स्तनितं, कंदितं श्रोत्रग्राह्यं कर्णाभ्यां गृहीतुं योग्य विशेषेण वर्जयेत्, न शृणुयादित्यर्थः ॥ ५ ॥ ब्रह्मचर्य परायण साधु स्त्रीयोनां कूजित, रुदित, गीत, दसित, स्वनित तथा क्रेंदित; ए सर्व श्रोत्रग्राह्म = पोताना कानवडे गृहण करवा योग्य होय तो पण ते सर्वने वर्जवा न सांभळवां एवो भावार्थ छे. ५ हार्स कीडरयं दप्पं । सहसा वित्तासियाणि य ॥ ( सहभुत्तासणाणि य - इति वा पाठः) बंभचेररओ धीणं । नाणुचिंते कयाइवि ॥ ६ ॥ ब्रह्मचर्यरत साधु, स्त्रीयोनां हास्य, क्रीडा, रत-मैथुन, दर्प, सहसा वित्रासितध्दीवरावुः इत्यादिने कदापि अनुचितवे नहि. ६ व्या०—ब्रह्मचर्यरतो ब्रह्मचारी स्त्रीणां हास्यं, पुनः क्रीडां तथा रतं मैथुनप्रीति, दर्प स्त्रीणां मानमर्दनादुत्पन्नं गर्व, पुनः सहसा विवासितानि सहसा अकस्मादागत्य पश्चात्पराङ्मुखस्थितानां स्त्रीणां नेत्रे हस्ताभ्यां निरुध्य भयोत्पादनहास्योत्पादनानि सहसा वित्रासितान्युच्यते एतानि पूर्वानुभूतानि कदापि नानुचिंतयेन्न स्मरेत्. अथ च सहभुक्तासनानि नानुचितयेद. सह इति स्त्रिया सार्धं भुक्तं, एकासने उपविशनपूर्व भोजनानि कृतान्यपि न स्मरेत्. सहासनभुक्तानीति वक्तव्ये सहभुक्तासनानीति प्राकृतत्वात्. ब्रह्मचर्यमां निरत थयेलो ब्रह्मचरी, स्त्रीयोनां हास्य, वळी क्रांडा, तथा रत=मैथुन, प्रीति, दर्प= स्त्रीयोने मनाववाथी उत्पन्न For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ॥ ९०८ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यन सूत्रम् ॥ ९०९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तो गर्व, तेमज सहसा वित्रासित=सहसा अकस्मात् पाछळथी आवीने पूंठवाळी बेठेली स्त्रीनां नेत्रो हाथ वती संधीने भय उत्पन्न करवो, ए सहसावित्रासित कहेबाय छे. आ तमाम साधु दशाथी पूर्व काळमां जे अनुभव्यां होय तेनुं कदापि अनुचितन= स्मरण न करे. 'सहभुत्तासणाणि य' आवो बीजा चरणनो पाठ भेद छे. तेनो अर्थ एवो छे के स्त्रीनी साथे एक आसन उपर बेसीने पूर्व जे भोजन करेल होय तेने पण याद न करे, आमां 'सहासनभुक्तानि' आम कहेतुं जोइये तेने बदले 'सहभुक्तासनानि' एवो प्रयोग पाठांतरां करेल हे ते प्राकृतमां तेम थइ शके छे. ६ पणीयं भक्तपाणं तु । खियं मयविवदृणं ॥ बंभचेररओ भिक्खू । निचसो परिवजए ॥ ७ ॥ ब्रह्मचर्य परायण भिक्षु प्रणीत खास तैयार करेला भक्त तथा पान के जे शीघ्र मळ वधारनार के तेने तो नित्यशः हमेशां परिवर्जे त्यजी दीये. व्या० - ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः प्रणीतं क्षरट्टनादिरसं भक्तमहारं, तथा पानं द्राक्षाखर्जूरशर्करादिमिश्रितं पानीयं नित्यशः परिवर्जयेत् सर्वदा परित्यजेत् सदा सेवनाद्गार्थं स्यात् तथा ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुर्यदाहारं पानीयं च क्षिप्रं शीघ्रं मदविवर्धनं कामोद्दीपकं भवति, तदपि नित्यं परिवर्जयेत् ॥ ७ ॥ ब्रह्मचर्यरत भिक्षु, प्रणीत जेमांथी घी चुचवतुं होय तेवा भक्त=अन्न तथा पान द्राक्ष, खजुर साकर आदिथी मिश्रित पानीय शरबत, इत्यादिकने नित्यशः सर्वदा परिवर्जे सदा सेवन करवाथी गार्ध्य= लोलुपता थाय छे. वळी ब्रह्मचर्यरत भिक्षु, जे आहार अथवा पानी पि=शीघ्र मद वधारे कामोद्दीपक थाय तेने पण नित्ये परिवर्जेछेके त्यजी दीये. ७ धम्मल मियं काले । जत्तत्थं पणिहाणवं । नाइमन्तं तु भुंजिज्जा । वंभचेररओ सया ॥ ८ ॥ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१६ ॥ ९०९ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९१०॥ |भाषांतर अध्य०१६ ॥९१०॥ ब्रह्मचर्यरत साधु, सदा प्रणिधानधान्-चित्तस्थर्यवाळो रही धर्मथी मळेल तथा मित क्षुधा निवृत्ति पूरतो आहार ते पण काळे मात्र देह रक्षार्थे जमे अने ते अतिमात्र अधिक प्रमाणनो आहारतो नज जमे. ८ व्या०-ब्रह्मचर्यरतः साधुब्रह्मचारी सदाऽतिमात्रं मात्रातिरिक्तमतिमात्रं मात्राधिकमहारं नैव भुंजीत. परं कीहशमाहारं जीत ? धर्मेण लब्धं, न तु विद्यतार्य गृहतं तदपि काले देहरक्षणार्थमेव मुंजीत, तदहारं कदाचित्सरसमपि लब्धं, तदा सदेव न भुजीत. कीदृशा ब्रह्मचारी साधुः ? प्रणिधानवान् , प्रणिधानं चित्तस्य स्थैर्य, तद्विद्यते यस्य स प्रणिधानवान् , चित्तस्वास्थ्ययुक्त इत्यर्थः ॥ ८॥ ब्रह्मचर्य परायण साधु ब्रह्मचारी सदर अतिमात्र मात्राथी अतिरिक्त एटले मात्राथी अधिक आहार नज जमे, त्यारे केवो आहार जमे ? धर्म बडे मेळवेलो, अर्थात् कोइने ठगी जेतरीने न लीधेलो, ते पण काळे मात्र देह रक्षणार्थे जमे. ते आहार कोइ वख्ते सारो मल्यो होय तो संघरी राखीने रोज न खाय किंतु यत्रस्थ-ज्यारे मल्यो त्यारेज उपयोग करी नाखे केवी साधु ? पणिधानवान् अणिधान-चिंतनुं स्थैर्य, ते जेने विद्यमान छे तेवो प्रणिधानवान् अर्थात् चित्तनी स्वस्थावाळो. ८ विभूसं परिवजिजा। सरीरपरिमंडगं ॥ बंभचेररओ भिक्खू । सिंगारत्थं न धारए ॥९॥ ब्रह्मचर्य पाळतो भिक्षु, शरीरने परिमढ न करे शोभावे जेवी विभूषानुवर्जन करे त्यजे शृंगारार्थ कंड पण धारण न करे. ९ व्या-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षुः शरीरस्य परि समतान्मंडन नखकेशादीनां संस्कारणं शृंगारार्थ परिवर्जयेत्, पुनब्रह्मचर्यधारी विभूषां सम्यग् वस्त्रादिविहितशरीरशोभा परिवर्जयेत् ॥ ९॥ For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१६ ॥९११॥ ब्रह्मचर्यमा रहेतो भिक्षु, शरीरने परि=समंतान् मंडन, नख केश इत्यादिकना संस्काररूप क्रिया शृंगारार्थ परिवर्जे तद्दन उत्तराध्या छोडी दीये. वळी ए ब्रह्मचर्यधारी धारि विभूषा वस्त्रादिक बडे शरीरनी शोभपण परिवर्जे तजी दीये.९ अथ पूर्वे जे शंका कांक्षापन सूत्रम् दिक दूषण थाय एम कछु ते सर्व दृष्टांतथी दृढ करेल छे. ॥११॥ सद्दे रूवे य गंधे य । रसे फासे तहेव य ॥ पंचविहे कामगुणे । निच्चसो परिवजए ॥ १० ॥ व्या-ब्रह्मचारी नित्यशः सर्वदा शब्दं कर्णसुखद, रूपं नेत्रप्रीतिकरं, पुनर्गधं नासासुखदं तथा रसं मधुरादिकं, तथैव स्पर्श त्वकपीतिकर, एवं पंचविधकामगुणान् परिवर्जयेत् ॥१०॥ अथ यत्पूर्व मुक्तं शंकाकांक्षादिषणं all स्यात् , तत्सर्व पृथक् दृष्टांतेन दृढयति ___ आलओ धीजणाइन्नो । थीकहा य मणोरमा ॥ संथवो चेव नारीणं । तासि इंदियदंसणं ॥ ११ ॥ कूडधं कइयं गीयं । हसिथ भुत्तासणाणि य ।। पणीय भत्तपाणं च । अइमायं पाणभोयणं ॥१२॥ गत्तभूसणमिटुं च । कामभोगा य दुजया ॥ नरस्सत्तगवेसस्स । विसं तालउड जहा ॥ १३ प्रण गाथानो मेळो संबंध छे, स्त्रीजने आकीर्ण-व्याप्त आलय-स्थान, मनोरम स्वीकथा, वळी नारीश्रीनो संस्तव-परिचय, तथा तेनां इंद्वियोनु दर्शन, ११ ते स्त्रीयोनां कूजित, रुदित, गीत, हसित, तथा भुक्तासन-एकासने साथे भोजन, प्रणीत चाहीने बनावेला भक्तपान आहार तथा पान, अतिमात्र भोजन १२ इष्ट मनगम मात्र भूषण, तथा दुर्जय पवा कामभोगो; आ तमाम सामग्री भात्मगवेषक नरने माटे तालपुट विष जेबी छे. १३ المناومنيكافا اعلان نتانیان نشانان For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९१२॥ भाषांतर अध्य०१६ | ॥९१२॥ तिमृभिर्गाथाभिः पूर्वाण्येव ब्रह्मचर्यसमाधिभंगकारणान्याह-आत्मगवेषकस्य नरस्य स्त्रीजनस्य चैतत्सर्व ब्रह्मचर्यघातकरं त्याज्यमित्यर्थः. आत्मानं ब्रह्मचर्यजीवितं गवेषयतीत्यात्मगवेषकस्तस्य वल्लभब्रह्मचर्यस्य, किमिव? तालपुटं विषमिव, यथा शब्द इवार्थे, यथा तालपुटं विषं तालुकस्पर्शनमात्रादेव त्वरितं जीवितं हति, तथैतदपि त्वरितं ब्रह्मचर्यजीवितमपहरतीत्यर्थः. तत्कि किमित्याह-स्त्रीजनाकीर्ण आलयो गृहमुपाश्रयः१, पुनर्मनोरमा मनोहरा स्त्रीकथा २, च पुनर्नारीणां संस्तवः, स्त्रीभिः सहैकासने उपविशनं परिचयकरणं ३, पुनस्तासां स्त्रीणां रागेणेंद्रियाणां नयनबदनस्तनादीनां दर्शनं ४, पुनः स्त्रीणां कूजितं, तथा रुदितं, पुनर्गीतं, तथा हसितं पुनः स्त्रीभिः मह भुक्तासनानि, पुनस्तथा प्रणीतरसभक्तपानसेवन, पुनरतिमात्रपानभोजनं. पुनर्गात्रभूषणार्थ शोभाकरणं, पुनर्जयाः, अधीरपुरुषैस्त्यक्तुमशक्या:. एतत्सर्व ब्रह्मचर्यधारिणा परिहरणीयं ॥ ११ ॥१२॥१३॥ आ त्रण गाथाओ वडे पूर्व कहेलांज ब्रह्मचर्यसमाधि भंगना कारणो कहे छे. आत्मगवेषक नरने स्त्रीजननां आ बधाय ब्रह्मचर्यनां घातक त्याज्य छे. आत्माने ब्रह्मचर्य जीवितरूपे गोतनारो आत्मगवेषक कहेवाय, अर्थात् जेने जीवित जेवू ब्रह्मचर्य बहालुं होय तेवाने स्त्रीनां कूजितादिक सर्व त्याज्य छे. केनीपेठे ? तालपुट-विष जेम यथा शब्द इचना अर्थमां छे; जेम तालपुट विष ताळवाने स्पर्श थतांमां जीवितने हणे छे तेम आ पण जलदी ब्रह्मचर्यजीवितर्नु अपहरण करे छे. ते शुं शृं? सर्व गणी देखाडे छे. स्त्रीजने आकीर्ण-व्याप्त आलय घर उपाश्रय १, वळी मनोरमा-मनने प्रियलागे एची स्त्रीकथा २, तथा नारीओनो संस्तव परिचय ३, वळी रागपूर्वक ते स्त्रीयोना इंद्रियो-नयन वदन स्तनादिकनुं दर्शन ४, तेम स्त्रीयोनां कूजित, रुदित, गीत, हसित तथा For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीयोनी साथे एकज आसन उपर बेसी जमवानां, तथा खास फरमाएशयी तैयार करावेलां अन्नपानतुं सेवन, ते पण खूब अन्नपाननो उपयोग, वळी अंग शोभाववा वस्त्राभूषणादि धारण अने दुर्जय कामभोगोनुं उप सेवन आ सकळां अवीर पुरुषोए त्यजी न शकाय तेवां ब्रह्मचारी पुरुषे परिहरणाय = दुरबीन खाज्य के ११ १२ १३ दुज्जये कामभोगे व । निञ्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सव्वाणि । वज्जिज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥ दुर्जय कामभोगोने नित्यशः दमेशां परिवर्जयां, अने सर्व शंकास्थानने पण प्रणिधानवान सावधान रही वर्जवां त्यजयां १४ न्या—प्रणिधानवःनेक्राग्रचित्तः सर्वाणि दशापि शंकास्थानानि यानि पूर्वोक्तानि तानि वर्जयेत्. पुनर्दुर्जयान् कामभोगान् परिवर्जयेत्. पुनः कामभोगग्रहणमत्यंत निवारणोपदेशार्थं ॥ १४ ॥ प्रणिधानवान् =एकाग्रचित्त रही ब्रह्मचर्यवारी पुरुषे सर्व दशेय शंकास्थान जे पूर्वे कड़ेवामां आव्यां ते तमामने वर्जवां त्यजवां पुनः तथा दुर्जय एवा कामभोगोने पण परिवर्जवा = तद्दन त्यजी देवा फरीने कामभोग पदनुं ग्रहण क ते ए कामभोगो निवारण करवा योग्य छे; एनाथी बचवा पुनः पुनः यत्नवान् रहेवं, एवा उपदेश माटे छे, १४ अत्यंत धारा चरे भिक्खू । धिइमं धम्मसारही ॥ धम्मारामे रए दंते । यं भवेरसमाहि ॥ १५ ॥ ब्रह्मचर्यमां समाहित=सावधान रहेतो भिक्षु, धर्मराम धर्मरूपी उद्यानमां विचरे धृतिमान् तथा धर्म छे सारथि जेनो वो बनी धर्ममां निरंतर रमण करनारा - साधुओनां संगमां दांत जितेन्द्रिय रही हमेशां वर्से. १५ For Private and Personal Use Only व्या- ब्रह्मचर्य समाधिमान् भिक्षुः साधुर्धर्मारामे चरेंत्. धर्म आराम इव दुःखसंतापनशानां सहेतुत्वात्, 毛美美美无毛美 भाषांतर अध्य०१६ ॥९१३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१६ ॥९१४॥ धर्मारामस्तस्मिन् धर्मारामे तिष्टेत् , शीलं धर्मः स एवारामस्तत्र विचरेदित्यर्थः कीदृशो भिक्षुः ? धृतिमान् धैर्ययुक्त उत्तराध्य पुनः कीदृशः ? धर्मसारथिधर्ममार्गप्रवर्तयिता. पुनः कीदृशः ? धर्मारामरतः, धर्म आ समंताद्रमंते इति धर्मारामाः यन सूत्रम् 3EL साधवस्तेषु रतः, साधुभिः सहयुक्तः, न त्वेकाकी तिष्टति. पुनः कीदृशः? दांत इंद्रियाणां जेता कषायजेता च. ॥१५।। ॥९१४॥ ब्रह्मचर्य समाधि धारण करी भिक्षु साधु धर्मारामने विषये विचरे, अर्थात् दुःख संतापथी तपी रहेलाने आरामबगीचानी पेठे मुखोत्पादक होवाथी धर्मरूपी आराममां स्थिति करे खरूं जोतां शीळ एज धर्म छे अने एज आराम तुल्य छे तेमां विचरे कवो भिक्षु ? धृतिमान धैर्ययुक्त तथा धैर्यसारथि धैर्य एज जेनो धर्ममार्गमा दोरी जनार सारथि छे एवो, तेमज धर्माराम एटले धर्ममांज आ=निरंतर रमण करनारा जे साधुओ तेश्रोमां रत, अर्थात् साधुओना संघमा रहेवावाळो. क्यांय एकाकी स्थिति न करे अने दांत=इंद्रियोनो तथा कपायोनो जोतनार. १५ । देवदाणवगंधव्वा । जक्खरक्खसकिन्नरा ॥ बंभयारि नमंसति । दुकर जे करिति तं ॥ १६ ॥ देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस अने किन्नर; ए सर्वे ब्रह्मचारीने नमस्कार करे छे. कारणके जेथी ते दुष्कर कर्म करे छे. १६ __व्या०-अथ ब्रह्मचयधरणात्फलमाह-देवा विमानवासिनो ज्योतिष्काश्च दानवा भवनपतयः, गंधर्वा देवगायनाः, यक्षा वृक्षवासिनः सुराः, राक्षसा मांसस्वादतत्पराः, किन्नरा व्यंतरजातयः, एते सर्वऽपि तं ब्रह्मचारिणं नमस्कुर्वति. तं के ? यो ब्रह्मचारी पुरुषः स्त्रीजनो वा दुष्करं कर्तुमशक्यं धर्म करोतीति शीलधर्म पालयति. ॥ १६ ॥ इवे ब्रह्मचर्य धारण करवाथी फळ थाय छे ते कहे छे-देवविमानवासीओ तथा ज्योतिषकजनो, दानव भवनपतिओ, For Private and Personal use only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन सूत्रम् ३६ भाषांतर JE अध्य०१६ ॥९१५॥ ॥९१५॥ गंधर्व देवना गायको, यक्ष-वृक्षोमां बसनारा देवयोनिविशेष, राक्षसन्मांसास्वादमां तत्पर, किन्नर व्यंतरजातिविशेष; आ सर्ये पण ब्रह्मचारीने नमन करे छे. केने ? जे ब्रह्मचारी-पुरुष अथवा साध्वी स्त्रीजन दुष्कर प्राकृत जीवथी न थइ शके तेवो धर्म | करे छ-शीळ धर्म पाळे छे. १६ ___ एस धम्मे धुवे णित्ते । सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिझंति चाणेणं । सिशिस्तति तहावरेत्तिबेमि ॥१७॥ आ-जिन-तीर्थंकरोएं देशित-प्रकाशित करेलो ब्रह्मचर्य धर्मध्रुव छे, नित्य छे तथा शाश्वत छे. आ शीळधर्म वडे घणो जीवो पूर्वे सिद्ध थया छे सिद्धिने प्राप्त थया छे. फरी पण तेवोज रीते बीजा पण सिद्धिने पामशे; एम हुं बोलुं छु. १७ व्या०-एष धर्मोऽस्मिन्नध्ययने उक्तो ब्रह्मचर्यलक्षणो ध्रुवोऽस्ति, परतीर्थिभिरनिषेध्योऽस्ति. तस्मात्प्रमाणप्रतिष्ठितः. पुनर्नित्यस्त्रिकालेऽप्यविनश्वरः, अत एव शाश्वत स्त्रिकाले फलदायकत्वात्. पुनर्जिनैस्तीर्थकरैर्देशितः प्रकाशितः, इति विशेषणैरस्य शीलधर्मस्य प्रामाण्यं प्रकाशितं. अनेन शीलधर्मेण बहवो जीवाः सिद्धा अतीतकाले सिद्धि प्राप्ताः. च पुनरनेन धर्मेण कृत्वेदानी सिध्ध्यंति.तथा तेन प्रकारेण शीलधर्मेण सेत्स्यति, अपरेऽनागताद्धायां सिद्धि प्राप्स्यति. अत्राध्ययने मुहुर्मुहुर्ब्रह्मचर्बसमाधिस्थानानि प्रकाशितानि, मुहुर्मुहुर्दषणान्युक्तानि, तदत्र शीलेऽत्यंतपालनादरप्रकाशनाय, न तु पुनरूक्तिदोषो ज्ञेयः. इत्यहं ब्रवीमीति सुधर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्राह. ॥ १७॥ आ धर्म जे आ अध्यायमां कहेवामां आव्यो ते ब्रह्मचर्य लक्षण धर्म, ध्रुव छे-अर्थात् बीजा धर्मवाळाओये पण जेनो निषेध न कराय तेवो छे, तेथी प्रमाणोवडे प्रतिष्ठा पामेलो छे; वळी नित्यत्रणेकाळमां नाश न पामे तेवो छे. अने तेथीज शाश्वतत्रणे For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१६ यन सूत्रम् ॥९१ DE | काळमां फळदायक छे; ए धर्म जिन तीर्थकरोये देशित प्रकाशित छे. आ वां विशेषणोथी आ शीलधर्भर्नु प्रामाण्य प्रकाशित कराय उत्तराध्य छे. आ धर्मवडे बहुये जीवो भूतकाळमां सिद्ध थइ गया छे, हमणा पण वर्तमानमां पय सिद्धि पामे छे तथा एज ब्रह्मचर्य धर्मवढे करीने भविष्य काळमां अपर बीजा पण अनागत अध्वा मार्गमां पण सिद्धिने प्राप्त थशे. आ अध्ययनमा वारंवार ब्रह्मचर्य समाधि॥९१६॥ स्थानो प्रकाशित कर्या तेम वारंवार दूषणो पण कह्यां ते आ शीलविषयमा अत्यंत आदर प्रकाशन करवा कडेवामां आवेल छे एमां पुनरुक्ति दोषनी संभावना करवानी नथी. 'एम हुँ बोलु ऐ आ छेटु वचन पण मुधर्मास्वामी जंबूस्वामी प्रत्ये कहे छे. १७ इति ब्रह्मचयेसमाधिस्थानानामध्ययनं षोडश संपूणे. ॥१६॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकिर्तिगणीशिष्यश्रीलक्ष्मीबल्लभगणिविरचितायां ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं षोडश सपूर्ण. ॥ श्रीरस्तु ॥ ए प्रमाणे ब्रह्मचर्य समाधिस्थान नामक सोळमुं अध्ययन पूर्ण थयु एवी रीते उपाध्याय लक्ष्माकी तंगणाना शिष्य लक्ष्मीवल्लुभगणिये विरचित उत्तराध्ययनमुत्रनी अर्थदीपिका नामक वृत्तिमा सोळमुं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान नामर्नु अध्ययन संपूर्ण थयु. For Private and Personal use only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१७ ॥९१७॥ ॥ अथ सप्तदशमध्ययनं प्रारभ्यते ।। उत्तराध्य अथ पापश्रमणीय नामक सप्तदश अध्ययन आरंभाय छे.. पन सूत्रम् षोडशेऽध्ययने ब्रह्मचर्य गुप्तयः प्रकाशिताः, ता गुप्तयस्तु पापस्थानवर्जनादेव भवति, तस्मात्पापस्थानसेवनात्पा॥९१७॥ पश्रमणो भवति, ततः पापश्रमणज्ञानार्थ सप्तदशमध्ययनं प्रकाश्यते, इति षोडशसप्तदशयोः संबंधः ॥ 'सोळमा अध्ययनमा ब्रह्मचर्यगुप्तियो प्रकाशित करी, पण ते गुप्तियो पापस्थान वर्जवाथीज थाय छे ते कारणथी-पापस्थान सेवनथी पापश्रमण "याय छे तेथी पापश्रमण जाणवा माटे आ सप्तदशाध्ययन निरूपण कराय छे आ सोळमा तथा सत्तरमा अध्ययननी संगति छे.. जे केइए पव्वइए नियंठे धम्म सुणित्ता विणओववन्ने । सुदुल्लहंलहिउंबोहिलाभ। विमरेज्ज पच्छा य जहासुहं तु। जे कोइ प्रबजित-दीक्षा लीधेल निग्रंथ-साधु; प्रथम धर्म सांभळी विनयथुक्त"थयेलो सुदुर्लभ बोधिलाभ-सम्यक्त्वने पामीने पश्चात् AL यथासुण जेम सुख थाय ते रीते विचरे..१ व्या०-या क्रश्चित्पत्रजितो गृहीतदीक्षो निग्रंथः साधुः पूर्व धर्म श्रुतचारित्ररूप धर्म श्रुत्वा, विनयं ज्ञानदर्शनसेवनरूपमुपपन्नः प्राप्तः सन्, पुमर्यः साधुः सुतरामतिशयेन दुर्लभ सुदूर्लभं योधिलाभं श्रीतीर्थकरस्य धर्म सम्य त्वं लब्ध्वा, पश्चायथासुखं यथेच्छं निद्राविकथाप्रमादवत्वेन विचरेत, सिंहत्वेनः धर्ममंगीकृत्य पश्चाच्छृगालवृत्त्यैव विचरेत् स च प्रमादी. ॥१॥ गुरुणा हे.शिष्य स्वमधीष्वेत्युक्तः सन् किं यक्ति तक्षह For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९१८॥ भाषांतर अध्य०१७ ॥९१८॥ ___जे कोइ प्रव्रजित जेणे दीक्षा ग्रहण करी होय तेवो निग्रंथ साधु पूर्व धर्म-श्रुतचारित्ररूप धर्मने श्रण करीने ज्ञानदर्शन सेवनरूप विनयबडे सम्पन्न थयेलो. वळी जे साधु सुतरां अतिशये दुर्लभ, सुदुर्लभ बोधिलाभ एटले-तीर्थकरे मरूपित सम्यक्त्व | लक्षण धर्मने पामी पछी यथामुख-मरजीमां आवे तेम-निद्रा, विकथा, प्रमाद, इत्यादि दोप युक्त बनी विचरे. अर्थान-सिंहभावे धर्म अंगीकार करीने शियाळ भावे जो वर्तन राखे तो ते प्रमादी कहेवाय. १ गुरु ज्यारे 'हे शिष्य! तुं अध्ययन कर!' आम कहे त्यारे शिष्य शुं बोले ? ते कहे छे-- सिज्जा दढा पाउरणमि अस्थि । उप्पज्जइ भुत्तु तहेव पाउं ।। जाणामि जं वह आऊसुत्ति । किं नाम काहामि सुएण भंते २ शय्या रढा छे जेम प्रावरण ओढया पाथरवानां पण मारे छे; तेमज भोजन करवा तथा पान करवा बधु जडी रहे छे. हे आयु भन् गुरो! जे जीव आदिक पर्ने छ तेतो हुँ जाणुं माटे हे भदंत! श्रुत-शाखाध्ययनने मारे शुं करवानुछे? २ व्या०-हे गुरू! शय्योपाश्रयो वसतिढा, वर्षाशीनातपपीडानिवृत्तिकरास्ति, प्रावरगं विस्त्रं शीताद्युपद्रवहरं शरीराच्छादकं मे ममास्ति वर्तते. हे गुरो! पुनर्भोक्तुं भोजनं, तथैव पातुं पानं योग्यमुपपद्यते मिलति. हे आयुष्मन्! हे भगवन् ! यद्वर्तमान जीवादिवस्तु वर्तते तदप्यहं जानामि, इति हेतोहे भगवन् ! श्रुतेन सिद्धांताध्ययनेन किं करिष्यामि ? अत्र हे भगवन्नित्यामंत्रणं आक्षेपे वर्तते. कोऽर्थः ? ये भगवंतोऽधीयंते, तेषामपि नातींद्रियज्ञानं, तत्क गलनालुशोषेणेत्यध्यवसितोऽयं भवति. स पापश्रमण उच्यते, इतीहापि संबध्यते सिंहावलोकनन्यायेन. ॥२॥ हे गुरो ! शय्या उपाश्रय वसति दृढा छे, अर्थात् वर्षा, शीत ताप; इत्यादिकनी पीडानी निवृत्ति करे तेवी छे, तेम भावरण= For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥९१९॥ भाषांतर अध्य०१७ ॥९१९॥ वस्त्र पण टाढ विगेरे उपद्रवोने हरे तेटलां शरीर ढांके तेवां मारी पासे हे, हे गुरो ! बळी मारे जमवाने भोजन तेमज पान जोइये तेवा योग्य मले छे. हे आयुष्यमान् ! हे भगवन् ! जे कंइ वर्तमान जीव आदिक वस्तु छे ते पण हुं जाणुं छु, तो पछी हे भगवन् ! श्रुत एटले सिद्धांतना अध्ययनवडे शुं करीश ? अत्रे 'हे भगवन्!' ए आमंत्रण आक्षेप अर्थमां छे. जे आप आ सिद्धांत ग्रंथोनुं अध्ययन करी रह्या छो तेने पण अतींद्रिय ज्ञान तो अद्यापि उत्पन्न थयु नथी तो पछी मारा जेवाये शा माटे गळां ताळवानुं शोपण खाली करवू.? आम ए शिष्यनो अध्यवसाय निश्चय जण.य तेथी ते पापश्रमण कहेवाय छे. आटलो संबंध अहीं पण सिंहावलोकन न्यायथी करवानो छे. २ जे के पव्यईए । निदासीले पगामसा ॥ सुच्चा पिच्चा मुबई । पावममणित्ति वुच्च ॥३॥ (जे कइ०) जे कोइ प्रघ्रजित-साधु, खाइ पीने प्रकाम च:- हुज निद्राशी उघणशी थइ सुतोज़ रहे छे ते 'पापश्रमणक, एम कहेवाय छे. ३ व्या०--स पापश्रमण इत्युच्यते, पापश्चासौ श्रमणश्च पापश्रमणः पापिष्टसाधुरित्यर्थः. स इति कः ? यः कश्चित्वजितो गृहीतदीक्षः सन पश्चात्पकामशोऽत्यंत भुक्त्वा दधिकरंवादिकं भुक्त्वा, पीत्वा दुग्धतक्रादिकमाचम्य निद्राशीलो भूत्वा सुग्वं प्रतिक्रमणादिक्रियानुष्ठानमकृत्वैव स्वपिति, स सम्यक् साधुन भवेदित्यर्थः ।।३।। ते 'पापश्रमण' एम कहेवाय छे, पापिष्ट माधु कहेवाय छे, ते कोण ? जे कोइ प्रबजित-दीक्षागृहण करीने पाछळथी प्रकामश=अत्यंत खाइने अर्थात् दहीं करंब इत्यादि भोजन करीने, तथा पान करीने, एटले दूध छाश इत्यादिक खूब पीने निद्राशील | बनी सुखेन्प्रतिक्रमणादि क्रियानुष्ठान कर्या विनाज मूतो रहे छे ते सम्यक् साधु न कहेयाय. ३ ثنا فلموقع सापाoppLODE BASED و و و For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९२०॥ भाषांतर अध्य०१७ ९२०॥ आयरियउवज्झाएहिं । सुयं विणयं च गाहए ॥ ते चेव खिसई वाले । पावसमणित्ति बुच्चा ॥४॥ (आयरिय०) जे आचार्योए तथा उपाध्यायोए श्रुत तथा विनय ग्रहण कराव्या तेओनीज जे पाल-अविवेकी बनी निंदा करे ते पापश्रमण पम कहेवाय छे. ४ व्या०-स पापश्रमण इत्युच्यते, स इति कः? यस्तानेवाचार्यान् गणवृद्धान्, उपाध्यायान् पाठकान खिसई इति | निंदते, किं जानत्येतेऽज्ञाः ? अहं यादृशमाचारं मूत्राणामर्थ जानामि, एतादृशमेते आचार्या उपाध्याया न जानंतीत्युक्त्वा निंदति, तान् कान् ? यैराचार्यैरुपाध्यायैश्च श्रुतं शास्त्रं, विनयं च ग्राहितः, शिक्षितश्च तान् प्रति निंदति, इति न जानाति यदेतैरेवाहं शिक्षितः, एतादृशः कृतघ्नः पापश्रमणः श्रमणाभासः श्रमणलक्षणेहींनः श्रमणत्वं मन्यमान: पापश्रमण उच्यते. कीदृशः सः ? वालोऽज्ञानी निर्विवेकीत्यर्थः ॥४॥ ते 'पापश्रमण' एम कहेवाय छे. ते कोण ? जे तेज आचार्यो गणवृद्धोने तथा उपाध्यायो-पाठकाने निदे छे. ए अज्ञ शुजाणे छ ? हुँ जेवो आचार अने सूत्रोनो अर्थ जाणुं छु एवो तो आचार्यों के उपाध्यायोए जाणे शुं आम कहीने तेओनी निंदा करे छे. ते कोण? जे आर्योए तथा उपाध्यायोए श्रुत-शास्त्र तथा विनय नाहित कराव्यांशीखव्यां तेनीज निंदा करे हे. एटलुं नयी जाणतो के एओएज मने शीखव्यं छे. आवो जे कृतघ्न होय ते पापश्रमण कहेवाय छे. ए श्रमणाभास, अर्थात् श्रमण लक्षणोनी हीन छतां पोते पोताने एम माने के "हुं श्रमण हुँ' ते पापश्रमण कहेवाय. ते केवो? बाल अज्ञानी विवेकहीन. ४ आयरिय उवज्झायाणं । सम्मं ना पडितप्पइ ॥ अपडिपूयए थद्धे । पावसमणित्ति वुच्चइ ॥५॥ For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |भाषांतर अध्य०१७ | ॥९२१॥ (आयरिय) जे आचार्यों तथा उपाध्यायोने सम्यक्प्रकारे परितृप्त नथी करतो अने अप्रतिपूजक-अर्थात् पोताना उपर उपकार उत्तराध्यन करनारना प्रतिपूज्यभाव न राखनार तथा स्तब्ध-अनन-गर्विष्ठ होय तेने 'पापश्रमण एम कहेवाय छे. ५ पन सूत्रम् JE . व्या-ज्ञानविषयं पापश्रमणत्वमुक्त्वा दर्शनविषयमाह-य आचार्याणां पुनरूपाध्यायानां सम्यक्प्रकारेण ॥९२१॥ वैपरीत्यराहित्येन न परितृप्यति प्रीतिं न विदधाति, पुनर्योऽहंदादीनां यथायोग्यपूजायाः पराङ्मुखो भवति, अप्रति पूजको भवति, अथवोपकारकर्तुरप्युपकारं विस्मार्य विस्मार्य तस्य प्रत्युपकारं किमपि न करोति, सोऽप्रतिपूजक उच्यते. पुनः स्तब्धोऽहंकारी, मनस्येवं जानाति यदहं महापुरुषोऽस्मि, एतादृशो मुनियः स्यात् स पापश्रमण उच्यते. ५ पूर्व गाथामां ज्ञानविषयक पापश्रमणपणु कयु हवे आ गाथामां दर्शन विषयक पापश्रमणत्व कहे छे. जे आचार्योना तथा | उपाध्यायोना प्रति सम्यक् प्रकारे विपरीतता रहित रहीने परितृप्त नथी थतो-पीति नथी पामतो, वळी जे अहंत आदिकनी यथा योग्य पूजा करवाथी विमुख रहेछे एटले अप्रतिपूजक थाय छे. अथवा पोताना उपर उपकार करनारना उपकारने भूली जइ तेनो का पण प्रत्युपकार ( बदलो) वाळतो नथी ते पण अप्रतिपूजक कहेवाय. वळी जे स्तब्ध अहंकारी होय ( मनमा एम जाणे जे | " हुँ महापुरुष छु" ) एको जे मुनि=होय ते पापश्रमण कहेवाय. ५ संममाणो पाणाणि । बियाणि भरियाणि य ॥ असंजए संजयमन्नमाणो । पावसमणित्ति धुचई ॥६॥ (संमहमाणो०) जे प्राणोने-द्वित्रिचतुरिद्रिय जीवोने संमईमान-पीडतो तेमज बीज-शाळ घडं आदिक सचित्त धान्यादिकनु पण समईन करतो तथा हरित लीलां दृर्षादिक तथा फळ पुष्पादिकने पण मईतो, वळी जे असंयत होवा छतां आत्माने-पोताने संयत माननारी wwwwwwwwwwwwwwww For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | भाषांतर अध्य०१७ ॥९२२॥ होय ते पापश्रमण कहेवाय छे. ६ उत्तराध्य व्या०-यः प्राणान् द्वित्रिचतुरिंद्रियान् संमईमनोऽतिशयेन पीडयन् , च पुन:जानि शालिगोधूमादिसचित्तयन सूत्रम् | धान्यानि संमईयति, च पुन हरितानि दुर्वादीनि फलपुष्पादीनि संमईयति, पुनर्योऽसंयतः सन्नात्मानं संयतं मन्यमानः, ॥९२२॥ स पापश्रमण उच्यते. ६ जे प्राणोने एटले द्वौद्रिय त्रींद्रिय तथा चतुरिंद्रिय जीवाने संमईमान=अतिशय पीडतो तथा बीन शाळ, घउं, इत्यादि सचित्त धान्यने तेमज लीलां दूर्वा आदिकने तथा पुष्प फळ वगेरेने मर्दन करे छे वळी जे पोते जराय संयत नहीं छतां पोताने संयत माने छे ते पापश्रमण कहेवाय छे. ६ संथारं फलग पीढं । निसज्ज पायकवलं ॥ अप्पमाजियमारुहह । पावममणित्ति वुचइ ॥ ७॥ सिंथारं०] जे संथारो, फलक, पीठ, निषद्या तथा पादकंबल; पने अप्रमाय-खखेर्या विना आरोहे-उपर चडे ते पाप श्रमण कहेवाय ७ व्या-पुनर्यः संस्तारं कंबलादिकं, फलकं पष्टिकादिकं, पीठं सिंहासनादिकं, निषीद्यते उपविश्यते इति निषद्या, DE तां निषिद्यां स्वाध्यायातपनादिक्रियायोग्यां भूमि, पादकंबलं पादपुंछनमित्याधुपकरणमप्रमृज्य रजोहरणादिना प्रमार्जनमकृत्वा जीवयतनामकृत्वारोहते स पापश्रमण उच्यते. ॥ ७ ॥ बळी जे संस्तार-चंबलादिक, फलक-बाटी, पीठ-सिंहासनादिक तथा निपद्यावेसवार्नु स्थान स्वाध्याय आतापना इत्यादि क्रियायोग्य भूमि अने पादकंबळमाद पुंछन; इत्यादिकने अममृज्य एटले रजोहरणादिकवडे मार्जन कर्या विना-झाटक्या वगर, الان الانانا نازنان الان اعلانات التلقت تلتقاتلنا For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन सूत्रम ॥९२३| | अर्थात् जीव यतना एटले 'रखे कोइ जीव मरे' एवी शंकाथी चीवट राखवी ते यतना, तेवी यतना न करीने जे आरोहण करे | | अर्थात संस्तर आदिक उपर चडी बेसे ते पापश्रमण कहेवाय छे. ७ भाषांतर दबद्दवस्स चरई । पमत्ते य अभिक्खणं ॥ उल्लंघणे य चंडे य । पावसमणित्ति बुच्चइ ।। ८॥ अध्य०१७ (दबद्दवस्स०) जे 'दव दबू' पवा पगमूकवाना अवाज करतो चाले छे तथा वारंवार प्रमाद करे तथा जे उल्लंघन करे तथा चंड ॥९२३॥ क्रोधी होय ते पापश्रमण कहेवाय. ८ व्या०-पुनर्य आहाराद्यर्थ यदा ब्रजति, तदा दवदव इति घातैः पृथिवीं कुट्टयन् शीघ्रं शीघ्रं व्रजति, ईमिमिातें JE न साधयति, पुनर भीक्ष्णं वारंवारं प्रमत्तः प्रमादी सर्वाभिः समितिभिहीनः स्यात, अप्रमत्तो न भवति. पुनर्य उल्लंघनः, उल्लंघयत्यज्ञानिनामथवा बालानां हास्याद्यविविनयकर्तृणां भापयन् स्वकीयमाचारमतिकामयतीत्युल्लंघनः, पुनर्यचंडः क्रोधाध्मानचितः स्यात , स पामश्रमण उच्यते. ॥ ८॥ ___ बळी जे भिक्षादिक वास्ते जतो दोय त्यारे 'दब् दबू' एवा पग मुकचाना आघात शब्दोथी पृथ्वीने कूटतो उतावळो उतावळो चाले अर्थात् ईर्यासमितिने न साधे, वळी अभीक्षणवारंवार प्रमत्त-प्रमादी रहे एटले सर्व समितिहीन होय, अपमत्त न रहे; तेमज जे ज्ञानीना के अज्ञानी वाळ अविनय करता होय तेओने व्हीवडाची पोताना आचारनुं उल्लंघन करे तथा जे चंड-पदाय क्रोधथी जेनुं चित्त धुंधवर्तुज होय ते पापश्रमण कहेवाय छे.८ पडिलेहेइ पमत्ते । अवउज्झइ पायकंबल ।। पडिलेहा अणाउत्ते । पावसमणित्ति बुचई ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९२४॥ भाषांतर अध्य०१७ | ॥९२४॥ (पडिलेहेइ०) जे प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे छे तथा पादकंबळने ज्यां त्यां नाखी दीये छ वळी प्रतिलेखनामां अनायुक्त-आलस्यवाळो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ९ व्या०-पुनः पापश्रणः स उच्यते, स इति कः ? यो वस्त्रपात्रादिकं निजोपकरण प्रमत्तः सन् प्रतिलेखयति, मनोविना प्रतिलेखयतीत्यर्थः, पुनर्यः पादकंवलं पादपुंछनमथवा पात्रकंबलमपोज्झति, यत्र तत्राऽप्रमार्जितेऽपतिलेखिते स्थले निक्षिपति. अत्र पात्रकंबलग्रहणेन सर्वोपधिग्रहणं कर्तव्यं. पुनर्यःप्रतिलेखनायां स्वकीयसर्वोपधिप्रतिलेखनायामनायुक्त आलस्यभाक् प्रत्युपेक्षोनुपयुक्त इत्यर्थः. एतादृशः पापश्रमणो भवेत् . ॥९॥ बळी पण पापश्रमण तो ते कहेवाय के जे वस्त्र पात्र आदिक पोतानां उपकरणोने प्रमत्त रही मतिलेखन करे-मन विना प्रतिलेखना करे. तथा जे पादकंबळपादपुंछन अथवा पात्रकंबल वगेरेने ज्यां त्यां नाखी दीये अर्थात जे स्थान मार्जित न करेल होय तेम पतिलेखित निरिक्षित पण न होय तेवा स्थानमा फगावी नाखे. अही पात्रकंबल पदथी सर्व उपकरणो ग्रहण समजवा छे, वळी जे प्रतिलेखनामा एटले पोतानां सर्व उपधिनी प्रतिलेखना करवामां अनायुक्त-चीवट वगरनो आलस्ययुक्त रहे अर्थात प्रत्युपेक्षावाळो अनुपयुक्त कहेवाय. एवो पापश्रमण होय छे. ९ पडिलेहेइ पमत्ते । से किंचि हु निसामि वा ॥ गुरुं परिभवई निच्छ । पावसमणित्ति वुचई ॥ १० ॥ (पडिलेहेइ०) प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे अने ते वळी कंद सांभळतां सांभळ्तां करे अने गुरुने पराभव-संताप करे ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १० الا وهتافاااااااااااااا For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Sri Kalassagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्य०१७ ॥९२५॥ व्या-स पापश्रमण इत्युच्यते, सः कः ? यः साधुर्यत्किचिवस्तूपध्यादिकं प्रतिलेखयति, तदा किंचिनिशम्य उत्तराध्य- प्रतिलेखयति. कोऽर्थः ? यदा प्रतिलेखनावसरे कश्चिद्वार्ता करोति तदा तदातोश्रवणव्यग्रचित्तः सन् प्रतिलेखयतीपन सूत्रम् त्यर्थः, पुनर्यो गुरूनित्यं पराभवति संतापयति स पापश्रमणो भवति. ॥१०॥ ॥९२५॥ ते पापश्रमण एम कहेवाय के जे साधु जे कंइ वस्तु उपकरणादिकनुं प्रतिलेखन करे त्यारे कंइक सांभळीने प्रतिलेखन करे Balछे. शुं का ? जे समये प्रतिलेखन अवसरे कोइ वात करतो होय ते सांभळवामां व्यग्रचित होइने प्रतिलेखन करे अर्थात् मनविना ३८ प्रमादि बनी प्रतिलेखन=निरिक्षण करे, तेमज गुरुजनोने नित्य हमेशां पराभवे=संतापे ते पापश्रमण एम कहेबाय छे. १० बहमाई पमुहरी । थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ।। असंविभागी अचियत्ते । पावसमणित्ति बुचई ॥११॥ | [बहुमाइ०] जे बहुमायी, प्रमुखर, स्तब्ध, लुब्ध, अनिग्रहं, अविभागी तथा अचियत्त होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ११ ___ व्या०-पुनर्यो बहुमायी प्रचुरमायायुक्तो भवति, पुनर्यःप्रमुखरः प्रकर्षेण वाचालो भवति, पुनर्यः स्तब्धोऽहंकारी, पुनयों लुब्धो लोभी, पुनर्योऽनिग्रहः, न विद्यते निग्रहो यस्य सोऽनिग्रहोऽवशीकृतेंद्रियः, पुनर्योऽसंविभागी गुरुग्लानादीनामुचिताहारादिना न प्रतिसंविभजति, पुनर्योऽचियत्त इति गुर्वादिष्वप्रीतिकर्ता स पापश्रमण इत्युच्यते. ॥११॥ जे बहुगायी-बहुज छळ कपटयाळो होय तथा प्रमुखरी-पकर्षे करी वाचाळ होय तेमज स्तब्ध अहंकारी वळी लुब्ध लोभी तथा अनिग्रह इंद्रियनिग्रह इंद्रियनिग्रह विनानो,अर्थात् जेनां इंद्रियो वश्य न होय, बळी जे असंविभागी-गुरुने के बीजा अशक्तने | all पोता पासेथी उचित आहार दइ तेने पोताना संविभागी करतो न होय तेवो, तथा जे साधु अचित्त गुरु विगेरेमां प्रीतियुक्त न For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie TF उत्तराध्य यन सूत्रम् । ॥९२६॥ भाषांतर अध्य०१७ ॥९२६॥ होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ११ विवाय य उईरेइ । अहम्मे अत्तपन्नहा ।। बुग्गहे कलहे रत्ते । पावसमणित्ति बुचई ॥ १२ ॥ (विवायं०) जे विवादने उदीर्ण करे-न होय त्यां विवाद जगाडे, अधर्मी तथा आत्म प्रज्ञाने हणनारो, व्युद्ग्रह मारामारी तथा | कलहम्मोढाना कजीया करवामां रक्त-आसक्त रहे ते पोप श्रमण एम कहेवाय छे. १२ व्या-यः पुनरेतादृशो भवति स पापश्रमण इत्युच्यते. सः कः? यो विवादं कलहमुदीरयति, डपशांतमपि पुनरुज्ज्वालयति,पुनर्योऽधर्मोऽसदाचाररतः, पुनर्य आप्तप्रज्ञहा, आप्तां सद्बोधरूपतया हितां प्रज्ञा हंतीत्याप्तप्रज्ञहा तत्वबुद्धिहंता,पुनर्यों व्युद्ग्रहो भवति,विशेषेणोदहो दंडादिप्रहारजनितयुदं व्युहस्तस्मिन् रतः,तथा पुनः कलहे वाग्युद्धे रतः, | जे वळी आवो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ते केवो ? जे विवाद मांहो मांहे विवाद उपजावे. ठरी बेठा होय तेने पुनः सळगावे. तेमज जे अधर्म असदाचरणी तथा आप्तप्रज्ञहा-एटले आप्तासबोधरूप होवाथी हितकारक मज्ञाने हणनारी, अर्थात तस्व बुद्धिनो हता, बळी जे व्युद्ग्रदंडादि प्रहार जनित युद्धमा रत=तैयार तथा कलहवाणीनां युद्ध गाळागाळीना कजीया तेमां पण रत=मंड्यो रहे ते पापश्रमण कहेवाय छे. १२ अधिरासने कुकूईए । जत्थ तत्थ निसो गई ॥ आसणंमि अगाउते । पावसमणित्ति वुचई ॥ १३ ॥ (अधिरासन०) जे अस्थिरासन तथा कौकुच्यिक-चेन चाळा करनारो तथा ज्यां त्यां बेसी जाय अने आसनमा अनायुक्त-असावधान रहेनारो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १३ For Private and Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥९२७|| व्या-पुनर्योऽस्थिरासनो भवति, अस्थिरमासनं यस्य सोऽस्थिरासनः, आसने स्थिर न तिष्ठतीत्यर्थः, पुनर्यः कौकुचियकः, कौकुच्यं भंडचेष्टादिहास्यमुखविकारादिकं तत्करोतीति कौकुच्चिको भंडचेष्टाकारी. पुनर्यो यत्र तत्र | भाषांतर निषीदति, सचित्तपृथिव्यामप्रासुकभूमौ तिष्ठति. पुनरासनेऽनायुक्त आसनेऽसावधानः, स पापश्रमण उच्यते. ॥१३॥ अध्य०१७ बळी जे अस्थिरासन आसने स्थिर थइ बेसनारो न होय तथा जे कौकुच्यिक होय अर्थात् भांडचेष्टा हास्य मुखविकारादि चेष्टा BE||२२७॥ कौकुच्य कहेवाय ते करे ए कौकुचियक एटले भांड वगेरेनी चेष्टाओ करनार, बळी जे ज्यां त्यां बेसी जाय, अर्थात् सचित्त पृथिवीमां अमामुक भूमिमां बेसी जाय तथा आसनमां अनायुक्त-चीवट वगरनो एटले आसन संस्कारादिकमां असावधान रहेतो होय ते पापश्रपण एम कहेवाय छे. १३ सरयक्खपाओ सुबई । सिजन पडिलेहई ॥ संथारए अणाउत्ते । पावसमणिति बुचड़ ॥ १४ ॥ (सरयक्ख०) जे सरजस्कपाद-धूळे भरेला पगे सूइ जाय अने शय्यानी परिलेखना न करे तेमज संस्तरमा पण अनायुक्त असावधान रहे ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १४ । व्या०-पुनः स पापश्रमण उच्यते, सः कः ? यः सरजस्कपादः स्वपिति, संस्तारके रजोऽवगुंठिनचरणोऽप्रमज्यैव शेते, पुनर्यः शय्यां न प्रतिलेखयति, शय्यां वसतिमुपाश्रयं न सम्यक् प्रतिलेखयति, न प्रमार्जयति. पुनर्यः संस्तरकेऽनायुक्तः, यदा संस्तारके शेते तदा पौरूषोमभणित्वाऽविधिनाऽसावधानत्वेन शेते, स पापश्रमण उच्यते. १५ चळी ते पापश्रम कहेवाय छे के जे सरजस्कपाद-पग रजे भर्या होय एम ने एम मुवे छे, अर्थात् संस्तारकमां रजवाळा पगे, कालाका her For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ॥९२८॥ झाटक्या वगरज मुइ जाय छे. तेम शय्या चिछानानी पतिलेखना-निरीक्षणादि नयी करतो, शय्या वसति उपाश्रयमांना कशांने "JE सारी रीते प्रमार्जनादि प्रतिलेखना करतो नयी तथा जे संस्तारक-पोताना संथारामां अनायुक्त एटले ज्यारे संथारामां सूवे त्यारे 16भाषांतर पौरूपी जाण्या विनाज अविधियी असावधान रही मुवे ते पापश्रमण एम कडेवाय छे. १४ DEअध्य०१७ दुद्धदहीविगईओ। आहारेई अभिक्खणं ॥ अरए अ तवोकम्मे । पावसमणित्ति बुचई ॥ १५॥ | ॥९२८॥ (दुद्ध०) जे दृध तथा दहिनी विकृतिओ मलाइ श्रीखंड आदिक अभीक्ष्ण वारंवार आहारे छे-खाय छे' अने तप,कर्ममा अरत-अ-JE णगमावाळो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १५ व्या०-यो दुग्धदधिनी विकृती अभीक्ष्णं वारंवारमाहारायति, पुनर्यस्तपःकर्मण्यरतस्तपःकर्मण्यरतिं धत्ते स पापश्रम इत्युच्यते. ॥१५॥ जे दूध तथा दहिनी विकृतिओ अभीक्ष्ण वारंवार आहार करे छे पण जे तपः कर्ममा अरत अरति अप्रीति राखे ते पपश्रमण एम कहेवाय छे.१५ अत्यंतमि य सरमि । आहारेय अभिक्खणं ॥ चोईओ पडिचोएई । पावसमणित्ति वुच्चइ ॥१६॥ (अत्यंतंमि०) वळी जे सूर्य अस्त पाम्या पछी रोज रोज आहार लीये अने कोइ प्रश्न करे तो तेने सामो बोले ते पापश्रमण कहेवाय.१६ व्या-पुनर्यः सूर्येऽस्तमिते सति अभीक्ष्णं प्रतिदिनमाहारयति, आहारं करोति, पुनर्यश्वोदितः प्रेरितः सन् प्रतिचोदयति, केनचिद्गीतार्थेन शिक्षितः सन् तं पुनः प्रतिशिक्षयति स पापश्रमण उच्यते. ॥१६॥ कलाकाखामा For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥९२९॥ पुनरपि जे मूर्य आथमी गया पछी अभीक्ष्ण रोज रोज आहार करे छे, पण कोइए प्रेरणा करतां सामो प्रतिवाद करे, एटले कोइ सारो गीतार्थ साधु कंई शीखवे तो तेने पोते सामो शीखवत्रा मंडे ते पापश्रमण कहेवाय. १६ भाषांतर आयरियपरिचाई। परपासंडसेवई ।। गाणं गणिय दुभूए । पारसमणित्ति वुच्चई ॥१७॥ 1 अध्य०१७ (आयरिय०) आचार्यनो परित्याग: करे अने परपाखंडने सेवे तथा गाणंगणिय-गणे फरनारो अने दुर्भूत-दोषी थयेलो पाप- | ॥९२९॥ श्रमण कहेवाय छे. १७ व्या-पुनर्य आचार्यपरित्यागी, आचार्यान् परित्यजतीत्याचार्यपरित्यागी. आचार्या हि सरसाहारमपरेभ्यो ग्लानादिभ्यो ददति, अस्मभ्यं च वदति तपः कुवैत्वित्यादि गुरूणां दूषणं दत्वा पृथग्भवति. पुनर्यः पारपाखंडान सेवते इति परपाखंडसेवकः, परेषु पाखंडेषु मृतुशय्यादिसुखं दृष्ट्वा तान् सेवते. पुनों गाणंगणिको भवति, गणागणं षण्मासाभ्यंतर एव संक्रामतीति गाणंगणिकः अत एव दुर्भूनो दुराचारतया निंदनीय इत्यर्थः, स पापश्रमण उच्यते. ॥१७॥al बळी जे आचार्य परित्यागी एटले आचार्योंने परित्यजनारो 'आ आचार्यों सरस आहार आव्यो होय तो ते वीजा दुःखी जनोने आपी दीये छे अने अमने कहे छे के-तमे तो तप करो' आवां आवां गुरुनां दूषणो बोली पोते गुरुथी नोखा पडी जाय अने जे पर पाखंडने सेवे अर्थात् जेमां मृदु-वाळां शयनासनादि मुख सामग्री देखे तेषां पाखंडने 'सेवे अने जे गाणंगणिक-एक गणामांथी छ महीना न थया होय त्यां तो बीजा गणमां जाय, अत एव दुर्भुत-दुराचार थवाथी निंदनीय होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १७ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यवन सूत्रम् 1183011 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सयं गेहं परिचज्ज | परगेहंसि वावडे | निमित्तेन य वबहरई । पावसमणित्ति बुचई ||१८|| ( सय गेहं०) जे पोतानुं घर छोड़ने पर घरमां व्यावृत थाय. तथा निमित्त सामुद्रिकादिकवडे व्यवहार करे ते पापभ्रमण कहेवाय. १८ व्या०यः पुनः स्वयं स्वकीयं गृहं परित्यज्य दीनां गृहीत्वा पूर्वमेकं त्यक्त्वा परस्यान्यस्य गृहस्थस्य गृहे परगृह व्यामियते, आहारार्थी सन् तत्कार्याणि कुरुते पुनर्यो निमितेन शुभाशुभकथनेन व्यवहरति द्रव्यमर्जयति, अथवा गृहस्थादिनिमित्तं व्यवहरति क्रयविक्रयादिकं कुरुते, स पापश्रमण इत्युच्यते ॥ १८ ॥ जे पोतानां धरनो परित्याग करीने एटले दीक्षा ग्रहण करी पोतानुं घर तज्या पछी पाछो पर अन्य गृहस्वना घरमा व्यावृत थाय अर्थात् आहारार्थी थइ तेनां कार्य कर्या करतो होय तेमज जे निमित्त एटले शुभाशुभ कथन करी व्यवहरतो होय द्रव्य उपार्जन करे छे अथवा गृहस्थादिकने निमित्ते व्यवहरे अर्थात् क्रयविक्रयादि करे ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १८ सन्नाइविड जेम | निच्छइ सामुदाणियं । गिहिनिसि च बाहेर पावसमणित्ति वुच्चई ॥ १९ ॥ (सन्नाइ० ) स्वक्षाति = पोताना बंधुओर आपेल पिंड - भिक्षाने जमे अने सामुदायिक-घणांने घरेथी मलती भिक्षा न इच्छे तथा गृहस्थाने त्यां निषद्या-पलंग वगेरे उपर बडी बेसे ते पापभ्रमण एम कहेवाय छे. १९ व्या० यः पुनः स्वज्ञातिपिंडे स्वागबंधुभिर्दतमाहारं भुंक्ते, रागपिंडं भुंक्ते इत्यर्थः पुनर्यः सामुदायिकं, समुदाये भवं सामुदायिकं गृहाद् गृहाद् गृहीत भैक्ष्यं नेच्छति न वांछति, पुनयों गृहिनिषयां, गृहिणो निषया गृहिनिषद्या, गृहस्थस्य गृहे गत्वा पल्यंका दिकं वाह्यत्यारोहयति, मंचमंचिकापीठिकादिषु तिष्ठतीत्यर्थः, स पारश्रमण उच्यत इति. १९ For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१७ ॥ ९३० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie भाषांतर العليا الحالي الجلد من الا अध्य०१७ ॥९३१॥ बळी जे स्वज्ञातिपिंड एटले पोताना बंधु आदिक सगांओए दीधेल आहार जमे छे. अर्थात् गगपिंड एटले संबन्धी जाणी उत्तराध्य-JE | सारुं बनावीने आपेल अन्न-उपयोजे छे. तथा जे सामुदायिक समुदायमा थयेलं अर्थात घर घरथी लीधेल भिक्षानने नथी पन सूत्रम् इच्छतो, अने गृहिनिषद्या एटले गृहस्थोने घरे जइ ते गृहस्थोना. पलंग विगेरेना उपर आरोहण करे -मांचा मांची बाजीठ विगेरे ॥९३१॥ उपर चडी बेसे हे ते पापश्रमण एम कद्देवाय हे. १९ | एयारिसे पंचकुसीलसबुडे। रुवंधरे मुणिपवराण हिडिमे ॥ एयंसि लोए विममेव गरहिए। न से इह नेव परंमिलोए ॥२०॥ (एयारसे०) पतश आया पांच कुशीलोथी संवृत संयुक्त तथा रूपधर मुनिवेषधारी मनिप्रवरोमा हेठो गणातो आ लोकमां विषनी पेठे निंदित थर, ते अह्रींनो के परलोकनो रहेतो नथी. २० । व्य०--एतादृशो रूपधरी मुनिवेषधारि, स इहास्मिन् लोके न, तथा परंसि परस्मिन् लोकेऽपि न. स गृहस्थोऽपि न भवति, माधुरपि न भवति, उभयतोऽपि भ्रष्ट इत्यर्थः. स कीदृशः ? पंचकुशीलसंवृतः, पंच च ते कुशीलाच पंचकुशीलास्नादसंवृत्तोऽजितेंद्रियः, अत्र प्राकृतत्वादकारलोपः, अथवा पंचकुशीलैः संवृतः सहितः, यादृशा जिनमते पंच कुशीलास्तन्मध्यवतीत्यर्थः. यदुक्तं-ओसनो पासत्थो । होइ कुशीलो तहेव संसत्तो ॥ अहछंदोवि य एए । अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥१॥ पापश्रमणोऽप्यवंदनीय एव. पुनः कीदृशः ? मुनिप्रवराणां प्रधानमुनीनां मध्येऽधः स्थितःस पापश्रमण एतस्मिन् लोके विषमिव गर्हितो विषमिव निद्यो विषमिव त्याज्य इत्यर्थः. २० एवो रूपधर मुनिवेषधारी ते आ लोकमांय नहि तेम परलोकमांय न समजबो-ते गृहस्थ पण न रयो तेम साध पण न थयो بالالالالالالالالالالالالات For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | ए पुरुष तो उभयनो भ्रष्ट थयो ते केवो ? पञ्च कुशील संवृतपञ्चकुशील जेवो ते असंवृत=अजितेन्द्रिय छे, (अहीं प्राकृत होवाथी |Jel उचराध्य-36 अकारनो लोप थयो गणी शकाय) अथवा पांच पकारनां जे कुशील तेणे संवृत सहित, जेवा जैन मतमा कुशील कह्या छे ते मांडूनो- 36 भाषांतर यन सूत्रम कयु छ के-'अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील तथैव संसक्त अने अधश्छंद आ पांच जिन मतने विषये अवंदनीय कह्या छे.' पापश्रमण अध्य०१७ ॥९३२॥ पण अवंदनीयज छे. वळी ते केवो ? मुनिपवर-पधान मुनियोनां मध्यमां अधःस्थित ते पापश्रमण आ लोकमां विष जेवो गर्हित | ॥९३ अर्थात विषनी पेठे त्यां जाय छे. २० जे बजए एए सया उ दोसे । से सुब्वए होइ मुणीण मञ्झे । एयंसि लोए अमियंव प्रहए । आराहए लोगमिणं तहा परित्तियेमि ॥२२॥ (जे वजए०) जे आटला दोषोने सदाय बर्जे ते मुनियोना मध्यमां सुव्रत थाय. मा लोकमां अमृत जेवो पूजित थइ आ लोकमां तथा JEL परलोकमां पण आराधक थाय एम हु' बोलु छु. २१ । व्या०--य एए इत्येतान् दोषान् सर्वदा वर्जयेत् , स सुव्रतः, सुष्टु व्रतानि यस्य स सुव्रतो महोज्ज्वलव्रतधारी, सर्वमुनिनां मध्ये एतस्मिन् लोकेऽमृतमिव पूजितो भवेत्, सर्वमुनीनामादरणीयः स्यात, पुनः सुव्रतः साधुरस्मिन् लोके, तथा परत्र परभवैऽप्याराधकः स्यादित्यहं ब्रवीमि. ॥२१॥ जे आ सघळा दोषोने सर्वदा वर्जे ते मुव्रत उत्तम जेनां व्रत के एवो महोज्वल व्रतधारी सर्व मुनियोना मध्यमां आ लोकने विषये अमृतवत् पूजित थाय, सर्व मुनियोनो आदरणीय बने तथा ए मुबत साधु आ कोकने विषये तथा पत्त्र परभव पण आरा For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥९३३॥ धक थाय; एम हुँ बोल इं. २१ इनि पापश्रमणीयमध्ययनं मतदशं ॥१७॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूधार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां पापश्रवणीयाख्यं सप्तदशमध्ययनं मंपूर्ण।। श्रीरस्तु । - एबी रीने आ पापश्रमणीय नामनुं सत्तरमुं अध्ययन पूर्ण थयु. आ प्रमाणे उपाध्याय लक्ष्मोकीतिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभगणि विरचित श्रीउत्तराध्ययनमूत्रनी अर्थदिपिका नामनी दृसिमां आ पापश्रमणीय नामर्नु सप्तदश अध्ययन संपूर्ण थयु. भाषांतर अध्य०१८ 6 ॥९३३॥ अथ संयतीयनामक अष्टादश अध्ययन. सप्तदशेऽध्ययने पापस्थानकनिवारणभुक्तं, तस्पापस्थाननिवारण संयमवतो भवति, म च संयमो हि भोगजयात ऋद्वेस्त्यागाच्च भवति, स च भोगत्यागः संपतराजर्षि टांतेनाष्टादशाध्ययनेन दृढयति, इति सप्तशाष्टादशयोः संबंधः. सत्तरमा अध्ययनमा पापस्थानकनुं निवारण कहेवामां आव्यु, ते पापस्थाननिवारण संयमवान्ने होड शके, ते संयम निश्चये भोगजय तथा ऋद्धिना त्यागयीज थाय माटे ते भोग त्याग संयत राजर्षिना दृष्टांतचडे आ अढारमा अध्यपनथी दृढ कराय छे; आम सत्तरमा तथा अढारमा अध्ययननी संगति हे. कंपिल्ले नयरे राया । उदिण्णवलवाणे ॥ नामेग सजए नाम । मिगव्वं वनिग्गए ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांगिल्य नगरमा जेनां बल-चतुरंग सेना तथा वाहनो उदीर्ण-सज छे एवो संयत नामे राजा हतो ते मृगव्या-मृगया करवाने नीकल्यो.१ उत्तराध्य___ व्या०-कांपिल्ये नगरे राजाभूत.कीदृशःस राजा? नाम्ना संयत इति नाम प्रसिद्धः, पुन: कोशः? उदीणयलवाहनः, || भाषांतर पन सूत्रम् उदीर्णमुदयं प्राप्तं बलं येषां तान्युदीर्णबलानि, उदीर्गवलानि वाहनानि यस्य स उदीर्णवलवाहनः, अथवा बलं चतुरंगं अध्य०१८ ॥९३४॥ गजाश्वरथसुभटरूपं, वाहनं शिविकावेसरप्रमुख, बलं च वाहनं च बलवाहने, उदीर्णे उदयं प्राप्ते बलवाहने यस्य | ॥९३४॥ म उदीयलवाहनः म संयतो राजा मृगव्यामुपनिर्गतो नगरादाक्षेटके गतः, मृगल्या आक्षेटक उच्यते. ॥१॥ JER कांपिल्य नगरने विषये राजा हतो. ते केवो राजा? नामे संयत-संयत नामथी प्रसिद्ध, वळी केवो ? उदीर्ण बळवाहन-उदित DEI बळवाळा जेनां वाहनो छे एवो अथवा बल एटले हाथी, घोडा, रथ तथा पायदळ; ए चतुर्विध सेना तथा वाहन पालखी म्याना आदिक जेनां उदीण तैयार-सज्ज-सद्य उपयोग योग्य छे एवो; ते संपत राजा मृगव्याने उद्देशीने बहार नीकळ्यो नगरनी बहार | आक्षेटक-शिकार माटे नीकळ्यो. मृगव्या आखेटक कहेवाय . १ हयाणीए गयाणीए । रहाणीए तहेब य ॥ पायत्ताणीए महया । सव्वआ परिवारिए ॥ २ ॥ (हयाणीप०)हयदळ, गजदळ, रथदळ तेमज महोटु पायदळः एम चार प्रकारनां सैन्यथी चारेकोर परिवारित थइने (नोकल्यो.) २ व्या-पुनः कीदृशः संयतो नृपः ? हयानामनीकं तेन हयानीकेन घोटककटकेन, तथा पुनर्गजानीकेन कुंजरकटकेन, तथैव रथानीकेन, पुनर्महता प्रचुरेण पादात्यनीकेन सर्वतः परिवारितः सर्वपरिवारसहितः ॥ २ ॥ युग्मम् ए राजा संयत केवो ? हयानीक घोडायूँ कटक, गजानीक हाथीनुं कटक, तेमज रथानीक स्थर्नु अनौक-दळ. तथा قاعات اليمن في المشافي و الزمالك في فلكه photo For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥९३५॥ महोटा=पुष्कळ पदाति पाळाओगें अनिक-सैन्य; एम चतुर्विध सैन्ययी सर्वतः परिवारित थइने ( नगरन बहार न कळ्यो.)२ HE भाषांतर मिये छुभित्ता हयगओ। कंपिल्लुज्जाखकेसरे ॥ भीए संते मिए नत्थ । वहेइ रसमुच्छिए ॥ ३ ॥ (मिये०) घोडा उपर चडेलो राजा कांपिल्य नगरना केसर नामना उद्यानमां प्रथमतो मृगने क्षोभ पमाडीने तथा व्हीयरावीने रसमां अध्य०१८ मूछित बनीने श्रांत-थाकेला-ते मृगने मारे छे. ३ E९३५॥ व्या०-स संयतो नृपो हये गतोऽश्वारूढस्तत्र कांपिल्योद्याने केसरनाम्नि पूर्व मृगान् क्षिप्वा प्रेरयित्वा अश्वन त्रासयित्वा तान् मृगान् वध्यनि. कीदृशः संयतः? रसमूर्छितः, रसस्तेषामास्वादानुभवस्त्र लोलुप, कीदृशान् मृगान् ? भीतान् , पुनः कीदृशान् ? ग्लानि प्राप्तान . ॥ ॥ ते संयत राजा हयगत घोडा उपर चडेलो, कांपिल्यपुरना केसर नामना उद्यानमा प्रथम मृगने घोडाथी भडकावीने तगडे छे अने पछी ते मृगनो वध करे छे, राजा केवो ? रस मूर्छित शिकारनी धुनमा तल्लीन बनेलो-मृगयाना तानमां लोलुप थयेलो, मृग केवो ? भीतत्रास पामेला तथा श्रांत=ालानी पामेला, (मृगने मारे छे.)३ अह केसरमि उजाणे । अणगारे योधणे । सज्झायज्झाणसंजुत्ते । धम्मज्झाण झियाय: ।।।। [अह०] आ केसरउद्यानमा कोइ तपोधन अनगार-साधु, स्वाध्याय तथा ध्यानसंयुक्त रहेतो धर्मध्यान- चिंतन करी रह्यो छे. ४ व्या०-अथ मृगाणां त्रासमारणोत्पादनानंतरं, केसरे उद्यानेऽनगारोधर्मध्यानमाज्ञाविचयादिकं ध्यायति, धर्मध्यानं चिंतयति. कथंभूतोऽनगारः? तपोधनस्तप एव धनं यस्य स तपोधनः, पुनः कीदृशः? स्वाध्यायध्यानसंयुक्तः ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९३६|| | भाषांतर अध्य०१८ ||९३६॥ मृगोने त्रास आपवानुं तथा मारवार्नु राजा चलावी रह्यो छे तेमां एम बन्यु के-ए केसर उद्यानमां कोइ अनगार साधु, धर्मध्यानाशाविचयादिकनुं चितवन करी रह्यो छे. ते अनगार केवो ? तपोधन=नपः एज जेने धन छे एवो तथा स्वाध्याय अने ध्यानमा जोडायेलो.४ अप्फोडवमंडमि । झायइ खबियासवे ॥ तस्सागए मिए पासं । वहेइ से नगहिवे ॥ ५॥ [भप्फोडव०] चोतरफ वृक्षादिकथी घेरायेला मंडपमा ज्या क्षपित छे आश्रव जेणे एवो ते अनगार ध्यान करे छे तेनो पासे आवेला एक मृगने ते नराधिपे हण्यो. ५ व्या-"अप्फोडवमंडवंमि" इति वृक्षाद्याकार्णोऽफोडवः, म चासो मंडपश्चाफोडवमंडपस्तस्मिन्नफोडवमंडपे, नागवल्लीद्राक्षादिभिर्वेष्टिते स्थाने इत्यर्थः तस्मिन् वृक्षनिकुंजे लतावेष्टिते सोऽनगारोऽप्फडवमंडपे स्थितो ध्यान ध्यायति, धर्मध्यानं चिंतयति. कोदशः सोऽनगारः ? क्षपिताश्रवः, क्षपिता निरूद्वा आश्रवा येन स क्षपिताश्रवो निरुद्धपापागमनद्वारः. अत्र पूर्वगाथायामपि ध्यानं ध्यायतीत्युक्तं, पुनरपि पदुक्तं तदत्यंतादरख्यापनार्थ. स नराधिपः संयतो भूपस्तस्य धर्मध्यानपरायणस्य माधोः पार्थे आगतं मृगं हतिस्म. ॥५॥ __वृक्षादिकवडे चारे कोर आकीर्ण होय ते अफोडब कहेवाय छे तेवो मंडप अफोडवमंडप, अर्थात् नागरवेल, द्राक्षा आदिक लता मोथी वीटायेल स्थानमा ते वृक्षानिकुंजरतावेष्टित मंडपमां ते अनगार-साधु स्थित थइ ध्यान करो रहेल धर्मध्यान धर्मचिंतन करी रह्यो छे; ते साधु केवो ? क्षपित=निरुद्ध छे आश्रव जेणे, अर्थात् जेणे पापागमन द्वार निरुद्ध छे एचो, ए धर्मध्यान For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्य०१८ ॥९३७॥ परायण साधुनी पासे आवेला मृगने ते नराधिप-संयत राजाए इण्यो. अत्र पूर्व गाथामां 'ध्यान चिंतवे ' एम कपुछे पार्छ । उत्तराध्य-5 आ गाथामां पण 'ध्यायति' एम कई ते ए अनगारनो ध्यानमा आदरातिशय जणाववा माटे होवाथी पुनरुक्ति नथी. ५ पन सूत्रम् ॥ ___अह आसगओ राया । खिप्पमागम्म सो तहिं ॥ हए मिए उ पामित्ता । अणगारं तत्थ पामई ॥६॥ ॥९३७॥ SEL [अह आसगओ०] अथ-अनंतर-अश्वगत-घोडे चडेलो ते राजा क्षिप्र-शीघ्र त्या आवीने इत थयेला मृगने जोइ स्पां अनगरने दीठा. ६ व्या०-अधानंतरमश्वगतोऽश्वारूढः संयतो राजा तत्र तस्मिन् लतागृहे क्षिप्रं शीघ्रमागत्य हतं मृगं दृष्ट्रा तत्रानगारं साधु पश्यति ॥ ६॥ अथ ते पछी अश्वगत घोडा उपर सवार थयेलो संयत राजा त्यां ते लतामंडपने विषये क्षिप-शीघ्र आवीने हन थयेला मृगने जोइने ज्यां दृष्टि फेरवे छे त्यां तो अनगार-साधुने जोया. ६ अह रापा तत्थ संभंतो । अणगारे मणाहओं ॥ मए उ मंदपुण्णेर्ण । रसगिद्धेण चित्सुणा ॥ ७॥ [अहराया०] अर्थ तदनंतर त्यां राजा संभ्रांत थइ गयो अने मनमा विचार करवा लाग्यो के मंद पुण्य, रसा लोलुप तथा घातकी; एवा में आ अनगार जराकमां मारी नाख्यो होत. ७ व्या०-अधानंतरं तत्र तस्मिन् स्थाने स संयतो राजा संभ्रांतो मुनिदर्शनाहीत इत्यर्थः, मनस्येवं चिंतयतिस्म, मया मंदपुण्येन न्यूनभाग्येनाऽनगारः साधुरनाहतोऽल्पेनाहतोऽभूत, स्तोकेन टलित इत्यर्थः. मया पापेनायं साधुर्मारित. एवाभूदित्यर्थः कीदृशेन मया ? रसगृद्धेन मांसास्वादलोलुपेन. पुनः कीदृशेन मया ? चित्तुणा घातु For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥९३८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केन जीवहननशीलेन ॥ ७ ॥ अथ=अनंतर ते लताग्रहस्थाने ते राजा संयत संभ्रांस-मुनिने जांइने भयभीत जेवो थइ गयो मनमां एम चिंतन करवा लाग्यो के-में मंद पुण्य=हीन भाग्ये आ अनगार=साधु अनाहत कर्यो अर्थात् अल्पभावे न हण्यो थोडाकथीज टळी गयो=त्रची गयो, पण पापो तथा रसमृद्ध=मांसना आस्वादनमां लोलुप अने घातुक= जीवहत्यामां टेवायला एवा में आ साधु मारीज नाख्यो होत. ७ आसं विसज्जइत्ता णं । अणगारस्स सो निवो || विणणं बंदए पाए । भगवं इत्थ मे खमे ॥८॥ (आस) ते नृपे अश्वने मूकी दर से अनगारना पगमां पडी विनयवडे चंदन कयुं. (अने बोल्यो के ) हे भगवन् अत्रे मने क्षमा करो. ८ व्या॰—स नृपोऽनगारस्य विनयेन पादौ वंदते. किं कृत्वा ? अश्व विसृज्य, णमिति वाक्यालंकारे, घोटकं त्य पुनः स नृप इति वक्ति, हे भगवन् ! इत्थ इत्यत्र मृगवधे मेऽपराधं क्षमस्त्र ? अपराधमिति पदमध्याहार्य ||८|| नृपे अनगारना पादनुं विनयथी वंदन कर्यु केम करीने ? अश्व= घोडाने छोडी दइने ('णं' ए पद, वाक्यालंकाररूप छे.) ते नृप बोल्यो हे भगवन् ! अत्र=आ मृगनो वध कर्यो ते बाबतना मारा अपराधने आप क्षमा करो. अहीं अपराध पदनो अध्याहार करवानो छे. ८ अह माणेण सो भयवं । अणगारे झाणमस्सिए । रायाणं न पडिमंते । तओ राया भयदुओ ||९|| [अइमोणेण॰] ते पछी ते भगवान् अनगार= साधु मौनधरी ध्याननो आश्रय करो बेठा छे तेथी राजाने कंइ प्रतिमंत्रण = प्रत्युत्तर न आप्युं तेथी राजा भयदुत भयभ्रांत घर गयो. ९ व्या० - अथ राज्ञा मुनेश्वरणवंदना कृता, ततोऽनंतरं स भगवान् ज्ञानातिशययुक्तोऽनगारः साधुमैनिन ध्यानमा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९३८ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९३९॥ श्रितः सन् , पिंडस्थपदस्थरूपस्थरूगतीतादिकं ध्यायन , अथवा धर्मध्यानमाश्रितः सन् राजानं संयतभूपंप्रति न निमंउत्तराध्य- त्रयति न जल्पयति: ततस्तस्मात्कारणान्मुनेरभाषणाद्वाजा भयदुनो भयभ्रांनोऽभूत्, इति वक्ति च. ॥९॥ पन सूत्रम् ज्यारे राजाए मुनिनां चरण वांद्या ते पछी ते भगवन्-ज्ञानातिशययुक्त अनगार साधु गनाडे ध्यानांश्रित थइने एटले पिंडस्थ, ॥९३९BE पदस्थ; रूमस्थ, तथा रूपांतीत; इत्यादिक ध्यान करता, अथवा धर्मध्याननेज आश्रित रही राना-संयत भूपति पति कंइपण बोलता नथी. ते उपरथी-मुनिए कंइ भाषण न कर्य तेथी राजा भयद्रुत भयथी भ्रांत बनी आम बोल्यो. ९ _संजा ओ अहमस्सीति । भयवं बाहराहि मे ॥ कुद्धे तेएण अणगारे । दहिज नरकोडिए ॥ १०॥ | [सजओ०] हु संयत राजा हूं, हे भगवन् ! मारी साथै बोलो क्रुद्ध अनगार पोताना तेजवडे रिसमुदायते बळी नाखे. १० व्या-किं वक्ति ? तदाह-राजा मनस्येवं जानातिस्म अयं माधुर्मा नीचं ज्ञात्वा किंचिद्विरूपं त्वरितं मा कुर्यात तस्मात् स्वकीयं नृपत्वं स्वनामसहितमवादीदिति भावः. हे भगवन्नई संयतो राजास्मि, इति हेनोहे भगवन् ! मे व्याहर! मां जल्पय ? हे स्वामिन् ! भवादृशः साधुः क्रुद्धः सन् तेजसा तेजोलेश्यादिना नरकोटिं दहेत्, तस्मात् स्वामिना क्रोधो न विधेयः ॥१०॥ ते शुं बोल्यो ? ते कहे छे. राजाए मनमा एम जाण्यु के आ साधु मने नीच जागीने कई उतावळे अबढुं न करी नाखे तेथी पोतार्नु नाम दइने बोल्यो. हे भगवन् ! हु संयत नामनो राजा छ एटला माटे मने कहो पारी साथे बोलो; हे स्वाभिन ! तमारा जे यो साधु क्रुद्ध थाय तो पोताना तेजवडे तेजोलेश्याना सामर्थ्यथी नाकोटिने दहेबाळी दीये. माटे स्वामीए क्रोध न करवो. १० For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Tag उत्तराध्य न सूत्रम् ॥ ९४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभयं पत्थिवा तुझं । अभयदाया भवाहि य ॥ अणिच्चे जीवलोगंमि । किं हिंसाए पसज्जसि ॥ ११ ॥ स्वारे मुनि बोल्या के हे पार्थिव । तने अभय छे तेमज तुं पण अभयदाता थजे. आ अनित्य जीवलोकमां हिंसामां केम प्रसक थयो ? १ व्या० - तदा मुनिराह - हे पार्थिव ! तुभ्यमभयं भयं मा भवतु. स्वमप्यभयदाता भवाहीति भव । च इति पादपूरणे. जीवानामभयदानं देहि ? जीवानां हिंसां मा कुर्वित्यर्थः हे राजन्ननित्ये जीवलोके संसारे किमिति किमर्थ हिंसायां प्रसज्यसि १ प्रकर्षेण सज्जो भवसि ? जीवलोकस्थानित्यत्वे स्वमप्यनित्योऽमि. किमर्थं गविधं करोषीत्यर्थः ॥ ११॥ समये साधु बोल्या के - हे पार्थिव ! तने अभय हो एटले सर्वथा माराथी कोइ पण प्रकारनुं भयमां डा. तेम तुं पाते पण अभयदाता थजे ('च' पादपूरणार्थ छे) जीवोने अभयदान देते; जीवोनी हिंसा मां कर. हे राजन् ! अनित्य जीवलोकमां=आ अनित्य संसारमां शा माटे तुं हिंसामां प्रसक्त थाय छे ? जीवलोक अनित्य छे ते साथे तुं पण अनित्य छो तो पछी प्राणिवध शा माटे करी रह्यो छो ? ११ या सव्वं परिचज्ज | गंतव्वमवसस्म ते ॥ अणिच्चे जीवलांगंमि । किं रज्जमि पसज्जसि ॥ १२ ॥ [जया०] ज्यारे सर्व परित्याग करीने तारे अवश बनीने जवानु छे तो अनित्य जीवलोकमां राज्यमां केम प्रसक्त थाय छे! १२ व्या०—हे राजन् ! यदा सर्वमंतः पुरादिकं कोष्ठागारभांडागारादिकं परित्यज्यते तव परलोके गंतव्यं वर्तते, कथंभूतस्य ते ? अवशस्य परवशस्य मरणसमये जीवो जानाति न म्रियते, परं किं करोति ? जीवः परवशः सन् स्वेच्छां विनैव म्रियते यदुक्तं - सब्वे जीवावि इच्छति । जीविडं न मरिज्जिडं । तेन हे नृप ! तब सर्वे परित्यज्य मर्तव्यमस्ति, For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥ ९४० ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TEL JOF नदाऽनित्ये जीवलोकेऽनित्ये संमारे किंराज्ये प्रमजसि ? प्रसंग करोषि ? गृद्धो भवमि ? इति. ॥१२॥ उनराध्य हे राजन् ! ज्यारे आ सर्व अंतःपुर जनाना वगेरे, नथा कोठार भंडार आदिक परित्यजीने तारे परलाके जगर्नुज छे. केवा । भाषांतर पन सूत्रम् | थइने ? अवश-परवश बनीने-मरण समये जीव तो घणे जाणे के मारे न मरवू. पण करे शुं ? जीव परवश थइ स्वेच्छा विनाज अप०१८ ॥२४॥ JE मरे छ. कचं छे के-'सर्वे जीवो पोते जीववाने इच्छे के कई मरवाने कोड इच्छतो नथी' तेथी हे नृप ! तार आ सर्वनो परित्याग ॥९४१॥ करी मरवा छे तो पछी अनित्य जीवलोकमा अर्थात् आ अनित्य संसारमा तुराज्यमां केम प्रसक्त थइ रह्यो छे ? राज्यसुखमां ad | केम कहोंटी रह्यो ? केम राज्यवैभत्रमा गृद्धप्रति आसक्त रहे छे ? १२ जीवियं चेव रुवं च । विज्जुसंगयचंचलं ।। जत्थ तं मुज्जसि रायं । पेच नावबुज्झसि ॥१३॥ |JEL हेराजन् जेमा मोही रह्यो छो ते जीवित तथा रूप बने विजळीना चमकारा जेवा चंचळ छे तुं प्रेत्यार्थ-परलोक माटे कंद जाणतो नथी.१३ च्या०-हे राजन् ! जीवितमायुः, च पुना रूपं शरीरस्य सौंदर्य विद्युत्संगातचंबलं वर्तते, विद्यु: संपानश्चलनं तद्धचंचलं वतते. हे गजन् ! यत्र यस्मिन्नायुषि रूपे च त्वं मुह्यसे मोहं प्राप्नोषि, प्रेत्यार्थ परलोकार्यच नाववुध्यसे न जानामि. १३ हे राजन् ! जीवित आयुष्य तथा रूप-शरीरनु सौन्दर्य, विजळीना संताप-सबाकाना जेवां चंचल छे. हे राजन ! यत्र जे आयुष्य तेमज रूपमा तु मोह पाम्यो वे प्रेत्यार्थपरलोकने अर्थे तु कंह पण ममजनो नथी. १३ दाराणि य सुया चेव । मित्ता य तह बांधवा ॥ जीवंतमणुजीवंति । मयं नाणुव्वयंति य ॥१४॥ घरनी स्त्रीयो, सुत-पुत्रो, मित्रो तथा बांधवो आ सर्वे जीवतानी पाछळ जीवे छे पण [एघरधणी] मरे तेनी पाछळ कोइ जता नथी. १४ 16 For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ان व्या-हे राजन् ! दाराः स्त्रियः, च पुनः सुता आत्मजाः, पुनर्मित्राणि, तथा यांधवा ज्ञातयो भ्रातृपमुखाः, एते 'JE उत्तराध्य सर्वेऽपि जीवंतं मनुष्यमनुजीवंति, जीवतो धनवतः पुरुषस्य पृष्टे उदरपूर्ति कुर्वति, तस्य द्रव्यं भुंजतीत्यर्थः. परं तं 100 भाषांतर यन सूत्रम् पुरुषं मृतं नानुव्रजति, मृतस्य तस्य पुरुषस्य पृष्टे केऽपि न व्रजंतीत्यर्थः. तदाऽन्यद् गृहादिकं किं पुनः सह यास्थतीति ? अध्य०१८ ॥९४२॥ अतः कृतघ्नेप्यादरो न विधेयः, तस्मात्परिकरे को रागः कर्तव्यः ? ॥१४॥ OG९४२॥ हे राजन् ! दारा स्त्रीयो, (च पुनः) सुत पुत्रो, वळा मित्रो तथा बांधवो भाइ भांडरू वगेरे, आ सघळां जीवता मनुष्य वांसे जीवे छे, अर्थात जीवता धनवान् पुरुषनी पाछळ पोतानो उदरनिर्वाह करे छे, तेनां द्रव्यनो उपभोग लीये छे. परंतु ते पुरुष मरे स्यारे तेनो पाछळ कोइ जतु नथी; ते मुएलानी बांसे कोइ मरतु नथी, तो पछी बीजुं घर वगेरे शुं कंइ पण साये आववानुं ? माटे कृतघ्न उपर आदर नज करवो, तो पछी आ परिकर भोगना पदार्थो उपर राग शा सारूं करवो? १४ नीहरंति मयं पुत्ता । पीयरं परमक्खिया ॥ पियरोवि तहा पुत्ते । बंधू रायं तवं चरे ॥१५॥ (नीहरंति०) मृत थयेला पिताने तेना पुत्रो परम दुःखित थइने काढी जाय छे, तेम मरेला पुत्रोने के बन्धुओने पिताओ बहार काढी जाय छे माटे हे राजन् ! तपने आचरो-सेवो. १५ व्या हे राजन् ! पुत्रा मृतं पितरं नीहरंति गृहान्निष्कासयंति. कीदृशाः पुत्राः? परमदुःखिता अत्यंतशोकाहिनाः पितरोऽपि जनका अपि तथा तेन प्रकारेण पुत्रान् मृतानिष्कासयंति, एवं यांधवा यांधवान् मृतान्निष्कासयंति. तस्माIt देवं ज्ञात्वा हे राजस्तपश्चरेत्तपः कुर्वित्यर्थः ॥ १५ ॥ تال بنائے اور ایمان لانا For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ९४३॥ हे राजन् ! पुत्रो मृत थयेला पिताने निर्हरे छ-घरमांथी बहार काढी जाय छे. केवा पुत्रो ? परम दुःखित अत्यंत शोकपीडित उत्तराध्य- थयेला तेम पिताओ पण मृत पुत्रीने घरथी बहार काढी जाय छे, एम बांधवो मृत थयेला बांधवोने काढी जाय छे, माटे एम यन सूत्रम् जाणीने हे राजन! तु तपर्नु आवरण कर. १५ ॥९४३॥ तओ तेणजिए दब्वे । दारे य परिरक्खिए। कीलंतने नरा रायं । हतहमलंकिया ॥ १६ ॥ BA (तओ०) ततः ते पछी हे राजन् ! ते मरनारे अर्जन करेल-मेळवेल तथा रक्षा करेल द्रव्य तथा तेनी स्त्रीयोथी अन्य नरो इष्ट तुष्ट | बनी अलंकृत थइ क्रीडा करे छे. १६ ___व्या०-ततोनिःसरणानंतरं तेनैव पित्रादार्जितधनेन, च पुनर्दारेषु स्त्रीषु हे राजन् ! अन्ये नराः क्रीडंति, स्वामिनि BJE मृते सति तस्य धने तस्य स्त्रीषु चापरे मनुष्या हृष्टतुष्टं यथा स्यात्तथा हर्षिताः संतुष्टाः संतोऽलं कृता अलंकारयुक्ताः | संतश्च क्रीडां कुर्वति. कथंभूते धने ? परिरक्षिते, समस्तप्रकारेण चौराग्निप्रमुखेभ्यो रक्षिते. यावत्स जीवति तबद्ध नस्य स्त्रीणां च रक्षां कुरुते, मृते सत्यन्ये भुजंति, धनस्त्रीप्रमुखाः पदार्थास्तत्रैव तिष्टंति, न च सार्थे समायांति. कोऽर्थः ? वराको जनो दुःखेन द्रव्यमुत्पाद्य यत्नेन रक्षति, दारानपि जीवितव्यमिव रक्षति, अलंकारैर्न रंजयति, GET सस्मिन् मृते सति तेनैव वित्तन तैरेव दारैश्च, अन्ये हृष्टाः शरीरे पुलकादिमतः, तुष्टा आंतरप्रीतिभाजोऽलंकृता विभू| पिता संतो रमंते, यत ईशी भवस्थितिरस्ति, ततो हे राजंस्तपश्चरेत्तपः कुर्यादिति संबंधः ॥ १६ ॥ तत-ए मृत थयेलाने घरनी बहार काढी गया पछी ते पिताआदिके अर्जित=पेदा करेल धनवडे तथा स्त्रीयोमा हे राजन् ! الانانانانانا تننگا For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन अन्य नरो क्रीडा करे छे. स्वामी मरी जाय एटले तेनां धनमां तथा तेनी स्त्रीयो साथै अन्य मनुष्यो हर्षबाळा तथा संतुष्ट बनी उत्तगध्यअलंकृत-आभूषणो धारण करी क्रीडा करे छे. केबुं धन ? परिरक्षितचोर अग्नि आदिकथी अनेक प्रकारे जाळवेलं, ज्यां मूधी ते भाषांतर त्रम जावे त्यां मधी धननी तथा खीयोनी रक्षा करे पण मवा पछी अन्य भोगवे छे, धन स्त्री वगेरे पदार्थों त्यांज रहे छे, कंदपण साथ inalअध्य०१८ ॥९४४॥ 8 अवतु नथी. शुं का ? विचारो मनुष्य दुःखे करी द्रव्य मेळवी अनेक यत्ने करी तेनी रक्षा करे; स्वीयोने पण पोताना जीवित १९४४॥ JE तुल गणा तनी रक्षा करे, वळो नाना प्रकारना आभूषणोबडे तेने राजी करे पण ज्यारे ए पुरुष पोते मरी जाय त्यारे एज द्रव्य वड तथा एज खाओनी साथे बीजा हृष्ट-हर्षयुक्त रोमांच वाळा तथा तुष्ट-मनमां खूब प्रसन्न यता, तेनाज अलंकारो वडे विभूषित बनीने रमे र क्रीडा करे छे. ज्यारे संसारनी आची स्थिति छे तो हे राजन तुं तपश्चर्या कर.१६ तेणावि जं कयं कम्मं । सुहं वा जड वाऽसुहं ।। कम्मुणा तेण संजुत्ता । गच्छइ उ परं भवं ॥ १७ ॥ तेणोवि.] ते मरनार जीवे पण जे शुभ अथवा अशुभ कर्म कर्यु होय ते कर्मे संयुक्त ते जीव पर भवने विषये जाय छे. १७ व्या०-तेनापि मरणान्मुखेन जीवेन यच्छुभं कमे, अथवाऽशुभं कम कृतं भवेत् , सुख दुःखं वोपार्जित स्यात्, तेन शुभाशुभलक्षणेन कर्मणा संयुक्तः सन् स जीवः परभवं गच्छति, एतावता जीवस्य साऽन्यत्किमपि नायाात, स्वोपार्जितं शुभाशुभं कर्म साथै समागच्छति ॥१॥ ते मरणोन्मुख जीवे जे शुभ कर्म अथवा अशुभ कर्म कयु होय, मुख अथवा दुःख ज मेळघु होय-ते शुभाशुभ लक्षण कर्मथा B संयुक्त थयेलो ते जीव परभवे जाय छे आ उपरथी जणायूं जे-जोवनो साथै अन्य कई पण ननथी, मात्र पाते करेला शुभा For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - पन सूत्रम् ॥ ९४५ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुभ कर्म साथ जाय ले. १७ मो नमो धम्मं । अणगारस्म अंनिए || महया संवेगपनिव्वेयं । समावन्नो नराहिवो ॥ १८ ॥ _[सोऊणं०] ते अनगार=मुनिनी समीपे धर्म सांभळीने ते नराधिप संयत राजा-महोटा संवेग तथा निर्वेद-वैराग्यने समापन्न=प्राप्त थयो. १८ व्यास संपतो राजा 'नहया' इति महत्संवेगा निर्विदं समापन्नः, संवेगश्च निर्वेदश्च संवेगनिर्वेद, संवेगो मोक्षाभिलाषः निर्वेदः संसाराद्विग्नता, म राजा उभयं प्राप्त इत्यर्थः किं कृत्वा ? तस्थानगारस्य साधोरंनिके समिषे धर्म श्रुत्वा. १८ ते संयत राजा, महाद् संवेग = मोक्षाभिलाष तथा निर्वेद= संसारथी उद्विग्नता आ बन्नेने प्राप्त ययो. केम करीने ? ते अनगार= साधुनी समीपे धर्मने सांभळीने. १८ संजओ च रज्जं । निक्खनो जिणनामणे || गद्दभालिस्स भगवओ। अणगारस्त अंतिए ।। १९ ।। [संजओ०] संयत राजा राज्यने त्यजीने भगवान् गर्दभालि नामना अनगारनी समिपे जिनशासनने विषये निष्क्रांत थया. १९ व्या० - संपतो राजा गईभालिनाम्नोऽनगास्यांति के समीपे जिनशासने वीतरागधर्मे निःक्रांतः समागतः, संसाराद् गृहाच्च निःसृतः जैनीं दीक्षामाश्रितः, किं कृत्वा ? राज्यं त्यक्त्वा ॥ १९ ॥ सयत राजा गर्दभालि नामना अनगार = साधुनी समीपे जड़ जिनशासन = वीतराग धर्मने विषये निष्क्रांत थया, अर्थात् घरसंसारथी are area जैनी दीक्षा ग्रहण करी शुं करीने ? राज्य त्यजीने. १९ चिच्चा र पञ्चईओ । खत्तिओ परिभासई ॥ जहा ते दीसई रूवं । पसन्नं ते तहा मगो ॥ २० ॥ For Private and Personal Use Only 毛毛毛毛毛 भाषांतर अध्य०१८ ॥ ९४५ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [चिश्चा०] राज्य त्यजीने प्रत्रजित थयेला क्षत्रिय [मुनि] 'परिभाषते -अर्थात् संयत राजाने कहे जे-जेम तमारं आ बाह्यरूप दीसे उत्तराध्य- छे तेम तमाकं मन पण प्रसन्न के. २० भाषांतर यन सूत्रम् व्या०-अत्र वृद्धसंपदायोऽयमस्ति-स संयतराजर्षिर्गर्दभालिनामाचार्यस्य शिप्यो जाता, पश्चादगीनार्थो जातः, अध्य०१८ ॥९४६॥ 1३E! समस्तमाध्वाचारविचारदक्षो गुरोरादेशेनैकाको विहरन्नेकस्मिन् ग्रामे एकदा समागतोऽस्ति, तत्र भ्रामे क्षत्रियराज 1॥२४६॥ पिर्मिलितः, स क्षत्रिसाधुः संयतमुनि प्रतिभाषते वदति. परं स क्षत्रियमुनिः कीदृशोऽस्ति ? स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत्, ततश्च्युत्वैकस्मिन् क्षत्रियकुले समुत्पन्नः, तत्र कुतश्चित्तथाविधनिमित्तदर्शनादुत्पन्नजातिस्मृतिस्ततः समुत्पन्नचराग्यो राज्यं त्यक्त्वा प्रव्रजितः स क्षत्रियो राजर्षिरनिर्दिष्टनामा क्षत्रियजातिविशिष्टत्वात् क्षत्रियमुनिर्जातिस्मृति ज्ञानवान् , स संयतं मुनिं दृष्ट्वा परिभाषते संग्नस्य ज्ञानपरीक्षा कर्तु. संयतमुनिमित्यध्याहार:. किं परिभाषते ? तदाह-हे साधो! यथा येन प्रकारेण ते तव रूपं बाह्याकारं दृश्यते, तथा तेन प्रकारेण तव मनः प्रसन्नं विकाररहितं वर्तते. अंतःकालुष्ये ह्येवं प्रसन्नताऽसंभवात् , ॥२०॥ पुनः किं परिभाषते ? इत्याह ___ अहीं वृद्ध संप्रदाय एवो छ के-ते संयत राजर्षि गर्दभालि नामना आचार्यनो शिष्य थयो पछी तो ते गीतार्थ यया अने समस्त साध्वाचारना विचारमा चतुर थइ गुरुना आदेशथी एकलो विहार करतो एक समये कोइ गाममां आव्यो त्यां तेने एक क्षत्रिय राजर्षि मल्यो. ते क्षत्रिय साधु संयतमुनि प्रत्ये कहे छे. आ क्षत्रिय मुनि पोते पूर्व जन्ममां वैमानिक हतो; त्यांथी च्यवने. एक क्षत्रिय कुळमां उत्पन्न थयो. त्यां तेवू कोइ निमित्त जोवामां आवतां तेने पूर्वजातिनुं स्मरण थवाथी वैराग्य उपज्यु तेथी राज्य For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम ॥९४७|| भाषांतर अध्य०१८ ॥९४७॥ त्यजीने प्रवज्या लीधी. ते क्षत्रिय राजर्षि, नामनिर्देश विमानो मात्र क्षत्रिय जातिमां जन्मेल होदायी क्षत्रियमुनि जातिस्मरण ज्ञानवान् कहेवायो ते क्षत्रिय मुनि संयतमुनिने जाइ तेना ज्ञाननी परीक्षा करवा कहे छे-संयतमुनिने कहे हे (एटलो अध्याहार । छे.) शुं कहे छे ? हे साधो ! जेवा प्रकारचें आ तमारु रूप-वाद्याकार देखाय छे तेवाज प्रकारनं तमारु मन प्रसन्न-विकार रहित । छे, कारण के अंदर कलुषता होय तो भावी प्रसन्नता संभवे नहों. २० पुनरपि ते क्षत्रिय संयतने शुं कहे छे ते दर्शावे छे. किं नामे किं गुत्ते । कस्सहाए व माहणे ॥ कहं पडियरसि बुद्धे। कहं विणीएत्ति बुचसि ॥२१॥ तमारं नाम शुं? गोत्र क्युं ? शा अर्थे ब्राह्मण था! वुद्ध-गुरुने केम परिचरो छो-सेवो छो? अने विनीत केम कहेवाओ छो! २१ __ पा०-हे साधो ! तव किं नाम ? तब किं गोत्रं? पुन: “कस्साए " इति कस्म अर्थाय या त्वं माहनः प्रवजितोऽसि ? हे साधो! त्वं बुद्वान् कथं प्रतिचरसि ? त्वमाचार्यान् केन प्रकारेग सेवसे ? पुनहे साधो ! त्वं कथं विनीत इत्युच्यसे ? अहं त्वां पृच्छामि. ॥ २१ ॥ हे साधो ! तमारुं नाम ? गोत्र क्युं छे ? बळी क्या अर्थ प्रयोजन पाटे तमे ब्राह्मण पवजित थया? हे साधो ! तमे | बुद्ध गुम आचार्योंने क्या प्रकारे सेवो छो ? वळी हे मायो ! तमे 'विनीत' एम केम कहेवाभो छो ? आ हुं तमने पुछु छु. २१ | आम क्षत्रिये पूच्यु स्यारे संयत उत्तर आपे : संजओ नाम नामेणं । नहा गुत्तेग गोयमो ॥ गहभाली ममायरिया । विजाचरणपारगा । २२ ॥ (संजओ) नामे हुसंपत नामनो तथा गोत्रे गौतम छु विद्या तथा आचरणना पारग गर्दभालि मारा आचार्य छे. २२ For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९४८॥ व्या०-अथ क्षत्रियसाधोः प्रश्नानंतरं संगतसाधुरुवाच. हे साधो ! अहं संयत इति नानाऽभिधानेन नाम प्रसिउत्तराध्य द्वाऽस्मि, तथा पुनरहं गोत्रेण गौनमोऽस्मि. ममाचार्या गुरवो गर्दभालिनामामः कीदृशा मम गुरवः ? विद्याचरगपा- यन सूत्रम् रगाः, विद्या च चरणं च विद्याचरणे, तयोः पारगा विद्याचरणपारगाः. विद्या श्रुतज्ञानं, चरणं चारित्रं, नमोः पारगा॥९४८॥ मिनः, भयमाशयः-अहं तैर्गर्दभालिनामाचा जीवघातान्निवर्तितः, तन्निवृत्ती मुक्तिफलमुक्तंच. ततस्तदर्थ माहनोऽस्मि. यथा तदुपदेशानुसारतो गुरुत् प्रति वरामि, तदुपदेशसेवनाच विनीतोऽस्मोति भावः ॥ २२ ॥ अथ तद्गुणबहुमानDeोऽपृष्टोऽपि क्षत्रियमुनिराह। अथ क्षत्रिय साधुना प्रश्न पछी संयत साधु बोल्या. हे साधो ! हुँ 'संयत' एत्रा नामथी प्रसिद्ध छु तथा हुं गोत्रबढे गौतम छु. पारा आचार्य शुरु गर्दभालि नामना छे. गुरु केवा छ ? विद्या एटले श्रुतज्ञान तथा चरण एटले चारित्र, आ बेयना पारगामी अ155/ भिप्राय एवो छे के-ए गर्दभालि नामना आचार्य मने नोवघातथी निवृत्त कर्यों छे अने जीवघातनी निवृत्तिमांज मुक्तिफल कह्यु के तेटला माटेज ब्राह्मण साधु थयो छु. जेम तेना उपदेशने अनुसार गुरुनी परिचर्या करूं छु तेमनाज उपदेशथी विनीत कहेवाउं Gll छ. २२ हवे तेना गुणोमा बहुमान होवाथी पूछया वगरज क्षत्रिय मुनि कहे छे.or किरिय १ अकिरियं रविणयं ३ । अन्नाणं च महामुणी ।। एएहिं चउहिं ठाणेहि । मेयन्ने किं पभ सइ ॥२३॥ हे महामुने ! क्रिहा, अक्रिया, विनय अने अज्ञान; आ चार स्थानोवडे मय-जीवादि प्रमेय पदाथोने जाणनार कुत्सित भावे छे.२३ व्या-हे संयतमहामुने! एतैश्चतुर्भि? स्थानैमिथ्यात्वाधारभूतैर्हे तुभिः कृत्वा मेयज्ञाः किं प्रभासते ? में For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ पन सत्रम ॥९४९॥ जीवादिवस्तु जानंतीति मेयज्ञाः पदार्थज्ञाः कुतीर्थ्या वादिनः कुत्मितं प्रजल्पंते,एतावता एतैश्चतुभिभिहेतुभिर्मिथ्यात्विनः । 479 सर्वे त्रिषष्ट्युत्तरत्रिंशतभेदाः [३६३] पाखटिनो यथावस्थितत्वमजानाना यथातथा प्रलापिनः संति ते त्वया ज्ञातव्याः, तानि कानि चत्वारि स्थानानि ? क्रिया जीवादिमत्तारूपा १, पश्चादक्रिया जीवादिपदार्थानामक्रिया नास्तित्वरूपा २, ।।९४९॥ विनयं सर्वेभ्यो नमस्कार कारणं ३, अज्ञानं सर्वेषां पदार्थानामज्ञानं भव्यं ४, एते ह्येकांतवादित्वेन मिथ्यात्विनो ज्ञेयाः, कुत्सितभाषणं ह्येतेषां विचारस्थाऽमहत्वात. यतो हि सर्वथा सर्वत्र सत्तायाः सत्वात्मत्र जीवः स्यात, अजीवेऽपि जीवबुद्धिः स्यात् १, पुनर्नास्तित्वे आत्मनो नास्तित्वेऽश्य प्रमाणवाधितत्वाच्च जीवाजीवयोरुभयोरपि सादृश्यं नास्तित्वं स्यात. २, मर्वत्र विनये क्रियमाणे निर्गुणे विनयस्याऽशुभफलत्वात् . विनयोऽपि स्थाने एव कृतः फलदः, तस्मादे. कांत विनयोऽपि न श्रेष्टः, ३, अज्ञानं हि मुक्तिसाधने कारणं नास्ति, मुक्तानस्यैव कारणत्वात् . हेयोपादेयपदार्थ5 योरपि ज्ञानेनैव साध्यत्वात् . ज्ञानं विना हिनमपि न जानाति, तरमादज्ञानमपि न श्रेष्ठं, ४. तस्माक्रियावादिनः १, ३. अक्रियावादिनः २, विनयवादिनः ३, अज्ञानवादिनश्च ४, सर्वेऽप्येते एकांतवादिनो मिथ्यात्विनः कुतीथिनः कुन्सि तभाषिणो ज्ञेयाः. एतेषां पावंडिनां सर्वे भेदाः (३६३) त्रिषष्ट्य वरत्रिशतप्रमिता भवंति, तत्र क्रियावादिनां १८०' अफ्रियावादिनां ८४, विनयवादिना ३२, अज्ञानवादिनां ६७. कुत्सितभाषितं हि न चनत स्वाभिप्रायेण' किंतु भगवदचसैतेषां कुत्सितभाषितं. ॥२३॥ तदाह हे संयत महामुनि ! आ चार स्थानो के जे मिथ्यात्वना आधारभूत हेतु छे ते वडे करी मेयज्ञ-जनो शृं बीले छ ? मेय-जि For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir र अग०१८ IBE ॥९५०॥ JE वादि वस्तुने जाणनारा यज्ञ-पदार्थज्ञ; कुतीयवादी कुत्सित बोले छे. आ उपरथी आ चार हेतुबडे ३६३ पाखंडियो वस्तुने उत्तराध्य यथावास्थतरूप नहीं जाणनारा जमतेम पलाप कर छे, ते तमारे जाणवाना छे. ते चार स्थान क्या? क्रिया जीवादि सत्तारूप। पन सूत्र (१), पछी अ.क्रया जीनदि पदार्थोनी नास्तित्वरूपा [२], विनय सर्वेने नमस्कार करवारूप (३). अज्ञान=सर्व पदार्थोर्नु अज्ञान (४), ॥९५०|| आ चार एकांतवाद हावार्थी मिथ्यात्वा जाणवा. तेो भाषण कुत्सित होय छे केमके ते विचारसह होतुं नथी कारण के-सर्वथा सर्वत्र सत्ता होय ता सर्वत्र जीव हाय, अजावां पण जोव बुद्धि थाय १, वळो जो नास्तित्व माने तो आत्माना नास्तिसने लाधे JE एन प्रमाण बाधितत्व थतां जाव अजीब बेयर्नु नास्तित्व सादृश्य थाय २, सर्वत्र जो विनय कराय तो निर्गुणमां करेला विनय अशुभ फलदायक थाय, विनय पण जो स्थाने को होय तोज फलदायक थाय तेथी विनय पण एकांतपणे श्रेष्ठ न होय ३, अज्ञान कर मुक्तिसाधनमा कारण जथी, मुक्तिनुं कारण तो ज्ञानज छे; केमके-"आ ग्राह्य छे के आ त्याज्य छे" एका विवेक पण ज्ञाने कराने न साध्य छे. ज्ञान विना पोतार्नु हित पण जाणा शकातुं नयी. तेथी अज्ञान पण श्रेष्ठ नथी. ४, माटे क्रियावादी १, अक्रियावादि २, | विनयवादी ३, अने अज्ञानवादी ४, ए सर्वे एकांतवादी मिथ्यात्वी, कुतोर्थी, कुत्सितभाषो समजवा. आ पाखंडियाना ३६३ भेद छे; तेमां क्रियावादी १८० प्रकारना छे, अक्रियावादो ८४ प्रकारना, विनयवादो ३२ प्रकारना तथा अज्ञानवादी ६७ मकारना छ. | आ सर्वेनुं कुत्सितभाषित्व मात्र हुँ नथी कहेतो किंतु भगवानना वचनथा वह्यु २३ इइ पाउकरे बुद्धे । नायए परिनिव्वुए ॥ विजाचरणसंपन्ने । सच्चे सच्चपरक्कमे ॥२४॥ [इह०] इति-उक्त प्रकारे बुद्धस्तत्त्वज्ञानी, परिनिर्वृत-शांत स्वभाव, विद्या तथा आचरणथी संपन्न, सत्य तथा सत्य पराक्रमी एवा UNDमाजाला For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन सूत्रम भाषांतर अध्य०१८ ॥९५१॥ उत्तराध्यJgl शानक श्रीमहावीरे प्रकट करेल छे. २४ व्या०-इत्येते क्रियावादिनः कुत्मितं प्रभाषते, इत्येवं रूपं वचनं बुद्धो ज्ञाततत्वो ज्ञानका श्रीमहावीरः प्रादुर करोत् प्रकटीचकार. कीदृशो ज्ञातकः ? परिनिर्धतः, कषायाभावात परि समंनाच्छीतीभूतः पुनः कीदृशः ? सत्यः JE मत्यवचनवादी, पुनः कीदृश ? सत्यपराक्रमः सत्यवीर्य नहितः ॥२४॥ तेषां फलमाह ए प्रमाणे ए वधा क्रियावादि वगेरे कुत्सित भाषण करेले एबीरीते बुद्ध=ज्ञात छे तत्व जेणे एवा ज्ञातक-श्री महावीरस्वामीए JE प्रकट कयु. केचा ए ज्ञातक ? परिनिये । कषायना अभावने लइ सर्वतः शांत ययेला. वळी केवा ? सत्य-सत्यवचन बोलनारा तथा सत्य पराक्रम अर्थात् सत्यवीर्यसंपन्न. २४ तेओनुं फळ कहे -- पडंनि नरए घोरे । जे नरा पावकारिणो । दिव्यं च गई गच्छति । चरिता धम्ममाग्यिं ॥ २०॥ | [पडंति०] जे पापकारी मनुष्यो छे तेश्रो घोर नरकमां पडे छे अने आर्यों तो धर्म आचरीने दिव्य गतियें जाय छे. २५ मा०-पुनः क्षत्रियमुनिर्वदति, हे महामुने ! ये पापकारिणो नराः पापमसत्प्ररूपणं कुर्वतीत्येवंशीला: पापकाRE! रिणो ये नरा भवंति, ते नरा घोरे भीषणे नरके पतंति, च पुनर्धर्म सत्यप्ररूपणारूपं 'चरित्ता' आराध्य दिव्यां दिवः st संबंधिनीमुत्तमां गतिं गच्छंति. कधं तून धर्म? 'आरियं' आर्य वीतरागोकमित्यर्थः. अत्र पापममत्यवचनं ज्ञेयं, धर्म च सत्यवचनं ज्ञेयं. एवं ज्ञात्वा भो संयत! भवता सत्यमरूपणापरेणैव भाव्यमित्यर्थः ॥२५।। कथममी पापकारिण इत्याह For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ १९५२॥ बळी पण क्षत्रिय मुनि कहे हे, हे महामुने ! जे पापकारी नरो वे-एटले असत्मरूपण करवाना शीळबाळा पापकारी मनुष्यो उचराध्य- थाय -ते नरा घोर भयंकर नरकमां पडे छे. पण धर्मसत्यप्ररूपणारूप धर्मने आचरीने दिव्य-स्वर्गसंबन्धिनी उत्तम गतिने पन सूत्रम् पामे के. केवो धर्म ? आय-वीतरागे कहेलो अत्रे पाप असत्य वचन समजवू अने धर्म सत्यवचन जाणवू. आम जाणीने हे संयत! ॥९१२॥ तमारे सत्य प्ररूपणा परायण रहेवान छे. २५ ए बधा पापकारी केम ? ते कही बतावे - मायावुईयमयं तु । मुसा भासा निरस्थिया ।। अवि संजममाणात्ति । बसामि इरियामि य ॥२६॥ DEL (माया) आ-क्रियावादी बगेरेना वचन माया शठताथी कहेला होय छे तेथी ते मृषाभाषारूपा तथा निरर्थक समजवां. तेथीज हु संयममान-पापथी निवृत्त रही बसु छु भने इर्यासमितिवडे वतुं छु. २६ व्या०-एतक्रियावनयाऽज्ञानवादिनां मायाक्तं, मायया कपटेनो मायोक्तं शाठ्योक्तं ज्ञेयं, एते सर्वेऽपि कपटेन मृषां भाषते इत्यर्थः एतेषां क्रियावादिनां तु तस्नात्कारणान्मृषा भाषा असत्या भाषा निरथका सत्याधरहिता. अपि निश्चयेन तेनैव कारणेन हे साधो! संयच्छन् पापानिन सन् , तषां पाखंडिनामसत्प्ररूपणातो निवर्तितः सन्नहं वसामि, निरवद्योपाश्रयादौ तिष्ठामि. अत्राहं पाखंडिनां वाक्यरूपपापानिवृत्तःसन् तिष्ठामीत्युक्तं त्तस्य स्थिरीकरणाथै. यथाहमसत्मरूपणातो निवृत्तस्तथा त्वयापि निवर्तितव्यमित्यर्थः. यतः साधुः स्वयं साधुमार्ग स्थितो | ऽपरमपि साधुमार्गे स्थापयति च पुनहें साधो! अहं ईरियानीति ईयया गच्छामि, गोंचयादो भ्रमामि. ॥२६॥ ____ आ क्रिया विनयाज्ञानवादीनां मायोक्त-कपटवी कहेलां वचनी छे. ए बधाय शठपणाथी मृषा वचनो भाषे छे. ए क्रियावादा For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PMण भाषांतर अध्य०१८ ॥९५३॥ ओनी मृषाभाषा असत्य भाषण निरर्थक-सत्या रहित समजवा तेटलाज कारणथी हे साधो ! संयच्छन् एटले पापथी निवृत्त उत्तराध्य- थइने वर्ततो अर्थात्-ते पाखंडीओनी असत्परूपणाथी निवर्तित रही हु अहीं निर्दोष उपाश्रयादिकमां रह्यो छु अहीं हुँ पारवंडो ओना पन सूत्रम् वाह्यरूप पापथी निवृत थइ वसुं छु, आम जे कर्धा ते ए संयतमुनिने दृढ करवा माटे अर्थात् जेम हुँ असत्प्ररूपणाथी निवृत्त ॥९५३॥ थयो तेम तारे पण नित्त थq. कारण के साधु पीते सारा मार्गमां स्थित थइने बीजाने पण साधुमार्गमा स्थापे. वळी हे साधो ! । हुं ई-वडे गोचरीश्रादिकमां जउं छुभमुं छु. २६ Pा सब्बे ते विइया मज्झं । मित्यादिट्टी अणारिया ॥ विजमाणे परे लोए । सम्मं आणामि अप्पयं ॥२७॥ JE ते सर्वे मारा जाणेला छे केते मिथ्यादृष्टि तथा अनार्य छे. परलोक विद्यमान होइ हुं मारा आत्माने सम्यक् प्रकारे जाणुं छु. २७ व्या०-हे साधा! ते सर्वेऽपि क्रियाऽक्रियाविनयाऽज्ञानवादिनचत्वारोऽपि पाखंडिनो मया विदिता ज्ञाताः. एते ril चत्वारोऽपि मिथ्यादृष्टयो मिथ्यादर्शनयुक्ताः पुनरेते चत्वारोऽप्यनार्या अनार्यकर्मकर्तारः, सम्यग्मार्गविलुपका.. मयैते यादृशाः संति तादृशा ज्ञाताः. पुनहे मुने परलोके विद्यमाने सम्यक्प्रकारेग 'अप्पयं' आत्मानं स्वस्य परस्य च जानामि आत्मा परलोकादागतस्ततोऽहं परलोकमात्मानं च सम्यग् जानामि. ते कुतीथिनोऽपि सम्यग् ज्ञाताः, तेन कुनीथिनां मंग न करोमि' ॥ २७ ॥ कथं जानामीत्याह हे साधो ! ते बधाय क्रिया अक्रिया विनय अज्ञानवादीओ चारे पण पाखंडी ओ में जाणेला . ए चारे मिथ्यदृष्टिा= मिथ्य दर्शनयुक्त छे, अने ए चारे अनार्य-अनार्यकर्म करनारा सम्यग्मार्गना विलोपक छे. तेओ जेवा छे तेवा में तेओने जाणेला छे. हे मुने! %3D For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यन सूत्रम ॥९५४॥ www.kobatirth.org परलोक विद्यमान होवाथी सम्यक् प्रकारे हुं मारा तथा परना आत्माने जाणुं हुं. आत्मा परलोकथी आव्यो छे तेथी हुं परलोकने तेमज आत्माने सारी रीते जाणुं हुं मे ते कुती थिओने पूरी राते जाण्या तेथी हवे ए कुतीर्थिकोनो संग हुं न करूँ, ७ केम जाने कहे छे. अहमास महापाणे | जुइमं बरिससओयमो ॥ जा सा पाली महापाली । दिव्वा वरिसमओवमा ।। २८ । [ अहमासि०] हु महाप्राण (विमान) मां द्युतिमान् वर्षशतोपम-शत वर्षना आयुष्यवाळा मनुष्यनी ऊपमावाळो हतो. जे पाली त महापाली विर्ष शतमा उपमावाळी दिव्या देवभवनी-स्थिति कद्देवाय के ते मारी स्थिति हती. २८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०—हे मुने ! अह महाप्राणे विमाने पंचमे ब्रह्मलोके देव आसं. कथंभूतोऽहं ? धुनिमान्, निर्विद्यतं यस्य स गुतिमांस्तेजस्वी. पुनः कथंभूतोऽहं ? वर्षशतोपमो वर्षशतजीविनः पुरुषस्योपमा यस्यासौ वर्षशतोपमः कोऽर्थः ? यथेह वर्षशतजीवीदानीं परिपूर्णायुरुयते, तथाहं तत्र विमाने परिपूर्णायुरभूवं तत्र या पालिर्महापालिश्च सा दिया स्थितिर्मेऽभूदिति शेषः, पालिशब्दस्य कोऽर्थः ? पालिरिव गलिर्जीवितजलधारणात्, पालिशब्देन भवस्थितः कते सा चेह पत्योपमप्रमाणा, महापालिः सागरोपमप्रमाणा स्थितिः कथ्यते दिवि भवा दिव्या, देवसंबंधिनी स्थितिरित्यर्थः कथंभूता पालिर्मपाहालि ? वर्षशतोपमा, वर्षशतैः केशोद्धार हेतुभिरुपमीयते या सा वर्षशतोपमा, द्विविधापि दिव्या भवस्थितिस्तत्रास्ति परं मे महापालिदियां भवस्थितिरासीदित्यान्नायः, दशसागरायुरहमासमित्यर्थः ॥ २८ ॥ हे सुने ! हूं महाप्राण विमानने विषये पंचम ब्रह्मलोकमां देव हतो. केवो देव हतो ? द्युतिमान् =तेजस्त्रो, बळा वर्षशतायम एटले सो वर्ष जीवनारा पुरुषनी जेने उपमा देवाय, अर्थात्-जेम आ लाकमां सो वर्ष जीवनारो दमणां परिपूर्ण वाळा कहे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य १८ ॥९५४॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य १८ वाय तेम हुँ ते विमानमां परिपूर्ण आयुष्यवान हतो. त्यां जे पालि तथा महापालि कहेवाय ते दिव्य स्थिति मारी हती. पालि उत्तराध्य शब्दनो अर्थ एवो ले के-पालि एटले पाळ, अर्थात् पाळ जेम जळनुं धारण करी राखे तेवी आजीवितरूपी जळनुं धारण करती यन सुत्रम् होवाथी तेने पालि एबुं नाम आपेल छे. एटले अत्रे पोलि शब्दथी भवस्थिति समजवानी छे. ते संसार स्थिति पल्यापम प्रमाणवाळी ॥१५५॥ पालि कहेवाय अने सागरोपम प्रमाणवाळी महापालि कडेवाय, ए दिव्य देव संबन्धिनी स्थिति, अर्थात् पालि तथा महापालि क्रमे करी वर्ष शतोपमा एटले सो वर्षे एक केश- उद्धरण थाय एवी रीते जेनु माप के तेवी ए बेय प्रकारनी दिव्यास्थिति ते विमानमा छे पण मारी तो ए ब्रह्मलोकमां महापालि दिव्या स्थिति हती, अर्थात् दश सागर आयुष्यवाळो हुँहतो. २८ से चुओ बंभलोगाओ। माणुस्सं भवमागओ ।। अप्पणो य परेसि च । आउं जाणे जहा तहा ॥२९॥ | ते हुब्रह्मलोकथो च्युत थइ मानुष्यभव पाम्यो हवे हुँ माझं पोतानु तथा बीजाओनु पण जेम छे तेस आयुष्य जाणुछु. २९ व्या०-'से' इति सोऽहमित्यध्याहारः, मोऽहं ब्रह्मलोकात्पंचमदेवलोकाच्च्युतः सन् मानुष्यं भवं नरमंबन्धिजन्म समागता, आत्मनश्च पुनः परेषां च यथा यथायुर्जीवितं वर्तते तथा जानामि, यस्य मानवस्य येन प्रकारेणायुरस्ति, तस्य तेन प्रकारेण सर्व जानामि, परं विपरितं न जानामि, सत्यं जानामि ॥ २९ ॥ ते अत्रे 'हु' एटलो अध्याहार छेते हु ब्रह्मलोक-पंचम देवलोकमांथी च्युत थइ मानुष्यभव नरसंबन्धि जन्ममा आयो; JE मारु पोतानुं तेमज परनुं पण जेम आयुः जीवित वर्ने छ तेम हुँ जाणुं छु; जे मानवतुं जेबा प्रकारचें आयुष्य होय तेन ते प्रकारे 6 सर्व हुजाणुं छु किंतु विपरीत नथी जाणतो; सत्य जाणुं छं. २९ For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्या यन सूत्र ॥९५६।। हत्या deare addles www.kobatirth.org સર્યું છે. माणा रुई च छंद च । परिवज्जेज संजए || अणड्डा जे य सव्वहा । इह विजामणुसंचरे ॥ ३० ॥ fift रुइ०] हे संयत ! नाना प्रकारनी रुचि तथा छंद मनःकल्पित अभिप्राय, तेमज जे सर्वथा अनर्थ-प्रयोजन शून्य हॉय की जजो, आवा विद्याने अनुलक्षीने संचरो-संयम मार्गमां बत्तों. ३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०-हे मुने! संगतसाधो ! नानारुचि क्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषं परिवर्जयेः, च पुन छंदः स्वमनिक'ल्पिताभिप्रायं नानाविधं परिवर्जयेः च पुनर्येऽनथों अनर्थहेतवा ये सर्वार्था अशेषहिंसादयो गम्यत्वात्तान् परिवजेचैरिति संबंधः इत्येवंरूपां विद्यां सम्यग्ज्ञानरूपमनुलक्ष्यीकृत्य से वरे स्वं संयम ध्वनि यायाः, अहमपीति विद्यां ज्ञानं ज्ञात्वांगीकृत्य संयममार्गे यामीति त्वयापि तथैय संचरितव्यमिति हार्द ॥ ३० ॥ हे ! संयत साधो ! नानारुचि = क्रियावादिना मतविषयक अभिलापने परिवर्जजो, वळी छंदः स्वमति कल्पित नानाविध अभिप्रायाने पण वर्जजो, तेमज जे अनर्थ = अनर्थना हेतुभूत हाय तेवा सर्व हिंसा दकने पण वर्जजो. आवा प्रकारनी विद्या= सम्यक्ज्ञान ने अनुलक्षीने संचरज-तमे संयम मार्गमां विचरजां. हु जेम विद्याज्ञानना अंगिकार करी संयममार्गमां वतु हुँ तम तमारे पण संचर, एवं हाई छे. ३० पक्किमामि परिणाणं । परमंतेहि वा पुणो ॥ अहो डाओ अहोरायं । इइ विज्जा तवं चरे ॥ ३१ ॥ (पढिकमामि०) प्रश्नोथी डुं प्रतिनिवृत्त थाड हुं तेमज पर मंत्र -गृहस्थिओना विचारोथी पण पराङमुख छु अक्षे- आश्चय के के रात्रि दिवस उत्थित उद्यत रही कोकज एम जाणी तप आचरे छे. ३१ For Private and Personal Use Only भाषांतर 'अध्य०१८ १९५६ ।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९५७॥ उत्तराध्य व्या-पुन: स्वाचारं वक्ति हे मुने! अहं 'पसिणाणं' इति प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययः, प्रश्नेभ्यः शुभाशुभसूचयन सूत्रम् 38 कांगुष्टादिपच्छाभ्यः प्रतिक्रमामि पराङ्मुखो भवामि, वाथवा पुनः परमंत्रेभ्यः, प्रतिक्रमामि प्रतिनिवर्ते, परस्य गृहस्थ स्य मंत्राणि कार्यालोचनानि तेभ्यः परमंत्रेभ्यः, एक सवभ्यः पराङ्मुखो भवामि. अहो इति आश्चर्ये, अहोरात्रमु॥९५७॥ IBE स्थितो धर्मप्रत्युद्यतः कश्रिदेव महात्मैवविधः स्यात् , इति विदन्निति जानस्तपश्चरेः, न तु प्रश्नमंत्रादिके चरेः ॥३१॥ JER फरीने पण पोतानो आचार कहे छे-हे मुने ! हु 'पसिणाण' (अत्रे माकृत होवाथी विभक्ति व्यत्यय-पंचमीना अर्थमां षष्ठी विभक्ति छे.) प्रश्नोथी, एटले शुभाशुभ सूचक अंगुष्ठादिनी पूछपरछथी प्रतिक्रम्यो छ-अर्थात् पराङ्मुख विनिवृत्त थयोछु तेमज परमंत्र अन्य गृहस्थियोना कार्योना आलोचन करवा तेथी पण हुं पराङ्मुख-विनिवृत्त थयो छु, अहो आश्चर्य पामवा जेवू छे, अहोरात्र-रात्र दहाडो उत्थित-धर्ममा उद्युक्त रहेनारो एवो कोइकज महात्मा होय; एम जाणोने तपः आचरे प्रश्नमंत्रादिक न आचरे ३१ जच में पुच्छसि काले । सम्मं सुण चेयसा ।। ताई पाउकरे बुद्धे । तं नाणं जिणसासणे ॥ ३२ ॥ साक् प्रकारे शुद्ध चित्तथी मने जे काळविषये तमे पूछो छो ते बुद्ध पुरुषोए प्रकट करेल के ते शान जिनशासनमा छे. ३२ ध्या -अथ संयतमुनिना पृष्टं, स्वमायुः कथं जानासि? तदा पुनः क्षत्रियमुनिराह-हे संयत! त्वं मां AE काले इति कालविषयमायुविषयं ज्ञानं पृच्छसि. कीदृशस्त्वं ? सम्यक् शुद्धेन निर्मलेन चित्तेनोपलक्षितः तमिति सूत्रत्वात्तद् ज्ञानं बुद्धः श्रीमहावीरः, अथवा बुद्धः श्रुतज्ञानवान् प्रादुरकरोत् . पुनस्तञ्च ज्ञानं श्रीजिनशासने जानीहि? For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्ययन सूत्रम् ॥९५८॥ नापरस्मिन् कुत्रापि दर्शनेऽस्ति. ततोऽहं तत्र स्थितः, तत्प्रसादाद बुद्धोऽस्मीति भावः ॥ ३२ ___ज्यारे संयत मुनिए पूज्यु के तमे आयुष्य केम जाणी शको छो ? त्यारे क्षत्रिय मुनिए कब के हे संयत मुने ! तगे मने काल भाषांतर विपये एटले आयुः संबन्धी ज्ञान सम्यक् शुद्ध चित्तथी जे पूछोछो तेशान बुद्ध श्रीमहावीरे अथवा कोइ श्रुत ज्ञानवान् महापुरुषे अध्य०१८ प्रकट करेलु छ अने ते ज्ञान जिनशासना के एम जाणजो बीजा कोइ अपर दर्शनां नथी तेथीज हुँतेमां स्थित छु अने HE९५८॥ तेनाज प्रसादथी बुद्धज्ञाततच-छु ३२ किरियं च रोचए धीरो । अकिरियं परिवजए ।। दिछीए दिहीसंपन्न । धम्नं चर सुदुच्चरं ॥ ३३ ॥ [किरियं०] घोर पुरुष क्रियाने पसंद करे छे, अक्रियाने बर्जे डे, दृष्टि-दर्शनवडे करी दृष्टिसंपन्न-सम्यक्वान युक्त थाय छे. तमे पण |BE सुदुश्चर कष्ट सही जे आचरी शकाय तेचा तपने आचरो. ३३ व्या-धीरोऽक्षोभ्यः क्रियां जीवस्य विद्यमानतां जीवसत्तां रोच रति, स्वयं स्वस्मै अभिलषयति, तथा परम्स अप्यभिलषयतीत्यर्थः, अथवा क्रियां सम्यग दृष्टानरूपां प्रतिक्रमणप्रतिलेखनारूपां मोक्षमार्गसाधनभूनां ज्ञानसहितां क्रियां रोचयति. पुनरक्रियां जीवस्य नास्तित्वं जीवे जीवस्याऽविद्यमानतां परिवर्जयेत् . अथवा अक्रियां मिथ्यात्विभिः कल्पितां कष्टक्रियामज्ञानक्रियां परित्यजेत् . पुनधीरः पुमान् दृष्ट्या सम्यग्दर्शनात्मिकया दृष्टिसंपन्नो भवति. दृष्टिः सम्यग्ज्ञानात्मिका बुद्धिस्तया संपन्नः सहितो दृष्टिसंपन्नः, सम्यग्दर्शनेन सम्यग्ज्ञानसहित इत्यर्थः तस्मात्त्वमपि सम्यग्ज्ञानदर्शनसहितः सन् सुश्वरं कर्तुमशक्यं धर्म चारित्रधर्म चरांगीकरु? ॥ ३३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९५९॥ ADDDDDDDDE धीर कोइयी क्षोभ न पमाडी शकाय ते साधु, क्रिया एटले जीवनी विद्यमानताने रोचे -पोतानी हयाती चाहे , तेम परने माटे पण चाहे . अथवा क्रिया एटले सम्यक् अनुष्ठानरूप अतिक्रमण पतिलेखनादिरूपा मोक्षमार्गनी साधनभूता ज्ञानसहिता DE भाषांतर क्रियाने रोचे छे. पोते पसंद करे हे अने अक्रिया जीवमां जीवनी अविधमानता ने परिवर्जे छे. अथवा अक्रिया एटले मिथ्यात्वि अध्य०१८ योए कल्पेली कष्टक्रिया अज्ञानक्रियाने परिवर्जे छे. वळी ते धीर पुरुष सम्यग्दर्शनात्मिका दृष्टि बडे दृष्टिसंपन्न सम्यमानात्मिका ॥९५९॥ बुद्धिथी संपन्न बने छे. माटे तमे पण सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्दर्शन सहित थइ प्राकृत जनोथी न आचरी शकाय तेवा धर्म-चारित्र धर्मने आचरो अंगीकार करो. ३३ एयं पुण्णपयं सोचा । अत्थधम्मोवसोहियं ॥ भरहोवि भारहं वासं । चिच्चा कामाइं पवए ॥ ३४ ॥ ( पयं०) अर्थ तथा धर्मवडे उपशोभित आ पुण्यपदने सुणी भरतचक्री पण भारतवर्ष तथा कामभोगने त्यजी प्रवजित थया. ३४ व्या-अथ क्षत्रियमुनि? संयतमुनिप्रति महापुरुषाणां धममार्गप्रवर्तितानां दृष्टांतेन दृढीकरोति. हे मुने! भरतोऽपि भरतनामा चक्रयपि भारतं क्षेत्रं षट्खंडर्द्धिं त्यक्त्वा पुनः कामान कामभोगांस्त्यक्त्वा प्रवजितो दीक्षां प्रपन्न इत्यर्थः किं कृत्वा ? एतत्पूर्वोक्तं पुण्यपदं, श्रुत्वा, पुण्यं च तत्पदं च पुण्यपदं, पुण्यं पवित्रमर्थानिष्कलंक निर्दूषणं, अथवा पुण्यं पुण्यहेतुभूतं, एतादृशं पदं. पद्यते ज्ञायतेऽर्थोनेनेति पदं सूत्रं जिनोतमागम, क्रियावाद्यादिनानारुचिवर्जननिवेदकशब्दसूचनालक्षणं, तत् श्रवणविषयी कृत्प, अथवा पूर्ण पदं पूर्णपदं संपूर्णज्ञानं, पदशब्देन ज्ञानमप्युच्यते. कीदृशं पुण्यपदं ? अर्थधर्मोपशोभितं, अर्थ्यते प्रार्थ्यते इत्यर्थः, स्वर्गापवर्गलक्षणः पदार्थः, धर्मस्तदुपायभूता, अर्थश्च SODDOOD For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९६०॥ धर्मधार्थधौं, तभ्यामुपशोभितमर्थधोपशोभितं. एतादृशं जिनोक्तं सिद्धांतमर्थधर्मसहितं श्रुत्वा यदि भरतश्चक्रधरः संपूर्णभरतक्षेत्रं षखंडसाम्राज्यं त्यक्त्वा दीक्षा जग्राह, तदा त्वयाप्यस्मिन् जिनोक्तागमे चलितव्यं, महाजन। येन यन सूत्रम् गतः स पंथेत्युक्तत्वात्. मकलनुपेषु ऋषभपुत्रा भरता मुख्यस्तेनायं मार्गः समाश्रित इत्यर्थः ॥३४॥ ॥९६०॥ ___ अनन्तर जात्रयमान संयतमुनि प्रत्ये धर्ममार्गे प्रवृत्त थयेला महापुरुषांना दृष्टांतोथी कहेला अर्थने हद करे छ. हे मुने ! भरत नामा चक्रवर्ती पण आ भरतक्षेत्र छ खंडनी ऋद्धिवाद्धं त्यजाने तेमज कामभोगोने त्यजीने पत्रजीत यया-दीक्षा पाम्या. केम करीने ? आ पूर्वोक्त पुण्यपद सांभळीने, पुण्य एटले पवित्र अर्थात् निष्कलंक-निषण, अथवा पुण्य एटले पुण्यनुं हेतुभूत एवं पद | एटले जेनाथी ज्ञान पमाय अथवा जेनावडे अर्थबोध थाय तेवु पद-जिनोक्त आगम, अर्थात्-क्रियावादी वगेरे विविध रुचिना वर्ज| ननुं बोधक शब्द सूचनात्मक शास्त्र, तेने सांभळीने अथवा पूर्णपद एवो पाठ मानीये तो अहों पद शब्दे करी ज्ञान समजबुं; पूर्णपद | एटले संपूर्ण ज्ञान. केवु ज्ञान ? अर्थधर्मोपशोभित=लोको जेनी अर्थना-अभिलाषा करे ते अर्थ एटले स्वर्ग मोक्षादि तथा धर्म एटले It पूर्वोक्त अथैनो उपायभूत आवा अर्थ तथा धर्मवडे उपशोभित एवा जिनांत सिद्धांतने सांभळी जो भरत चक्रीए संपूर्ण भरतक्षेत्र IF छ खंडना साम्राज्यने त्यजीने दीक्षा लीधी तो पछी तमारे पण आ जिनांतं आगम मार्गमा चालधुं. 'जे मागे महाजन संचों el तेज मार्ग' एवं नीति वचन छे तेथी ज्यारे सकळ नृपतिमा दुख्य समपुत्र भरते ए मार्गनो आश्रय कर्यो त्यारे तमारे पण एज योग्य छ. ३४ For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथात्र भरतचक्रिणः कथाउत्तराध्यन अयोध्यायां नगयों श्रीऋषभदेवपुत्रः पूर्वभव कृतमुनिजनवैयावृत्त्यार्जितचक्रिभोगः प्रथमचक्री भरतनामास्ति. नस्य३ भाषांतर यन सूत्रम् JE नवनिधानानां चतुर्दशरवानां द्वात्रिंशत्महस्त्रनरपनीनां द्विसप्ततिसहत्रपुरवरागां षण्णवतिकोटिग्रामाणां चतुरशीति- अध्य०१८ BE शतसहस्रहयगजरथानां षट्ग्वंडभरतस्यैश्वर्वमनुभवतः, स्वसंपत्यनुसारेण साधर्मिकवात्सल्यं कुर्वतः, स्वयं कारिताष्टा- | ॥९६१॥ पदशिरःसंस्थितचतुर्मुखयोजनायामजिनायतनमध्यस्थापितनिजनिजवपुःप्रमाणोपेतश्रीऋषभादिचतुर्विंशतिजिनप्रतिमा३६। वंदनार्चनं ममाचरतः श्रीभरतचक्रीग: पंच पूर्वलक्षाण्यतिक्रांतानि. ____ अयोध्या नगरीमां श्रीऋषभदेवना पुत्र, पूर्वभवमां करेल मुनिजनोना वैयावृत्यवडे चक्रिभोग जेने प्राप्त थयेल छे एवा भरत JE नामे प्रथम चक्री थया. तेमने नव निधान, चतुर्दश रत्न, बत्रीस हजार नरपति, बउंतेर हजार श्रेष्ठ नगरो, छन्नु करोड गाम, चोराशी लाख घोडा हाथी अने रथ; आवी संपत्तिवाळु छ खंड भरतनुं ऐश्वर्य भोगवता हता. तथा पोतानी संपत्तिने अनुसार समान धर्मवाळाओ प्रति वात्सल्य करता हता, अने अष्टापद पर्वतना शिखर पर एक योजन लंबाइ पहोळाइवाळा चतुरस्र प्रदेशमा जिनायतन मध्यमां पोते स्थापित करवेली श्रीऋषभादिक चोवीशे तीर्थङ्करोनी ते ते तीर्थङ्करना शरीर प्रमाणनी प्रतिमाओ® अर्चन तथा वंदन करता करतां पांच पूर्वलक्ष व्यतीत थयां. अन्यदा महाविभूत्योदर्तितदेहः सर्वालंकारविभूषितः स भरतचको आदर्शभवने गतः, तत्र स्वदेहं प्रेक्षमाणस्यांगुलीयकं पतितं, तच्च तेन न ज्ञातं. आदर्शभित्तौ स्वदेहं पश्यता तेन पतितमुद्रिका स्वकरांगुज्यशोभमाना For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir www.kabatirth.org भाषांतर अध्य०१८ ॥१.६२॥ टा. ततो द्वितीयांगुलीतोऽपि मुद्रिकाअनीता साप्यशोभमाना दृष्टा. ततः क्रमात्सर्वागाभरणान्युत्तारितानि. तदा उत्तराभ्य- स्वशरीरमतीवाशोभमानं निरीक्ष्य संवेगमापन्नश्चक्री एवं चिंतितुं प्रवृत्तः, अहो! आगंतुकद्रव्यरेवेदं शरारं शोभते, या मून न स्वभावसुंदरं. अपि चैतच्छरीरसंगेन सुंदरमपि वस्तु विनश्यति. उतं च-मणुन्नं असणपाणं । विविहं खाइमसा॥१६॥३६ इमं । सरीरसंगमावन्नं । सवपि असुई भवे ॥ १॥ वरं वत्थं वरं पुप्फ । वरं गंधविलेवणं ॥ विनस्सए सरीरेण । Jt वरं सयणमामण ॥२॥ निहाणं सब्बरोगाणं । कयग्यमथिरं इमं ।। पंचासुहभूभमयं । अथकपडिकम्मा ॥ ३ ॥ तत एतच्छरीरकृते सर्वथा न युक्तमनेकपापकर्मकरणेन मनुष्य जन्महारणं. यन उक्तं-लोहाय नाव जलधी भिनत्ति । सूत्राय बैडूर्यमणि दृणाति । सचंदनं ह्योषति भस्महेनो-यों मानुषत्वं नयतींद्रियार्थे ॥ १॥ इत्यादिकं चिंतयतस्तस्य भरतस्य । प्राप्तभावचारित्रस्य प्रवर्धमानशुभाध्यवसायक्षपकश्रेणिप्रपन्नस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं. एक समये महोटा वैभवथी देहने सजी सर्व अलंकारोथी विभूषित बनी ते भरतचक्री पोताना महेलमां गया त्यां भीते गोठ| वेला महोटा महोटा अरीसामा पोतानो देह जुए छे त्यां एक आंगळीमांथी वींटी नीकळी पडी पण ते पोताना जाण्यामां न आवी. तथापि जे आंगळी अरीसामा अडवी जोवामां आवी अने तेथी ते आंगळी शोभारहित जणाणी आ जोइने तेणे बीजी आंगळीमाथी जाणी जोइने वींटी काढी नाखी त्यारे ते आंगळी पण शोभा विनानी जणाणी एम करतां क्रमे क्रमे एक पछी एक तमाम घरेणां उतारी नाख्यां त्यारे तो आंखूय शरीर अशोभायमान=नभरमू लागवा मांज्यु आ जोइने वैराग्य पामा मनमां तेणे एम विचार्य के-आ शरीर तो आवा आगंतुक द्रव्योवडेज शोभे छे, आ शरीर कई स्वभावतः सुन्दर नथी. वळी आ शरीरना संगवडे सुंदर For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ ९६३॥ www.kobatirth.org वस्तु पण विनाश पामे छे. कछु छे के 'मनगमतुं अशन पान तथा विविध खावाना स्वादिम पदार्थो शरीर संगम पामीने सर्व पण अशुचि थाय छे १' 'सारं वस्त्र, सारां पुष्प तथा सारा गंध अनुलेपन तेमज श्रेष्ठ शयन तथा आसन शरीरबडे विनष्ट थाय छे २ सर्व रोगांनुं निधान, कृतन अस्थिर आ पंच अशुभ भूतमय शरीर छे तेनुं प्रतिकर्म अनर्थकज के ३' तेथी आ शरीरने माटे अनेक पापकर्म करने आ मनुष्य जन्म हारी बेसवुं सर्वथा युक्त नथी कछु छे के 'जे मनुष्य केवळ इन्द्रियोने अर्थे आ मानुष्य जन्म खपात्री नाखे छे ते समुद्रमां वहाणमां बेसी लोढां माटे वहाणने मांगे छे सूत्र काढी लेवा बैहूर्य मणीने तोडे छे, अने राख माटे उत्तम चदनने वाळी नाखे छे १' आवा आवा विचार करता ते भरत चक्रीने भाव चारित्रनी प्राप्ति थतां शुभाध्यवसायनी वृद्धी थइ क्षपकश्रेणीने प्रपन्न थया तेथी केवळज्ञान उत्पन्न थयुं. शकस्तत्र समायातः, कथयति च द्रव्यलिंगं प्रपद्यस्व ? पेन दीक्षोत्सवं करोमि ततो भरतकेवलिना स्वमस्तके पंचमष्टिको लोचः कृतः, शासनदेवतया च रजोहरणोपकरणानि दत्तानि दशसहस्रराजभिः समं प्रवजितो भरतः, शेषचक्रिणस्तु सहस्रपरिवारण मत्रजिताः ततः शक्रेण वंदितोऽसौ ग्रामाकरनगरेषु भ्रमन् भव्यसत्वान् प्रतियोधयन् एक पूर्वलक्षं गाव केवलिपर्यायं पालयत्वा परिनिर्वृतः, तत्पट्टे च शक्रेणादित्ययशा नृपोऽभिषिक्तः इति भरतांतः ॥ ३४ ॥ पुनस्तदेव महापुरुषदृष्टांतेन दृढयति इन्द्र आव्या अनेक के द्रव्यलिंगने स्वीकारो जेथी अमे दीक्षोत्सव करीये. ते पछी भरतकेवळीये पोताना मस्तक उपर पांच मुष्टिनो लोच कर्यो; शासन देवताए तेने रजोहरणादिक उपकरणो दीघां; अने दश सहस्र राजाओ सहित भरत मत्रजित For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 39387 भाषांतर अध्य०१८ ॥ ९६३॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandir JE थया. शेष चक्रीओ तो सहस्र परिवारवडे प्रत्रजित थया. तदनंतर शक्र इन्द्रे जेने बंदना करी छे एवा ते ग्राम भाकर नगरादिकमां Ji उत्तराध्य भ्रमण करता तथा भव्य जीवोने प्रतिबोधता एक पूर्वलक्ष समय पर्यंत केवलिपर्याय पाळीने परिनित थया. तेना पट्ट उपर इन्द्रे | भाषांतर यन मूत्रम आदित्य यक्षा नृपनो अभिषेक कर्यो. भरत दृष्टांत. एनेज फरी महापुरुष दृष्टांतथी दृढ करे -- अध्य०१८ ॥९६४॥ सागरी वि सागरंतं । भारहवासं नराहिवो ॥ इस्सरियं केवलं हिचा । दयाए परिनिव्वुओ ॥ ३५॥ ॥९६४॥ [सगरोवि०] सगर नराधिप पण सागरांत चारेकोर सागर पर्यंत-भारतवर्षने तथा केवळ-पूर्ण ऐश्वर्यने त्यजीने व्यापडे परिनित थया. ३५/20 व्या-हे मुने! सगराऽपि सगरनामा नराधिपोऽपि दयया संयमेन परिनिर्वृतः, कर्मभ्यो मुक्तः अत्र नराधिपशब्देन अपिशब्दाद द्वितीयश्चक्रवर्त्यधिकारादनुक्तोऽपि चक्रयेव गृह्यते. किं कृत्वा ? भारतवर्ष भरतक्षेत्रमा गरतक्षेत्रराज्यं त्यक्त्वा, पुनः केवलं परिपूर्णमेकच्छत्ररूपमैश्वर्य हित्वा त्यक्त्वा, कीदृशं भरतवर्ष ? सागरांतं समुद्रांतसहितं. चुल्लहिमवत्पर्वतं यावदिस्तीर्ण भरतक्षेत्रराज्यमित्यर्थः ॥ ३५ ॥ अत्रसगरचक्रवर्तिदृष्टांना, तथाहि हे मुने! सगर नामनो नराधिप पण दया संयमवडे परिनिर्वृत कर्मथी मुक्त थया. अत्रे नराधिप शन्दे करी, अपि शब्द साथे आपेल छे तेथी स्पष्ट नथी कहेल तो पण बीजो चक्रवर्तीज समजवानो छे केमके आ चक्रवर्तीना अधिकारनोज चालतो प्रसंग छे. शुं करीने ते निवृत थया ? भारतवर्ष भरतक्षेत्र अर्थात् आखा भरतक्षेत्रनुं राज्य त्यजीने तथा केवळ परिपूर्ण एक च्छत्ररूप ऐश्वर्यने त्यजीने. भारतवर्ष के ? सागरांत समुद्रात सहित अर्थात् चुल्ल अने हिमालय पर्वत सुधीनुं विस्तीर्ण भरतक्षेत्र राज्य, ३५ सगरचक्रीन दृष्टांत कहे छे: For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम ॥९६५ ॥ www.kobatirth.org अयोध्यायां नाकुकुलोद्भवो जितशत्रुनृपोऽस्ति, तस्य भार्या विजयानाम्न्यस्ति सुमित्रनामाजितशत्रुसहोदरो युवराजो वर्तते तस्य यशोमतीनाम्नी भार्यास्नि. जितशत्रुराइया विजयानाम्न्या चतुर्दशमहास्त्रमसूचितः पुत्र प्रसूतः, तस्य नामाऽजिन इनि दत्तं स च द्वितीयतीर्थकर इति, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयोध्या नगरीमां इक्ष्वाकुकुलमां उत्पन्न थयेलो जितशत्रु नामे राजा हतो, तेनी भार्या विजया नामनी हती जितशत्रुनो सगो भाइ सुमित्र नामनो युवराज तरीके बर्ततो तेनी स्त्री यशोमती नामनी हती. जितशत्रु राजानी विजया राणीने चतुर्दश महास्वन जोवाथी तीर्थकरना अवतारनुं मूचन करतो पुत्र जनम्यो जेनुं नाम अजित राख़वामां आव्यु, आ अजित द्वितीय तीर्थंकर कहेवाया. सुमित्रयुवराजपत्न्या यशोमत्या सगरनामा द्वितीयश्चक्रवर्ती प्रसूतः तौ द्वावपि यौवनं प्राप्तौ पितृभ्यां कन्याः परिणायिनौ. कियता कालेन जितशत्रुराज्ञा निजे राज्येऽजितकुमारः, स्थापितः, सगरश्व यौवराज्ये स्थापितः सहोदसुमित्रसहितेन जितशत्रुनृपेण दीक्षा गृहीता. अजितराज्ञा च कियत्कालं राज्यं परिपाल्य तीर्थप्रवर्तन समये स्वराज्ये सरं स्थापयित्वा दीक्षा गृहीता. सगरस्तृत्पन्नचतुर्दशरत्नः साधितषट्खंडभरनक्षेत्रो राज्यं पालयति. सुमित्र नामक युवराजनी पत्नी यशोमतीने सगर नागे बीजो चक्रवर्ती अवतर्यो. आ बन्ने युवान थया त्यारे तेमना पिताये बेयने कन्याओ परणावी. केटलोक काळ बीततां जितशत्रु राजाए पोताना राज्य उपर अजितकुमारने अभिषिक्त कर्या अने सगरने युवराज पद उपरे स्थापित कर्या; अने पोताना सहोदर सुमित्र सहित राजा जितशत्रुये दीक्षा ग्रहण करी. अजित राजाये पण केटलोक काळ राज्य परिपालन करीने तीर्थ प्रवर्त्तन समये पोताना राज्य उपर सगरने स्थापित करी पोते दीक्षा कीधी. सगर तो चउद रत्नो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९६५ ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९६६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्पन्न थवाथी छ खंडवाळा भरतक्षेत्रनुं राज्य साधी चक्रवर्ती थह पृथ्वीनं परिपालन करवा लाग्या. तस्य पुत्राः षष्टिसहस्रसंख्याका जाताः सर्वेषां तेषां मध्ये ज्येष्टो जन्हुक्कुमारो वर्तते. अन्यदा जन्हुकुमारेण कथंचित्र: संतोषितः, स उवाच, जन्हुक्कुमार! यत्तव रोचते तन्मार्गय ? जन्हुरुवाच तात ममास्त्ययमभिलाषः, यत्तातानुज्ञातोऽहं चतुर्दशरत्नसहितोऽखिल भ्रातृ परिवृतः पृथ्वीं परिभ्रमामि सगरचक्रिणा तत्प्रतिपन्नं मशस्ते मुहूर्ते सगरचक्रिणः समीपात्स निर्गतः सबलवाहनोऽनेकजनपदेषु भ्रमन् प्राप्तोऽष्टापदपर्वते. सैन्यमधस्तान्निवेश्य स्वयमष्टापदपर्वतमारूढः, दृष्टवांस्तत्र भरतनरेन्द्रकारितं मणिकनकमयं चतुर्विंशनिजिनप्रतिमाधिष्टितं स्तृपशतसंगतं जिनायतनं, तत्र जिनप्रतिमा अभिवंद्य जन्हुकुमारेण मंत्रिणः पृष्टं, केन सुकृतवतेद्मतीवरमणीयं जिनभवनं कारितं ? मंत्रिणा कथितं भवत्पूर्वजेन श्रीभरतचक्रिणेति श्रुत्वा जन्हुकुमारोऽवदत् अन्यः कश्चिदष्टापदसदृशः पर्वतोऽस्ति ? यत्रेदृशमन्यं चैत्यं कारयामः चनसृषु दिक्षु पुरुषास्तद्वद्वेषणाय प्रेषिताः, ते सर्वत्र परिभ्रम्य समायाताः, ऊचुश्च स्वामिन् ईदृशः पर्वतः क्वापि नास्ति, जन्हुना भणितं यद्येवं वयं कुर्म एतस्यैव रक्षां यतोऽत्र क्षेत्रे कालक्रमेण लुब्धाः शठाश्च नरा भविष्यति. अभिनव कारणात्पूर्वकृत परिपालनं श्रेयः ततथ दंडरत्नं गृहित्वा समंततोऽष्टापदपार्श्वेषु जन्हुप्रमुखाः सर्वेऽपि कुमाराः खातुं लग्नाः तच्च दंडरत्नं योजनसहस्रं भित्वा प्राप्तो नागभवनेषु तेन तानि भिन्नानि दृष्ट्वा नागकुमाराः शरणं गवेषयंतो गता मागराजज्वलनप्रभसमीपे कथितः स्वभवनविदारणवृत्तांतः सोऽपि संभ्रांत उत्थितोऽवधिना ज्ञात्वा क्रोधोध्धुरः समागतः सगरसुतसमीपं भणितवांश्च भो भो किं भवद्भिर्दडरत्नेन पृथ्वीं विदार्यास्मद्भवनोपद्रवः कृतः ? For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९६६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविचार्य भवद्भिरेतत्कृतं यत उक्त आ सागरने साठ हजार पुत्रो थया ते सर्वेना मध्यमां जन्हुकुमार ज्येष्ठ = सहुथी महोटो=डतो. एक समये जन्दुकुमारे कोइ प्रसंग सगरने संतुष्ट कर्या तेथी ते बोल्या के 'जन्दुकुमार ! तने जे गये ते मागी ले' जन्हु बोल्यो के - 'तात ! मारो एवो अभिलाष छे के तानी आज्ञा लइ चउद रत्न सहित समग्र भाइओने साथै लइ पृथ्वी परिभ्रमण करूं' सगर चक्रीए आ बात मंजूर करी. सारु मुहूर्त्त जोइने सगरचक्री पासेवी सैन्य तथा वाहनो सहित नीकल्या. अनेक देशोमां फरता करता अष्टापद पर्वत पासे आव्या. सकल सैन्यने नीचे राखीने पोते सर्व भाइओने साथै लइ अष्टापद उपर चज्या; त्यां भरत नरेंद्रे करावेलां मणिसुवर्णमय चोवीश जिनप्रतिमाओए अधिष्ठित तथा सेंकडो स्तूपसंगत जिनायतन जोयां. जिनमतिमाओ अभिनंदन करी जन्दुकुमारे मंत्रिओने पूछयुं के - 'आ अत्यंत रमणीय जिनभवन क्या पुण्यशालिये करावेलां छे ? मंत्रिओक के - आपना पूर्वज श्रीभरतवक्रोये आ निर्माण करावेल छे,' आ सांभळीने जन्दुकुमार बोल्या के- 'आ अष्टापद पर्वत जेवो अन्य कोइ अष्टापद पर्वत छे ? ज्यां आपणे आज बीजुं चैत्य करावीये. चारे दिशाओमां शोध करवा पुरुषो मोकलवामां आव्या, तेओ सर्वे भ्रमण करीने पाछा आध्या अने बोल्या के–'स्वामिन् ! आवो पर्वत क्यांय नथी' त्यारे जन्हुकुमारे क — ' जो एम होय तो आपणे आ पर्वतनी रक्षा करीये. कारण के आ क्षेत्रमां काले करी लोभी तथा शठ पुरुषो थाशे माटे नवु कराववाना करतां पूर्वे करेलानुं परिपालन विशेष श्रेयस्कर छे; आम विचारी दंड रत्न हाथमां लइ जन्हु बगेरे सर्वेय कुमारो अष्टापदने पडखे चारे तरफ खोदवा लाग्या. ए दंडरत्नवडे योजन सहस्र भेदी नागभवनें पहोंच्या पोतानां स्थान भेदातां जोड़ नागकुमारो शरण गोतता गया ज्वलनप्रभनागनी समीपे पोताना भवनो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ | ॥९६७॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९६८ ।। www.kobatirth.org विदारी नाख्यानो वधोय वृत्तांत कही देखाड्यो. ए सांभळीने ज्वलनप्रभ नाग संभ्रममां उभो यह अवधिज्ञानथी जाणी कोथी घूंघतो सगरसृत समीपे आवीने बोल्यो- अहो ! तमे दंडरत्नवडे आ शुं पृथ्वीने विदारी अमारां भवनोने उपद्रव करवा मांड्यो छे ? आतमे वगर विचार्ये साहस आदर्युं छे. कहेल छे के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्पवहाए नृणं । होड़ बलं उत्तणाण भुवर्णमि । णियपक्खबलेणं चिविय । पडड़ पयंगो पईवंमि ॥ १ ॥ ततो नागराजोपशमननिमित्तं जन्हुना भणितं भो नागराज ! कुरु प्रसादं, उपसंहर क्रोधसंभरं, क्षमस्वास्मदपराधमेकं, नास्माभिर्भवतामुपद्रवनिमित्तमेतत्कृतं, किंत्वष्टापदचैत्यरक्षार्थमेषा परिखा कृता, न पुनरेवं करिष्यामः तत उपशांतकोपो ज्वलनप्रभः स्वस्थानं गतः जन्दुकुमारेण भ्रातॄणां पुर एवं भणितं, एषा परिखा दुर्लध्यापि जलविरहिता न शोभते, तत इमां नीरेण पूरयामः ततो दंडरत्नेन गंगा भित्वा जन्हुना जलमानीतं भृता च परिखा, तज्जलं नागभवनेषु प्राप्तं. जलप्रवाहसंत्रस्तं नागनागिनीप्रकरमितस्ततः प्रणश्यतं प्रेक्ष्य प्रदत्तावधिज्ञानोपयोगः कोपानलज्वालामालाकुलो ज्वलनप्रभ एवमचिंतयत्, यदहो ! एतेषां जन्हुकुमारादीनां महापापानां मयैकवारमपराधः क्षांतः, पुनरधिकतरमुपद्रवः कृतः, ततो दर्शयाम्येषामविनयफलं. इति ध्यात्वा ज्वलनप्रभेण तद्वधार्थी नयनविषा महाफणिनः प्रेषिताः, तैः परिखाजलांतर्निर्गत्य नयनैस्ते कुमाराः प्रलोकिताः, भमराशीभूताश्च सर्वेऽपि सगरसुताः तथाभूतांस्तान वीक्ष्य सैन्ये हाहारवो जातः, मंत्रिणोक्तमेते तु तीर्थरक्षां कुर्वतोऽवश्यभावितये मामवस्थां प्राप्ताः सद्गतावेव गता भविष्यतीति किं शोच्यते ? अतस्त्वरितमितः प्रयाणं क्रियते, गम्यते च महाराजचक्रिसमीपं. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९६८॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर gentina अध्य० उत्तराध्य ____ आ भुवनमा उतवळीयामोनुं बळ वरूते आत्मवधने माटेज थइ पडे छे. पतंग पोतानी पांखोना बळवडेज पदीपमा प्रवेश करे | छे'-आवा नागना वचन सांभळी नागराजने शांत करवा माटे जन्हुकुमारे कई के-हे नागराज! आप प्रसन्न थइ क्रोधने शमावो; यन सूत्र 1301 अमारो एक अपराध क्षमा करो. अमे आ कंइ आपने उपद्रव करवा करेलु नथी किंतु अष्टापदनां चैत्योना रक्षणार्थ आ परिखा ॥९६९॥ E (खाइ) करी. हवे फरी अमे एम करीशु नहि. आ सांअळी जेनो कोप उपशांत थयो छे एवो ए ज्वलभ नागराज पोताने स्थाने | गयो, जन्हुकुमारे पोताना भाइओ आगळ एम का के-'आ खाइ जोके दुर्लध्यकोइथी ओळंगी न शकाय तेवी-छे तो पण पाणी विना न शोभे, माटे ए खाइने पाणीथी भरी दइए तदनंतर दंडरत्न बती गंगाने भेदी जन्हुकुमारे जळ लावी खाइने भरी दीधी गंगानो प्रवाह तो खाइ भरातां उपरथी वहीने नागभवने पहोंच्यो. जळ प्रवाहथी त्रास पामी नाग नागिनी समुदाय आम तेम Joi भाग नाश करवा लाग्यो ते जोइने पाछो ज्वलनप्रभनागराज अवधिज्ञानना उपयोगथी जन्हुकुमारादिकनुं कृत्य जाणी कोषाग्निनी नाळाओथी घेरायेलो-'अरे आ जन्हुकुमारादिक महापापीओनो एकवार अपराध में क्षमा कर्यो छतां फरीवार अधिकतर उपद्रव तेओए कों? हवे तो मारे तेओना अविनयन फळ तेओने देखाडर्बुज जोइए' आम विचारी ज्वलनपम नागराजे तेओना वधने माटे नेत्रमा जेने विष रहेलं छै एवा केटलाएक महानागो मोकल्या. ते नागोए ए खाइना जळनी अंदरना मार्गे त्यां जह | बहार नीकळी ए बधा कुमारोने नेत्रोथी जोया के सर्वे कुमारो विषाग्निीथी बळीने राखना ढगला थइ गया. सर्व कुमारोने भस्मीREL भूत थयेला जोइने सैन्यमां हाहाकार थइ रह्यो. मंत्रिए कह्यु-आ बधा तो तिर्थरक्षा करतां अवश्य भावीने लीधे आ अवस्थाने पाम्या, पण ते सर्व सद्गतिनेज पाम्या हशे तेथी तेओनो शोक शुं करवो ? माटे हवे तो अहींथी तुरत प्रयाण करवू अने महाराज A For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DE चक्रीनी समीपे जर्बु उचित छे. उत्तराध्य-36 सर्वसैन्येन मंत्रिवचनमंगीकृतं, ततस्त्वरितप्रयाणकरणेन क्रमात्माप्तं स्वपुरसमीपे. ततः सामंतामात्यादिभिरेवं भाषांतर यन सूत्रम् विचारितं समस्तपुत्रवधोदंतः कथं चक्रिणो वक्तुं पार्यते ? ते सर्वे दग्धाः, क्यं चाक्षतांगा: समायाता एतदपि प्रक्राम DEअध्य०१८ ॥९७०॥ त्रपाकरं. ततः सर्वेऽपि वयं प्रविशामोऽग्नी. एवं विचारयतां तेषां पुरः समायात एको द्विजः तेनेदमुक्तं, भो वीराः! ॥९७०॥ किमेधमाकुलीभूताः ? मुंचत विषादं, यतः मंसारे न किंचित्सुख, दुःखमत्यंतमद्भुतमस्ति. भणितं च सर्व सैन्ये मंत्रीतुं वचन स्वीकारी त्यांची तरत प्रयाण करी क्रमे करी पोताना नगरनी समीपे आवी पहोंच्या. त्यारे सामंत तथा अमात्य आदिक भेळा मळी विचार्यु के-'समस्त पुत्रना वधनो वृत्तांत चक्रीनी आगळ केम कही शकाय?' ते सर्वे बळी मुआ अने आपणे आबाद शरीरवाळा पाछा आव्या; ए पण आपणने शरमावनारुं छे तेथी आपणे सर्वे अग्निमां प्रवेश करीए.' आम ज्यां विचार करे छे तेटलामा एक ब्राह्मण आगळ आवीने पोल्यो के-'हे वीरो! आम आकुल केम थाओ छो ? खेद छोटी यो: कारणके आ संसारमा एव॒ अद्भुत सुख के दुःख कंइ छेज नहिं कयुछे के कालमि अणाइए । जीवाणं विविहकम्मवसगाणं ॥ तं नत्थि संविहाणं । जं संसारे न संभव ॥१॥ अहं सगरचक्रिणः पुत्रवधव्यतिकरं कथयिष्यामि. सामंतादिभिस्तद्वचः प्रतिपन्नं. ततः स दिजो मृतं बालकं करे धृत्वा मष्टोऽस्मीति वदन् सगरचक्रिग्रहद्वारे गतः, चक्रिणा तस्य विलापशब्दः श्रुतः. चक्रिणा स द्विज आकारितः, केन मुष्टोsसीति चक्रिणा पृष्टः स पाह, देव ! एक एव मे सुतः सर्पण दष्टो मृतः, एतद् दुःखेनाहं विलपामीति, हे करुणासागर! Wondean For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |YER BEभाषांतर त्वमेनं जीवय ? अस्मिन्नवमरे मत्र मंत्रिसामंता प्राप्ताः, चक्रिणं प्रणम्य चोपविष्टा, सदानी चक्रिणा राजवैधमाकार्यव- 152 उत्तर.ध्य मुक्त, एनं निर्विषं कुरु? वैयेन तु चक्रिसुतमरणं श्रुतवतोंक्तं, राजन् ! यस्मिन् कुले कोऽपि न मृतस्तस्कुलाङ्कस्म ययेष यन सूत्रम् | आनयति तदैनमहं जीवयामि... अध्य०१८ ॥९७१|| ."आ अनंतकाळमा विविध कर्मने वसंगत थयेला जीवोने एबु कइ पण संविधान (बनाव) नथी के जे संसारयां.न संभवे.” ९७१॥ माटे तमें मुंझाभो मां हुँ सगरचक्रीने पुत्रवधनो वृत्तांत कही आवीश; सामंतादिके आ वचम मान्य कयु. ते पछी ते ब्राह्मण एक मुएला चाळकने हाथमा लइ 'हाय रे हुं मुट्ठो' आम पोकार करतो सगर चक्रीना गृहद्वार आगळ गयो. चक्रीये ब्राह्मणना विलाप शब्दो सांभळीने तेने पोता पासे बोलाव्यो अने 'केणे तारुं मुष्ट चोयु=? आम पूच्यु. त्यारे प्राह्मण बोल्यो के-'हे देव ! आ मारा एकना एक पुत्रने सर्ष डस्यो अने मरी गयो, आ दुःखथी हुँ विलाप करुं ई.हे करुणासागर ! तमे आने जीवतो करो.' आज अवसरे त्यां मंत्री सामंत वगेरे आव्या अने चक्रीने प्रणाम करीने बेठा, आ टाणे चक्रीये राजवैद्यने बोलावीने का के-'आ बालकने निर्विष करो.' वैधे प्रथमथी चक्रिमा पुनोना मरण खबर जाण्या हता तेथी कई के-'हे राजन् ! जेना कुळ्मां कोइ पण | मुभी न होय तेना कुळथी जो आ ब्राह्मण भस्म लइ आवे तो आ बाळक ने जीवतो करी दउं.' द्विजेन गृहे गृहे प्रश्नपूर्वकं भस्म मागित. गृहमनुष्याः स्वमातृपितृभ्रातृदुहितृप्रमुखकुटुंयमरणान्याचख्युः. द्विज चक्रिसमीपे समागत्योवाच, नास्ति वैद्योपदिष्टतादृशभस्मोपलब्धिा, सर्वगृहे कुटुंबमनुष्यमरणसद्भावात् . चक्रिणोक्तं Tell यद्येवं तत्कि स्वपुत्रं शोचसि? सर्व साधारणमिदं मरणं. उक्तं च-किं अस्थि कोइ भुवणे । जस्स जायाई नेव यायाई ।। For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE ICE नियकम्मपरिणईए । जम्ममरणाई संसारे ॥१॥ ततो भो ब्राह्मण! मा मद? शोकं मुंच ? आत्महितं कार्य चितय? 30 उत्तराध्य-36 यावत्वमप्येवं मृत्युसिंहेन न कवलीक्रियसे. विप्रेण भणितं, देव ! अहमपि जानाम्येवं, परं पुत्रमंतरेण संप्रति में भाषांतर यन सूत्र कुलक्षयः, तेनाहमतीवदुःखितः, त्वं तु दुःखितानाथवत्सलोऽप्रतिहतप्रतापश्चासि, ततो मे देहि पुत्रजीवितदानेन मनु- अध्य०१८ ॥९७२॥ व्यभिक्षा ? चक्रिणा भणितं भद्र ! इदमशक्यप्रतिकारं. उक्तं च ॥९७२॥ ब्राह्मण घरे घर पूछी वळ्यो अने भस्म माग्यु पण कोइ घर मा, बाप, भाइ, बेन, दीकरी वगेरे कुटुंबीजनना मरण विनानु क्याथी मळे ? तेथी चक्री समीपे आवी ब्राह्मण बोल्यो के-वैद्ये का तेवू भस्म क्यांयथी मळी शके तेम नथी. सर्व कुटुंबोमां मनुप्योना मरण थयेला छे. चक्रीए कह्यु के-जो एम छे तो पछी पोताना पुत्रनो शोक शा माटे करे छे ? आ मरण तो सर्व साधारण छे. का छे के-“आ भुवनने विषये कोइ एबुं छे के जे जन्म्युछे पण गयु नथी ? आ संसारमा पोतपोताना कर्मना परिणामे जन्म मरण थयाज करे छे १" माटे हे ब्रह्मण! रुदन करो मा, शोक करवो मूकी घो, आत्मानु हित थाय एवं कार्य विचारो, ज्यां मधी तमने पोताने मृत्यु सिंहे कोळीयो नथी को. ब्राह्मणे कड्यु-देव ! हुं पण एम जाणु छ पण पुत्र विना आ टाणे मारो BEN कुळ क्षय थवा बेठो के तेथी हुं अत्यंत दुःखित हूं. तमे तो दुःखित तथा अनाथ पति वत्सल भाववाळा छो तेमज अप्रतिहत प्रतापचाळा छो तेथी आ मारा पुत्रने जीवितदान आपी मने मनुष्य भिक्षा आपो. चक्रीये कयु के-हे भद्र! आनो प्रतिकार अशक्य छे. कयु छ के सीयंति सव्वसचाई । एत्थ न कम्मंति मंत तंताई । कदिठ्ठपहरगंसि । विहिपि किं पोरुसं कुणई ॥शा ततः परित्यज्य शोकं कुरु परलोकहितं ? मूखं एव हृते नष्टे मृते करोति शोकं. विप्रेण भणितं महाराज! सत्यमेतत्, न For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य० ॥९७३॥ उत्तराध्य-du कार्योऽत्र जनकेन शोकः, ततस्त्वमपि मा कार्षीः शोक, असंभावनीयं भवतः शोककारणं जातं. संभ्रातेन चक्रिगा यन सूत्रम् पृष्टं भो विप्र! कीदृशं मम शोककारण जातं! विप्रेण भणितं देव! तव षष्टिसहस्राः पुत्राः कालं गताः. इदं श्रुत्वा RE| चक्री वज्रपहाराहत इव नष्टचेतनः सिंहासनानिपतितो मूर्छिनः, सेवकैरूपचरिनश्च. मू वसाने च शोकातुरमना ॥९७३॥ IJ६// मुक्तकलकंठेन सरोद, एवं विलापांश्च चकार, हा पुत्राः! हा हृदयदयिताः! हा बंधुवल्लभाः! हा शुभस्वभाव! हा विनीताः! हा सकलगुणनिधयः कथं मामनाथं मुक्त्वा यूयं गताः? युष्मद्विरहात्तस्य मम दर्शनं ददत? हा निदेय | पाप विधे! एकपदेनैव सर्वास्तान बालकान् संहरतस्तव किं पूर्ण जातं? हा निष्ठुरहृदय! अनयतमरणसंतप्तं स्वं किं न सतखंडं भवसि ? एवं विलपमानश्चक्री तेन विप्रेण भणितः महाराज ! स्वं मम संपत्येवमुपदिष्टवान् , स्वयं | च कथं शोकं गच्छसीति ? उक्तंच. "सर्व प्राणीओ सीदाय छे एमां मंत्र तंत्र विगेरे कंई काम आवता नथी अदृष्टने आधीन पदार्थमा विधि पण शुं पौरुष पराक्रम करेकरी शके ? १" माटे शोकनो परित्याग करीने कंइ परलोकहित करो. कंइ वस्तु कोइ हरी जाय, नष्ट थाय अथवा की मरी जाय त्यारे मूर्ख होय तेज शोक करे, आवां चक्रीनां वचन सांभळी ब्राह्मण बोल्यो के-'हे महाराज! आपे का ते सत्य छे आम पिताये शोक नज करवो जोइए. माटे तमे पण शोक न करशो. नमने पण नहिं धारेलुं शोकनुं कारण ययुं छे. संभ्रांत थइ चक्रीये पुच्यु-'हे विष! मने शुं शोकनुं कारण बन्यु के ? ब्राह्मणे कयु-देव! तमारा साठ हजार पुत्रो कालधर्मने पाम्या छे' आलु सांभळतां तो चक्री जाणे वचप्रहारथी हणाया होय तेम नष्ट चेतन थइ सिंहासन उपरथी मूर्छा खाइ पडी गया, सेवकोये उपचार For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kubatirth.org उत्तराध्ययन सूत्रम् 58 ॥९७४|| करवाथी मूर्छा उतरी एटले शोकातुर मन थइ मुक्त कंठे रोवा लाग्या. 'हा पुत्रो! हा हृदय प्रिय ! बंधुवल्लभ ! शुभस्वभाववाळा! हा विनीत ! हा सकलगुणनिधानरूप पुत्रो ! मने अनाथ करी छोडाने तमे केम गया ? तमारा विरहथी पीडित एवा मने दर्शन दीयो, TRE भाषांतर अरे निर्दय पाप विधे ! एकदम बधा बाळकोनो संहार करीने तारुं शुं पूरु थवानुं हतु ? हे निष्ठुर हृदय ! असह्य पुत्रमरणना Mac अध्य०१८ संतापथी तारा सेंकडो कटका केम नथी थइ जता ?' आम विलाप करता चक्रोने ब्राह्मणे कयु के-'महाराज ! हमणाज तमे मने | ॥९७४॥ उपदेश देता हता अने तमे पोते आम शोकवश केम थाओ छो ? का के परवसणमि सुहेणं । संसारासारत्तं कहइ लोओ ॥ णियबंधुजणविणासे । सव्वस्सवि चलइ धीरत्तं ॥ १ ॥ एकपुत्रस्यापि मरणं दुस्सहं, किं पुनः षष्टिसहस्रपुत्राणां ? तथापि सत्पुरुषा व्यसनं सहते, पृथिव्येव वज्रनिपातं सहते, नापर इति. अतोऽवलंबस्व सुधीरत्वं? अलमत्र विलपितेन. यत उक्तं-सोयंताणं वि नो ताणं । कम्मबंधो उ केवलो॥ तो पंडिया न सोयंति । जाणता.भवरूवयं ॥१॥ एवमादिवचनविन्यासैविप्रेण स्वस्थी कृतो राजा, भणिताच तेनैव सामंतमंत्रिणः, वदंतु यथावृत्तं षष्टिसहस्रपुत्रमरणव्यतिकरं. तैरुक्तः सकलोऽपि तव्यतिकरः, प्रधानपुरूषैः सर्वैरपि राजा धीरतां नीतः, उचितकृत्यं कृतवान् . “पारकाना व्यसनन्दःख प्रसंगे संसारनी असारता सर्व लोक सुखेथी कहे हे पण ज्यारे निजवन्धुजननो विनाश थाय त्यारे सन धीरत्व चलित थइ जाय छे. १" एक पुत्रनुं मरण दुःसह थाय तो पछी साठ हजार पुत्रोनुं तो कहेज शुं ? तथापि तत्पुरुषो दुःखोने सहन करे छे. वज्रनिपातना आंचकाने पृथिवीज सही शके अपर सहन न करी शके माटे धीरत्वने अवलंबी For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥९७५ ।। www.kobatirth.org हवे विलाप करवानुं रहेवा द्यो. का छे के शोकथी कई त्राण-रक्षण नयी मळ प्रत्युत केवळ कर्मबन्ध थाय छे तेथी भवसा रनुं स्वरूप जाणनारा पंडित पुरुषो शोक करताज नथी. १' आवां वचनो संभळावीने एब्राह्मणे राजाने जरा स्वस्थ करी मंत्रिओने gar मरणनो बन्यो होय तेत्रो तमाम वृत्तांत राजाने कही संभळावो, ते मंत्रिभोए ज्यारे सघळो वृत्तांत की संभाव्य अने प्रधानादिक पुरुषोए राजाने धीरता आपी एटले राजाए सघळं उचित कृत्य क. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रांतरेऽष्टापदासन्नवासिनो जनाः प्रणतशिरस्काश्चक्रिणो एवं कथयंति, यथा देव! यो युष्मदीयसुतैरष्टापदरक्षगंगापवाह आनीतः, स आसन्नन्नामनगराण्युपद्रवति, तं भवान्निवारयतु देवः अन्यस्य कस्यापि तन्निवारणशतिर्नास्तीति चक्रिणा स्वपौत्रो भगीरथिर्भणितः, वत्स ! नागराजमनुज्ञाप्य दंडरत्नेन गंगाप्रवाहं नय समुद्र ? ततो भष्टापद्मतः, अष्टमभक्तेन नागराज आराधितः समागतो भगति, किं ते संवादयामि ? प्रणामपूर्व भगीरथना भणितं तव प्रसादेनामुं गंगाप्रवाहमुदधिं नयमि, अष्टापदासन्नलोकानां महानुपद्रवोऽस्तीति. नागराजेन भणितं विगतभयस्त्वं कुरु स्वसमीहितं ? निवारयिष्याम्यहं भरतनिवासिनो नागान् इति भणित्वा नागराजः स्वस्थानं गतः. भगीरथिनापि कृता नागानां बलिकुसुमादिभिः पूजा, तत्प्रभृति लोको नागवलिं करोति. भगीरथडेन गंगाप्रवाहमाकर्षन् भंजंश्च बहून् स्थलशैलप्रवाहान् प्राप्तः पूर्वसमुद्रं तत्रावतारिता गंगा, तत्र नागानां बलिपूजा विहिता, यत्र गंगा सागरे प्रवाहिता, तत्र गंगासागरतीर्थं जातं. गंगा जन्हुनाऽनीतेति जाह्नवी, भगीरथिना नीतेति भागीरथी. भगीरथस्तदा मिलितैर्नागैः पूजितो गतोऽयोध्यां पूजितश्चक्रिणा तुष्टेन स्थापितः स्वराज्ये. सगरचक्रव For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९७५॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९७६॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥९७६॥ لقد قمنا بنقالي فالفات الا انها لا ننللننللثالثة तिना श्रीअजितनाथसमीपे दीक्षा गृहीता, क्रमेण च कर्मक्षयं कृत्वा सगरः सिद्धः. ___आ अरसामाज अष्टापद समीपे रहेनारा जनोए आवी चक्राने प्रणाम करो का के-'देव! आपना पुत्रोए अष्टापदनी रक्षा करवा माटे गंगाचो जे प्रवाह आण्यो छे ते नजदीकना गाम नगर विगेरेमां उपद्रव करे छे, ते आप निवारो. ए निवारवामां बीजा कोइनी शक्ति नथी. आ बखते चक्रीए पोताना पौत्र भगीरथने का के-'वत्स नागराजनी अनुज्ञा लइ दंडरत्नवडे गंगाना प्रवाहने समुद्रमा लइ जाओ. ते पछी ए भगीरथ अष्टापद समीपे गया. अभक्त (बत)बडे नागराज आराध्या. त्यारे नागराज प्रत्यक्ष आवीने बोल्या के-'कहो | तमारे माटे करवानछे ? त्यारे प्रणाम करी भगीरथे कह्यु के-तमारा प्रसादथी हुँ आ गंगापवाहने समुद्रे लइ जाउं. अष्टापद पासेनां लोकोने महान उपद्रव थाय छे. नागराजे कयु-निर्भय थइने तमे जे धार्यु होय ते सुखेथी करो. भरतनिवासी नागोने हुँ निवारीश,' आटलं बोलीने नागराज स्वस्थाने गया. राजा भगीरथे पण नागोने बलिपुष्पादिकवडे पूजी प्रसन्न कर्या, त्यारथी लोको नाग बलि वगेरे करे छे. भगीरथ पण दंडवडे गंगाप्रवाहने आकर्षी बचे आवता घणा स्थल शैलपवाहोने भांगतो पूर्वसमुद्रने पहोंच्यो. त्यां गंगाने उतार्या अने त्यां पण नागोनी बलिपूजा करी. जे ठेकाणे गंगा सागरमा प्रवाहित थया ते गंगासागरतीर्थ कहेवाणु. गंगाने जन्हु लाव्यो तेथी जान्हवी कहेवाणा अने भगीरये समुद्रमा मेळव्यां तेथी भागीरथि कहेवाणा. भगीरथि पण त्यां मळेला नागोए पूजित थइ पोते अयोध्या गया. चक्रीए प्रसन्न थइ सन्मानीने भगीरथीने पोताना राज्य उपर स्थापित कर्या अने सगरचक्रवर्तीए पोते अजीतनाथनी समीपे जइ दीक्षा गृहण करी, क्रमे क्रमे कर्म क्षय करी सगर सिद्ध थया. अन्यदा भगीरथिना राज्ञा कश्चिदतिशयज्ञानी पृष्टः, भगवन् ! किं कारणं ? यजन्हुप्रमुखाः षष्टिसहस्रा भ्रातरः For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir JE भाषांतर BE अध्य०१८ ॥९७७॥ उत्तराध्य- समकालं मरणं प्राप्ताः? ज्ञानिना भणितं, महाराज! एकदा महान संघश्चैत्यवंदनार्थ सम्मेतपर्वते प्रस्थितः, यन सूत्रम् अरण्यमुल्लंघ्यातिमग्राम प्राप्तः, तन्निवामिना सर्वेणानार्यजनेनात्यंतमुपद्रुनो दुर्वचनेन वस्त्रानधनहरणादिना च, तत्प ॥९७७|| त्ययं नग्रामवासिलोकैरशुभं कर्म बद्धं. तदानीमेकेन प्रकृतिभद्रकेण कुंभकारेणोक्तं, मोपद्रवतेम तीर्थयात्रागतं जनं, इतरस्यापि निरपराधस्थ परिक्लेशनं महापापस्य हेतुर्भवति, किंपुनरेतस्य धार्मिकजनस्य ? यतो यद्येतस्य संघस्य स्वागतपतिपत्तिं कर्तुं न शक्तास्तदोपद्रवं तु रक्षतेति भणित्वा कुंभकारेण निवारितः स ग्रामजनः संचस्ततो गतः. अन्यदा तग्रामनिवासिनैकेन नरेण राजसन्निवेशे चौर्य कृतं. ततो राजनियुक्तः पुरुषैः स ग्रामो द्वारपिधानपूर्वकं ज्वालितः. तदा स कुंभकार: साधुप्रमिध्या ततो निष्कासितोऽन्यस्मिन् ग्रामे गतः तत्र षष्टिमहर जना दग्धाः, उत्पन्ना विराटविषयेंतिमग्रामे कोद्रवित्वेन. ताः क्रोद्रव्य एकत्र पुंजीभूताः स्थिताः संति. तवंकः करी समायातः तच्चरणेन ताः सर्वा अपि मर्दिताः. ततो मृतास्ते नानाविधासु दुःखाचुरासु योनिषु सुचिरं परिभ्रम्यानंतरभचे किंचिच्छुभकाँग ज्य सगरचक्रिसुतत्वेनोत्पन्नाः, षष्टिसहस्रप्रमाणा अपि ते तत्कर्मशेषवशेन तादृशं मरणव्यसनं प्राप्ताः सोऽपि | कुंभकारस्तदा स्वायुःक्षये मृत्वा एकस्मिन् सन्निवेषे धनसमृद्धो वणिग्जातः, तत्र कृतसुकृतो मृत्वा नरपतिः संजात:. ३ नत्र शुभानुबन्धेन शुभकर्मोदयेन प्रतिपन्नो मुानधर्मः. शुद्धं च परिपाल्य ततो मृत्वा सुरलोकं गतः, नतइच्युतस्त्वं JEIL जन्हुसुतो जातः. इदं भगीरथिः श्रुत्वा संवेगमुपागतस्तमतिश्यज्ञानिनं नत्वा गतः स्वभवनं. इदं च भगीरथिपृच्छा संविधानकं प्रसंगत उक्त. इति सगरदृष्टांतः. २. ॥ ३५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यन सूत्रम् ॥९७८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक वखते भगीरथीये एक अतिशय ज्ञानीने पूछयु के 'हे भगवन ! आ जन्हुप्रमुख साठ हजार भाइओ एकज काळे मरण पाम्या तेनुं कारण शुं हशे ?' त्यारे ते ज्ञानीए कछु' के 'महाराज ! एक समये महोटो संघ चैत्यवंदनार्थे संमेतपर्वत भणी चाल्यो, अरण्य ओळंगीने छेले गामे पहोंच्यो. ते गाममां रहेनारा सर्व अनार्य जाति जनोए अत्यंत कनेड्यो, दुर्वचनो कला अने बस्न धन तथा अन्नादिक तमाम वस्तु हरी गया. आम करीने ए गामवासी लोकोए अशुभ कर्म बांध्यु. आ वखते एक भद्र प्रकृतिवाळा कुंभारे क के आ तीर्थयात्रा जता जनोने उपद्रव मा करो. अन्य कोइ निरपराध जनने दुःख देवुं ए महा पापनु निमित्त थाय तो आवा धार्मिक जनांने क्लेश केम देवाय ? कदाच तमे आ संघ स्वागत अथवा तेओनी खातर बरदाश्त न करी शको तो कंड नहिं पण तेओने उपद्रव बन्ध राखो = ( म करो) आम बोळीने ते कुंभारे सर्वे ग्राम जनने निवार्या, एटले संघ तो गयो. एक बहते एमन्यु के ए गाममा रहेनारा एक मनुष्ये राजाना महेलमां चोरी करी त्यारे राजनियुक्त जनोये ए गाम दरवाजा बन्ध करीने सळगायुं ते वख्ते पेलो कुंभार सारा माणस तरीके प्रसिद्ध हतो तेथी तेने काढी मेल्यो ते बीजे गाम जतो रह्यो, आ बखते ए गाममां साठ हजार मनुष्यो दग्ध थया ते वधा विराट देशमां छेडे आवेला गाममां कोद्रव (धान्य) रूपे उत्पन्न थया. ए कोद्रव एक स्थळे ढगलारूपे पडेल हता त्यां एक हाथी आव्यो तेना चरणवडे बधाय कोद्रव मर्द्दित यह मृत थया ते नाना प्रकारनी बहु दुःखचाळी योनिओमां घणक काळ सूधी परिभ्रमण करी अनंतर भवमां कंड सुकृत कर्म उपार्जन करी आ भवमां सगरचक्रीना पुत्ररूपे उत्पन्न थया. साठ हजार संख्याना प्रमाणवाळा पण ते सर्वे कंइ कर्मशेषने वश थतां तेवा मरणव्यसनने पाम्या पेलो कुंभार पण तेनुं आयुः क्षीण थतां मरीने कोइ एक प्रदेशमां धन समृद्ध वणिक् अवतर्यो. त्यां सुकृत करी मरीने राजा थयो त्यां पण पाछळना शुभ For Private and Personal Use Only الفنان الناس भाषांतर अध्य०१८ ॥९७८॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaltirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie अनुबन्धने लीधे शुभ कर्मनो उदय थतां मुनिधर्म स्वीकार्यों शुद्ध आचार पाला मरण पामीने सुरलोके गयो. त्यांथी च्युत थइने उत्तराध्य तुं जन्हुनो पुत्र भगीरथि थयो छो. आ सांभळीने भगीरथि रामा संवेगने पाम्या अमे ए अतिशय ज्ञानीने प्रणाम करी पोताने भवने BE भाषांतर यन सूत्रम् गया. आ भगीरथिने प्रश्न तथा उत्तररूप संविधानक प्रसंगथी का आ प्रमाणे सगर दृष्टांत निरूपण करवामां आव्यु'. ३५ JE अध्य०१८ ॥९७९॥ चइत्ता भारह वास । चक्कवट्टी महदिए । पञ्चजमाभुवगओ । मघवं नाम महायसो ॥ ३६ ॥ ॥९७९॥ HEL [चात्ता०] भारतवर्षने त्यजीने महोटी ऋद्धिवाळो महायशस्वी मघवा नामना चक्रवत्तीं प्रवज्या पाम्या. ३६ व्या०-पुनर्मघवनामा तृतीयचक्रवर्ती भारतं क्षेत्रं त्यक्त्वा प्रव्रज्या दीक्षामभ्यगतश्चारित्रं प्राप्तः कीदृशो मघवा? महर्दिकश्चतुर्दशरत्ननवनिधानधारको वैक्रियद्धिधारी वा. पुनः कीदृशः ? महायशा विस्तीर्णकीतिः ॥ ३६ ।। मघवा नामना श्रीजा चक्रवर्ती भारत क्षेत्रनो त्याग करीने प्रत्रज्या-दीक्षाने अभ्युगत थया अर्थात् चारित्रने प्राप्त थया. केवा मघवा ? महर्द्धिक-चतुर्दशरत्न तथा नवनिधानना धारक, अथवा वैक्रिय ऋद्धिधारी तथा महायशा=विस्तीर्ण कीर्तिमान्. ३६ अत्र भघवाख्यस्य चक्रिणो दृष्टांत:इहैव भरतक्षेत्रे श्रावस्त्या नगर्या समुद्रविजयस्य राज्ञो भद्रादेव्याः कुक्षौ चतुर्दशमहास्वप्नसचितो मघवनामा चक्री समुत्पन्नः स च यौवनस्थो जनकेन वितीर्णराज्यः क्रमेण प्रसाधितभरतक्षेत्रस्तृतीयश्चक्रवर्ती जातः. सुचिरं राज्यमनुभवतस्तस्थान्यदा भवविरक्तता जाता. स एवं भावयितुं प्रवृत्तः, येऽत्र प्रतिबंधहेतवो रमणीयाः पदार्थास्तेऽस्थिरा, उक्तं च-हियइच्छिया उ दारा । सुआ विणीया मणोरमा भोगा ॥ विउला लच्छी देहो । निरामओं For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१८ ॥९८०॥ दीहजीवित्तं ॥१॥ भवपडिबंधनिमित्तं । एगाइवत्थु न वरं सबंपि ॥ कहवयदिणावमाणे । सुमिणोभोगुव्य न हि उत्तराध्य किंचि ॥२॥ ततोऽहं धर्मकर्मण्युद्यम करोमि, धर्म एव भवांतरानुगामी. एवमादिकं परिभाव्य पुत्रनिहितराज्यो मघवा यन सूत्रम् | चक्री प्रबजितः. कालक्रमेण विविधतपश्चरेन कालं कृत्वा सनत्कुमारे कल्पे गतः. इति मघवदृष्टांतः. ॥९८०॥ अत्रे मघवाख्य चक्रीन दृष्टांत कहेवाय छ:-आ भरत क्षेत्रमांज श्रावस्ति नगरीमा समुद्रविजय नामना राजाने भद्रादेवी | नामनी राणीनी कूखे चतुर्दश महास्वममूचित मघव नामे चक्री जन्म्या. ते ज्यारे युवावस्थाने प्राप्त थया त्यारे पिताए तेने राज्य सोप्यु अने क्रमेकरी भरतक्षेत्रनु प्रसाधन करी चक्रवर्ती बन्या. लांबा समय पर्यंत राज्य मुखानुभव करतां एक बखते तेने भव-संसारथी विरक्तता उपजी. तेना मनमा एम लागवा मांड्यु के-अहीं प्रतिबंध हेतुभूत रमणीय पदार्थों छे ते बधाय अस्थिर छे. कोछे के–'मनवांछित स्त्रीयो, विनयवान पुत्रो, मनगमता भोगो, विपुल लक्ष्मी, निरामयम्भीरोग देह तथा दीर्घ जीवित १, आ सघल्लु भव मतिबन्धन निमित्त हेतुभूत छे. ए सर्वे पण श्रेष्ठ नथी, केदलाक दिवसोने अंते स्वमना भोग जेवू कशुंइ नथी, २, माटे हुँ धर्मकर्ममा उद्यम करूं, केमके भवांतरमा धर्मज पाछळ आववानो छे. आत्रा आवा विचार करी पुत्रने रान सौंपी मघवा चक्री प्रबजित थया. काल क्रमे विविध तप आचरी मृत थइने सनत्कुमारकल्पमां देव थया. ३६ इति मघव दृष्टांतः ।। सणंकुमारो मणुस्सिंदो । चक्कवट्टी महदिए ॥ पुत्तं रज्जे ठविउत्ताणं । सोविराया तवं चरे ॥ ३७॥ Sal [सणकुमारो०] मनुष्येन्द्र, महोटी ऋद्धिवाळो, सनत्कुमार चक्रवर्ती, पुत्रने राज्य पर स्थापीने ते राजाप पण तप आचयु. ३७ व्या०--पुनः सनत्कुमारो मनुष्येंद्रश्चतुर्थचक्री, सोऽपि तपश्चारित्रं समाचरेदित्यर्थः किं कृत्वा ? पुत्र राज्ये AdSUNDER For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyarmandie REL स्थापयित्वा. सच कीदृशः १ महर्दिकः ॥ ३७॥ उत्तराध्य वळी सनत्कुमार मनुष्येन्द्र, चतुर्थ चक्रवर्ति यया तेणे पण तपः चारित्रनु आचरण कयु. केम करीने ? पुत्रने राज्य उपर यन सूत्रम् स्थापीने. ते केवा महर्दिक महोटी ऋद्धिवाळा. ॥३७॥ ॥९८१॥ अत्र सनस्कुमार दृष्टांत:अस्त्यत्र भरत क्षेत्रे कुरुजंगलजन पदे हस्तिनागपुरं नाम नगरं. तत्राश्वसेनो नाम राजा. तस्य भर्या सहदेवीनानी. तयोः पुत्रश्चतुर्दशस्वप्नसूचितश्चतुर्थश्चक्रवर्ती सनत्कुमागे नामा. तस्य सूरिकालिंदीतनयेन महेन्द्रसिंहेन परममित्रेण समं कलाचार्यसमीपे सर्वकलाभ्यासो जातः सनत्कुमारो यौवनमनुप्राप्तः. अन्यदा वसंतसमयेऽनेकराजपुत्रन| गरलोकसहितः सनत्कुमारः क्रीडार्थमुद्याने गतः तत्राश्चक्रीडां कर्तु सर्वे कुमारा अश्वारूढाः स्वं स्वमश्वं खेलयंति. | सनत्कुमारोऽपि जलधिकल्लोलाभिधानं तुरंगमारूढः ममकालं सर्वैः कुमारः सह. ततो विपरीतशिक्षितेन कुमाराश्चन तथा गतिः कृता, यथाऽपरकुमाराश्वाः प्राक् पतिताः, स कुमाराश्वस्त्वदृश्यीभूतः. ज्ञातवृत्तानो गजा मपरिकरस्तत्पृष्टे चलितः.अस्मिन्नवमरे प्रचंडवायुवातुं लग्नः, तेन तुरंगपदमार्गो भग्नः महेन्द्रसिंहो राजाज्ञा मार्गयित्वोन्मार्गेणैव कुमारमार्गणाय लग्नः, प्रविष्टो भीषणां महाटवी. तत्र भ्रमतस्तस्य वर्षमेकमतिक्रांतं. एकस्मिन् दिवसे गतः स्तोकं भूमिभांगं यावत, तावदेकं महत्सरो दृष्टवान् , तत्र कमलपरिमलमाघातवान् . श्रुतवांश्च मधुरगीनवेणुरवं, यावन्महेन्द्रसिंहोऽग्रे गच्छति, तावत्तरुणीगणमध्यसंस्थितं सनत्कुमारं दृष्टवान् . विस्मतमना महेन्द्रसिंहश्चिंतयति, किं मयैष भाषांतर अध्य०१८ | ॥९८१॥ eanwr For Private and Personal Use Only M Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर अध्य०१८ यन सूत्रम् ॥९८२॥ ॥९८२॥ | विभ्रमो दृश्यते ? किं वा सत्य एवायं सनत्कुमारः ? यावदेवं चिंतयन्महेन्द्रसिंहस्तिष्टति तावत्पठिनमिदं चंदिना जय आससेण नहयल-मयंक कुरुभुवणलग्गणे खंभ ॥ जय तिहुभणनाह सण-कुमार जय लद्धमाहप्प ॥१॥ ततो महेन्द्रसिंहः सनत्कुमारोऽयमिति निश्चितवन . अत्रे सनत्कुमारनुं दृष्टांत कहे छे:-आ भरत क्षेत्रमा कुरुजांगल देशने विषये हस्तिनागपुर नामर्नु नगर छे, तेमां अश्वसेन नामे राजा हतो. तेनी सहदेवी नामे भार्या हती, आ बेयनो पुत्र चतुर्दशस्वप्नमुचित चक्रवर्ती चोथो सनत्कुमार नामनो थयो, आ | सनत्कुमारे मूरिकालिन्दीना पुत्र महेन्द्रसिंह नामना परममित्रनी साये कलाचार्य समीपे सकल कलाभोनो अभ्यास कर्यो. समय पीततां सनत्कुमार युवावस्थाने प्राप्त थयो. एक समये वसंतऋतुमा अनेक राज पुत्रो नया नगर लोकोने साथे लइ सनत्कुमार क्रीडा करवाने उद्यानमां गया त्या अश्वक्रीडा करवा सर्वे कुमारो घोडेस्वार थइ पोत पोताना घोडाने खेलाववा लाग्या. सनत्कुमार पण जलधिकल्लोल नामना पोताना घोडा उपर चढी सर्व कुमारोनी साथे दोडावता हता तेटलामा विपरीत शिक्षा पामेला कुमारना घोडाये एवी गति लोधी के अपर कुमरोना घोडा आगळ पड्या रह्या अने कुमारनो घोडो तो अदृश्य थइ गयो. राजाने खबर थया त्यारे पोताना परिकर सहित तेनी पाछळ चाल्या. आ टाणे प्रचंड वायु वावा लाग्यो तेथी घोडनो मार्ग भग्न थयो त्यारे साथे आवेला महेन्द्रसिं राजानी आज्ञा मागी आडधड मार्गे कुमारनी शोध करतो भयंकर महाटवीमां पेठो, तेमां भटकतां तेने एक वर्ष वीत्यु. एक दिवसे ज्यां थोडोक भूमिभाग जाय छे त्यां तो एक महोदं सरोवर दीर्छ, त्यां तेणे कमलोनो परिमल सूंघ्यो तथा वेणुनादयुत मधुर गीत सांभळ्यू. ज्यां महेन्द्रसिंह आगळ वधे छे त्यांतो पणना टोळाना मध्यमां आवेला सनत्कुमारने जोयो. मनमा For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराभ्ययन सूत्रम् ॥ ९८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्मय पामी महेंद्रसिंह विचार करवा लाग्यो के-'भुं आते कइ हु विभ्रम जोउ हूं ? के आते सत्य सनत्कुमार छे ? ज्यां आम मद्रसिंह चिंतन करे छे तेटलामां तो एक बंदिजने गवाती - 'अश्वसेन रूषी नभस्तलना मृगांक चंद्र ! कुरुवंशरूपी भुवनमां लागेला स्तंभ ! त्रिभुवननाथ ! लब्ध के माहात्म्य जेणे एवा हे कुमार ! तमे जय पमो जय पामो १' आ स्तुति सांभळी ते उपस्थी आ सनत्कुमार छे एवो निश्चय थयो. अथ प्रकामं प्रमुदितमन! महेन्द्रसिहः सनत्कुमारेण दूरादागच्छन् दृष्टः मनत्कुमारोऽप्युत्थायाभिमुखमाययौ. महेन्द्रसिंहः सनत्कुमारपादयोः पतितः सनत्कुमारेण समुत्थापितो गाढमालिंगितश्च द्वावपि प्रमुदिनमनस्कौ विद्या| घरदत्ताने उपविष्टौ विद्याधरलोकश्च तयोः पार्श्वे उपविष्टः अथानंदजलपूरितनयेन सनत्कुमारेण भणितं, मित्र ! namra त्वमस्यामरव्यामागतः ? कथं चात्र स्थितोऽहं त्वया ज्ञातः ? किं च करोति मदिरहे मम पिता माता च? कथितः सर्वो वृत्तांतो महेन्द्रसिंहेन ततो महेंद्रसिंहो वरविलासिनीभिर्मर्दितः स्नापितश्च भोजनं द्वाभ्यां मपमेव कृतं. भोजनावसाने च महेन्द्रसिंहेन सनत्कुमारः पृष्टः, कुमार ! तदा त्वं तुरंगमेणापहृनः क गनः ? क स्थितश्च? कुन एतादृशी ऋद्धिस्त्वया प्राप्ता ? सनत्कुमारेण चिंतितं न युक्तं निजचरित्रकथनं मुखेन, इति संज्ञिना स्वयं परि गीता खेचरेन्द्रपुत्री विपुलमतीनाम्नी स्वप्रियसनत्कुमारवृत्तांतं स्वविद्याबलेन कथयितुं प्रवृत्ता - नदानों कुमारो भवदादिषु पश्यत्सु तुरंगमेणापहृतो महाटव्यां प्रविष्टः, द्वितीयदिनेऽपि तथैव धावतोऽश्वस्य मध्याह्नसमयो जातः क्षुधापिपासाकुलितेन श्रांतेनाश्वेन निष्कासिता जिहा, कुमारस्तत उत्तीर्णः सोऽश्वस्तदानीमेव मृतः For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥ ९८३ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९८४॥ आथी हर्षयुक्त मनवाळा महेंद्रसिंहने दूरथी आवतो जोइ सनत्कुमार पण उभा थइ सामा आब्या. महेन्द्रसिंह सनत्कुमारना उत्तराध्य-56 पगमा पज्यो, सनत्कुमारे तेने उठावीने दृढ आलिंगन आप्यु. बेय जण मनमा घणो हर्ष पाम्या अने विद्याधरे आपेला आसन उपर पन सूत्रम् बेठा. बीजा विद्याधर लोको ए बन्नेनी बाजुमां बेसी गया. तदनंतर आनंदाश्रुथी पूरित नेत्रवाळा सनत्कुमारे पूछ्यु के-'हे मित्र ! ॥९८४ तमे एकलाज आ अटवीमां केम आवी चड्या ? अने 'हु अत्रे छु' ए तमे केम जाण्युं ? वळी मारा वियोगा मारा माता पिता शुं करे छे ?' आम पूछतां महेंद्रसिंहे सघळो वृत्तांत कही संभळावे ते पहेला महेन्द्रसिंहने विलासिनीओए खूब अंगे मर्दन करी नवराव्या ते पछी बन्नेये भोजन साथे कयु. भोजन थइ रह्या पछी महेन्द्रसिंहे सनत्कुमारने पुज्यु-ते वखते तमने घोडो क्या लइ गयो ? पछी तमे क्या स्थिति करो ? अने आ बधी समृद्धि तमने केम मळी ?' सनत्कुमारे विचार्य के पोतानुचरित्र पोताने मुखे कहे, योग्य नहीं तेथी तेणे पोते परणेली खेचरेन्द्र विद्यारनी पुत्री विपुलमतीने आंखथी इशारो कर्यो एटले तेणे पोताना मिय सनत्कुमारनो वृत्तांत पोतानी विद्याना बळथी कहेवा मांडयो,-ते वखते तमे वधा देखतां कुमारने घोडो वेगथी महोटी अटवीमा लइ गयो अने बीजे दिवसे पण तेवीज रीते घोडो दोड्यो जतो हतो त्यां मध्यह समय थयो. भूख तरसथी आकुल तथा अति श्रांत | थयेको घोडो जीभ बहार काढी उभो रह्यो कुमार घोडा उपरथी उतरी पडया के तेज क्षणे घोडो पडीने मरी गयो. कुमारस्ततः पादाभ्यामेव चलितः तृषाक्रांतश्च सर्वत्र जलं गवेषयन्नपि न प्राप. ततो दीर्घाध्वश्रमेण सुकुमारत्वेन चात्यंतमाकुलीभूतो दूरदेशस्थितं सप्तच्छदं वृक्षं पश्यन् तदभिमुखं धावन कियत्कालानंतरं तत्र प्राप्तः. छायायामुपविष्टः पतितश्च लोचने भ्रामयित्वा कुमारः, अत्रावसरे कुमारपुण्यानुभावेन वनवासिना यक्षेण जलमानीतं, في السياسلطالقانطلاقليمية في التقاليد الفيابانيفية الفا الله لنا الفنان الحاليلها ستالیف جا الاعلان عن الافعا عن خالتهداف المالي انعقدت يافيا ar For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९८५॥3 भाषांतर अध्य०१८ ॥९८५॥ शिशिरशीतल जलेन सर्वागं सिक्तः, आश्वासितश्च. लब्धचेतनेन कुमारण जलं पीतं, पृष्टं च कस्त्वं ? कुतो वानीतं जलमिदं ? तेन भणितमहं यक्षोऽत्र निवासी, सलिलं चेदं मानसरोवरादानीतं. कुमारेणोक्तं यदि मां नदर्शयमि, तदा तत्र मानसरोवरे प्रक्षालयामि मद्वपुः, येन तत्तापोऽनयनि, तत् श्रुत्वा यक्षेण करतलसंपुटे गृहीत्वा म नीनो मानसरोवरं. तत्र व्यसनापतितोऽयमिति कृत्वा क्रुद्धेन वैतात्यवामिनाऽसिनयक्षेग ममं कुमारस्य युद्धं जातं. तथादि पछी तो पगे चालता कुमार तरस्या थया, बहु गोततां पण जळतो न मळ्यु. सुकुमार शरीरे लांची पंथ करवाना श्रमयी कुमार अत्यंत आकुल थया. चारे कोर नजर करतां दूरदेशस्थित सप्तच्छद (सातवण) नो वृक्ष दीठो ते ताफ दोडतां केटलीक वारे त्यां पहोंच्या अने छांयामां बेठा, त्यां आंखो फेरवीने कुमार पडी गया. आ अवसरे कुमारना कोइ पुण्यप्रभावे एक वनवासी यक्ष जळ लइ आव्यो, शीतळ जळवती सर्व अंग सोंच्युं अने आश्वासना करी तेथी सावध थइ कुमारे जळपान कर्यु अने पूछयु के-" तमे कोण छो ? तथा आ जळ क्याथी लाव्या ?" तेणे कयु-" हुआ स्थानमा रहेनारो यक्ष छु आ जळ मान सरोवरथी लाव्यो." कुमारे कड्डा-"जो मने ते सरोवर देखडो तो हुँ त्यां आ मार्क शरीर प्रक्षालित करुं तो मने आ साप मटे." ते सांभको-यक्ष तेनो हाथ पोताना हाथे झालीने मानसरोवर उपर लइ गयो. त्यां वैताध्यपर्वतमा रहेनार असिताक्ष नामनो यक्ष के जे सनत्कुमारना पूर्वभवनो वैरी हतो तेणे कुमारने व्यसन दुःखमां पडेला जाणी क्रोधांध थइ कुमारनी साथे युद्ध करवा मांड्यु. घक्षण प्रथमं मोटिततमः प्रचंडः पवनो मुक्तः, तेन नभःस्थलं बहुलधूल्यांधकारितं. ततो विमुक्ताहामा ज्वरनज्वालापिंगलकेशा पिशाचा मुक्ताः, कुमारस्तैर्मनाग न भीतिं गतः. ततो नयनज्वालास्फुलिंगवर्षिभिर्नागपाशः For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१८ | ॥९८६॥ कुमारो यक्षेण यद्धः, जीर्णरज्जुबंधनानीव तांत्रोटयतिस्म कुमारः. ततः करास्फालनपूर्व मुष्टिमुदस्य यक्षः समायातः, उत्तराध्य तावता मुष्टिप्रहारेण कुमारस्तं खडीकृतवान् . पुनर्यक्षः स्वस्थो भूत्वा गुरुमत्सरेण कुमारं घनमहारेण हतवान् . तत्प्र हारातः कुमारश्मिन्नमूलद्रुम इव भूमौ निपतितः. ततो यक्षेण दूरमुत्क्षिप्य गिरिवरः कुमारस्योपरि क्षिप्तः. तेन दृढ॥९८६॥ पीडितांगोऽसौ निश्चेतनो जातः. अथ कियत्कालानंतरं लब्धसंज्ञः कुमारस्तेन समं बाहुयुद्धं चकार. कुमारेण करमुदूराहतो यक्षः प्रचण्डवाताहतचूत इव तथा भूमौ निपतितो यथा मृत इव दृश्यते, परं दैवत्वात्म न मृतः, आरार्टि कुर्वाणः स यक्षस्तथा नष्टो यथा पुनर्न दृष्टः. कौतुकान्नमस्यागतविद्याधरैः पुष्पवृष्टिर्मुक्ता उक्तं च जितो यक्षः कुमारेणेति. प्रथम तो ते यक्षे, मोटा झाडने उखेडी नाखे एवो पवन मुक्यो, तेथी आखं आकाश धूळयी अंधकारित थइ गयु ते पछी अट्टहास्य करता अग्निनी ज्वाला जेवा पींगळा केशवाळा पिशाचो मोकल्या, पण कुमार ते पिशाचोथी जराय भय न पाम्या. ते र पछी नेत्रमाथी ज्वाळाना तणखा वर्षता नागोना पाशवडे यक्षे कुमारने बांध्या तेने हाथी जेम जुनी सोंदरीने तोडे तेम कुमारे ते JE पाशने त्रोडी नाख्या त्यारे खभी ठोकी यक्ष मूठी उगामीने सामो आव्यो के कुमारे तेने मुष्टिपहारवडे भग्न करी नाख्यो. वळी IF ते यक्ष स्वस्थ थइने अतिमत्सरथी हाथमा महोटो घण लइ तेनावडे कुमारपर प्रहार कर्यो ते प्रहारथी पीडित थयेलो कुमार, मूळ | छेदातां वृक्ष जेम ते पृथ्वी पर पडी गयो. आ वखते यक्षे एक पर्वत घणे उंचे उछाळीने कुमार उपर फेंक्यो तेथी तेनां अंगो बहु पीडावाथी कुमार चेतनरहित जेवो यह गयो. केटलीक धारे संज्ञा आवतां कुमार उठीने ए यक्षनी साथे बाहुयुद्धमां मंडाणा. कुमारे पोताना कररूपी मुद्गरना पहारथी यक्षने एवो इण्यो के ते प्रचंड वायुवडे आघात पामेला आम्रवृक्षनी पेठे पृथ्वीपर मरी गया الطاقم التداولا في نادي العليا للتعاون کے فن مقالات الاقے PRESIDEO For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir الملك उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९८७|| الناقل भाषांतर अध्य०१८ ॥९८७॥ وزیراعات کا بیان دینا عبدالقابالتعاون مع نصنع قناع قناه بنات الاتفاقيات जेवो थइ पडी गयो, पण देवयोनि होवाथी मुभी नही किंतु अरेराटी करतो ते यक्ष एवो तो जीव लइने नाठो के ते फरी नज देखाणो. कौतुकथी युद्ध जोवा आवेला विद्याधरोए आकाशमाथी पुष्पवृष्टि मुकी अने का के-कुमारे यक्षने जीत्यो. ततो मानससरसि यथेष्टं स्नात्वोत्तीर्णः कुमारो यावत्स्तोकं भूमिभागं गतस्ताव तत्र बनमध्यगता अष्टौ विद्याधरपुत्रीदृष्टवान् . ताभिरप्यसौ स्निग्धदृष्ट्या विलोकित:. कुमारेण चिंतितमेताः कुनः ममायाताः मंति? पृच्छाम्यामां स्वरूपमिति पृष्टं कुमारेण तासां ममीपे गत्वा मधुरवाण्या, कुनो भवंत्य आगताः ? किमर्थमेनच्छून्यमरण्यमलं कृतं? ताभिर्भणितं महाभाग ! इतो नातिदरे पियसंगमाभिधानास्माकं पुर्यस्ति, त्वमपितत्रैवागच्छनि भणित: किंकरीदशितमार्गस्तामा नगरी प्राप्तः. कंचुकिपुरुषै राजभुवनं नीतः, दृष्टश्च तन्नगरस्वामिना भानुवेगराज्ञा, अभ्युत्थानादिना सत्कृतश्च. उक्तं राज्ञा महाभाग ! त्वमेतामां ममाष्टकन्यानो बरो भव ? पूर्व यात्रायानेनाचिर्मालिनाना मुनिनैवमादिष्टं योऽसिताक्षं यक्ष जेष्यति स एतामां भर्ता भविष्यति. नतस्त्वमेताः परिणयेति नृपेणोते कुनारेग तथेनि प्रनिपनं. राज्ञा महामहःपूर्वकं विवाहः कृतः, कंकण कुमारकरे यद्धं, सुप्तश्च ताभिः सार्ध रतिभवने कुमारः पल्यकोपरि. निद्रा विगमे चात्मानं भूमौ पश्यति.किमेतदिति चिंतितवांश्च, करबद्धं कंकणं च न पश्यति. नतः विन्नमनाः कुमारस्तो गंतुं प्रवृत्ता. अरण्यमध्ये च गिरिवरशिखरे मणिमयस्तंभपतिष्टितं दिनभवनं दृष्टं. कुमारेण चिंतितमिदमपींद्रजालपायं भविष्यतीति. तदासन्ने यावढूंतु प्रवृत्तः कुमारस्तावत्तद्भवनांतः करणस्वरेण रुदंत्या एकस्था नार्याः शब्दं श्रुतवान् . ते पछी मानसरोवरमां यथेष्ट स्नान करी बहार आवी थोडोक प्रदेश आगळ चाले छे त्यां बनमध्ये आवेली आठ विद्याधर ج لال السنة من For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९८८॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥९८८॥ पुत्रीओने दीठी. आ कन्याओये कुमार तरफ स्नेहा दृष्टिथी जोयुं त्यारे कुमारे विचार्य के " आ क्यांधी आवेल छे ? तेमनुं स्वरूप पूर्छ " आम धारीने कुमारे तेओनी पासे जइ मधुरवाणीथी पूछ्यु के-तमे बधी क्याथी आवो छो ? अने आ शून्य शरण्यने शा माटे शोभाब्यु छ ?' तेओए का के-" हे महाभाग ! अहींथी थाई दूर प्रियसंगमा नामनी अमारी निवासस्थानभूत नगरी है, नमे पण त्यां आवो " आटलं वाली एक दासीने चीध्यु ते दासीए मार्ग देखाड्यो तेथी कुमार ते नगरीमां गया. त्यां नांजर लोको तेने राजभवनमा लइ गया. ते नगरीना स्वामी भानुवेग राजाए तेने दीठा, अभ्युत्थान आदिक सत्कार करी राजाए का के-"हे महाभाग ! तमे आ मारी आठ कन्याओना वर थाओ, कारण के पूर्व अत्रे आवेला एक अचिौली नामना मुनिए भविष्यवाणीथी का हतुं के-जे असिताक्ष यक्षने जीतशे ते आ आठे कन्याओनो भर्ता थशे. माटे हवे आ आठने तमे परणो" कुमारे तेम करवा स्वीकायु एटले राजाए महोटा उत्सवपूर्वक विवाह कर्यो. कुमारने हाथे कंकण बंधन कयु अने परणीने कुमार ते रात्रे ए आठेने साथे लइ रतिभवनमा पलंग पर मृता, रात्रमा निद्रा उडी ने जुए छे तो पोते पृथ्वी उपर पडेल छे. 'आ शुं थयु' एम चितवन करता हाथ तरफ नजर करे छे तो हाथे बांधेलु कंकण न दीढुं. आथी अति खेदयुक्त मनथी कुमारे त्यांथी चालवा मांडथु तेटलामां पासेना भवननी अंदर करुण स्वरे रोती कोइ नारीनो स्वर सांभळ्यो. प्रविष्टस्तद्भवनांतः सप्तमभूमिमारूढः रूदंत्या तत्रैकया कन्यया भणितं, कुरुजनपदःभस्नलमृगांकसनत्कुमार ! त्वं भवांतरेऽपि मम भा भूया इति वारंवारं भणंति, पुनर्गाद रोदितुं प्रवृत्ता. ततो रुदत्यैव तयासनं दत्तं. तत्रोपविश्य कुमारस्तां पृष्टवान् . सनत्कुमारेण सह तव का संबंध: येन त्वं तमेवं स्मरसि. सा प्राह मम स मनोरथमात्रेण भा. For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EHI BET GE उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९८९॥ 1 भाषांतर अध्य०१८ ॥९८९॥ कथमिति कुमारेणोक्ते मा प्राह, अहं हि साकेतपुरस्वामिसुरथनामनरेंद्रभायांचंद्रयशापुत्र्यस्मि, अन्यदाहं यौवनं प्राप्ता, पित्रा च मत्कृतेऽनेकराजकुमारचित्रपटरूपाणि दूतैरानीय दर्शितानि. एकमपि चित्रपटरूपं मम न रोचते. एकदा सनत्कुमारचक्रिपटरूपं दूतैरानीय मे दर्शितं, तदत्यंतं मे रुरुचे. मोहिता चाहं तद्रूपमेव ध्यायनी स्वगृहे निष्टामि. तावदहमेकेन विद्याधरकुमारेण कुट्टिमतलादिहानीता. स विद्याविकुर्वितेऽस्मिन् धवलगृहे मां मुक्त्वा कापि गतश्र. सा कन्या यावदेवं जल्पति, तावत्तनाशनिवेगसुत्तेन वनवेगेन विद्याधरेण तत्रा गत्य मनत्कुमार उतिक्षप्तो गगनमंडले. सा च कन्या हाहारवं कुर्वाणा मू पराधीना निपतिता पृथिवीपीठे. घरनी अंदर प्रवेश करी सातमी भोंये चड्या त्यां रोती एवी एक कन्या 'कुरुदेशरूपी आकाशना चंद्र ! सनत्कुमार ! तमे बीजा भवमा पण माग भर्ती थजो' आम वारंवार बोलती हयाफाट ते रोती हती. रोतां रोतांज तेणीए आसन आप्यु तेनापर बेसीने कुमारे पूछ्यु के-'सनत्कुमार साथे तमारे शो संबंध ? जेथी तमे तेने आम याद करो छो?' ते बोली के-ते तो मारा मनोरथ | मात्रथी भर्ती छे. कुमार कहे हे-'केवी रीते' ते बोली के-'हुसाकेतपुरना स्वामी सुरथ नामना नरेन्द्रनी चंद्रयशा राणीथी जन्मेली पुत्री छं. ज्यारे हुँ यौवनावस्थाने प्राप्त थइ त्यारे मारा पिताए मारे माटे अनेक राजकुमारोना चित्रपटरूप दूतद्वारा मंगावी मने देखाव्यां तेमांना एके चित्रपटरूप मने गम्यां नहिं तेवामां दीये सनत्कुमारन चित्रपटरूप लावीने मने बताब्यु ते मने अत्यंत गम्यु, त्यारथी तेना रूपमां मोहित थयेली हुं हमेशां तेनाज रूपर्नु ध्यान धरती स्वगृहमा रहेती तेवामा एक विद्याधरकुमारे मने मारा स्थानमाथी उपाढी लावीने अहीं राखी छे ते विद्याधर कुमार पोतानी विद्याना वळे विकुर्वित आ धवल गृहमां मने मूकीने For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir لك الالات البنات भाषांतर अध्य०१८ ॥९९०॥ 3E | कोण जाणे क्या जतो रह्यो. आवी रीते ए कन्या ज्यां वात करी रही छे तेटल मां तो ते अशनिवेगना पुत्र बजवेग विद्याधरे त्यां उत्तराध्य-30 | आवीने सनत्कुमारने उपाडी आकाशमां उछाल्या. आ जोइ ते कन्या हाहाकार करती मूर्छापराधीन थइ पृथ्वी उपर पडी गइ. यन सूत्रम् तावदाकाशमार्गादागत्य सनत्कुमारेण स विद्याधरो मुष्टिप्रहारेण व्यापादितः, सनत्कुमारेण तस्यै स्ववृत्तांतः ॥९९०॥ कथितः, परिणीता च सा सुनंदाभिधाना कन्या, सास्य स्त्रीरत्नं भविष्यति. स्तोकवेलायां तत्र वज्रवेगविद्याधरभ गिनी संध्यावली समागता. भ्रातरं व्यापादितं दृष्ट्वा कोपमुपागता. पुनरपीदं नैमित्तिकं वचः स्मृतिपथमागतं, यथा तव भ्रातृवधकस्तव भर्ता भविष्यतीति मत्वा कुमारस्यैवं विज्ञप्ति चकार. अहमिह त्वा विवाहार्थमायातास्मीति. स. नत्कुमारेण सा तत्रैव परिणीता, तेटली वारमा तो आकाशमार्गमांथी नीचे आवीने सनत्कुमारे ते विद्याधरने एक मुष्टिना पहारथी मारी नाख्यो अने पोतानो २ सघळो वृत्तांत कही ते सुनन्दा नामनी कन्याने परण्या, आगळ उपर ए सुनन्दा सनत्कुमारनी स्त्रीओमां मुख्य रत्नरूपा गणाशे. JE | थोडी वारमा त्यां वज्रवेग विद्याधरनी व्हेन संध्यावली आवी पोताना भाइने मरेलो जोइ प्रथम तो जरा कुपित थइ पण तेज क्षणे PET तेणीने पूर्व कोइ दैवज्ञे कहेलं-'तारा भाइनो वधक तारो भर्ता थशे' आ वचन याद आवतां कुमारने विज्ञप्ति करवा लागी केII अहीं आपनी साथे विवाह करवाज आवेली छु' सनत्कुमारे तेणीने त्यांज परणी. __ अत्रांतरे सनत्कुमारसमीपे द्वौ विद्याधरनृपौ समायातो. ताभ्यां प्रणामपूर्व कुमारस्यैवं भणितं, देव ! अशनिवे३८] गविद्याधरो विद्याबलज्ञातपुत्रमरणवृत्तांतस्त्वया समं योध्धुमायाति. अतश्चंद्रवेगभानुवेगाभ्यामावां हरिचंद्रचंद्रसेनाभि For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie ॥९९ | धानो निजपुत्रो प्रेषितो, रहसि संनाहश्च प्रेषितः. आवामस्मपितरौ च भवत्सेवार्थ संप्राप्ताः. तदनंतर तत्र समागतो उत्तराध्य चंद्रवेगभानुवेगौ सनत्कुमारस्य साहाय्याय. संध्यावल्या प्रज्ञप्तिविद्या दत्ता. चंद्रवेगभानुवेगसहितः सनत्कुमारः भाषांतर पन सूत्रम् | संघामाभिमुखं चलितः, तावताऽशनिवेगः सैन्यवृत्तः समायातः तेन समं प्रथम चंद्रयेगभानुवेगी पोऽधुं प्रवृत्ती. 50 अध्य०१८ ॥९९१॥JI] चिरकाल युद्धं कृत्वा तयोर्यलं भग्न, ततः स्वयमुत्थितः सनत्कुमारः, तेनाशनिवेगेन समं घोरं युद्धमारब्धं. प्रथम महो रगास्त्रं कुमारस्याभिमुखं मुक्तं, तच्च कुमारेण गरुडास्त्रे विनिहतं. पुनस्तेनाग्नेयं शस्त्रं मुक्तं, तत्कुमारेण वरूणास्त्रेण निहतं.पुनस्तेन वायव्यास्त्रं मुक्तं,कुमारेण शेलस्त्रेण प्रतिहतं ततो गृहीतधनुर्वाणान्मुंचन् कुमारस्तं निर्जीवमिव चकार, एटलामा सनत्कुमानी समीपे वे विद्याधरराजाओ आव्या तेमणे प्रणाम करीने का के-'हे देव! अशनिवेग विद्याधर पोतानी | विद्याना बळथी तेना पुत्रनो मरणवृत्तांत जाणी तमारी साथे युद्ध करवा आवे छे. ए कारणथी चंद्रवेग तथा भानुवेग बन्नेये तेना पुत्र हरिचंद्र तथा चंद्रसेन नामना अपने बेने मोकल्या छे ते साथे छानी रीते सैन्यादि तैयारी पण मोकली छे. अमे वे भाइओ तथा अमारा बेयना पिताओ आपनी सेवा माटे हाजर थया छइए. पछी चंद्रवेग भानुवेग घेय सनत्कुमारने सहाय करवा आवी पहोंच्या. संध्यावलीए सनत्कुमारने प्रज्ञप्ति विद्या आपी अने चंद्रवेग तथा भानुवेग वेयने साथे लइ सनत्कुमार युद्ध करवा चाल्या, तेटली वारमा अशनिवेग सेन्ययुक्त सामे आब्यो तेनी साथे प्रथम तो चंद्रवेग तथा भानुवेगे युद्धारंभ कर्यो, घणा वखत सुधी युद्ध करतां B ए बेयर्नु बळ भग्न थयु ते टाणे सनत्कुमार पोते उठ्या तेणे ते अशनिवेगनी साथे घोर युद्ध आदर्यु. अशनिवेगे प्रथम भयंकर महोरगास्त्र (नागास्त्र) सनत्कुमार सामे नाख्यं तेने कुमारे गरुडास्त्रवडे हठाच्यु. फरी तेणे अग्नेयास्त्र मूक्युं ते कुमारे वारुणास्त्रबडे wwwmamawammawamananews For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९९२॥ العالمي فيلا لا لالا हण्यु. वळी तेणे वायव्यास्त्र मृत्यु तेने कुमारे शैलास्ने करीने प्रतिहत कयु. तदनन्तर कुमारे धनुष उठावी बाणनी दृष्टिथी तेने निजीव जेवो करी नाख्यो. DETभाषांतर पुनगृहीतकरवाला सनत्कुमारेण छिन्नदक्षिणकरः स कृतः. ततो द्वितीयकरेण बाहुयुद्धमिच्छतस्तस्याभिमुखमा- अध्य०१८ यातस्य कुमारेण चक्रेण शिररिछन्नं तदानीमशनिवेगविद्याधरलक्ष्मीरनेकविद्याधरैः सहिता सनत्कुमारे संक्रांता. ॥९९२॥ ततोऽशनिवेगं हत्वा चंद्रवेगादिविद्याधरपरिवृतः सनत्कुमारो नभोमार्गाद्विद्याधररथेन समुत्तीर्य तदावासे पुनरायातः, दृष्टस्तत्र हर्षिताभ्यां सुनंदासंध्यावलीभ्यां, उक्तं च ताभ्यामार्यपुत्र ! स्वागतं, अत्र च समस्तविद्याधरैः सनत्कुमारस्य राज्याभिषेकः कृतः. सुखेनात्र विद्याधरराजसेवितः सनत्कुमारस्तिष्टति. अन्यदा चंद्रवेग विज्ञप्तः सनत्कुमारो यथा देव ! मम पूर्वमचिर्मालिमुनिनैवमादिष्टं, यथेदं तव कन्याशतं भानुवेगस्य चाष्टकन्या यः परिणेष्यति सोऽवश्यं सनत्कुमारनामा चतुर्थश्चक्री भविष्यतिय इतोमासमध्ये मानसरोवरे समेष्यति, तत्र व्यसनापतित सरसि स्नातमसिताक्षो यक्षः पूर्वभववैरी द्रक्ष्यति.स पूर्वभवरी कथमिति सनत्कुमारेण पृष्टे चंद्रवेगो मुनिमुखश्रुतं तत्पूर्वभववृत्तांतं प्राह पाछो हाथमां खड्ग लइ सनत्कुमारे तेनो जमणो हाथ छेदी नाख्यो त्यारे ते एक हाथे बाहुयुद्ध करवा सामे आवतो हतो तेटकामां तो कुमारे चक्रवडे तेनुं मस्तक छेधु ते टाणे अशनिवेग विद्याधरनी लक्ष्मी अनेक विद्याधर सहित सनत्कुमारमा संक्रांत थइ. आवी रीते अशनिवेगने हणी चंद्रवेग प्रभृति विद्याधर सहित सनत्कुमार आकाशमार्गे विद्याधरस्थवडे पोताना आवासमां आवीने उतर्या. आ वखते सुनंदा तथा संध्यावळी बन्ने हर्ष पामीने बोल्यां के-आर्यपुत्र ! आप भले पधार्या. आ टाणे बधा विद्याधरोए R الفيفا للكافي منقبه عدالت Gramr For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९९३॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥९९३॥ भेळा मळी सनत्कुमारनो राज्याभिषेक कयों, एवी रीते विद्याधरराजे सेवित सनत्कुमार अहीं मुखे स्थिति करीने रखा. एक समये सनत्कुमारने चंद्रवेगे विज्ञप्ति करीके-'हे देव! मने पूर्वे आर्चिौली मुनिये एम कर्जातुं के-'आ तारी शत कन्याओ तेमज भानुवेगनी आठ कन्याओ जे परणशे ते सनत्कुमार नामनो अवश्य चतुर्थ चक्रवर्ती थशे जे आजथी एक मासनी अंदर मानससरोवर उपर आवशे त्यां व्यसनमां आवी पडेला ते सनत्कुमार सरोवरमां न्हाशे तेने तेना पूर्व भवनो वैरी असीताक्ष नामनो यक्ष देखशे........अहिं वचे सनत्कुमारे पूछयु के ते पूर्वभवनो वैरी केम? त्यारे चंद्रवेगे, मुनिना मुखथी सांभळेलो तेना पूर्व भवनो वृत्तांत कहो देखायो.____ अस्ति कांचनपुरं नाम नगरं, तत्र विक्रमयशोनामराजा, तस्य पंचशतान्यतःपुर्यो वर्तते. तत्र नागदत्तनामा सार्थवाहोऽस्ति, तस्य रूपलावण्यसौभाग्ययौवनगुणैःसुरसुंदरीभ्योऽधिका विष्णुश्रीनाम भार्यास्ति मान्यदा विक्रमयशोराज्ञा दृष्टा, मदनातुरेण तेन स्वांतःपुरे क्षिप्ता. ततो नागदत्तस्तचिंतयोन्मत्तीभूत एवं विलपति, हा चंद्रनने ! क गना ? दर्शनं मे देहीति विलपन कालं नयति. विक्रमयशोगजा तु मुक्तसकलराज्यकार्योऽगणितजनापवादस्तया विष्णुप्रिया सहात्यंतं रतिप्रसक्तः कालं नयति. पंचशतांतःपुरीणां नामापि न गृह्णाति. अन्यदा ताभिः कार्मणादियोगेन विष्णुश्रीयापादिता. ततो राजा तस्या मरणेनात्यतं शोकात्तोंऽश्रुजलभृतनयनो नागदत्त इवोन्मत्तीभूतो वीष्णुश्रीकलेवरं वहिसात्कर्तुं न ददाति. ततो मंत्रिभिर्नृपः कथमपि वंचयित्वाऽरण्ये तत्कलेवरं त्यक्तं. राजा च तत्कलेवरमपश्यन् परिहतानपानभोजनः स्थितः. मंत्रिभिर्विचारितमेष तत्कलेवरदर्शनमंतरेण मरिष्यतीत्यरण्ये नीत्वा राज्ञस्तकलेवरं दर्शितं. राज्ञा तदानीं तत्कलेवरं गलत्पूतिनिवहं निर्यकृमिजालं वायसकर्षितनयनयुगलं चंडखगतुंडखंडितं दुरभिगंधं For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९९४॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥९९४॥ प्रेक्ष्येवमात्मानं निंदितुं प्रारब्धं. एक कांचनपुर नामे नगरमां विक्रमयशा नामे राजा राज करतो हतो. तेने पांचसो राणीओ हतो. ए नगरीमां नागदत्त नामे | एक शेठीयो हतो तेने रुप, लावण्य, यौवन तथा सद्गुणोथी सुरसुन्दरीथी पण अधिक एवी विष्णुश्री नामनी भार्या हती. आ स्त्री एक वखते राजा विक्रमयशाए दीठी कामातुर राजाए तेने तेडावीने पोताना जनानामां वेसाडी दीधी. त्यारे नागदत्तने चिंतामां विहळ जेवो चनी विलाप करवा लाग्यो-'हे चंद्रानने ! तुक्यां जती रही? मने दर्शन दें' आम विलाप करतो काळ काढतो हतो. राजा विक्रमयशा तो सघळां राज्यकार्य छोडी दइने तेमज लोकनिंदाने पण न गणकारतां ते विष्णुश्रीनी साथे अत्यन्त रत्यासक्त रही काळ गाळवा लाग्यो. अने पोतानी पांचसो राणीओमांथी कोइनें नाम सरखुपण लेतो नथी. एक बखते बधी राणीओए मळी कामण प्रयोगवडे ए विष्णुश्रीने मारी नाखी त्यारे तेणीना मरणथी अति शोकपीडित थयेलो तथा जेना नेत्रमांथी अश्रुधारा बहे के एवो नागदत्त जेवो उन्मत्त थइने ए विष्णुश्रीनुं शब खोळामां लइ बेठो अने अग्निदाह करवा देतो नहोतो तेथी मंत्राओर कोइ युक्तिथी राजानी नजर चुकाबी ए विष्णुश्रीतुं कलेवर अरण्यमा फेंकी दीधुं. राजाए ते कलेवर न जोयुं त्यारे अन्न पाणी त्यज्यां, मंत्रियोए विचायु के-आ राजा जो ए कलेवर नहिं देखे तो मरण पामशे तेथी तेने अरण्यमा ज्यां ते कटेवर नाखी दोधुं हतु त्यां लइ जइने ए कलेवर देखाड्यु. राजा जुए छे तो ते कलेवर सडो गये लु, अंदरथी दुर्गयो द्रव टपके छे, वळो जेमा कीडा कदबदे छे अने खरे छे, बन्ने आंखो कागडाओए ठोलीने विरूप करी नाखेलु, तथा प्रचंड गोधादि पक्षिओनी चांचवती चुयायेलुदुर्गध मारतु नजरे दीढुं. आ शव जोइनेज राजाए पोताना आत्मानी निंदा करवा मांडी. الالالالالالالالالالالالالالالالالالالالالالنا For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie | भाषांतर उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९९५॥ अध्य०१८ ॥९९५॥ रे जीव ! यस्य कृते त्वया कुशीलजातियशोलज्जाः परित्यक्ताः, तस्येदृश्यवस्था जाता. ततो वेराग्यमार्ग प्राप्तो राजा राज्यं राष्ट्रं पुरमंतःपुरं स्वजनवर्ग च परिहत्य सवताचार्यसमीपे निष्कांत: तनश्चतृर्थषष्टाष्टमादिविचित्रतपःकर्मभिरात्मानं भावयन् प्रांते संलेखनां कृत्वा सनत्कुमारदेवलोके गतः. ततश्च्युतो रत्नपुरे श्रेष्टिसुनो जिनधमो जातः स च जिनवचनभावितमनाः सम्पत्वमूलं द्वादशविध श्रावकधर्म पालयन् जिनेंद्रपूजारतः कालं गमयति. । इतश्च स नागदत्तः प्रियाविग्हःखितो भ्रांतचित्त आतध्यानपरिक्षिप्नशरीरो भूत्वा यहुतिर्यग्योनिषु भ्रांत्वा ततः सिं| हपुरे नगरेऽग्निशर्मनामा द्विजो जातः, कालेन त्रिदंडिव्रतं गृहीत्वा द्विमामक्षपणरतो रत्नपुरमागतः. तत्र हरिवाहनो नाम राजा तापसभक्तः, तेन तपस्व्यागतः श्रुतः, पारणकदिने राज्ञा निमंत्रितःम गृहमागन: अत्रांनरे म जिनधर्मनामा श्रावकस्तत्रागतः तं दृष्ट्वा पूर्वभवजातवैरानुभवेन रोषारुणलोचनेन मुनिनैवमुक्तं राज्ञः, यदा त्वं मां भोजयसि तदास्य श्रेष्टिनः पृष्टौ स्थालं विन्यस्य मा भोजय ! अन्यथा नाहं भोक्ष्ये. राज्ञोक्तमसौ श्रेष्टी महान वर्तते, ततोऽपरस्य पुरुषस्य पृष्टौ त्वं भोजनं कुरु ? स प्राहैतस्प पृष्टावेव भोजनं करिष्ये, नापरस्येति. राज्ञा नापमानुरागेण तत्प्र| तिपन्नं. राज्ञो वचनात् श्रेष्टिना पृष्टौ स्थालमारोपितं, तापसेन तत्पृष्टौ दाहपूर्वकं भोजनं कृतं. श्रेष्टिना पूर्वभवदुष्कर्मफलं ममोपस्थितमिति मन्यमानेन तत्सम्यक् सोढमिति. स्थालीदाहेन तत्पृष्टौ क्षतं जातं. ततः स तापसस्तथा भुक्त्वा स्वस्थाने गतः, श्रष्ट्यपि स्वगृहे गत्वा स्वकुटुंबवर्ग प्रतियोध्य जैनदीक्षां जग्राह. से जीव ! जेने काजे तें कुळ, शीळ, जाति, यश तथा लज्जा पण त्यज्यां तेनी आवी दशा ? आ उपरथी तेने वैराग्य यतां ते For Private and Personal use only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९९६॥ राजा चन्द्रयशाए राज्य, राष्ट्र, पुर, अंतःपुर, स्वजनवर्ग, इत्यादिक तमामनो त्याग करी सुत्रताचार्य समीपे जा त्यां चतुर्थ, षष्ठ, उत्तराध्य अष्टम; आदिक विचित्र तपःकर्मावडे आत्माने भावित करी मांते संलेखना करी सनत्कुमार देवलोकने पाम्यो त्यांथी च्युत यह रत्नयन सूत्रम् पुरमा जिनधर्म नामनो श्रेष्ठिपुत्र थयो. ते जिनवचनोथी भावित मनवाळो सम्यक्त्वना मूळभूत बादशविध श्रावकधर्मर्नु पालन करतो ॥९९६॥ हमेशा जिनेन्द्रपूजामां परायण रही काळ गाळतो. अहीं ते नागदत्त पोतानी मिया विष्णुश्रीने राजा लइ गयो तेथी स्त्रीविरहथी दुःखित थइ भ्रांत चित्तवाळो आर्चध्यानथी शरीरनु क्षपण करी घणीक पशु पक्षि योनिओमां भटक्यो. अंते सिंहपुर नगरमा अग्निशर्मा नामनो ब्राह्मण थयो. काळे त्रिदंडि व्रत ग्रहण करी द्विमासोपवास व्रत करतो रत्नपुरमा आव्यो त्यां हरिवाहन नामे राजा इतो ते तापसोनो परम भक्त हतो तेणे आ तपस्वी आव्या सांभळी तेने पारणा दिने निमंत्रण आपी बोलाव्या. ज्यारे राजाने त्यां आ तपस्वी पारणा करवा आव्या त्यां जिनधर्म नामनो श्रावक के जे नागदत्तशेठनी स्त्री विष्णुश्रीने बलात् हरीनार विक्रमयशा राजानो अवतार हतो ते आवी चड्यो तेने जोतांज पारणा करवा आवेला तपस्वीना मनमा पूर्वभवना वैरनुं स्मरण थां रोषथी रक्तनेत्रवाळा ते तपस्वीए राजाने कयु के-जो तारे मने जमाडवो होय तो आ श्रेष्टिनी पीठ उपर थाळ राखीने मने जमाड तो हूँ | जमीश अन्यथा जमीश नहि. ग़जाए कबु-आ तो महोटा शेठीया छे कहो तो बीजा कोइ माणसनी पीठपर थाळ राखी भोजन करो. ते तपस्वी बोल्यो के-'एनीज पीठ पर भोजन करीश, बीजा कोइनी पीठपर नहीं. तपस्वीना आग्रहथी राजाए कबुल कयु अने | राजाना वचन उपरथी जिनधर्म शेठे पण स्वीकार्य अने पोतानी पोठ उपर थाळ मूकाव्यो. थाळमां उनो बळवळतो द्धपाक भरेलो Pा हतो ते थाळ पीठ उपर मूकतां आखो वांसो दास्यो तेनी बलतरा शेठे सहन करी अने तपस्वी जम्या-शेठे पूर्व भवना दुष्कर्मन For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९९७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फळ मानी दुःख स पण वांसो बळी जवाथी क्षत थइ आयुं. तापस तो जमीने पोताने स्थाने गयो, शेठे पण पोताने घरे जइ कुटुंबीने वधी वात समजावीने पोते जैनदीक्षा ग्रहण करी. तो नगरान्निर्गतो गिरिशिखरे गत्वाऽनशन मुञ्चंचार पूर्वदिगभिमुखं मामा यावत्कायोत्सर्गेण स्थितः एवं शेषास्वपि दिक्षु ततः पृष्टिक्षते काकशिवादिभिर्भक्षितः सम्यक् तत्पोडां सहमानो मृत्वा मौधर्मे कल्पे इंद्रो जातः, स तापसोऽपि तस्यैव वाहनमैरावणो जातः ततश्च्युतोऽथ स ऐरावणो नरतिर्यक्षु भ्रांत्वाऽसिताक्षी जातः शक्रोऽपि ततश्च्युत्वा हस्तिनागपुरे सनत्कुमारश्चक्री जात: एवमसिनाक्षयक्षस्य भवता सह वैरकारणमिति मुनिनोक्ते मया तवांतरवासनिमित्तं भानुवेगं विसर्जयित्वा प्रियसंगमपुरीनिवेशपूर्वं तव भानुवेग कन्याः परिणायिताः, मुक्तो मयैव कारणेन त्वं तने, एवं करिष्याम इति विचार्य तज्ञ विद्याधरास्तत्कृतवंतः ततो विज्ञपयामि देव ! मन्यस्व मे कन्याशतपाणिग्रहणं ? ता अपि तत्र भवन्मुखकमलं पश्यंति एवं भवत्विति कुमारेणोक्त चंद्रवेगः कुमारेण सम स्वनगरे गतः, तत्र कुमारेण कन्याशतं परिणीतं. पुनरत्रागतश्च दशोत्तरेण कन्याशतेन सह भोगान् भुंक्ते कुमारः. पीनगरमाथी नीकली गया अने पर्वत शिखर उपर जड़ने अनशन व्रत आचर्यु. अर्ध मास पूर्व दिशा भणी जोड़ कायोत्सर्गथी स्थित था. एम बीजी दिशाओंम पण करीने पीठना व्रण=यारां=मां कागडा तथा शियाळ वगेरे प्राणीयो भक्षण करे तेनी पीडा सम्यक् सहन करी मृत थयो, ते सौधर्म कल्पमां इंद्र थयो, ते तापस पण ते इन्द्रनुज वाहन ऐरावण हाथी थयो. त्यांथी व्यवीने ऐरावण केटलीक नर तथा तिर्यक्र ['पशु पक्षि आदिक ] योनिओमां भ्रमण करी असिताक्ष यक्ष थयो, अने इन्द्र पण व्यवीने For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥९९७॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www bath.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१८ ॥९९८॥ हस्तिनागपुरमा सनत्कुमार चक्रो थयो, आम असिताक्ष यक्षनी साथे तमारा पूर्व भवनां वैग्नु कारण बनेल. आवी रीते मुनिए उत्तराध्य कात्यारे--में तमारा माटे भानुवेगने मोकली पियसंगमपुरीमा लावी भानुवेगे तमने कन्याओ परणावी ते बनमा तमारे माटे मेंज यन सूत्रम | मकेलो हतो. 'एम करशुं एवा विचार करीने विद्याधरोए त्यारे तेम कयु. तेथी हे देव ! आपने हुँ विज्ञापन करूं छ के-मारी ॥९९८॥ सो कन्याभानु पाणी ग्रहण मान्य करो. ते पण आपनुं मुखकमळ जोइ रही छे.' कुमारे 'भले एम करगुं' आम कही अंगीकार दर्शाव्यो के तेज क्षणे चंद्रवेग कुमारने साथे लइ पोताने नगर गया अने त्यां कुमारने पोतानो एकसो कन्याभो परणावो ते पछी एकसोदश:कन्याओने साथे लइ कुमार अत्रे आवी नाना प्रकारना भोगो भोगवे छे. अद्य पुनरेवमुक्तं कुमारेण गधाद्य गंतव्य यत्रास्माभिर्यक्षो जितः. मांपतमबायानस्य कुमारम्य पुरः प्रेक्षगं कुवती. नामस्माकं कुमारपत्नीनां भवदर्शनं जातमिनि. अत्रांतरे रतिगृहशयान उत्थिना कुमारी महेन्द्रसिंहेन समं दिद्याधरपरिवृतो वैतायौं गतः, अवसरं लब्ध्वा महेन्द्रसिंहेन विज्ञप्नं, कुमार! तव जननीजनको त्वविरहाततॊ दुःखेर कालं गमयतः, ततस्तद्दर्शनप्रमादः क्रियतां. इति महेन्द्रसिंहव बनानंतरमेव महता गगनस्थितविद्याधरविमानह्यगजादिवाहनारूढविद्याधरवृंदसंदोहेन हस्तिनागपुरे प्राप्तः कुमारःआनंदिताश्च जननीजनकनागरजनाः ततो महत्याविभृत्याऽश्वसेनराज्ञा सनत्कुमारः स्वराज्येऽभिषिक्तः. महेन्द्रामिहश्च सेनापतिः कृतः. जननोजनकाभ्यां स्थविराणामनिके प्रव्रज्यां गृहीत्वा स्वकार्यमनुष्टितं. सनत्कुमारोऽपि प्रवर्धमानकोशबलसारो राज्यमनुपालयति. उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि नवनिधयश्च. कृता च तेषां पूजा. तदनंतरं चक्ररत्नदर्शितमार्गो मगधवरदाममभासासिंधुखंडप्रपातादिक्रमेण पORDC For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरनक्षेत्रं माधितवान, उत्तराध्य-BE JE भाषांतर यन सूत्रम् आजे वळी कुमार एम बोल्या के-'ज्यां आपणे यक्षने जीत्यो त्यां जवान छे' हमणा अत्रे आवेला कुमारनी आगळ अमे एमनी सघळी पत्नीओ मळी प्रेक्षण (नावप्रयोग) करता हता त्या तमारुदर्शन थयु. एटलामा रतिगृह शय्याथी उठीने कुमार महेन्द्रसिंहनी JE अध्य०१८ ||९९९।। साथे विद्याधर परिचारित थइ वैताढ्य पर्वत उपर गया. त्यां अबसर मेळवी महेंद्रसिंहे कुमारने विज्ञप्ति करीके-'हे कुमार ! तमारां ॥९९९॥ माता पिता तमारा वियोगथी पीडित बनी दुःखथी काळ गाळे छे, माटे तेओना दर्शन लेवा मरजी करो. आबु महेंद्रसिंहर्नु वचन सांभळतां वेतन आकाशमा रहेला अनेक विमान हाथी घोडा आदिक वाहन उपर चढेला महोटा विद्याधर समुदायने साथे लइ हस्तिनागपुरमा कुमार आव्या अने मातापिताना तथा नगरजनोने आनंदित कर्या. तदनन्तर महोटी समृद्धिसहित राजा अश्वसेने सनत्कुमारने पोताना राज्यपद उपर अभिषिक्त कर्या. अने महेंद्रसिंहने सेनाधिपति कर्या. कुमारना माता तथा पिताए स्थवीरोनी समीपे जइ प्रवज्या-दीक्षा-गृहण करी पोतानुं परम कर्तव्यानुष्ठान कयु. सनत्कुमार पण दिनप्रतिदिन खजानो तथा सैन्यनी वृद्धि करतो राज्यनुं पालन करवा लाग्यो. चतुर्दश रत्न तथा नवनिधि उत्पन्न थया तेनी पूजा करी ते पछी चक्ररत्ने दर्शावेला मागें मगध, वरदाम, प्रभास, सिंधुखंड तथा प्रपात आदि क्रमे करी भरतक्षेत्रने साध्यु. एवं सनत्कुमारो हस्तिनागपुरे चक्रवर्तिपदवों पालयन् यथेष्टं सुखानि भुक्ते. शके गावधिज्ञानप्रयोगात्तं पूर्वभवे स्वपदाधिरूढं ज्ञात्वा महता हर्षेण वैश्रमणोऽनुज्ञातः, सनत्कुमारस्थ राज्याभिषेकं कुरु ? इमं च हारं, वनमालां, छत्रं, | मुकुट, चामरयुगलं, कुंडलयुगं, दृष्ययुगं, सिंहासनं, पादपीठं च प्राभृतं कुरु ? शक्रेण तव वृत्तांतऽ पृष्टोऽस्तीति For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१८ RE१०००॥ ॥१००० ब्रूयाः. वैश्रमणोऽपि शक्रदत्तं गृहीत्वा गजपुरनगरे समागत्य तत्पाभृतं चक्रिणः पुरो मुक्तवान् . शक्रवचनं चोक्तवानिति. पुनः शक्रेण तिलोत्तमारंभे देवांगने तत्र तदभिषेककरणाय प्रेषिते. चक्रिणोऽनुज्ञां गृहीत्वा विकुर्वितयोजनप्रमाणमणिपीठोपरि रचितमणिमंडपांतः स्थापीते मणिसिंहासने कुमारं निवेश्य कनककलशाहृतक्षीरोदजलधाराभिधवलगीतानि गायंतो देवीदेवा अभ्यसिंचन . रंभातिलोत्तमादिदेव्यस्तदानीं नृत्यं कुर्वति. महामहोत्सवेन कुमारमभिषिच्य वैश्रमणादयः स्वर्गलोकं जग्मुः. चक्यूपि भोगान् भुजन् कालं गमयति. आवीरीते सनत्कुमार हस्तिनागपुरने विषये चक्रवर्ती पदवीनुं पालन करतो यथेष्ट मुखा भोगवतो हतो. इन्द्रे अवधिज्ञानना प्रयोगथी ते सनत्कुमार पूर्वभवमां पोताना (इन्द्रना) पद उपर आरूढ हतो ए बात जाणीने महोटा हपंथी वैश्रमणने अनुज्ञा आपी के-सनत्कुमारने राज्याभिषेक करो अने आहार, वनमाळा, छत्र, मुकुट, चामरयुग्म, कुंडळयुगल, दृष्य (तंबु) जोटो, सिंहासन, पादपीठ अने दिव्य पोशाक; आ सघळु तेने नजराणु [भेट] करो, अने कहेजो के–'शके तमारो वृत्तांत पूछयो छे.' वैश्रमणे पण इंद्रे दीधेला सर्व पदार्थो लइने गजपुर नगर आवीने ते तमाम उपायन (भेट) नी वस्तुओ चक्रीनी आगळ मृकी दीधी. तथा इन्द्रे कहेलां वचनो कह्यां. वळी इन्द्रे तिलोत्तमा तथा रंभा आ वे अप्सराओ त्यां तेना अभिषेक करवा मोकली हती. आ अवसरे वैश्रमणे विकुर्वित योजन प्रमाणना मणिपीठ उपर रचेला मंडपनी अंदर स्थापित मणिसिंहासन उपर कुमारने बेसाडीने सुवर्णकलशो भरीने लावेला क्षीरसागरना जळनी धाराओवडे घोळ गीत गाती देवीयोए तथा देवोए अभिषेक कर्यो. रंभा तिलोत्तमा आदिक देवांगनाओ त्यां नृत्य करवा लागी. आम महोटा उत्सवथी कुमारनो अभिषेक करी वैश्रमणादिक स्वर्गलोके गया. चक्री पण भोग For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Sri Kalassagersal Gyarmande भाषांतर अध्य०१८ ॥१००१॥ उत्तराग. भोगवतां काल निर्ममन करवा लाग्या. यन सूत्रम् अन्यदा सुधर्मासभायां सौधमतः सिंहामनेऽनेकदेवदेवीसेविनः स्थितोऽस्ति, अत्रांतरे एकईशानकल्पदेवः सोध॥१००१॥ मंद्रपाचे आगतः, तस्थ देहपभया मभास्थितदेवदेहप्रभाभरः मर्वतो मष्टः, आदित्योदये चंद्रग्रहाय इव नि:प्रभा: सर्वे सुरा जाता, तस्मिन् ! पुनः स्वस्थाने गते देवैः सौधर्मेन्द्रः पृष्टः, स्वामिन् ! केन कारणेनास्य देवस्येशी प्रभा जातास्ति? शक्रः पाहानेन पूर्वभथे आचाम्लवर्धमान सपोऽखंडं कृतं, तत्प्रभावादस्य देहे प्रभेदृशी जानास्ति. देवैः पुनरिंद्रः पृष्टः, अन्योऽपि कश्चिदोहशो दीप्तिमानस्ति न वा ? इन्द्रेण भणितं यथा हस्तिनागपुरे कुरुवंशेऽस्ति मनत्कुमारनामा चक्री, तस्य रूपं मर्वदेवेभ्योऽप्यधिकमस्ति. इदं शक्रवचोऽश्रदधानी विजयवैजयंती देवौ ब्राह्मणरूपावागतो, प्रनिहारेण मुक्तद्वारौ गृहांतः प्रविष्टौ राजसमीपं गतो. दृष्टश्च तैलाभ्यंगं कुर्थन् राजा, Bअतीवविस्मितौ देवी शक्रवर्णितरूपाधिकरूपं तं पश्यंतौ तौ राज्ञा पृष्टी, किमर्थ भवंतावत्रायातौ ? तौ भगतो DE देव ! भवद्रूपं त्रिभुवने पर्यते. तदर्शनार्थ कौतुकेनावामनायातो. ततोऽतिरूपगर्वितेन राज्ञा तावुको, भो भो विौ! युवाभ्यां किं मबूपं दृष्टं ? स्तोककालं प्रतीक्षेथाः, यावदहमास्थानसभायामुपविशामि. एवम स्त्विति प्रोच्य निर्गतौ द्विजौ. चक्रयपि शीघ्रं मजनं कृत्वा सर्वाङ्गोपाङ्गङ्गारं दधत् सभायां सिंहासने उपविष्टः, Jआकारितौ द्विजो, ताभ्यां तदा चक्रिरूपं दृष्ट्वा विषण्णाभ्यां भणितमहो! मनुष्याणां रूपलायण्ययौवनानि क्षणदृष्ट नष्ठानि. तयोबिजपोरेसद्धचः श्रुत्वा चक्रिणा भणितं, भो! किमेवं भलो विषण्णौ मम शरीरं निंदतः? ताभ्यां भणितं For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१००२।। 3 भाषांतर अध्य०१८ ॥१००२॥ marneDoDIOHD کا کالا لالالالالالالالالك महाराज ! देवानां रूपयौवनतेजांसि प्रथमवयसः समारभ्य षण्मासशेषायुःसमयं यावद्वस्थितानि भवंति, यावज्जीवं न हीयंते. भवतां शरीरे त्वाश्चर्य दृश्यते, यत्तव रूपलावण्यादिकं सांप्रतमेव दृष्टं नष्टं. राज्ञा भणितं कथमेवं भवद्भ्यां ज्ञातं ? ताभ्यां शक्रप्रशंसादिकः सर्वोऽपि वृत्तांतः कथितः. एक समये मुधर्मा सभामां सौधर्मेंद्र सिंहासन उपर अनेक देवदेवीओए सेवा कराता स्थित छे त्यां एक इशान कल्पदेव सौध| मैंद्र पासे आव्यो तेना देहनी प्रभाथी सभास्थित देवोनी देहप्रभा सर्वतः नष्ट थइ, मूर्य उगतां चंद्रादिकनी पेठे सर्व देवो निःप्रभ | थइ गया. ते पाछा पोताने स्थाने गया त्यारे देवोए सौधर्मेन्द्रने पूछ्यु के-'हे स्वामिन् ! आ देवनी आवी प्रभा क्या कारणथी थयेली छे ? इन्द्रे का के-एणे पूर्व भवमा आचाम्लबर्द्धमान अखंड तप कयु छे तेना प्रभावथी तेना देहनी आवी प्रभा थइ छे. त्यारे देवोए फरीथी इन्द्रने पूछयु के-"एना जेबो दीप्तिमान कोइ अन्य पण छे के नहीं" त्यारे इन्द्रे उत्तरमा का के-"हस्तिनागपुरने विषये कुरुवंशी सनत्कुमार नामनो चक्री छे तेनुं रुप सर्व देगेना करतां पण अधिक छे." आ इन्द्रना वचनमा अश्रद्वा करता विजय तथा बैजयंत ए वे देवो ब्राह्मण- रुप धारण करी हस्तिनागपुर आव्या. राजभवनना प्रतीहार द्वारथी खसी गयेल हता एटले ते बन्ने राजगृहनी अंदर प्रविष्ट थया. अने राजसमीपे आवी उभा. तो शरीरे तेल चोळावता राजाने जोइ अत्यंत विस्मय पाम्या अने परस्पर बोल्या के-इन्द्रे वर्णव्यु हतु तेनाथी पण आ राजानु रूप अधिक छे. राजाये तेओने पूछयु के-'आप बन्ने शा माटे अत्रे आब्याछो ? त्यारे देवो बोल्या के-आपना रुपनां त्रिभुवनमा वखाण सांभळी ते जोवाना कौतुकथी अमे बेय अत्रे आन्या छइए. राजाना मनमा पोताना रुपनो गर्व आव्यो तेथी ते बोल्यो के-'हे विमो! तमोए मारु रुप | जोयु ? थोडो For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन मृत्रम भाषांतर अध्य०१८ ॥१००३॥ ॥१००३॥ 4 समय थोभो तो हुँ मारी आ स्थान सभामां आवी बेसुं त्यारे जोजो.' 'भले एम करशुं आम बोली बन्ने ब्राह्मणो नीकली गया. चक्री पण झट स्नान करी सर्व अंग तथा उपांगमां आभूषणो धारण करी सभामां आवी सिंहासन उपर बेठा. बन्ने ब्राह्मणोने बोलाव्या. आ ब्राह्मणरूपधारी देवो सभामां आवी चक्रीनुं रूप जोइ अतिखिन्न थइ बोल्या के-'अहो! मनुष्योना रूप, लावण्य तथा यौवन क्षणवारमा दृष्ट नष्ट जेवा होय छे.' ब्राह्मणोना आवां वचन सांभळी चक्री बोल्या के-' हे ब्राह्मणो ! तमे आम खिन्न थइने कम मारा शरीरने निंदो छो? ते बोल्या के-'हे महाराज ! देवनां रुप यौवन तथा तेज प्रथम बयथी मांडीने छ मास आयुष्य शेप | रहे त्यां सुधी जेवा ने तेवा रहे छे. जीवतां सुधी हीन थतां नथी, तमारा शरीरमांतो आश्चर्य देखाय छे के जे तमारु रूप लावण्यादिक अमे जे हमणाज जोयु हतू ते क्षणमां दृष्ट नष्टथइ गयु. राजाए का के-'तमे एम केम जाण्य? त्यारे ब्राह्मणोए इन्द्र करेली प्रशंसा आदिक सघळो वृत्तांत कह्यो. चक्रिणा तु केयूरादिविभूषितं याहयुगलं पश्यता, हारादिविभूषितमपि स्ववक्षःस्थलं विवर्णमुपलक्ष्य चिंतितमहो! अनित्यता संसारस्य ! अमारता शरीरस्य ! एतावन्मात्रेणापि कालेन मच्छरीरस्य यौवनतेजांसि नष्टानि. अयुक्तोऽस्मिन् भवे प्रनियन्धः, शरीरमोहोऽज्ञानं, रूपयौवनाभिमानो मुखत्वं, भोगासेवनमुन्मा::,परिग्रहो ग्रह इव, नदेनत्मर्य व्युत्सृज्य परलोकहितं संयम गृहामीति विचार्य चक्रिणा पुत्रः स्वराज्येऽभिषिक्तः, स्वयं संयमग्रहणायगेद्यता जाता. तदानीं ताभ्यां देवाभ्यां भणितं-अणुचरियं धीर तुमे । चरियं निययस्म पुब्बपरिसस्म ॥ भरहमहानरवडणो। तिहुअणविक्वायकित्तिस्स ॥१॥ इत्यायुक्त्वा देवौ गतो. चक्च्यपि तदानीमेव सर्व परिग्रहं परित्यज्य विरताचार्य समीपे प्रव्रजितः. ततः स्त्रीरत्नप्रमुखाणि सर्वरत्नानि, शेषाश्च रमण्यः, सर्वेऽपि नरेंद्राः सर्वसैन्यलोका नव निधयश्च ان الاناناليا عباسياناتها لكل الاسنان الايلات For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर अध्य०१८ पन सूत्रम ॥१००४॥ Bilu१००४॥ षण्मासान् यावत्तन्मार्गानुलग्नास्तेन संयमिना सिंहावलोकनन्यायेन दृष्ट्यापि न विलोकिता.. षष्टमक्तेन भिक्षानिमित्तं गोचरप्रविष्टस्य प्रथममेवाऽजातकं तस्य गृहस्थेन दत्त. द्वितीयदिवसे च षष्टमेव कृतं. पारणके प्रतिनीरसाहारुकरणात्तस्यैते रोगाः प्रादुर्भूता:-कंडः १, ज्वरः २, कासः ३, श्वासः ४, स्वरभंगः ५, अक्षिदुखं ६, उदरब्यथा ७, एताः सप्त व्याधयः सप्तशतवर्षाणि यावदभ्यासिताः. चक्रोए तो बाजुबंध कडां वगेरेथी शणगारेला पोताना बे बाहु तथा हार वगेरेथी विभूषित वक्षःस्थळ छेक विवर्ण जेवा जाणी विचार्य के-'अहो ! संसारनी अनित्यता तथा शरीरनी असारता केवी छे ? आटलीज बारमा मारा शरीरनां रूप यौवन तथा तेज नष्ट थइ गया. आ भवमा प्रतिबन्धासक्त यवु अयुक्त छे. शरीरनो मोह मात्र अज्ञान के रूप यौवनादिकनं अभिमान केवल मूर्खता छे भोग सेवा ए एक उन्मादज के. परिग्रह राखवो ए तो झूड वळग्या जेवू छे. माटे ए बधुं पडतुंमकीने परलोकन हित करनार संयम गृहण करूं.' आम विचारी चक्रीए पोताना पुत्रने राज्यपद उपर अभिषिक्त को अने पोते संयम ग्रहण करवा उद्यत यया. त्यारे ते बन्ने देवो बोल्या के-'हे धीर भरतखंडना महानरपति त्रिभुवनमा विख्यात कीर्तिवाला तमे पूर्व पुरुषोनु नियत चरित आचरो छो ते तमे ठीक धार्यु' आम बोलीने ते देवो चालता थया. चक्री पण तेज वखते सर्व परिग्रहनो त्याग करी विरत आचार्यनी समीपे जइ प्रवजित थया. त्यारे स्त्रीरत्न प्रमुख सर्व रत्नो तथा बाकीनी रमणीयो, सर्वे नरेन्द्रो, सर्व सैन्यना लोको, नव निधिो छ मास सुधी तेना मार्गे पाछल लाग्या पण तेना सामे चक्रीए सिंहावलोकन सरखी पण दृष्टि न करी. षष्ठ भक्त नियमथी भिक्षा निमित्त गोचर प्रविष्ट यतां प्रथम तेने एक गृहस्थे बकरीनी छास आपी. बीजे दिवसे पाछु षष्ठ व्रत कयु. पारणामां मांत ताकत For Private and Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१००५॥ नोरस आहार करतां तेने शरीरमां-कं-चळ, ज्वर, कास-खांसी, श्वास-दम, स्वरभंग-साद बेसी जवो, आंखनुं दुःख, उदर. उत्तराध्य व्यथा पेटपीडा; आ सात व्याधि भी उत्पन्न थया, तेने तेणे सातसो वर्ष सुधी कंइ पण उपाय न करता सहन कर्या. पन सत्रम् उग्रतपः कुर्वतस्तस्य आमर्षीषधी १, खलौषधी २, वि डौषधी ३, जल्लौषधी ४, सर्वोषधी ५, प्रभृतयो लब्धयः ॥१००५॥ संपन्नाः. तथाप्यसौ स्वशरीरप्रतीकारं न करोति. पुनः शक्रेणकदैवं स प्रशंसितः, अहो ! पश्यतु देवाः सनत्कुमारस्थ धीरत्वं ! व्याधिकदर्थितोऽप्ययं न स्वयं स्ववपुःप्रतीकारं कारयति. एतदिंद्रवचनमश्रधानौ तावेव देवौ वैद्यरूपेण तस्य मुनेः समीपे समायाती, भणितवंतौ च भगवंस्तव वपुष्यावां प्रतीकारं कुर्वः. सनत्कुमारस्तदानीं तृष्णीक एव स्थितः, पुनस्ताभ्यां भणितं, परं तथैव मुनि मौनभाग्जातः, पुन: पुनस्तथैव तौ भणतः,तदा मुनिना भणितं, भवती किं शरीरम्याधिस्फेटको? किंवा कर्मव्याधिस्फेटको ताभ्यां भणितमावां शरीरव्याधिस्फेटको. तदानीं सनत्कुमारमुनिना स्वमुखधूत्कृतेन धर्षिता स्वांगुली कनकवर्णा दर्शिता.भणितं चाहं स्वयमेव शरीरव्याधि स्फेटयामि,यदि मे सहनशक्तिन स्यात्तदेति. युवा यदि संसारव्याधिस्फेटनसमी तदा तं स्फेटयेथाः? देवी विस्मितमनस्कौ प्रकटितस्वरूपावेवमूचतुः, भगवंस्त्वमेव संसारव्याधिस्फेटनममर्थोऽसि. आवाभ्यां तु शक्रवचनमश्रद्दधानाभ्यामिहागत्य त्वं परीक्षितः, यादृशः शक्रेण वर्णितस्तादृश एव स्वमसीत्युक्त्वा प्रणम्य च ती स्वस्थानं गतो. भगवान् सनत्कुमारस्तु कुमारत्वे पश्चाशदूर्षसहस्राणि, मांडलिकत्वे पंचाशद्वर्षसहस्राणि, चक्रवर्तित्वे वर्षलक्ष, श्रामण्ये च वर्षलक्षमेकं परिपाल्य सम्मेत शैलशिखरं गतः तत्र शिलातले आलोचनाविधानपूर्व मासिकेन भक्तेन कालं कृत्वा सनत्कुमारकल्पे देवत्वेनोत्पन्नः. EEN For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ १००६॥ ततश्च्युतो महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति. इति सनत्कुमारदृष्टांतः. ४. ॥ ३७॥ उत्तराध्य उग्र तप करतां तेने-आमाँषधि, खेलौषधि, विभुडौषधि, जल्लौषधि, सर्वोषधि; इत्यादिक लब्धियो प्राप्त थइ. तथापि तेणे यन सूत्रम् पोताना शरीरनो प्रतिकार (उपाय) नज कों. त्यारे एकदा इन्द्रे देवसभामां तेनी प्रशंसा करी के-अहो ! देवा ! सनत्कुमारनुं धी॥१००६॥ रत्व तो जुओ; व्याधिथी पीडित छतां पण पोते पोताना शरीरनो कंई पण प्रतिकार (उपाय) करतो नथी, तेम कोइ पासे करावतो पण नथी. आQ इन्द्रनुं वचन सांभळी तेमां श्रद्धा न राखनारा ते प्रथमनाज बे देवो वैद्यरूप धारण करी ते मुनिनी समीपे आव्या, Jel अने घोल्या के-'हे भगवन् ! तमारा शरीरमां अमे व्याधिओनो प्रतिकार करीए ? आ सांभळीने सनत्कुमार तो चुपचुप बेठा रह्या त्यारे फरी ते देवोए पूर्ववत् कयु-तो पण मुनि तो मौन सेवी रह्या. ज्यारे वारंवार ते देवोए कहेवा मांड्यु त्यारे मुनिए कह्यु केतमे शुं शरीरना व्याधिने मटाडनारा छो के कर्मव्याधिने फेडनारा छो ? त्यारे ते बे देवो बोल्या के-अमे तो शरीरव्याधिने फेडनारा छइए.' आ सांभळी सनत्कुमार मुनिए खरजी पाकी गयेली पोतानी आंगळी पीताना मुखना थुकथी घसीने तेज क्षणे कांचनवर्णी करी देखाडी अने का के-मारामां सहनशक्ति न होय तो हुँ मारा शरीरना व्याधिओने तो आम मटाडी शकुंछं. पण जो तमे संसाररूपी व्याधिने फेडी शकता हो तो ते फेडी द्यो.' बन्ने देवो आ वचनथी विस्मित थइने पोतानां स्वरूप प्रकट करीने बोल्या के-'हे भगवन् ! तमे पोतेज संसारव्याधि फेडवामां समर्थ छो, अमोये तो इन्द्रना वचनमां श्रद्धा न आववाथी अहीं आवीने समारी परीक्षा करी. इन्द्रे जेवा वर्णव्या तेवाज तमे छो' आटलुं बोली मगाम करीने बन्ने पोताने स्थाने गया. भगवान् सनत्कुमार तो कुमारपणामां पंचाश हजार वर्ष, मांडलिकपणामां पंचाश हजार वर्ष, चक्रवर्तिपणामां एक लाख वर्ष तथा श्रमणपणामांसाधु For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandi ی उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१००७|| भाषांतर अध्य०१८ ॥१००७॥ ربيع قليلة التاليها وانا قلقل दशामां-एक लाख वर्षः एम कुल प्रण लाख वर्ष परिपालन करी समेतशैलना शिखर उपर गया त्या शिलातल उपरे आलोचना विधानपूर्वक मासिक भक्तवडे काळ करी सनत्कुमार कल्पने विषये देव मावे उत्पन्न थया. त्यांथी च्यवीने महाविदेह वर्षमांसिद्धि पामशे. आ प्रमाणे सनत्कुमार दृष्टांत कहेवामां आव्यु. चइत्ता भारहं वासं । चक्कवट्टी महडिओ ॥ संती मंतिकरे लोए । पत्तो गइ मणुत्तरं ॥ ३८ ॥ | (चइत्ता०) महोटी ऋद्धिवाळा तथा लोकमां शांति करनारा चक्रवर्ति शांति-शांतिनाथ, भारतवर्षने त्यजीने अनुत्तम गति पाम्या. ३८ व्या०-पुनः शांतिः शांतिनाथः प्रस्तावात्पंचमश्चक्री अनुत्तरां गतिं प्राप्तो मोक्ष प्राप्तः, कथंभूतः शांनिः? लोके शांतिकरः, शांति करोतीति शांतिकरः, इति विशेषणेन तीर्थ दूरत्वं प्रतिपादितं. षोडशस्तीर्थकरः शांतिनायो मोक्ष जगामेत्यर्थः. किं कृत्वा ? भारतं बासं त्यक्त्वा, भरतस्येदं भारत, भरतक्षेत्रसंबंधिवासमिति राज्यवासं. कीदृशः शांतिः ? चक्रवर्ती महद्धिकः, इत्यनेन शांतेचक्रवर्तित्वं तार्थकरत्वं च प्रतिपादितं. ॥ ३८॥ पुनः शांति शांतिनाथ, ( चक्रवर्तीनो प्रस्ताव चाले छे नेथी आ पांचमा चक्रवर्ती ) अनुत्तर गतिने प्राप्त थया मोक्षे गया. शांति केवा ? लोकमां शांति करनारा, आ विशेषणथी तेनु तीर्थङ्करपणु प्रतिपादन कर्यु सोळमां तीर्थङ्कर शांतिनाथ मोक्षे गया एम अर्थ जणाब्यो. केम करीने ? भारत भरतक्षेत्र संबंधि वास=राज्यवासने त्यजोने. केवा शांति ? महोटी ऋद्धिवाळा; आ विशेषणथी चक्रवर्तीत्व तथा तीर्थङ्करत्व प्रतिपादन कयु. ३८ अत्र शांतिनाथदृष्टांत:-इहैव जंबुद्धीपे भरतक्षेने वैताव्यपर्वते रथनपुरचक्रवालं नाम नगरमस्ति. तत्र राजाऽमि For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१००८॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१००८॥ لالالاله لنا ماقطا لالالالالالها وفقا لما فعلة لالالالا ततेजाः परिवसति, तस्य सुतारानानि भगिनी वर्तते. सा च पोतनाधिपतिना श्रीविजयराज्ञा परिणीता. अन्यदा अमिततेजो राजा पोतनपुरे श्रीविजयसुतारादर्शनार्थ गतः, प्रेक्षते च प्रमुदितमुचितपताकं सर्वमपि पुरं, विशेषतश्च राजकुलं. ततो विस्मिनलोचनोऽमिततेजो राजा गगनतलादुत्तीर्णः, गतश्च राजभुवन, अभ्युत्थानादिना सस्कृतः श्रीविजयेन, कृतमुचितं करणीयं. उपविष्टः सिंहासनेऽमिततेजा राजा पप्रच्छ नगरोत्सवकारणं. श्रीविजयः प्राह, यथेनोऽष्टमे दिवसे मदंतिके एको नैमित्तिकः समायातः, मदनुज्ञाते सिंहासने चोपविष्टः पृष्टश्च मया किमागमनप्रयोजनं ? ततस्तेन भणितं, महाराज! मया निमित्तवलोकितं, यथा पोतनाधिपतेरुपरि इतो दिवसात्सप्तमे दिवसे मध्याह्नसमये विमुत्पतिव्यति, इदं च कर्णकटुकं वचः श्रुत्वा मंत्रिणा भणितं, तदानीं तवोपरि किं पतिष्यति ? तेनोक्तं मा कुप्यत? यथा मयोपलब्धं निमित्तं तथा भवतां कथित न चात्र मम कोऽपि भावदोषोऽस्ति. ममोपरि तस्मिन् दिवसे हिरण्यवृष्टिः पतिष्यतिः मया भणितं त्वयैतन्निमित्तंक पठितं? तेन भणितं त्रिपृष्टवासुदेवभ्रातृअचलबलदेवदीक्षासमये पित्रा समं मयापि प्रव्रज्या गृहीता. तत्रानेकशास्त्रध्ययनं कुर्वता मयाष्टांगनिमित्तमप्यथीतं. तता प्राप्तयौवनः पूर्वदत्तकन्याया भ्रातृभिरुत्पत्राजितः. कर्मपरिणतिवशेन सा मया परिणीता. तेन मया सर्वज्ञप्रणीतनिमितानुसारेण प्रलोकितं, यथा सप्तमे दिवसे पोतनाधिपतेरुपरि विगुत्यातो भविष्यति. एवं तेन नैमित्तिकेनोक्त एकेन मंत्रिणा भणितं, यथा महाराज! समुद्रमध्ये वाहनांतर्भवद्भिः सप्तदिवसान् यावत् स्थेयं, तत्र विगुन पराभवति. अन्येन भंत्रिणा भणितं देवयोगोऽन्यथा कतुं न तीर्यते. यत उक्त स For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य पन सूत्रम् ॥१००९ ॥ www.kobatirth.org अहिं शांतिनाथनुं दृष्टांत कहे हम जंपा भरतक्षेत्र ने विषये वैताढ्य पर्वत उपरे स्थनूपुरचक्रवाल नामनुं नगर छे त्यां आमततेजाः नामनो राजा राज्य करतो हतो. तेनी सुतारा नामी व्हेन हती ते पोतनाधिपति श्रीविजय राजाने पग्णावी हती. एक समये राजा अमिततेजा पोतानी बहेन सुतारा तथा कहनेवी श्रीविजय राजाने मळवा पोतनपुर गया, त्यां नगरमां सर्वत्र ध्वजा पताका चडावेला हता अने आखं नगर प्रमुदित दीहूं, राजकुळमां तो विषेष उत्सव जेर्बु जोयु. राजा अमिततेजा विस्मययुक्त नेत्री आ जोइ गगनतलथी उतरीने राजभुवने गया. श्रीविजयरामाए अभ्युत्थान=उठीने सामा आवारे मानथी सत्कारपूर्वक उचित आवकार आप्यो, सिंहासन उपर बेठा त्यारे अमिततेजा राजाए श्रीविजयराजने नमरना उत्सवनुं कारण पूछयुं श्रीविजय राजा बोल्या के 'आजथी आठ दिवस पहेला मारी पासे एक नैमित्तिक=निमित्त उपरथी भविष्य भांखनार= आव्यो हतो तेने में सिंहासन उपर बेसाडी आववानुं प्रयोजन पूछयुं त्यारे तेणे कछु के- 'हे महाराज ! में कंह निमित्त उपरथी जायुं केपोतनपुरना अधिपति उपर आजथी सातमे दिवसे मध्य समये वीजळी पडशे.' आवुं कानने कडधुं लागे तेवु वचन सांभळी मारा मंत्रीए तेने कांके - ' ते वखते तारा उपर शुं पडशे ?' त्यारे आ नैमित्तिक बोल्यो के- 'कोप मा करो. में तो जेवु ं निमित्त जायुं तमारी आगळ, मारे तमारा उपर कंद पण भावदोष नथी, मारुं पुछो छो तो ते दिवसे मारा उपर तो सुवर्णनी दृष्टि पडशे.' में लेने क के आयु निमित्त तमे क्यां जाण्यु ? त्यारे ते बोल्या के त्रिपृष्ठ बासुदेव तथा अचळ वळदेवना दीक्षा समये पितानी साथे में पण पत्रज्या ग्रहण करी. त्यां अनेक शास्त्रोना अध्ययन करतां हुं अष्टांगनिमित्त शास्त्र पण भण्यो. तदनंतर मने यौवन प्राप्त थ ु त्यारे मने पूर्वे आषेली कन्याना भाइओये प्रब्रज्या छोडावी अने मारा कर्मना परिणामने वश थइ हूं ते कन्याने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१००९ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-10 अध्य०१८ यन मृत्र ॥१०१०॥ परण्यो. में जे सर्वज्ञप्रणीतनिमित्त शास्त्रने अनुसारे जोयु तेथी मारा जाणवामां आव्यु के आजथी सातमे दिवसे मध्याह्न समये पोत- JE नपुरना अधिपति उपर विद्युत्पात थशे.' आम ते नैमित्तिके कंधु त्यारे मारो एक मन्त्री बोल्यो के-' महाराज! आपे सात दिवस भाषांतर मुधी वहाणमा समुद्रनी अंदर स्थिति करवी कारण के समुद्रमा वीजळी न पडे.' त्यारे बीजो मंत्री बोल्यो के-'दैवयोग अन्यथा कोइ करी शकतुं नथी का छे के: ॥१०१०॥ धारिजइ इंतो सागरोवि । कल्लोलभिन्नकुलसेलो ॥ न हु अन्नजम्मनिम्मिश्र--सुहासुहो कम्मपरिणामो ॥१॥ अपरेण मंत्रिणा भणितं, पोतनाधिपतेर्वधोऽनेन समादिष्टः, न पुनः श्रीविज पराज्ञः. सप्तमदिवसान यावदपरः कोऽपि पोतनाधिपनिविधीयते. सर्वैरप्युक्तमयमुपायः साधुः. मयोक्तं मजीवितरक्षाकृतेऽपरजीववधः कथं क्रियते ? सर्वैरुक्तं तहि यक्षप्रतिमाया राज्याभिषेकः क्रियते. एवं मंत्रयित्वा सर्वैरपि यक्षप्रतिमा पोतनपुरराज्येऽभिषिक्ता. सप्तदिवसान् यावन्मया पौषधागारे गत्वा पौषधा एव कृता.. सप्तमदिवसमध्याह्नसमये गगनमार्गेऽकस्प्रान्मेघः, समुत्पन्नः, स्फुरिता विद्यल्लता, इतस्ततः परिभ्रम्य यक्षप्रतिमा विनाशिता. अष्टमे किसे चाहं पौषधशालातो निर्गत्य क्षेमेण स्वभुवने समायाता, तं नैमित्तिकं च कनकरत्नादिभिः पूजितवान्, पुनरहं नागरिकैः पोतनराज्येऽभिषिक्तः. तदिदमस्मिन्नगरे महोत्सवकारणमिति श्रीविजयेनोक्तेऽमिततेजाः प्राह अविसंवा निमित्तं, शोभनो रक्षणोपाय इत्युक्त्वाऽमिततेजो राजा स्वस्थानं गतवान् . पोताना मोजार्थी कूलशेलोने भेदी नाखे एवा सागरमां धारण कराय तथापि अभ्य जन्म निर्मित कर्मनो शुभा शुभ परिणाम For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०११॥ - न फरे. १ बळी अपरमंत्रीए कयु के-'पोतनपुरना अधिपतिनो वध आणे करो पण कंई श्रीविजय राजानो वध कह्यो तो आपणे उत्तराध्य-4 आजथी सात दिवसने माटे कोइ अपर पोतनाधिपति बनाव्ये, आ उपाय सर्वेए पसंद को पण राजा कहे-मारा जीवितनी रक्षा पन सूत्रम् ॥ करवा माटे अन्य जीवनो वध केम कराय ? त्यारे मंत्रीए का के-यारे आपणे सात दिवसने माटे राजगादी उपर यक्षनी प्रति॥१०११॥ मानो अभिषेक करीए तो केम ? आ सने रुची तेथी सर्वे मळी पोतनपुर राज्य उपर यक्ष प्रतिमानो सात दिवस माटे अभिषेक कया अने पौषधागारमा जइ में साते पौषध कर्या सातमे दिवसे मध्याह्न टाणे आकाशमा अकस्मात वादळां घेराणां अने विजळी चमकवा मांडी आम तेम सबाका यतां यक्षप्रतिमा उपर पडी तेथी यक्षपतिमा विनाश पापी, आठमे दिवसे हुँ पौषधशालामांथी नीकळी खेमकुशळ स्वभवने आच्यो अने ते नैमित्तिकने बोलाची सुवर्ण रत्न आदिकथी तेनी पूजा करी विदाय कों, नागरिक जिनोए फरीथी मारो पोतन राज्य उपर अभिषेक कर्यो ते आजे आ नगरमा महोत्सवन कारण छे आम श्री विजय राना बोली रह्या ते पछी अमिततेजा राजा बोल्या के-निमित्त पण जराय फेर न पडे ते, हतुं अने रक्षणनो उपाय पण अद्भुत गोल्यो. आम कहीने राजा अमित तेजा पोताने स्थाने गया. ___अन्यदा श्रीविजयराजा सुनारया समं बने रंतुं गतः. सुनारया तत्र कनकमृगो दृष्टः, श्रीविजयस्योक्तं स्वामिन् ! ममैनं मृगमानीय देहि ? मम क्रीडार्थ भविष्यति ततः श्रीविजयराजा तद्ग्रहणार्थ स्वयमेव प्रधावितः, नष्टो मृगः, तत्पृष्ठिं राजा न त्यजति. कियंती भुवं गत्वोत्पतितो मृगः, नावता सुनारा कुर्कुटमर्पण दष्टा: पूच्चकार. अहं कुर्कुटसर्पण दष्टा, हा प्रिय ! मां त्रायस्वेति श्रुत्वा श्रीविजयस्त्वरित पश्चादायातः. तावता सुतारा पंचत्वमुपागता. राजा च قناتنا للعمال المثال انها من الفنانات التلال For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kilassagersuri Gyarmandie उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥१०१२॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१.१२॥ शोकपरवशस्तया समं चितायां प्रविष्टा, उद्दीप्तो ज्वलनः, तावता स्तोकवेलायां समागतौ द्वौ विद्याधरौ, तत्रैकेन सलिलमभिमंत्र्य चिता सिक्का, वैतालिनी विद्या नष्टा, राजा स्वस्थो जातो वभाण च किमिदमिति. विद्याधराभ्यां भणितमावाममिततेजसः स्वकीयो जिनवंदननिमित्तमाकाशमार्गे भ्रमंतावशनिघोषविद्याधरेणापहियमाणायाः सुताराया आक्रंदशब्दं श्रुतवतो, तन्मोचनार्थमावाभ्यां युद्धमारब्धं, ततः सुतारया च प्रोक्तमलं युद्धेन, यथा महाराजः श्रीविजयो वैतालिनीविद्यामाहितो जीवितं न परित्यजति तथा तद्द्याने गत्वा शीघ्रं कुरुत ? तत आवामिहायाती, दृष्टस्त्वं | वैतालिन्या समं चितारूढः, अभिमंत्र्य जलेन सिक्ता चिता, नष्टा सा दुष्टवैनालिनी, स्वस्थावस्थस्त्वमुत्थितः, इत्यपहनां सुतारां ज्ञात्वा विषण्ण: श्रीविजयो राजा भणितश्च ताभ्यां राजन् ! खेदं मा कुरु ? स पापः कयास्यतीत्यादिवचनैः श्रीविजयराजानमाश्वास्य तौ विद्याधरावमिततेजःसमीपं गतो. एक वखते श्रीविजय राजा सुतारा राणीने साथे लइ वनमा रमवा गया त्यां मृताराए कनकनो मृग दीठो त्यारे मुताराए राजाने कब क-हे स्वामिन ! आ मृग मने लाची आपो ए मृग मने क्रीडा अर्थे उपयोगी थशे. त्यारे श्रीविजयराजा ए मृगने पकडवा पोते दोव्वा पण मृग तो भागी गया, राजाए तेनी पुंठ पकडी. केटलीक भूमि जइने मृग उपडी गयो. अहीं सुताराने कुर्कुट जातना सर्प दंश को त्यारे सुताराए बूम पाडी के-'हा प्रियतम मने बचावो.' पा राड सांभळी श्रीविजय राजा तरत पाछा आवे छे त्यां तो सुतारा मरण पामी. राजा शोक परवश बनी तेनी साये चित्तामा प्रविष्ट थयो. चित्तामा अग्नि प्रज्वलित थाय छे त्यां टुक समयमां वे विद्याधर आवी नीकल्या तेमांना एके जळ अभिमंत्रित करीने चिता उपर छांव्यु के बेतालिनी विद्या नष्ट थइ अने राजा For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmande J भाषांतर अध्य०१८ ॥१०१३॥ स्वस्थ थइ बाल्या के-'आ थयु ? विद्याधरोए कई के-अमे बेय अमिततेजा राजाना पोताना आभ्यतर जन छइए, जिनवंदन उत्तराध्य निमित्ते आकाशमार्गे जता हता त्या मुताराने अशनिघोष विद्याधर हरी जतो हतो ते सुतारानी बमराण अमे सांभळी तेथी तेणिने यन सूत्रम् 1३९| मकाचवा अमे युद्ध मांडयुं त्यांतो सुतारएज कयु के युद्ध नथी करवानु, पण श्रीविजयराजा वैतालिनी विद्याथी मोहित बनीने ॥१.१३॥ जीवित त्याग करवा तत्पर थया के तो तमे ते उद्यानमा जइ ते राजा जीवित न त्यजे तेम तरत करो. तेथी अमे बेय अहीं आव्या त्यां तमने वैतालिनी साये चितारूढ जोया. जळ अभिमंत्रित करी चिता उपर छांटयु के दृष्टा वैतालिनी नष्ट थइ. अने तमे स्वस्थ अवस्थायुक्त उठ्या.' मुतारानु अपहरण सांभळी राजा श्रीविजय खेद करवा लाग्यो तेने पेला चे विद्याधरोए कयु के-'हे राजन् ! खेद मा करो. ए पापी क्या जबानो छे' इत्यादिक वचनोवडे श्रीविजय राजाने आश्वासन आपी ते चेय विद्याधरो अमिततेजा राजानी समीपे जइ पहोंच्या. - ततोऽमिततेजःप्रेषितविद्याधररचितविमानः स श्रीविजयोऽप्यमिततेजःसमीपं गतः अमिततेजःश्रीविजयाभ्यां ससैन्याभ्यां गत्वा तन्नगरं वेष्टितं, अशनिघोषांतिके दूतः प्रेषितः, तयोरागमनं श्रुत्वाशनिघोषो नष्टः, उत्पन्नकेवलस्थाचलस्य च समीपे गतः, अमिततेजःश्रीविजयावपि तत्पृष्टौ तत्रायातो. सर्वेऽपि गतमत्सरा धर्म शृण्वंति, एकेन विद्याधरेण सुतारापि तत्रानीता. लब्धावसरेणाशनिघोषेण भणितं, न मया दृष्टभावेन सुतारापहृता. किं तु विद्या साधयित्वा गच्छता मयेयं दृष्टा, पूर्वस्नेहेनेमा त्यक्तुं न शक्नोमोति वैतालिन्या विद्यया श्रीविजयं मोहयित्वा सुनारां गृहीत्वा स्वनगरे गतः, नास्याः शीलभंगमकार्ष. तथापि ममात्रार्थे योऽपराधः स क्षंतव्य इत्याकामिततेजसा भ For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य - यन सूत्रम् ॥१०१४॥ www.kobatirth.org णितं भगवन् ! किं पुनः कारणं ? एतस्यास्यां स्नेहोऽभूत. ततोऽवलकेवली कथयति, मगधदेशेऽबलग्रामे धरणीजटा माम विप्रः, तस्य कपिलनाम चेटी, तस्याः पुत्रः कपिलो नाम तेन कर्णश्रवणमात्रेण विद्या शिक्षिता, गतश्च देशांतरे रत्नपुरं नाम नगरं तत्र कस्यचिदुपाध्यायस्य मठे गतः, उपाध्यायेन पृष्टः कस्त्वं ? कुत आगतः ? कपिलेनोकन चलग्रामे धरणीजटविप्रसुतः कपिलनामाहं विद्यार्थी अत्रायातस्तव समीपमिति, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदनंतर अमिततेजा राजाए मोकलेला विद्याधर रचित विमानमां बेसी श्रीविजय राजा पण अमिततेजा राजानी समीपे गया. पोत पोताना सैन्यो साथै लइ अमिततेजा तथा श्रीविजय बने राजाये जइने अशनिघोषना नगरने वेरो घाल्यो भने अशनिघोष पासे दूत मोकल्यो. तेलामां आ वे राजाना आववाना खबर सांभळी अशनिघोष नाठो ते जेने केवळ ज्ञान उत्पन्न थयेल छे एवा अचळनी समीपे गयो, तेनी पाछळ पडेला अमिततेजा तथा श्रीविजय पण त्यां जड़ पहोंच्या आ सर्वे मत्सर रहित थइ धर्म श्रवण करे छे तेलामा एक विद्याधर सुताराने पण त्यां लड़ आव्यो अवसर मेळवी अशनियोष बोल्यो के 'में कई दुष्ट भावथी सुतारां अपहरण नथीक किंतु विद्या साधीने जतां में एने दीठी; पूर्वना स्नेहने छइ एने हुं त्यजी न शक्यो तेथी वैतालिनी विद्यावडे श्रीविजयने मोहित करी सुताराने छइने मारे पोताने नगर आव्यो में तेना शीळनो भंग नथी कर्यो, तथापि आ विषयमां मारो जे अपराध थयो होय ते क्षमा करो.' आ बधुं सांभळी अमिततेजा राजा बोल्या के– 'हे भगवन ! आनो एमां स्नेह थयो ते कारण शुं ?' त्यारे अचळ केवळी बोल्या के—'मगध देशना अचळ गाममां धरणीजट मामनो ब्राह्मण तो तेने कपिला नामनी दासी हती तेनाथी एक कपिल नामे पुत्र उत्पन्न थयो. ते कानथी सांभळी सांभळीने सर्व विद्याओ ग्रहण करी शीखी गयो, ते For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ | ॥१०१४॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥१०१५। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देशांतरे फरतो रत्नपुर नामना नगरमां जड़ चड्यो. त्या काइ उपाध्यायना मठमां गयो, उपाध्याये पूछयुं के तमे कोण छो अने |क्यांची आवो छो ? कपिल बोल्यो के- अचल गामना धरणीजट विप्रनो कपिल नामनो हुं सुत हुँ, अने अत्रे आपनी पासे विद्यार्थी तरीके आव्यो हुं. उपाध्यायेन सबहुनानं स्वगृहे रक्षितः विद्यामध्याप्य स्वपुत्र तस्य दत्ता सत्यभामानानी, अन्यदा वर्षाकाले म कपिलो रात्रौ स्वत्राणि कक्षायां कृत्वा वर्षत्येव मेघे स्वगृहद्वारे समायातः सत्यभामा चार्य स्निमिवो भविष्य| तीति चितयत्यपराणि वस्त्राणि गृहीत्वा गृहद्वारे सन्मुखमायाना. कपिलेन तस्या उक्तमस्ति मम प्रभावो येन वस्त्राणि स्तिति तावता विद्युत्प्रकाशे तया स नग्नो दृष्टः ज्ञानं चार्य नग्न एवं समायातः, वस्त्राणि कक्षायां च निहित वानित्यवश्यमयं हीनकुल इति मा कपिले मंदस्नेहा जाता. अन्यदा धरणीजटो विप्रस्तत्र कपिलसमीपे समायातः सत्यभामा च पितृपुत्रयोर्विरुद्धमाचारं दृष्ट्वा परमार्थ पृष्टो रीजनः तेन यथार्थ कथितं तत्यभामा भोगेभ्यो निर्विण्णा, प्रव्रज्याग्रहग निमित्तं पृष्ठः कपिलः न चत्येष कपिलः, तदेयं गता तन्निवामिश्रीषेणराज्ञः समीपं वभाण च भो राजन् ! मां कपिलममी ? येनाहं दीक्षां गृह्णामि, राशा कपिलस्योकं, कपिलो न मन्यते राज्ञा पुनस्तस्या उक्तं तावत्वं मम गृहे तिष्ट । यावत्कपिलं बोधयामीति अन्यदा म राजा स्वपुत्रौ गणिकानिमित्तं युध्यमानौ दृष्ट्रा वैराग्येण विषं भक्षितवान् ततः सिंहनंदिताऽभिनंदिनानाम्न्यौ श्रीषेणनृपस्य भार्ये कपिलस्य भार्यां सत्यभामा च विषप्रयोगेण कालं गताः. For Private and Personal Use Only 光明 भाषांतर अध्य०१८ ॥१०१५ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् 6 ॥१.१६॥ उपाध्याये घणा मानथी तेने पोताने घरे राख्यो अने विद्या भणावी पोतानी पुत्री सत्यभामा नामनी तेने परणावी. एक समये वर्षांकाळमां बरसते मेये ए कपिल पोताना वस्रो बगलमां घाली पाताना घरना बारणे आधी उभो सत्यभामाए जाण्यं जे एनां वस्रो भीज्या हशे तेथी कोरां वस्त्र हाथमा लइ द्वार आगळ सामी आवी कपिले कयु मारा प्रभावथी वस्त्रो भींज्या नथी. 17 अध्य०१८ एटलामां वीजळी झवकतां सत्यभामाए कपिलने नग्न जोइ लीयो अने जाणी गइ के आ नग्नज आव्या अने वस्त्रो काखमा राखी ॥१०१६॥ कीधा होवाथी न भीजाणा. आ उपरथी ए खीना मनमां आव्यु के आ हीन कुळनो होवो जोइए नहि तो नग्न न थाय. आ बनाव पछी सत्यभामा कपिलमा जरा मंद स्नेहवाळी थवा लागी. एक काळे ए कपिलना पिता धरणीजट विप्र त्यां आची नीकळ्या स्यारे पिता पुत्रनो विरुद्ध आचार जोइ धरणीजट विप्रने खरी हकीकत पूछी तेणे वधी बावत हती ते प्रमाणे कही ते सांभळी सत्यभामा उद्विग्न थइ कामभोगथी कंटाळी प्रव्रज्याग्रहण करवा माटे कपिलने पूछ्यु पण कपिले रजा न आपी त्यारे ते नगरना निवासी श्रीषेण राजा पासे जइने सत्यभामाए का के-'हे राजन् ! मने कपिल समीपेथी छोडावो, जेथी हुँ दीक्षा ग्रहण करूं.' राजाए कपिलने बोलावीने का पण कपिल मान्यो नहि त्यारे श्रीषेण राजाए सत्यभामाने फरीथी कह्यु के-हुँ कपिलने समजावू तेटलादिवस सुधी तुं मारा घरमा रहे एक समये राजाए पोताना बे पुत्रो एक गणिका निमित्त युद्ध करता जोइने कंटाळीने विष खाधुते साथे सिंहनंदिता तथा अभिनंदिता नामनी तेनी बेय राणीओ अने कपिलनी भार्या सत्यभामा पण विष खाइने काळधर्म पाम्या. चत्वारोऽप्यमी जीवा देवकुरुषु युगलत्वेनोत्पन्नाः, ततः सौधर्म कल्पे गताः. ततइच्युत्वा श्रीषणजीवाऽमिततेजा जातः, अभिनंदिताजीवः श्रीविजयो जातः, सत्यभामाजीवः सुतारा जाता, स कपिलजीवस्तिर्यग्भवेषु चिरकालं For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥१०१७॥ العادات اللياليها DDDDDDDDDDDD بالهيلينا لينافسنا للانسان भ्रांत्वा कचित्तथाविधमनुष्टानं कृत्वाऽशनिघोषः समुत्पन्नः सुतारां च सत्यभामाब्राह्मणीजीवं दृष्ट्वा पूर्वस्नेहेनापहृत्य गतः. पुनरप्यमिततेजसा पृष्टं, भगवनहं किं भव्योऽभव्यो वा अचलकेवलिना कथितं त्वं भव्य इतच नवमे भवे भाषांतर तीर्थकरो भविष्यसि, एषोऽपि श्रीविजयस्तव गणधरी भविष्यति. तत एतदाकामिततेज:श्रीविजयनृपावचलकेव- अध्य०१८ लिनं वंदित्वा गतौ स्वस्थानं. BE||१०१७॥ आ चारे जीवो देवकुरु प्रदेशमां युगलरूपे अवतर्या त्यांथी सौधर्म कल्पमां गयां अने ते स्थानेथी च्युत थइ श्रीषेण जीव अमिततेजा थयो, अभिनंदिता जीव श्रीविजय थयो, सत्यभामा जीव सुतारा थयो, अने कपिल जीव घणाक काळ पर्यंत तिर्यक भवमा भ्रमण करी क्यांक तेवु कंड अनुष्ठान करी अशनिघोष उत्पन्न थयो, अने सुताराने सत्यभामा ब्राह्मणी जीव जाणीने पूर्व भवना स्नेहने लइ अपहरण करी गयो, फरीने पण ज्यारे अमिततेजाए पूछ्यु के-भगवन् ! भव्य के अभव्य ? त्यारे अचळकेवळीए कह्यु के-तु भव्य छो 'आ भवथी नवमे भवे तुं तीर्थकर थइश अने आ श्रीविजय राजा पण तारो गणधर थशे.' तदनंतर आ तमाम वृत्तांत श्रवण करीने अमिततेजा तथा श्रीविजय बन्ने राजाओ अचळ केवळीने वंदन करी स्वस्थाने गया. अन्यदामिततेजःश्रीविजयाभ्यामुद्यानगताभ्यां चारणश्रमणाभ्यामवधिज्ञानेन ज्ञात्वोक्त, यथा षविंशतिदिनानि भवतोयोरप्यायुः. ततस्ताभ्यां मेरौ गत्वा कृतोऽटाहिकामहोत्सवः, स्वस्वराज्ये च गत्वा स्वस्वपुत्रावभिषिच्य जगनंदनमुनिसमीपे संयममादाय पादपोपगमनमनशनं विहितं. विधिना कालं कृत्वा प्राणते कल्पे विंशतिसागरोपमायुर्देवत्वेनोत्पन्नौ. ततश्च्युताविहेव जंबुद्वीपे पूर्वविदेहे रमणीविजये शीताया महानद्या दक्षिणकुले सुभगायां नगर्या For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥१०१८॥ १९९ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रेमसागरस्य राज्ञो वसुंधराऽनंगसुंर्योर्महागर्भे क्रमेण कुमारत्वेनोत्पन्नौ. अमिततेजोजीवोऽपराजितनामा श्रीविजयrathasinaनामा जातः तत्रापि प्रतिशत्रुदमितारिं व्यापाद्य क्रमेण बलदेवत्व वासुदेवत्वमापन्नौ तयोश्च पिता प्रव्रज्याविधानेन मृत्वा सुरकुमारेन्द्रत्वेनोत्पन्नः अनंतवीर्यस्तु कालं कृत्वा द्विचत्वारिंशत्सहस्रवर्षायुर्नारिकः प्रथमपूथिव्यामुत्पन्नः चमरस्तु पुत्रस्नेहेन तत्र गत्वा वेदनोपशमं चकार. सोऽपि संविग्नः सम्यक् सहते. अपराजितो बलदेवो भ्रातृविरहदुःखितो निक्षिप्तपुत्रराज्यो जगद्धरगणधरसमीपे निष्क्रांतः. एकसमये राजा अमिततेजा तथा श्रविजय उद्यानमां गया त्यां वे चारण श्रमण बेठेला तेमणे अवधि ज्ञानवडे जाणीने कछु के- आजथी छवीश दिवस तमारा बेयनुं आयुष्य छे. आ सांभळी बन्ने राजाओए मेरु पर्वत उपर जइ अष्टाह्निक महोत्सव कर्यो अने पोतपोताना राज्यमां जइ पोताना पुत्रोने राज्यभिषेक करी जगनंदन मुनिनी समीपे जइ संयम ग्रहण करी पादपोपगमन नामनुं अनशन व्रत लइ विधिवडे काळ करी प्राणत कल्पमां वीश सागरोपम ध्यायुष्यवाळा देव थइने उत्पन्न थया. त्यांथी च्युत थइने अहींज जंबूद्रोपने विषये पूर्व विदेहमां रमणी विजय प्रदेशमां शीता महानदीना दक्षिण तीर उपर सुभगा नामनी नगरीमा प्रेमसागर राजानी वसुंधरा तथा अनंगसुंदरी नामनी वे राणीयोना गर्भमां क्रमे करी कुमार थइने अवतर्या. तेमां अमिततेजा जीव अपराजित नामे थयो तथा श्रीविजय जीव अनंतवीर्य नामे थयो आ बन्ने प्रतिशत्रु तथा दमितारिने मारीने क्रमेथी चलदेवत्व तथा वासु | देवत्वने पाम्या ए बेयना पितातो पव्रज्या विधाने मरी जइने असुरकुमारेन्द्ररुपे उत्पन्न थया. अनंतवीर्यतो काळ करीने बेतालीश हजार वर्षा आयुष्याको प्रथम पृथिवीमां नारकरूपे उत्पन्न थयो, चमर तो पुत्रस्नेहथी त्यां जइ वेदनोपशम कर्यो ते पण संक्ि For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०१८॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०१९॥ थइ सम्यक सहन करतो हतो, अपराजित बलदेव भाइना बिरहथी दुःखित थइ पुत्र उपर राज्यनो बोजो नाखीने जगद्धर गणधर | पासे जड शुद्ध प्रव्रज्या परिपालन करी अच्युतेन्द्ररूपे उत्पन्न थयो. JE भाषांतर शुद्धां प्रव्रज्यां परिपाल्याच्युतेंद्रत्वेनोत्पन्नः. अनंतवीर्यस्तु नरकादुम्धृत्य वैतात्य विद्याधरत्वेनोत्पन्नः. अच्युतेन्द्रेण Bअध्य०१८ प्रतिबोधितोऽसौ प्रव्रज्यां गृहीत्वाऽच्युतकल्पेन्द्रमामानिकत्वेनोत्पन्नः, अपराजितोऽच्यतेन्द्रस्नतश्च्यत्वा इहैव जंबुद्वीपे J ॥१.१९॥ शीतामहानदीदक्षिणकुले मंगलावतीविजये रत्नसंचयापुर्या क्षेमंकरो राजा, तस्य भार्या रत्नमाला, तयोः पुत्रो बज्रा5 युधाभिधानो जातः. इतश्च श्रीविजपजीयो देवायुरनुपाल्य तस्यैव पुत्रत्वेनोत्पन्नः सहस्रायुध इति तस्य नाम प्रतिष्टितं. अन्यदा पौषधशालायां स्थितो वजायुधो देवेंद्रेण प्रशंसितः, यथायं वज्रायुधो धर्माच्चालयितुं न शक्यते देवैर्दानवैश्च. तत एको देवपहाण्यामश्रद्दधानः पारावतरूपं विकुऱ्या भयभ्रांतो वनायुधमाश्रिता, हे वज्रायुध ! तव शरणं ममास्त्विति मनुष्यभाषयोबाच, वज्रायुधेन तस्य शरणं दत्तं, स्थितस्तदंतिके पारापतः, तदनंतरं तवैवागतो लावकः, तेनापि भणितं, यथा महासत्व ! एष मया क्षुधालांतेन प्रातः, ततो मुंचन, अन्यथा नास्ति मम जीविननिति. ततस्तद्वचनमाकर्ण्य वज्रायुधेन भगितं, न युक्तं शरणागतममर्पणं, तवापि न युक्तमेतत् , गन: अनंतवीर्य पण नरकमांथी उद्धार पाभी वैताख्य पर्वतमा विद्याधररूपे उत्पन्न थयो, तेने अच्युतेन्द्रे प्रतिबोधित कर्यो तेथी पत्रज्या ग्रहण करी अच्युतकल्पना इंद्रना समानपणे उत्पन्न थयो, अपराजित अच्युतेन्द्र त्यांची व्यवीने अहींज जंबुद्धीपमां शीता महानदीना दक्षिण तीर उपर मंगलावती विजयमां रत्नसंचया नामनी पुरीने विषये क्षेमकर नामे राजा इतो तेनी भार्या रत्नमालाना peDaDELBDUJAJadood PAULORERINDER Far Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१.२०॥ भाषांतर अध्य०१० ॥१.२०॥ उदरे वजयुध नामे पुत्र थइने अवतो. अहीं वळी श्रीविजय जीव पण देवायुष्य अनुपालन करी तेनाज पुत्ररूपे उत्पन्न थयो तेनुं नाम सहस्रायुध प्रतिष्ठित थयु. एक समये वजयुध पौषधशाळामां स्थित इतो देवेन्द्रे तेनी प्रशंसा करी के-'आ वायुध देव के | दानव कोइथी धर्मथी चलित करी शकाय तेम नथी.' ते पछी एक देव आ प्रशंसामा श्रद्धा न बेसतां पोते पारेवांनुं रुप विकुर्वीने भयभ्रांत बनी वज्रयुधने आश्रये गयो, अने 'हे बज्रयुध! मने तारुं शरण हो.' आम मनुष्य वाचाथी बोल्यो. वज्रयुधे तेने शरण आपी पोतापासे ते पारेवाने राख्यो तेटली वारमा त्यां एक लावक पक्षी आवीने बोल्यो के-'हे महासत्व ! ए पारावत भूखथी पीडाता मने आज मल्यो माटे एने मूको द्यो, अन्यथा मारु जीवित नथी.' आ तेनुं वचन सांभळी बज्रयुधे का शरणागत आपी देवो योग्य नथी, तेम तने पण आम करवु उचित न कहेवांय; कारण के हतूण परप्पाणे । अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं | अप्पाणं दिवसाणं । कए स नासेइ अप्पाणं ॥१॥ यथा जीवित तव प्रियं, सर्वेषामपि जीवानां तथैवास्ति, एनं भयभ्रांतं दीनं व्यापादायतुं तव न युक्तं, धर्म कुरु ? पापं मुंच ? लावकः प्रतिभणति, राजन्नहं बुभुक्षितः, न मे मनसि धर्मस्तिष्टति, ततः पुनरपि भणितं राज्ञा, भो महासत्व ! यदि बुभु. क्षितस्त्वं ततोऽन्यत्तव मांसं ददामि. लावकः प्रतिभणति, स्वयं व्यापादितजीवमांसाश्यस्म्यहं, न च रोचते मह्य परव्यापादितमांसं. राज्ञा भणित, यावन्मात्रेण मांसेन पारापतस्तुलति, तावन्मानं मांस ददामि. सोऽप्यवदत् , यदि त्वं स्वदेहादुत्कीर्य मांस ददासि तदाहं तं मुंचामि. तद्राज्ञा प्रतिपन्नं. ततस्तुष्टो लावकः, राज्ञा च तुलानायिता, एकस्मिन् पाचे पारापतो गुरुतरो देवमायया भवति, राजा पुनः पुनरुकृत्योत्कृत्य स्वदेहमांसमन्यत्र क्षिपति, तं दृष्टा राजलोकः For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१० ॥१०२१॥ समस्तो हाहारवं चकार. पारापतपाचे गुरुभारमवेक्ष्य स्वमांसपार्वे राजा स्वयमारूढः, एतादृशं वज्रायुधस्य मत्त्वं दृष्ट्या उचराध्य विस्मितो देवः स्वं रूपं प्रकटीकृत्य प्रकामं स्तुत्वा च स्वस्थानं गतवान. यन मुत्रम 'परमाण हणीने पोताने संप्राण रहेचानुं जे करे छे ते केटलाक दिवसे आत्माने पण नाशित कर छे. १ जेवं तने तार जीवित ॥१.२१॥ पिय छ, सर्व जीवोने पण तेमज छे माटे आ भयभ्रांत दीनने मारी नाखवो ए तने योग्य नथी. धर्म करो, पाप छोडी यो,' त्यारे लावक प्रतिवचन कहे छे-'हे राजन ! हुँ भूख्यो ढुं, मारा मनमा धर्म नथी स्थिर थतो. त्यारे बळी राजाए कयु. जो तुं क्षुधातुर हो तो तने बोनुं मांस आपुं, त्यारे लावके कबुहूं तो पोते मारेलानुं मांस खाउं छ. बीजाये मारेला प्राणी- मांस मने भावतु २६ नथी राजाए कयु के-'जेटला मांसथी आ पारावत तोळाय तेटलुं मांस तने आर्यु तो केम ?' लावक बोल्यो के-'जो तमे पोताना 5t | देवमांथी ए पागवत भारोभार मांस काढीने आपता हो तो ए पारावतने हुमुकी द.' राजाए आ वात कबुल करी त्यारे लात्रक तुष्ट थयो. राजाए त्राजवं मंगाची एक पल्लामां पारावत राखी बीजा पल्लामा पोतार्नु मांस उखेडी उखेडीने मुकवा मांड्यु. देवमायाने लीधे पारावतवालु पल्लं उपत्यु नहि ए पारावत वधारेने वधारे भारे थतो गयो. आ जोइ प्रेक्षक राजलोक सघळा हाहाकार करवा लाग्या. ज्यारे पोताना अवयवोनू पांस तोडी तोडीने नाखतां पण पारावतवाळु छाबडं नन.चुं उपत्यु त्यारे ते बाजु राजा पोते चढी घेठा. आधुवजयुध राजानुं सच जोइ देवे विस्मय पामी पोतानुं रुप प्रकट कर्यु. राजानी अत्यंत स्तुति करी स्वस्थाने गया. अन्यदा बनायुधसहस्रायुधो पितृपुत्रौ क्षेमंकरगणधरसमीपे जातवैराग्यौ सहस्रायुधसुतं यलिं राज्येऽभिषिच्य प्रप्रजितो. प्रव्रज्यापर्यायं च परिपाल्य पादपोपगमनविधिना कालं कृत्वा द्वावपि जनावुपरितनप्रैवेयके एकत्रिंश For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www kabarth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्य. ॥१.२२॥ १८ सागरोपमस्थितिकावहमिंद्रदेवी जातो. अहमिंद्रसौख्यमनुभूय ततश्च्युताविहेव जंबुद्धीपे पूर्व विदेहे पुष्कालावतीउचराध्य विजये पुंडरीकिण्यां नगर्या घनरथो राजा, तस्य दे महादेव्यो पद्मावती मनोरमती च. तयोर्गर्भ जातौ बनायुधो यन सूत्रम् 16 मेघरथः सहस्रायुधो दृढरपति वृद्धिं गतो. ततः कृतं ताभ्यां कलाग्रहणं, तो दो राज्ये स्थापयित्वा घनरथः स्वयं दीक्षां ॥१०२२॥ गृहीत्वा केवलज्ञानमुत्पाद्य तीर्थकरो जातः तयोर्मेघरथहदरथयोः पूर्वभवाभ्यासतो जिनधर्मदज्ञताभूत. अधिगतजीवा | जीवादिभावौ तौ सुश्रावको जातो. | अन्यदा वज्रयुध पिता तथा सहस्रायुध पुत्र बन्नेने वैराग्य उत्पन्न थवाथी सहस्रायुधना पुत्र बलिने राज्याभिषिक्त करीने RBELI पेय पितापुत्रे क्षेमंकर गणधर पासे जइ प्रव्रमित दीक्षित थया. पव्रज्या नियमोनुं यथावत् परिपालन करी पादपोपगमन विधिवडे काळ करी बेय जणा उपरितन ग्रेवेयकमा एकत्रीश सागरोपम स्थितिवाळा अहमिंद्र देव थया. अहमिंद्र देव दशामा मुखो अनुभवीने RE| स्याथी क्यवीने, अहींज जंबूद्वीपमा पूर्व विदेहने विषये पुष्कलावती विजयमां पुंडरीकिणी नगरीमा घनरथ राजानी पद्मावतो तथा | मनोरमती नामनी चे महाराणाओना गर्भथी वज्रयुध मेघरथ, तथा सहस्रायुध हारथ, अनुक्रमे पुत्र उत्पन्न थया अने अदाडे वृद्धि पाम्या. अनेक कलाओगें शिक्षण लइ युवान थया त्यारे चेयने राज्यपद उपर स्थापी घनरथ राजा पोते दीक्षा ग्रहण करीने केवळज्ञान उत्पन्न थतां तीर्थकर थया. ते मेघरथ तथा दृढरथने पूर्व भवना अभ्यास बळ्थी जिनधर्ममा दक्षता थइ अने जीच अजीव आदिक भावनुं सम्यक् शान थतां ते बन्ने उत्तम श्रावक थया. अन्यदा पितुस्तीर्थकरस्य समीपे दावपि जनौ निजपुत्रं राज्येऽभिषिच्य प्रबजितो. तत्राधीतसूत्रार्थेन मेघरथेन التعلم فن ما فوت فن دو حالتها الهدا القياياللا نتحالفالفا بالتقاليد السلسالمية For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kallassagersuri Gyarmande भाषांतर अध्य०१८ BE१.२३॥ JAG| विंशतिस्थानकैः समर्जितं तीर्थकरनामगोत्रं. दृढरथेन शुद्धं चारित्रमाराधितं. द्वावपि संलेखनाविधिना कालं कृत्वाऽनुपुत्राध्य 15 तरोपपातिकेषु देवेषत्पन्नी. नत्र सर्वार्थसिद्धविमानेऽनर्गलं सुखमनुभूप मेघरथकुमारस्तताइच्युत्वेहेव जंबूद्वीपे भारते यन सूत्रम् । क्षेत्रे हस्तिनागपुरे विश्वसेनस्य गज्ञोऽचिरादेव्याः कुक्षौ भाद्रुपदकृष्णसप्तम्यां चतुर्दशस्वप्रमूचितः पुत्रत्वेनोत्पन्न: ॥१०२३॥ साधिकनवमामानुदरे धृत्वा तमचिरादेवो ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां प्रमृतवती. पटपंचाशक्कुिमारीमहोत्मवो जाता. चतुःषष्टिसुरेन्द्ररपिजन्माभिषेकः कृत उचितसमये, गर्भस्थे चास्मिन् भगवति मर्वदेशेषु शांतिर्जातेति शांतिरिति नाम कृतं मातृपितृभ्यां, क्रमेणासौ सर्वकलाकुशलो जात:. यौवनं प्राप्तौ विवाहितः प्रवरराजकन्याः, क्रमेण राज्ये स्थापितः, पित्रा चारित्रं गृहीतं, शांतेश्चक्रवर्तिपदवी समायाता, उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि माधितं भरतं, अग्बडं पटाखंडराज्यं परिपल्योचिनावमरे स्वयं संबुद्धोऽपि लोकांतिकामरैः प्रतियोधितः, मांवत्मरं दानं दत्वा ज्येष्टकृष्णचतुर्दश्यां चक्रिभोगांस्त्यक्त्वा निष्क्रांत:. चतुर्जानममन्वि तस्योद्यतविहारं कुर्वतः पौषशुद्धनवम्यां केवलज्ञानं ममुत्पन्न. देवैः ममवमरणं कृतं, भगवता धर्मदेशना प्रारब्धा, प्रवाजिता गणधराः, प्रतियोधिता बहवः माणिनः. क्रमेण विहृत्य भरतक्षेत्रे योधिचीजमुप्त्वा क्षीणसर्वकर्माशो ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां मोक्षं गत इति. अस्य भगवतः कुमारत्वे पंचविंशतिवर्षसहस्राणि, मांडलिकत्वेऽपि पंचविंशतिवर्षसहस्राणि, चक्रित्वे पंचविंशतिवर्षसहस्राणि, श्रामण्ये च पंचविंशनिवर्षमहस्राणि, मायुश्च वर्षलक्षमेकं जातमिति. इति शांतिनाथदृष्टांतः ॥५॥ एक बखते पोताना पुत्रने राज्याभिषिक्त करी पिता तीर्थकरनी समीपे जइ बन्नेये प्रवज्या दीक्षा लीधी, अने मेघरथे सर्व به زم فعل الغة فيتامينات - For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०२४॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१.२४॥ अंगमूत्रोनुं अध्ययन कर्यु क्या वीश स्थानकोना आराधनवडे तीर्थकर नाम गोत्र संपादन कर्यु. दृढरथे पण शुद्ध चारित्र ग्रहण करी यथावत् आराध्यु. चेय भाइओ संलेखना विधिथी काळ करी अनुत्तरोपपातिक देवोमा उत्पन्न थया. त्यां सर्वार्थसिद्ध विमानने विषये अनर्गल मुखोनो अनुभव करी मेघरथ कुमार, त्यांथी च्यवोने अहींज जंबूद्वीपमा भारत क्षेत्रने विषये इस्तिनागपुरमा विश्वसेन राजानी अचिरादेवी नामनी राणीनी कुखे भाद्रपद कृष्णसप्तमी दिने चतुर्दश स्वमवडे मूचित पुत्रभावे उत्पन्न थया. कंडक अधिक नवमास पर्यन्त अचिरादेवीए पोताना उदरमा धारण करी ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशीने दिवसे तेने जन्म आप्यो. छप्पन दिककुमारीओनी महोत्सब ययो तथा चौसठ सुरेन्द्रोए पण आवीने उचित समये जन्माभिषेक कर्यो. आ भगवन् गर्भमां इता त्यारे सर्व देशोमां शांति थइ तेथी तेनुं माता पिताए "शांति" एवु नाम राख्थु. आ वाळक क्रमे क्रमे सर्व कळाभोमां शिक्षण पामी कुशळ थया. एम करता यौवनावस्थामां आवतां श्रेष्ठ राजाओनी कन्याओ तेने परणाववामां आवी. पुत्रने लायक गणी पिताए तेने राज्य उपर | स्थापित करी पोते चारित्र ग्रहण कयु. शांतिने चक्रवर्ति पदवी संप्राप्त थइ एटले चउद रत्नो उत्पन्न थयां अने भरतक्षेत्रनुं साधन करी अखंड खंडनु राज्य परिपालन करी उचित अवसरे, स्वयं संबुद्ध हताज तथापि लोकांतिक देवोए प्रतिबोधित कयाँ एटले सांवत्सरदान दइ ज्येष्ठमासनी कृष्ण चतुर्दशी दिने चक्रिभोगोनो त्याग करी बहार नीकल्या. चारे ज्ञानथी समन्वित विहार करवामां उद्यत रहेता ए शांतिने पौष मासनी शुक्ल नवमी दिने केवळज्ञान उत्पन्न ययु. देवोए समवसरण कयु. भगवाने धर्मदेशना प्रारंभी, गणधरीने प्रव्रज्या धारण करावी. घणा प्राणियोने मतिबोधित कर्या. क्रमे हरी विहार करता भारतक्षेत्रमा बोधिबीज वाचोने क्षीण थयेक के सर्व कर्माश जेना एवा थइ ज्येष्ठ मासनी कृष्ण प्रयोदशी दिने मोक्षे गया. आ शांतिनाथ भगवान्ना कुमारपणामां For Private and Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०२५॥ उत्तराध्य-IBE पचीश हजार वर्ष वीत्यां, तेम मांडलिकपणामां पण पचीश हजार वर्षो गया. तथा चक्रवत्तिपणामां पण पचीश हजार वर्ष पर्यन्त रह्यं | अने श्रमणदशामां पचीश हजार वर्ष सुधी रह्या एटटे मलीने एक लक्ष वर्ष सर्व आयुष्य थयु. ए प्रमाणे शांतिनाथनुं दृष्टांत का.यन सूत्रम् इक्वागुरायबसहो । कुंथुनामनरेसरो ॥ विक्खायकित्ती भयवं । पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ३९ ॥ ॥१०२५॥ न [इक्यागु०] इक्ष्वाकु घंशनो श्रेष्ठ राजा विख्यात किर्ति कुंथु नामे:नरेश्वर-चक्रवर्ति भगवान् अनुत्तम गति मोक्षने प्राप्त थया. ३९ 26 व्या०-पुनः कुंथुनामा नरेश्वरः षष्टश्चक्री अनुत्तरां सर्वोत्कृष्टां गति प्राप्तः कीदृशः कुंथुः ? भगवानैश्वर्यज्ञानवान. पुनः कीदृशः कुंथुः? इक्ष्वाकुराजवृषभः, ईक्ष्वाकुवंशीयभूपेषु वृषभो वृषभममानः प्रधान इत्यर्थः. पुनः कीदृशः? विख्यातकीर्तिः, अत्र भगवानिति विशेषणेनाष्टमहाप्रातिहाधैिश्वर्ययुक्तःसप्तदशस्तीर्थकरः षष्टश्चक्री कुंथुर्जेयः. ३९ ____बळी कुंथु नाथना नरेश्वर-छहा चक्रवर्ती अनुत्तर विमानमा सर्वोत्कृष्ट गतिने प्राप्त थया. केवा कुंथु ? भगवान् ऐश्वर्य ज्ञानवान्, वळी केवा कुंथु ? इक्ष्वाकुवंशना राजाश्रोमां वृषभ श्रेष्ठ, नथा विख्यात कीर्तिवाळा अहीं 'भगवान्' ए विशेषणथी अष्ट महापातिहार्यादिक ऐश्वर्ययुक्त सत्तरमा तीर्थङ्कर षष्ठ चक्री कुंथु जाणवा. ___अत्र कुंथुनाथदृष्टांत:-हस्तिनागपुरे सूरराज्ञः श्रीदेवी भार्या. तस्याः कुक्षौ भगवान् पुत्रत्वेनोत्पन्नः. जन्ममहोत्सवानंतरं च स्वप्ने जनन्या रत्नस्तृपः कुस्थो (पृथ्वीस्थ) दृष्टः. गर्भस्थे च भगवति पित्रा शत्रवः कुंथुवद् दृष्ट्वा इति कुंथुनाम कृतं. पित्रा प्राप्तयौवनश्चायं विवाहितो राजकुमारिकाभिः. काले च भगवतं राज्ये व्यरस्थाप्य सूराजा स्वयं दीक्षां जग्राह. भगवांश्चोत्पन्नचक्ररत्नप्रसाधितभरतश्चक्रवर्तिभोगान बुभुजे. तीर्थप्रवर्तनसमये च नि:क्रम्य ثقافتلاقفال مقالات و =خع فيه على موقعه ل التقلة لالالالالافتة كتة قلقا فشلت الشاشات الظحه للجلب منه ان الشعلالت اله و اهل السنه الى ل For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - محمد उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०२६॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०२६॥ D CDECADERS Bालकलावतानातान DEADCDDDDERDCD षोडश वर्षाणि चोग्रविहारेण विहृत्य केवलज्ञान भाक् जातः. देवाश्च समवसरणमकार्षः. प्रव्रजिताः घना लोकाः. केवलिपर्यायेण घनं कालं विहृत्य सम्मेतगिरिशिखरे मोक्षमगमत्. तस्य भगवतः कुमारत्वे त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि, मांडलिकत्वे च त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि, चक्रित्वे त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि, श्रामण्ये च त्रयोविंशतीवर्षसहस्राणि सार्धानि च सप्तंशतानि वर्षाण्यभवन्. सर्वायुनिवतिवर्षसहस्राणि सार्धसप्तशतानि चास्य यभूव. | इति श्रीकुंथुनाथदृष्टांतः. ॥६॥ _ अथ कुंथुनाथर्नु दृष्टांत कहे छे.:--हस्तिनागपुरमा सुर राजाने श्रीदेवी भार्या हती तेनी कुखें भगवान् पुत्रत्वे करी उत्पन्न थया. जन्ममहोत्सबने अनंतर जननीएं स्वप्नमां रत्नो स्तूप कुस्थ=पृथ्वीपर स्थिन दीठो, तेमज भगवान् गर्भमां हता त्यारे तेना CI पिताये शत्रओने कुंथु अथवा जेवा जोया तेथी ते बाळकन बुथु एवं नाम राख्यु. ज्यारे ते कुंथु युवान थया त्यारे तेना पिताये राजकुमारीकाओनी साथे तेना विवाह कर्या. योग्य समये भगवान कुंथुने राज्य उपर स्थापी सुर राजाये पोते दीक्षा ग्रहण करी. भगवान पण उत्पन्न थयेला चक्ररत्नबडे भरतक्षेत्रनु प्रसाधन करी चक्रवर्तीना भोग भोगववा लाग्या. तीर्थ प्रवर्तन समये बहार नीकळी सोळ वर्ष मूधी उग्र विहारथी विचरता केवळज्ञानवान् थया; अने देवोए समवसरण कयु. अने घणा लोकोने दीक्षा आपी प्रत्राजित कर्या. केवलि पर्यायथी घणो काल विहार करी सम्मेतगिरिना शिखर उपरे मोक्षे गया, ते भगवान्ना कुमारपणामां वीश हजार वर्ष, मांडलिकपणामां वीश हजार वर्ष, चक्रवर्ती दशामां वीश हजार वर्ष, तथा श्रामण्यमां पण त्रेवीश हजार सातसो पचाश वर्ष; एम कुल एकन्दर बाणु हजार सातसो पचाश वर्ष आयुष्य भोगव्यु. इति कुंथुनाथ दृष्टांत الشنطن لالالالالالالالاف الذي ن الت النتلن For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य भाषांतर यन सूत्रम् ॥१०२७॥ अध्य०१८ ॥१०२७॥ सागरंतं चहत्ताणं । भरहं नरवरीमरो ।। अरो य अरयं पत्तो। पत्तौ गइमणुत्तरं ॥ ४०॥ (सागरतं०) सागरांत भरतने त्यजीने अर नामें नरवरेश्वर-अरज-रजोगुणरहित-पणाने पामेला अनुत्तर गति-मोक्षने प्राप्त थया. ४० व्या०-च पुनररोऽग्नामा नरवरेश्वरः सप्तमश्चक्री सागरांत समुद्रांत भरतक्षेत्रं षटखंडराज्यं त्यक्त्वाऽरजस्त्वं प्राप्तः सन्ननुत्तरां गनि सिद्रिगति प्राप्तो मोक्षं गत इत्यर्थः. चक्री भूत्वा तीर्थकरपदं भुक्त्वा मोक्षं गत इत्यर्थः. ४० बळी अर नामे नरवरेश्वर सातमा चक्रो समुद्रोथी परिचारित भरतक्षेत्र छ खंडना राज्य ने त्यजीने अरजस्त्वरजोगुण विकार रहितता=ने पामेला अनुत्तरगति=सिद्धिगति प्राप्त धया, मोक्षे गया. चक्री थइ तीर्थकरपद भोगवीने मोक्षे गया. ४० अत्र अरनाथदृष्टांत:-अरनाथवृत्तांतस्तृत्तराध्ययनवृत्तिद्वयेऽपि नास्ति, तथापि ग्रंथांतराल्लिख्यते-प्राग्विदेहविभूषणे मंगलावतीविजये रत्नसंचया पुर्यस्ति. तत्र महीपालनामा भूपालोऽस्ति. प्राज्यं राज्यं भुक्त. अन्यदा गुरुमु. खाद्धर्म श्रुत्वा वैराग्यमागतः स तृणमिव राज्यं त्यक्त्वा दीक्षां ललो. गुर्वतिके एकादशांगायधीत्य गीतार्थो बभूव. बहुवत्सरकोटी: स संयममाराध्य विशुद्धविंशतिस्थानकैरहन्नामकर्म बंध, ततो मृत्वा सर्वार्थसिद्धविमाने देवो बभूव. ततश्च्युत्वेह भरतक्षेत्रे हस्तिनागपुरे सुदर्शननामा नपो बभूव, तस्य राज्ञी देवीनानी बभूव, तस्याः कुक्षौ सोऽवततार. तदानीं रेवतीनक्षत्रं बभूव, तया चतुर्दश स्वमा दृष्टाः, ततः पूर्णेषु मासेषु रेवतीनक्षत्रे तस्य जन्म बभूव, जन्मोत्सवस्तदा षट्पंचाशदिक्कुमारिकाभिश्चतुःषष्टिसुरेन्द्रनिर्मितः. ततः सुदर्शनराजापि स्वपुत्रस्य जन्मोत्सवं विशेषाञ्चकार. अस्मिन् गर्भगते मात्रा प्रौढरत्नमयोऽरः स्वप्ने दृष्टः, ततः पित्रास्याऽर इति नाम कृतं. For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ १०२८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्रे अरनाथनुं दृष्टांत कहे छे : - आ अरनाथनो वृत्तांत जोके उत्तराध्ययननी बेय वृत्तियोमां नथी तथापि ग्रंथांतरमांथी लखेल पूर्वे विदेहना विभूषणरूप मंगलावती विजयमां रत्नसंचयापुरी हती, तेमां महीपाल नामे राजा समग्र राज्य भोगवतो हतो. अन्यदा गुरुमुख धर्म सांभळी वैराग्य पाम्यो त्यारे राज्यने तृणनी पेठे त्यजीने दीक्षा लोधी. गुरुनी समीपे एकादशांगोनुं अध्ययन करी गीतार्थ थया. बहुवत्सर कोटि पर्यंत संयम पालीने विशुद्धविंशति स्थानोना सेवनवडे तेमणे अईन नामकर्म बांध्यु . त्यांथी मृत थइने सर्वार्थसिद्धि विमानने विषये देव थया. ते देवभावथी ज्यारे च्युत थया त्यारे अहींज भरतक्षेत्रमां हस्तिनापुर ने विषये सुदर्शन नामना राजा हता; तेनी देवी नामनी राणीनी कुंखे उतर्या, ते समये रेवती नक्षत्र हतुं आ राणीए चतुर्दश स्वन दीठां ते पछी नव मास पूर्ण थतां रेवती नक्षत्रमां तेमनुं जन्म थयुं ते समये छप्पन दिक्कुमारिकाए तथा चोस सुरेन्द्रो जन्मोत्सव कर्यो भने सुदर्शने पण पोताना पुत्रनो जन्मोत्सव विशेष रीते कर्यो. आ ज्यारे गर्भमां हता त्यारे तेना माताएं प्रौढरत्नमय अर=चक्रनो आरो= स्वप्नमां दीठेलो तेथी पिताए एनु' 'अर' नाम राख्यु' देवपरिवृतः स वयसा गुणैच वर्धतेस्म. एकविंशतिसहस्रवर्षेषु गतेष्वरकुमारस्य पिता राज्यं दत्तं. एकविंशतिवर्षसहस्राणि यावद्राज्यं भुक्तवतस्तस्य शस्त्रकोशे चक्ररत्नं समुत्पन्नं ततो भरतं प्रसाध्यैकविंशतिसहस्रवर्षाणि यावचक्रवर्तित्वं भुजे, ततः स्वामी स्वयंवृद्धोऽपि लोकांतिकदेवबोधितो वार्षिकं दानं दत्वा चतुःषष्टिसुरेन्द्रसेवितो वैजयंत्याख्यां शिविकामारूढः सहस्राम्रवने सहस्रराजभिः समं प्रव्रजितः ततश्चतुर्ज्ञान्यसौ त्रीणि वर्षाणि छद्मस्थ्ये विहृत्य पुनः सहस्राम्रवने प्राप्तः तत्र शुक्लध्यानेन ध्वस्तपापकर्मारः केवलज्ञानं माप ततः सुरैः समवसरणे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥। १०२८ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन मृत्रम् ॥१०२९॥ DAD भाषांतर अध्य०१८ कृते स्वामी योजनगामिना शब्देन देशनां चकार. तद्देशनां श्रुत्वा केऽपि सुश्रावका जाताः, केपि च प्रवजिता:. तदानीं कुंभभूपः प्रवज्य प्रथमो गणधरो जाना. अरनाथस्य षष्टिसहस्राः साधवो जाना:. साध्व्यः स्वामिनस्तावत्प्रमाणा एवं जानाः, श्रावकाश्चतुरशीनिसहस्राधिकलक्षमाना यभुवुः, श्राविकाश्चतुरशीतिमहस्राधिकलक्षत्रयमाना बभुवुः. मर्वायुः चतुरशीनिसहस्रवर्षाणि भुक्त्वा मम्मेतशैलशिखरे मासिकानशनेन भगवान्निवतः देयनिर्वागोत्मबो भृशं कृतः, इत्यरचक्रवर्तिदृष्टांतः. ७. देवोए परिवारिन आ कुमार वयः अवस्था तथा गुणोथी वृद्धि पामता गया. एकवीश हजार वर्ष व्यतीत यया पछी अर कुमारने पिताए राज्य दी). ते पछी एकवीश हजार वर्ष व्यतीत पर्यन्त राज्य भोगव्या पछो तेना शस्त्रभंडारमा चक्ररत्न समुत्पन्न थयु ते रडे भरतक्षेत्रनु प्रसाधन करी एकवोश हजार वर्ष पर्यन्त चक्रवर्तिपद भोगव्यु, जो के स्वामी पोते स्वयंयुद्ध हता तथापि लोकांतिक देवोए बोधित कर्या त्यारे वार्षिक दान दइ चोसठ सुरेन्द्रोए सेवित वैजयंती नामनी शिविका=पालखी मां चढीने सहस्र राजा श्रीए सहित सहसाम्रवनमा जड पत्रजित थया तदनन्तर चार ज्ञानसंपन्न एवा ए मुनि त्रण वर्ष मुधी छानांमानां विहार करीने पाछा फरी सहस्राम्र बनमा प्राप्त थया. त्यां शुक्र ध्यानवडे सकल पाप कर्मनो ध्वंस थतां केवळज्ञानने पाम्या. त्यारे देवोए समवसरण कर्य त्यां स्वामीए योजनगामी शब्दवढे देशना करी. ते देशना श्रवण करीने केटलाक तो सारा श्रावको थया: केटलाक पत्रजित दीक्षित साधु थया, आ वखते कुम्भभूप प्रज्या लइने प्रथम गणधर धया, अरनाथस्वामीने साठ हजार साधुओ थया अने तेटलीज एटले साठ हजार साध्वीओ थइ तथा एक लाख चोराशी हजार श्रावको थया, अने त्रण लाख चोरासी हजार श्रावि For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ |१० १०॥ काओ थइ. तेमणे सघळु आयुष्य चोराशी हजार वर्षतुं भोगनी सम्तेतशैलना शिखर उपर जइ त्यां मासिक अनशन व्रतबडे भगउत्तराध्य वान निवृत थया त्यारे सर्व देवोए सारी रोते निर्वाणोत्सव कर्यो. इति अरनाथनो संक्षिप्त दृष्टांत करो. यन सूत्रम् चइत्ता भारहं वाम ! चक्कवट्टी महडिओ ॥ चइत्ता उत्तम भाए । महापऊमा तवं चरे ॥ ४१ ।। ॥१०३०॥ | [चहत्ता०] महोटी ऋद्धिवाळा चक्रवर्ति महाप, भारतवर्षने त्याने तथा उत्तम भोगने रघजाने तपार्नु आचरण कयु. ४१ व्या०--हे मुने ! महापद्माऽप्यष्टमश्चक्री महकिस्तपोऽचरत् . किं कृत्वा ? भारतं वासं त्यक्त्या, पुनरूत्तमात् प्रधानान् भोगांस्त्यक्त्वा. ॥४१॥ हे मुने! महापन, अष्टम चक्रवर्ति महोटी ऋद्धिबाळाए तपः आचर्यु केम करीने? भारतवासने त्यजीने तथा उनम भोगोने त्यतीने.४१ अत्र महापद्मचक्रवर्तिदृष्टांत:-इहैव जंबुद्धीपे भारते वर्षे कुरुक्षेत्रे हस्तिनागपुरं नाम नगरं, नत्र श्रीऋषभवं. शप्रखूनः पद्मोत्तरी नाम राजा. तस्य ज्वालानाममहादेवी. लस्थाः सिंहस्वम चितो विष्णुकुमारनामा प्रथमः पुत्रः EET द्वितीयश्चतुर्दशस्वप्न सूचितो महापद्मनामा. द्वावपि वृद्धि गती, महापो युवराजः कृतः. इनश्चोजयिन्यां नगर्या Inf| श्रीधर्मनामगजा, तस्य नमुचिनामा मंत्री. अन्यदा तत्र श्रीमुनिसुव्रतस्वामिशिग्यः सुबनो नाम यूरिः समवसना. | तद्वंदनार्थ लोकः स्वविभूत्या निर्गतः, प्रासादोपरिस्थितेन राज्ञा दृष्टः, पृष्टाश्च सेवकाः, अकालयाध्या कायं लोको गच्छति ? ततो नमुचिमंत्रिणा भणितं For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन मृत्रम् ॥१०३१॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१.३१॥ ____ अत्रे महापद्म चक्रवर्तिन दृष्टांत कहेवाय छे.--अहींज जंबुद्वीपमा भारतवर्षने विषये कुरुक्षेत्रांतर्गत इस्तिनागपुर नामे नगर के तेमां श्रीऋषभवंशमा जन्मेलो पद्मोत्तर नामे राजा हतो तेनी ज्वाला नामनी महादेवी पट्टराणी हती. तेणीने सिंहना स्वप्नथी मुचित पहेलो पुत्र विष्णुकुमार नामे थयो अने बीजो चतुर्दश स्वम मृचित महापद्म नामे थयो. बेय भाइयो महोटा थया त्यारे पद्मोत्तर राजाए महापद्मकुमारने युवराज कर्यो. आ वखते उज्जयनी नगरीमा श्रीधर्म नामे राजा हता तेना मंत्री नमुचि मामना हता. एक समये त्यां श्रीमुनि सुव्रतस्वामीना शिष्य सुवन नामना मूरि समवमृत थया (धर्मदेशना अर्थ पधार्या.) तेने वंदन करवा स्वेच्छायी नगरीना लोको नीकळ्या, तेने जोइ महेल उपर उभेला राजाए पोताना सेवकोने पूछ्यु के-या लोको हमणां कई यात्रा| काळ नथी छतां क्या जइ रह्या न्हे ? त्यारे नमुचि मन्त्री बोल्या के देव अद्योद्याने श्रमणाः समागताः, तेषां यो भक्तो लोकः म नवंदना गच्छनि. गज्ञा भणितं, वयमपि यास्यामः, नमुचिनोक्तं तहि त्वया तत्र मध्यस्थेन भाव्यं, यथाहं वादं कृत्वा तान्निगत्तरीकगेमि. गजा नमुचिमहितस्तत्र गतः. नमुचिना भणितं, भो श्रमणाः ! यदि यूयं धर्मनत्वं जानीय नहि वदथ ? सर्वेऽपि मुनयः क्षुद्रोऽयमिति कृत्वा भौनेन स्थिताः. ततो नमुचिर्भृशं मष्टः. मारिप्रत्येवं भणति, एप ययहः (बलद) किं जानानि ? ततः सूरिभिभणितं भणामः किमपि यदि ते मुखं वर्जति. इदं वचः श्रुत्वाऽनेकशास्त्रविचक्षणेन क्षुल्लकशिग्येण भगिन, भगबन्नहमेवैनं निराकरिष्यामि. इत्युक्त्वा क्षुल्लकेन म वादे निरुत्तरीकृतः, साधनामुपरि द्वेषं गतः. 'हे देव ! आ उद्यानमां श्रमणो आवेला छे तेओना जे भक्त लोक हशे ते ए श्रमणोने वंदन करवा जाय छे.' राजाए कह्यु For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersari Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१.३२॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१.३२॥ 'आपणे पण जइए' नमुचि मंत्री बोल्यो-'जइये भले, पण तमारे त्यां मध्यस्थ बनीने सांभळ्या करचु, तेनी साथे वाद करी तेने बोलतो बन्ध करीश.' आम संकेत करी राजा नमुचिने साथे लइ त्यां गया. जइने नमुचि बोल्या के-'हे श्रमणो ! जो तमे धर्मतत्वने जाणता हो तो बोलो ?' आलु बोल्या त्यांतो ते सर्वे मुनियो 'आ कोइ क्षुद्र छे' एम समजी मौन धारी रह्या. त्यारे नमुचि अत्यन्त रोषे भराइ मुरी प्रत्ये एम बोल्या-'हे मुनियो! आ बयल्लबळद शुं जाणे छे?" त्यारे मूरि बोल्या के-'यदि तमाम मुख चळवळे छे तो अमे कहीये छइए' आ वचन सांभळी अनेक शास्त्रमा विचक्षण एक क्षुल्लक शिष्य हतो ते बोली उठ्यो के-- 'हे भगवान् ! हुंज एनुं निराकरण करीश' एम कही ए क्षुल्लके नमुचिने वादां हराव्यो=निरुत्तर करी दीधो, तेथी ते मन्त्रीने साधुभोना उपर द्वेप थयो.. गत्रौ च चरवृत्त्यकाक्येव मुनिवधार्थमागतो देवतया स्तंभितः. प्रभाते तदाश्चर्य दृष्ट्वा राज्ञा लोकेन च म भृशं निरस्कृतो विलक्षीभूनो गतो हस्तिनागपुरं, महापद्मयुवराजस्य मन्त्री जातः. इतश्च पर्वतवामी सिंहबलो नाम राजा, सच कोहाधिपतिरिति महापद्मदेशं विनाश्य कोट्टे प्रविशति, ततो मष्टेन महापद्मन नमुचिमन्त्री पृष्टः, सिंहयलराजग्रहणे किंचिदुपायं जानासि ? नमुचिनो " सुष्टु जानामि. ततोम हापद्मप्रेरितोऽसौ सैन्यवृतो गतो निपुणोपायेन च दुर्ग भक्त्वा सिंहबलो बद्ध आनीतश्च महापद्मांतिके. महापद्मनोक्तं नमुचे! यत्तवेष्टं तन्मार्गय ? नमुचिनोक्तं सांप्रतं वरः कोशेऽस्तु, अवमरे मार्गयिष्यामि. एवं यौवराज्यं पालयतो महापद्मस्य कियान कालो गतः. रात्रीनो चोरनी पेठे छानो मानो एकलोन मुनिवध करवा आव्यो तेने देवताए धंभाव्या. पभाते ते आश्चर्य जाइ राजाये For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyarmandie भाषांतर अध्य०१८ तेमज लोकोए अंत्यन्त तिरस्कार को तेथी शरमाइने गाम मृकी जतो रह्यो ते हस्तिनागपुरमा जइ महापद्म युवराजनो मन्त्री थयो. उत्तराध्य- आ तरफ पर्वतवासी सिंहबल नामनो राजा कोट्टनो अधिपति हतो ते महापद्मना देशनो विनाश करी कोट्टमा प्रवेश करतो हतो तेथी यन सूत्रम् रूष्ट थयेला महापझे नमुचि मन्त्रीने पूछ्यू के-'आ सिंहबल राजाने पकडवानो कोइ उपाय जाणो छो? नमुचि बोल्या-'सारी रीते ॥१.३३॥ जाणुं हुं त्यारे महापद्मनी प्रेरणाथी महोटुं सैन्य लइने गयो अने निपुण उपायोबडे ए कोट्ट-दुर्गने भांगी सिंहबलने बांधी महापद्म OF पासे आण्यो. महापद्म का 'हे नमुचि ! तने जे इष्ट होय ते मागी ले' नमुचिए को-'मारो वर अनामत थापण राखो, अवसर पढये हुँमागीश.' आची रीते यौवराज्य पालन करता महापद्मने केटलोक काळ बीत्यो. अन्यदा महापद्ममात्रा ज्वालादेव्या जिनरथः कारितः, अपरमात्रा च मिथ्यात्ववामितया जिनधर्मप्रत्यनीकया JE/ लक्ष्मीनाम्या ब्रह्मरथः कारितो भणितश्च पदमोनरो नाम राजा, यथेष ब्रह्मरथः प्रथम नगरमध्ये परिभ्रमतु. इदं वचः शुन्दा ज्यालादेन्या प्रतिज्ञा कृता, यदि जिनरथः प्रथमं न भ्रमिष्यति तदाऽपरजन्मनि ममाहारः, नतो राज्ञा दावपि रथौ निरुद्धौ. महापद्मः स्वजन्मा: परमामधृतिं दृष्ट्वा नगरान्निर्गतः केनापि न ज्ञातः. परदेशे गच्छन् महाटव्यां प्रविष्टः, लता च परिभ्रमंस्तापमालये गतः, नापसैर्दत्तमन्मानस्तत्र तिष्ठति. एक बखते महापदमनी माता ज्वालादेवीए जिनरथ कराव्यो अने तेना अपर माता लक्ष्मी नामना हता तेणे ब्रह्मरथ कराव्यो. आ राणीये पद्मोत्तर राजाने का के-पा ब्रहरथ प्रथम नगर मध्ये फरे अने जिनरथ तेनी पाछळ चाले आ सांभळीने ज्यालाPE देवीए प्रतिज्ञा करी के-'जो मारो जिनरथ आगळ न चाले तो मारे आहार परभवे थवानो आ उपरथी येय रथ रोकी दीधा. For Private and Personal use only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०३४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महापद्मे पोतानी मानी परम अधृति=मननी उतावळ= जाणीने पोते कोइने खबर न पडे तेम नीकली गया. परदेश जतां वचमां मोटा जंगलमा प्रवेश कर्यो त्यां फरतां फरतां एक तापसने आश्रये आवी चड्या, त्यांकणे तापसोए सत्कार करी सन्मानथी राख्या. इतश्व चंपायां नगर्यो जनमेजयो राजा परिवसति, स च कालनरेन्द्रेण प्रतिरुद्धः, ततो महान् संग्रामो बभूव जनमेजयो नष्टः, तस्यतिः पुरमपीतस्ततो नष्टं. जनमेजयस्थ राज्ञो नागवतीनाम भार्या, सा मदनावली पुत्र्या समं नष्टा, आता तं तापसाश्रमं समाश्वासिता कुलपतिना तत्रैव स्थिता. कुमारमदनाबल्योः परस्परमनुरागो जातः कुलपतिना तन्मात्रा च तयोः परस्परमनुरागो ज्ञातः कुलपतिना नागवत्या मात्रा च भणिता मदनावली, यथा पुत्रि ! त्वं किं न स्मरसि नैमित्तिकवचनं १ यथा चक्रवर्तिनस्त्वं प्रथमपत्नी भविष्यसि ततः कथं यत्र तत्रानुरागं करोषि ? कुलपतिनापि कुमारस्य विसर्जनार्थमुक्तं, कुमार ! त्वमितो गच्छ ? तदानीं त्वरितमेव ततो निर्गतः कुमार एवं मनोरथं चकार यथाहमेतस्याः संगमेन भरताधिपो भूत्वा ग्रामाकरनगरादिषु सर्वत्र जिन भवनानि कारयिष्यामीति. भ्रमन कुमारोऽथ प्राप्तः सिंधुनंदनं नाम नगरं तत्रोद्यानिकामहोत्सवे नगरान्निर्गता नरनार्यश्च विविधक्रीडाभिः कडंति, आ तरफ चंपानगरीमां जनमेजय राजा राज्य करता हता तेना उपर काल नरेन्द्रे चडाइ करी, ए बन्नेनुं महोहुं युद्ध थ मां जनमेजय नाठो अने तेनुं अंतःपुर पण आम तेम नासी गयुं जनमेजय राजानी नागवती नामनी भार्या पोतानी मदनावली नामनी पुत्रीने लइने भागी नीकळेली ते आ तापसाश्रममां आवी चडी, तेने कुलपति = ए आश्रमस्वामीए आश्वासन आपी त्यां राखी. अत्रे कुमार महापद्म तथा मदनावलीने परस्पर प्रेम थयो ते कुलपतिए तथा मदनावलीनी मा नागवतीए पण जाण्यं त्यारे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०३४॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०३५॥ कुलपति तथा नागवती माताए मदनाचलीनी को हतु के-"तुकोइ चक्रवर्ती राजानी प्रथम पत्नी-पट्टराणी-थइश" आ वचन चराध्य-IST तने याद नथी? तो पछी ज्यां त्यां केम अनुराग करवा प्रवृत्त थाय ? कुलपतिए पण कुमारने हवे न रहेवा देवो-एम विचारी पन सूत्रम् कयु के-'कुमार! तमे अहींथी हवे क्यांय अन्यत्र जवानुं करो.' ा सांभळी तरतज कुमार त्यांची नीकली मनमा-'हवे हुँ आ ॥१०३५॥ मदनावलीनो संगम पामी भरताधिपति बनी ग्राम आकर नगर वगेरे सर्वत्र जिनभवनो करावीश'-आवा मनोरथ करतो सिन्धुनद नामना नगरमां आव्या त्यां तो उदानीका महोत्सवमा नर तथा नारीओ नगरथी बहार नीकळी विविध प्रकारनी क्रीडाओ करता हता. अस्मिन्नवसरे राज्ञः पट्टहस्ती आलानस्तंभमुन्मूल्य गृहहद्दभित्तिभंगं कुर्वनगराबहिर्युवतीजनमध्ये समायातः. ताश्च तं तथाविधं दृष्ट्वा दूरतः प्रधादितुमसमर्थास्तत्रैव स्थिताः. यावदसौ तासामुपरि शुंडापातं करोति तवता दूरदेशस्थितेन महापदमेन करुणापूर्णहृदयेन हक्कितोऽसौ करी, सोऽपि वेगेन चलित्रः कुमाराभिमुखं. तदानीं ताः मर्वा अपि भणंति, हाहा! अस्मद्रक्षणार्थ प्रवृत्तोऽयं करिणा हिंस्यते! एवं तासु प्रलपंतीषु च तयोः करिकुमारयो?र: संग्रामो बभूव. सर्वेऽपि नागराजनास्तत्रायाताः. मामंतभृत्यसहितो महासेनो राजापि तत्रायातः. भणितं च नरेंद्रेण कुमार ! अनेन समं संग्राम मा कुरु ? कृतांत इव च रुष्ठोऽसौ तव विनाशं करिष्यतीति, महापद्म उवाच राजन् ! विश्वस्तो भव ? पश्य मम कलामित्युक्त्वा क्षणेन तं मत्तकरिणं स्वकलया वशीकृतवान्. आरूढश्च तं मत्तगजं महापद्मः स्वस्थाने नीतवान. साधुकारेण तं लोकः पूजितवान, यथैष कोऽपि महापुरुषः प्रधानकुलसमुद्भवोऽस्ति. अन्यथा कथमीदृशं रूपं विज्ञानं चास्य भवति ? ततो राज्ञा स्वगृहे पीत्वा कुमारस्य विविधोपचारकरणपूर्वकं ق ال : المان ها و با دوان دوان ، عفت اورد لا لااااالطفالالمقالا للللا للانطلاحات للطة لا لا لا For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०३६॥ कन्याशतं दत्तं, तेन समं विषयसुखमनुभवतस्तस्य महापद्मकुमारस्य दिवसास्तत्र सुखेन यांति. तथापि स तां उत्तराध्य मदनावली हृदयान्न विस्मारयति. यन सूत्रम् ___एटलामा राजानो मानीतो हाथी बन्धनस्तंभने उखेडीने, घरोने, दुकानोने तथा भीतीने भांगतो नगरनी बहार युवतीओना ॥१०३६॥ टोळामां आव्यो, ते स्वीयो तो ते मदमत्त हाथीने दुरथी आवतो जोइ दोडी जवाने असमर्थ होवाथी त्यांज उभी थइ रही. त्यां तो आ ते स्वीओना उपर पोतानी सुंढ नाखवा जाय छे एटलामां दूर उभेला महापद्म कुमारे करुणापूर्ण हृदयथी ते हाथीने हाकोड्यो तेवो तो ए हाथी कुमार सामे वेगथी चाल्यो. त्यारे ते स्त्रीयो सघळी बोळवा लागी के-'हाय ! आपणनी रक्षा माटे प्रवृत्ति करवा जतां आ कुमारने हाथी हमणा मारशे.' आम ते स्वीयो मलाप करी रही छे त्यां तो ते हाथी तथा कुमारनो घोर संग्राम जाम्यो. बधा नगर निवासी जनो त्यां मेळा थया. पोताना सामंत तथा नोकरो सहित महासेन राजा पण त्यां आव्या अने कुमारने का के-'कुमार आनी साथे युद्ध मा करो. रोषे भरायेलो यम जेवो आ हाथी तमारो विनाश करशे.' महापद्म का के-'राजन् ! विश्वस्त रहो; मारी कला जोया करो.' आम कही एक क्षणमां ते मत्त हाथीने पोतानी कळाथी वश करी तेना उपर आरूढ थया अने ते मत्त हाथीने तेना स्थाने लइ जइ आलान स्तंभे बांधी दीधो. लोकोए वाह वाह कही तेनी प्रशंसा करी अने कहेला लाग्या EGI के-'आ कोइ पण प्रधान कुलमा जन्मेलो जणाय छे. अन्यथा आवु रूप तथा आवु विज्ञान क्याथी होय ? तदनंतर राजा महा| सेने कुमारने राजगृहमा तेडी जइ विविध प्रकारना उपचारथी सत्कार करी पोतानी एक सो कन्याओ महापद्म कुमारने परणावी तेओनी साथे विषयमुखानुभव करतां महापद्म कुमारना घणाक दिवसो सुखमां वीत्या,तथापि ते पेली मदनावलीने हृदयथी भूल्या नहोता. For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ||१०३७॥ उत्तराध्य अन्यदा रजन्यां शय्यातोऽसौ वेगवत्या विद्याधर्यापहृतः, निद्राक्षये सा तेन दृष्टा, मुष्टिं दर्शयित्वा सा कुमा रेण भणिता, किं त्वमेवं मामपहरमि ? तया भणितं कुमार! शृणु ? वैनाट्ये सूरोदयनाम नगरमस्ति, तद्रधनुर्नाम पन सत्रम् | विद्याधराधिपतिरस्ति, तस्य भार्या श्रीकांता वर्तते. तस्याः पुत्री जयचंद्रानाम्नो वर्तते. सा च पुरुषद्वेषिणी नेच्छति ॥१०३७॥ कथमपि वरं. ततो नरपत्याज्ञया मश मर्वत्र वरनरेन्द्रा विलोक्य विलोक्य पट्टिकाणं लिखिताः, मर्वेऽपि तस्या दर्शिताः, न कोऽपि रुचितः, अन्यदा मया तस्यास्तव रूपं दर्शितं, तदर्शनानंतरमेव मा कामावस्थया गृहीता, भणितं च तया योष भर्ता न भविष्यति, तदाऽवश्यं मया मर्तव्यं, अन्यपुरुषस्य मम यावज्जीवं निवृत्तिरेव, पप तस्या व्यतिकरो मया तन्मातृपित्रोर्जापितः, नाभ्यां त्वदानयनायाहं प्रयुक्ता. अविश्वसंन्यास्तस्या विश्वासार्थ मयेयं प्रतिज्ञा कृता, यद्यहं तं त्वरितं नानयामि, नदा ज्वालाकुले ज्वलने प्रविशामि. ततः कुमार ! यदि तब प्रमादेन मम मरणं न संपद्यते, यथा च मे प्रतिज्ञानिर्वाहो भवति, तथा प्रमादं कुरु ? ततस्तदाज्ञया नया महापमा सूर्योदये नत्र नीतः. खेवगधिप-िमिलिम:, तेन च समुहर्ते तस्याः पाणिग्रहणं कारितः, पूजिता च वेगवती. एक समये ते महापद्म कुमारने वेगवती विद्याधरी रात्रना मृता हता त्यां शय्यामाथी हरी गह.कुमार जाग्या त्यारे तेणे वेगवतीने दीठी तेना सामे पोतानो मुठी उगामीने का के-केम तुमने आम हरीने क्या लइ जाय छे?' ते बोली 'हे कुमार ! सांभळी, BEII वैताढ्य पर्वत उपर मरोदय नामर्नु नगर छे.तेमा इन्द्रधनुष नामनो विद्याधरोनो अधिपति छे तेनी भार्या श्रीकांता ले नेनी जयचन्द्रा नामे पुत्री छे, ते पुरुष द्वेषिणी छे, अर्थान कोइपण पुरुषने वर तरीके इच्छती नथी. तेथी तेना पितानी आज्ञा थतां में सर्वत्र सारा For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०३८॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०३८॥ सारा नरेन्द्रो जोइ जोइने पट्टिकामां आळेखी आलेखीने देखाड्या, तेमांनो एके तेणीने रुच्यो गम्यो नहि. ज्यारे में तमाकं स्वरूप आळेखीने दर्शाव्यु ते जोतानी साथे तरतज ते कामावस्थामां घेराणी अने बोली के-जो आ भर्ता न मळे तो मारे मरवानुज छे. जीवतां सुधी मारे अन्य पुरुषथी निवृत्तिज छ.' तेणीनो आ संकल्प-निश्चय में तेनां माता पिताने जाहेर कर्यो त्यारे तेश्रोए तमने आणी आपवा मने मोकलो. ए राजपुत्रीने विश्वास न आव्यो ते बारे तेणीने विश्वास बेसाडवा में प्रतिज्ञा करी के-'जो हुँ ते कुमारने तुरतज न आणी आपूतो मोरे प्रज्वलित अग्निमां प्रवेश करवो.' ते कारणथी हे कुमार ! आफ्ना प्रसादथी मारु मरण न थाय अने जेम मारी प्रतिज्ञानो निभाव थाय तेम आपे कृपा करवानी छे.' त्यारे कुमारनी अनुमतीथी ते विद्याधरी महापद्मने मूर्योदय थतांमां त्यां लइ गइ अने खेचर विद्याधर=ना अधिपतिने मेळव्या ते पछी तेने साझ मुहुर्त जोइ ते कन्यानुं पाणिग्रहण कराव्यु. अने ए कुमारने आणी आपनार वेगवती विद्याधरीने सत्कारवडे पूजित करी. इतश्च जयचंद्राया मातुल भ्रातरौ गंगाधरमहीधरनामानौ विद्याधरावतिप्रचंडाविमं व्यतिकरं ज्ञात्वा अनेकभटसहितौ महापझेन समं संग्रामार्थमागतो. महापद्मोऽपि तयोरागमनं श्रुत्वा सूरोदयपुरायहि विद्याधरभटपरिवृतो निर्गतः, संप्रलग्नस्तयोः संग्रामः, तदानी महापद्मन स्यंदनाः, कुंजराः, अश्वाः, सुभटाः परयलसत्काः सर्वेऽपि वाणीविद्धाः, भग्नं स्वं बलं दृष्ट्वा गंगाधरमहीधरौ स्वयमुत्थिती, महापद्मनोभावपि हतो. ततो लब्धजयः स महापद्म उत्पन्नस्त्रीरत्नवर्जसर्वरत्नः, प्राप्तनवनिधि त्रिंशत्सहस्रमंडलेश्वरसेवितपादपद्मः, परिणीतैकोनचतुःषष्टिसहस्रांत:पुरो हयगजरथपदातिकोशसंपन्नोऽष्टमश्चक्रवर्ती जाता. तथापि षट्खंडभरतराज्यं स मदनावल्या रहितं नीरसं मन्यते. अ For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥१.३९॥ न्यदा तस्मिन्नाश्रमपदे गतस्य तस्य महापद्मचक्रिणस्तापसैर्महान् सत्कारः कृतः. जनमेजयेनापि गज्ञा मदनावली तस्य दत्ता, तेन परिणीता खीरत्नं यभूव, ततो महापद्मश्चक्रवर्तिऋद्धिसमेतो हस्तिनागपुरं प्राप्तः, प्रणनाम च जननीजनक 158 भाषांतर पादान. ताभ्यामप्यधिकस्नेहेन प्रेक्षितः. अध्य०१८ आ वात जयचन्दाना मामाना दीकरा गंगाधर तथा महीधरे जाणी तेथी ते बन्ने डचा भाइओ अनेक भट सहित महापद्म साये सग्राम करवा आल्या. महापद्म पण ते चेयने आता जाणी विद्याधर योद्धाओथी वीटळायलो मरोदयपुरनी बहार नीकळ्यो. ते | वखते महापद्मे सामा पक्षना रथ हाथी घोडा तथा मुभटोनो घाण वाळयो अने सर्वेने बाणोवडे वींधी नाख्या. पोतान सैन्य भग्न थयु जोइ गंगाधर तथा महीधर पोते उठ्या. महापद्म ते वेयने हण्या. तदनन्तर महापदम जय मेळवी एक स्त्रीरत्न सिवाय बाकीनां सर्व रत्नो जेणे सम्पादन करेल एवो तथा नवनिधि जेने प्राप्त थया छे तेमज बत्रीश हजार मंडळेश्वरो जेना चरण से वे छे तथा साठ हजारमा एक ओछी, अर्थात्-भोगणसाठ हजार नवसोने नवाणु स्त्रीयोने परणी हाथी घोडा रथ पायदळ भंडार बगेरे समृद्धिथी सम्पन्न अष्टम चक्रवर्ति थया. तथापि पोताने प्राप्त थयेलुछ खंड भरतन राज्य मदनावली विना नकाया जेवू मानवा लाग्या. एक समये पोते ते आश्रमस्थानमां गया ला आश्रमवासी तापसोए तेनो महोटो सत्कार कर्यो, तेटलामा जनमेजय राजा त्यां आधी चड्या तेमणे मदनावली महापद्यने दीधी. तेने परण्या एठले ते मदनावली खीरत्न थइ. एवी रोते ऋदिसमेत महापद्म चक्रवर्तिए दृस्तिनागपुरमा आवी पोतानां माता पिताना चरणोमां प्रणाम कर्या, तेश्रोए पण अधिक प्रेमथी अवलोक्या... अत्रांतरे तत्रैव समयमुनो मुनिसुव्रतस्वामिशिष्यो नागमूरिः, ततो निर्गतः सपरिवारः पद्मोत्तराजा तं बंदित्वा For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०४०॥ भाषांतर अध्य.१८ ॥१०४०॥ 1THORTDOORDommraCATrans لليلة ليلة الفتافيلالالالالالالالالالالالالالالا पुरो निषण्ण. गुरूणां च तत्पुरो भवनिर्वेदजननी देशना कृता. तां श्रुत्वा वैराग्यमापन्नो राजा गुरुं प्रत्येवमुवाच, भगवनहं राज्यं स्वथं कृत्वा भवदनिके प्रव्रजिष्यामि. गुरुणा भणितं मा विलंबं कुर्विति गुरुं प्रणम्य नगरे प्रविष्टो राजा. आकारिता मंत्रिणः प्रधानपरिजना विष्णुकुमारश्च, सर्वेषामपि राज्ञैवमुक्तं, भो भोः! श्रुता भवद्भिः संसारसारना, अहमेतावत्कालं वंचितः, यत श्रामण्यं नानुष्टितवान्. ततः सांप्रतं विष्णुकुमारं निजराज्येऽभिषिच्य प्रव्रज्यां गृह्णामि. नतो विष्णुकुमारेण विज्ञप्त, तात! ममापि किंपाकोपमैोंगैः मृतं, तब मार्गमेबानुमरिष्यामि. १ आ अवसरमा मुनिसुव्रतना शिष्य नागमूरि हस्तिनागपुरमांज समवस्त थया. अर्थात धर्मदेशनार्थे पधार्या, त्यारे पद्मोत्तर राजा पोताना परिवार सहित नगरी बहार नीकली ए मुनिने वंदन करी तेनी पासे बेठा, त्यारे गुरुए राजानी आगळ भव संसार मां वैराग्य उत्पन्न करे तेवी देशाना करवा मांडी ते सांभळीने वैराग्य पामेला राजाए गुरुपत्ये बोल्या के-'हे भगवन् ! हुं राज्यने स्वस्थ करी आपनी पासे पाछो आवो पत्रज्या ग्रहण करीश.' गुरुए कयु-विलंब म करशो.' ते पछी गुरुने प्रणाम करी राजा नगरमां प्रविष्ट थया. बधा मंत्रियोने तथा मुख्य परिजनोने पासे बोलाव्या अने कुमार महापद्मने तेडावी सर्बनी समक्ष राजा बोल्या के-'तमो सर्वे आ संसारनी असारता तो हुँ तो आटला समय सुधी तराणो के में श्रामण्य साधुत्वन स्वीकार्यु. हवे विष्णुकुमारने मारा राज्य उपर अभिषिक्त करी हुं प्रव्रज्या गृहण करीश. त्यारे विष्णुकुमारे विज्ञप्ति करी के-'हे तात ! मारे पण ा परिणाम विरस भोगोथी शुं सरवा, हतु ? हुं पण तमारा मार्गनेज अनुसरीश.. ततो विष्णुकुमारस्य दीक्षानिश्वयं ज्ञात्वा पदमोत्तरराज्ञा महापद्म आकारितो भणितश्च, पुत्र ! ममेदं राज्य ch CUCUeLLPGDERS For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsur Gyarmandie उत्तराध्य-IBE यन सूत्रम् I ॥१०४१॥ प्रतिपयस्व? विष्णुकुमारोऽहं च प्रव्रज्यां प्रतिपद्यावः. अथ विनीतेन महापदमेन च भणितं, तात ! निजराज्याभिषेक विष्णुकुमारस्यैव कुरु? अहं पुनरेतस्यैवाज्ञाप्रतीच्छ को भविष्यामि. राज्ञा भणितं वत्स! मयोक्तोऽप्ययं राज्यं न प्रतिप भाषांतर द्यते, अवश्यमयं मया ममं प्रजिष्यति. ततः शोभनदिवसे महापदमस्य कृतो राज्याभिषेकः विष्णुकुमारसहितः JE अध्य०१८ पद्मोत्तरराजा सुव्रतमरिसमीपे प्रवजितः ततो महापद्मो विख्यातशासनश्चक्रवर्ती जातः.स्वमातृभपरमातृकारितो | ॥१०४१॥ द्वावपि रयो तथैव स्तः, महापद्मचक्रिणा तु जननीसत्को जिनरथो नगरीमध्ये भ्रामितः, जिनप्रवचनस्य कृतोन्नतिः. तत्प्रभृति बहुलोको धर्मोद्यममतिर्जिनशासनं प्रतिपन्नः तेन महापद्मचक्रिणा सर्वस्मिन्नपि भरतक्षेत्रे ग्रामाकरनगरोद्यानादिषु कारितानि जिनायतनान्येककोटिलक्षप्रमाणानि. पदमोत्तरमुनिरपि पालिननिष्कलंकश्रामण्यः शुद्धाध्यवमायेन कर्मपालं क्षपयित्वा ममुत्पन्न केवलज्ञान: संप्राप्नः मिद्विमिति. विष्णुकुमार मनेरप्यग्रतपोविहारनिरतस्य वर्धमानज्ञानदर्शनचारित्रपरिणामस्याकाशगमनादिवैक्रियलब्धय उत्पन्नाः. स कदाचिन्मेवढंगदेहो गगने बजनि, कदाचिन्मदनवद्रूपवान् भवति. एवं नानाविधलब्धिपात्रः ग संजातः. राजाए विष्णुकुमारनो पण दीक्षा लेबानो निश्चय जाणी पहापद्मकुमारने नेडाबीने का के-'हे पुत्र ! आ माम राज्य तमे। स्वीकारो, अने विष्णुकुमार तथा हुं प्रवज्या गृहण करशुंवारे विनयवान् महापने का के–'हे तात ! आपना राज्य उपर विष्णुकुमारनेज अभिषिक्त करो अने हुं तो एनो आज्ञा उठावनार वनीने रहीश, राजा पद्मोत्तर चोल्या के-'हे वत्स! में कई तो पण विष्णुकुमार राज्य लेतो नथी एतो मारी साथेज पव्रज्या ग्रहण करशे.' ते पछी शोभन दिवसे महापाने राज्याभिषेक करी विष्णु For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४२॥ कुमार सहित पद्मोत्तर राजा सुत्रतमूरि समीपे जइ प्रबजित थया. अहों महापद्म तो विख्यात शासन चक्रवर्ती थया. पूर्वे तेनी सगी उत्तराध्य माए तथा ओरमान माए करावेला वे रथ एमज पड्या हता, ते महापद्म चक्रीए पोतानी जननीए करावेलो जिनरथ नगरी मध्ये यन सूत्रम् फेरव्यो अने जिनप्रवचननी उन्नति करी त्यारथी घणा लोको धर्म तरफ ढळती मतिवाळा जिनशासन मानता थया ते महापद्म ॥१०४२॥ चक्रीए सर्व भरतक्षेत्रने विषये ग्राम, आकर, नगर, उद्यान वगेरेमा एक करोड अने एक लाख जिनायतन कराव्या. पद्मोत्तरमुनि ३७ पण निष्कलंक साधु धर्म पाळीने शुद्ध अध्यवसायवडे कर्मजाळने खपावी केवळज्ञान उत्पन्न थतां सिद्धिने पाम्या. विष्णुकुमार मुनि उग्र तप आचरता विहार करतां तेनां ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र वृद्धि पाम्यां तेथी तेने आकाशगमन आदिक नाना प्रकारनी वैक्रिय लब्धिी उत्पन्न थइ तेथी ते कोइ बखते मेरुना जेबो उंचो देह करी आकाशमां गमन करता, कदाचित् कामदेव समान रूप धारण करीने फरता, एम विविध लब्धिना तेओ पात्र बन्या. इतश्च ते सुव्रताचार्या बहुशिष्यपरिवृता वर्षारास्थित्यर्थ हस्तिनागपुरोद्याने समायाताः, ज्ञाताश्च तेन विरुद्धेन नमुचिना, अवसरं ज्ञात्वा तेन राज्ञे विज्ञप्त, यथा पूर्वप्रतिपन्नं मम वरं देहि ? चक्रिणोक्तं यथेष्टं मार्गय ? नमुचिना भणितं राजन्नहं वेदणितेन विधिना यज्ञं कर्तुमिच्छामि, अतोराज्यं मे देहि? चक्रिणा नमुचिः स्वराज्येऽभिषिक्तः, स्वयं चांतःपुरे प्रविश्य स्थितः. नमुचिर्यज्ञपाठकमागम्य यागनिमित्तं दीक्षितो बभूव. राज्येऽभिषिक्तस्य तस्य वर्धापनार्थ जैनयतीन वर्जयित्वा सर्वेऽपि लिंगिनो लोकाश्च समायाताः नमुचिना सर्वलोकसमक्षमुक्तं, सर्वेऽपि लोका मम वर्धापनार्थ समायाताः, जैनयतयः केऽपि नायाता:. एवं छलं प्रकाश्य सुव्रताचार्या आकारिता आगताः. नमु तालका Fer Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०४३ ॥ 北北峰 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिना भणिता भो जैनाचार्याः ! यो यदा ब्राह्मणो वा क्षत्रियो वा राज्यं प्राप्नोति, स तदा पाखंडिभिरागत्य दृष्टव्यः इयं लोकस्थितिः, ग्रतो राजरक्षितानि तपोधनानि भवंति यूयं पुनः स्तब्धाः सर्वपाखंडदूषका निर्मर्यादा मां निंद, अतो मदीयं राज्यं मुक्त्वाऽन्यत्र यथासुखं व्रजन ? यो युष्माकं मध्ये कोऽपि नगरे भ्रमन् द्रक्ष्यते स मे बध्यो भवि यति सुव्रताचार्यैरुक्तं राजन्नस्माकं राजवर्धापनाचारो नास्ति, तेन वयं त्वपनकते नायाताः न च वयं किंचिनिंदामः, किंतु समभावास्तिष्ठामः ततः स रुष्टः प्रतिभणति यदि श्रमणं सप्तदिनोपर्यहं दक्षिष्ये तमहमवश्यं मारयिष्यामि नात्र संदेह:. अहीं घणक शिष्योबडे परिवारित ते सुव्रताचार्य वर्षांरात्र = चोमासामां= स्थिति करवा माटे हस्तिनागपुरना उद्यानमां पधार्या. आ खबर विरोधी मंत्री नमुचिए जाण्या एटले तेणे अवसर साधी राजा पासे विज्ञप्ति करी के 'आपे पूर्वे आपका कबूल करेल वरदान मने आजे आपो' चक्रीए कछु के-'मरजी प्रमाणे मागी ल्यो.' नमुचि बोल्यो- 'हे राजन् ! मारे देवोक्त विधिथी यज्ञ करवानी इच्छा छे. माटे मने आपनुं राज्य आपो.' चक्रीए नमुचिने पोताना राज्य उपर अभिषिक्त करी पोते पोताना अंतपुरमां प्रवेश करी त्यांन स्थिति करी. नमुचि तो यज्ञवाट स्थाने आवी यागनिमित्ते दीक्षित थयो, आ नमुचि राज्याभिषिक्त भयो तेने वर्धापन आपका जैन यति सिवाय बीजा सर्वे लोको आवी गया, त्यारे नमुचिए सर्व लोक समक्ष कछु के- सर्वे लोको मने वर्धापन आपना आवी गया पण जैन यतिओ कोड़ पण आध्या नहिं आवु छल रची आचार्योने तेडाव्या आचार्यो आव्या तेने नमुचिए - 'हे जैनाचार्यो ! जे कोइ ब्राह्मण क्षत्रिय राज्य पामे त्यारे तेने सर्वेष आवीने सन्मानवो जोइए एत्री लोक स्थिति छे For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४३॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०४४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारण के बधाय तपोधन राजाए रक्षित होय छे. तमे बधा स्तब्ध = गर्वित पाखंडी दुषक होइ मर्यादा मूकीने मारी निंदा करो छो, माटे मारुं राज्य छोडीने अन्यत्र तमने फावे त्यां चाल्या जाओ. तमारामानो जे कोइ आ नगरमा फरतो देखाशे ते मारो वध्य थशे. आ सांभळी सुव्रताचायें कछु के- 'हे राजन! राजाओ ने वर्धापन आपवानो अमारो आचार नथी जेथी अमे वर्धापन सा न आव्या. अमे कई पण तमारी निंदा करता नथी किंतु अमे अमारा समभावे स्थिति करी रह्या छइए.त्यारे नमुचि रोषे भराइ बोल्यो के - 'जो कोइपण श्रमण आ नगरीमा सात दिवस पछी मारे नजरे पडशे तेने हुं अवश्य मारी नखात्रीश, एमां संदेह न समजवो. ' एतन्नमुचिवाक्यं श्रुत्वाचार्याः स्वस्थानमायाताः सर्वेऽपि साधवः पृष्टाः, किमत्र कर्तव्यं ? तर एकेन साधुना भणितं यथा सदा सेविततपोविशेषो विष्णुकुमारनामा महामुनिः सांप्रतं मेरुपर्वतचुलास्थो वर्तते स च महाप दुमचक्रिणो भ्रातास्ति, ततस्तद्वचनादयमुपशमिष्यति आचार्यैरुक्तं तदाकारणार्थ यो विद्यालब्धिसंपन्नः स तत्र व्रजतु ? तत एकेन साधुनोक्तमहं मेरुचूलां यावद्गगने गंतुं शक्तोऽस्मि, पुनः प्रत्यागंतुं न शक्तोऽस्मि, गुरुणा भणितं विष्णुकुमार एव त्वामिहानेष्यति तथेति प्रतिपद्य स मुनिराकाशे उत्पतितः क्षणमात्रेण मेरुचूलायां प्राप्तः तमायांत दृष्ट्वा विष्णुकुमारेण चिंतितं किंचिद्गुरुकं संघकार्यमुत्पन्नं, यदयं मुनिर्वर्षाकालमध्येऽत्रायातः ततः स मुनिर्विष्णुकुमारं प्रणम्यागमनप्रयोजनं कथितवान्, विष्णुकुमारस्तं मुनिं गृहीत्वा स्तोकवेलयाकाशमार्गेण गजपुरे प्राप्तः, वंदिता गुरवः, गुर्वाज्ञया साधूसहितो विष्णुकुमारमुनिर्नमुचिपर्षदि गतः सर्वैः सामंतादिभिर्वदितः, नमुचिस्तु तथैव सिंहासने तस्थिवान्, न मनाग् विनयं चकार विष्णुना धर्मकथन पूर्व नमुचेरेवं भणितं वर्षाकालं यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठति For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४४॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie उत्चराध्य सूत्रम् ॥१०४५॥ بالصلالها سيقنا للجاليالي السكان الانقيا من لا قيمنا لمطالبه आ नमुचिर्नु वाक्य सांभळी आचार्य पोताने स्थानके आव्या. सर्वे साधुओने पृच्छयु के-'हवे आपणे शृं करवु ?' त्यारे एक साधुए को के-'सदाकाळ तपो विशेपर्नु सेवन करता विष्णुकुमारमुनि हालमा मेरु पर्वतनी टोच उपर रहे छे ते महापद्मचक्रीना भाषांतर भाइ थाय छे तेथी तेना वचनथी आ उपशांत थशे. आचार्य का के-'एने बोलाववा माटे जे विद्यालब्धि संपन्न होय ते जाओ' 16 अध्य०१८ ते वखते साधुभोमांथी एक बोल्यो के-'हुँ मेरु पर्वतनी चाळा टोच सुधी आकाशमार्गे जवा शक्तिमान् छ पण त्यांथी पाछु आन ॥१०४५॥ वाने अशक्त .' गुरुए कड्यु-'ए विष्णुकुमारज तने अहीं पाछो लइ आवशे.' त्यारे गुरुवचन मान्य करीने ते शिष्य आकाशमा उड्यो अने क्षणमात्रमा मेरुपर्वतनी टोच उपर पहोंच्यो. तेने आवतो जोइ विष्णुकुमारे धार्य के-कंडक महोटुं संघकार्य उत्पन्न थयु होय एम लागे के जेथी आ मुनि वर्षाकाळमां पण अहीं आब्या तदनंतर ते मुनिए आकाशमाथी उतरी विष्णुकुमारने प्रणाम करी पोताना आववानुं प्रयोजन कही देखाटयु. विष्णुकुमार ने मुनिने लइ टुंक वखतमा आकाशमार्गे गजपुर (हस्तिनापुर) मां ा या. गुरुओने वंदन करी गुरुनी आज्ञाथी साधुओ सहित विष्णुकुमारमुनि नमुचिनी सभामां गया त्या सर्व सामंतादिके वंदन कयु पण नमुचि तो तेमज सिंहासन उपर बेठो रह्यो, जराय विनय कयों नहों. विष्णुए धर्मकथन पूर्वक नमुचिने का के-'वर्षाकाळ छे त्यां| सुधी आ मुनिओ अहीं रडेशे.' नमुचिना भणित, किमत्र पुन: पुनर्वचनप्रयासेन ? पंचदिवसान यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठंतु, विष्णुना भणितं नवोघाने मुनयस्तिष्ठतु ततः संजातामर्षेण नमुचिनैवं भणित, मर्वपाखंडाधमैभवद्भिर्न मद्राज्ये स्थेयं, मद्राज्यं त्वरितं त्यजत ! यदि जीवितेन कार्य, ततः समुत्पन्नकोपानलेन विष्णुना भणितं, तथापि त्रयाणां पादानां स्थानं देहि ? ततो For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BE/ उत्तराध्य भाषांतर पन सूत्रम् अध्य०१८ ॥१०४६॥ ॥१०४६॥ भणितं नमुचिना, दत्तं त्रिपदीस्थानं, परं यं त्रिपद्या यहिक्ष्यामि तस्य शिरश्छेदं करिष्यामि. ततः स विष्णुकुमारः कृतनानाविधरूपो वृद्धिं गच्छन् क्रमेण योजनलक्षप्रमाणरूपो जातः क्रमाभ्यां दर्दरं कुर्वन् ग्रामाकरनगरसागराकीर्णा भूमिमकंपयत्, शिखरिणां शिखराणि पातयतिस्म, त्रिभुवने क्षोभं कुर्वन् स मुनिः शक्रेण ज्ञानः, तस्य कोपोपशांनये शक्रेण गायनदेव्यः प्रेषिताः, ताश्चैवं गायंतिस्म-सपर संतावओ धम्मवणदावओ कुगइगनणहेउ कोबो ताओ. वसमं करेसु भयवंति. एवमादीनि गीतानि ता वारंवारं श्रावयंतिस्म. स मुनिनमुचिं सिंहासनात्पृथिव्यां पातितवान् दत्तपूर्वापरसमुद्रपादः स सर्वजनं भापयतिस्म. ज्ञातवृत्तांतो महापद्मश्चक्री तत्रायातः, तेन समस्तसंघेन सुरासुरैश्च शांतिनिमित्तं विविधोपचारः स उपशामितः. तत्प्रभृति विष्णुकुमारत्रिविक्रम इति ख्यातः. उपशांतकोपः स मुनिरालोचितः प्रतिक्रांतः शुद्धश्च. गत उक्तं-आयरिए गच्छमि । कुलगणसंघे अ चेइअविणासे ॥ आलोइयपडिकंनो । सुद्धो जं निजरा विउला ॥१॥ निष्कलंक श्रामण्यमनुपाल्य समुत्पन्नकेवलः स विष्णुकुमारः सिद्धि गतः. महापद्मचक्रवर्त्यपि क्रमेण दीक्षां गृहीत्वा सुगतिभागभूत. इति महापद्मदृष्टांतः. ८. नमुचि बोल्यो के-'फरी फरीने वचन कहेबानो प्रयास शा माटे ? भले पांच दिवस ए मुनियो अहिं रहे. विष्णुए कधुतमारा उद्यानमा मुनिओ रहे.' नमुचि रोषे भराइ बोल्यो के-'तमे वधा पाखंडी अधम छो, तमारे मारा राज्यमा न रहे. जलदी मारुं राज्य छोडी चाल्या जाओ,जो जीवितनो खप होय तो.आ सांभळी जेने कोपानल उत्पन्न थयो छे एवा विष्णुए का के-तो पण प्रण पगला जेटलु स्थान दे.' नमुचि कहे-त्रण पगळां स्थान आप्यु पण पत्रण पगलांनी बहार जेने देखीश तेनु GDCANDIDDEDDED R For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४७॥ मस्तक छेदावीश. ते पछी ते विष्णुकुमार नाना प्रकारना रूप धारण करी बचा मांड्यो. ते क्रमे करी एक लक्ष योजन प्रमाणर्नु उचराध्य रूप धायु, पगला चे मुकता तो गाम आकर नगर पर्वत सागर वैगेरेथी व्याप्त आखी पृथ्वी कंपी उठी अने पर्वतनां शिखरो पाडी यन सूत्रम् नाख्यां, समग्र त्रिभुवनमां क्षोभ करता ते मुनिने इन्द्रे जाण्या तेथी तेना कोपनी उपशांति करवा इन्द्रे गायन देवीभोने मोकली ॥१०४७॥380 तेओ गावा लागी के-'पोताने तथा परने संताप करनारो तेमज धर्मरूपी वननो दावाग्निरूप, वळी कुगतिनो हेतु एवो कोप के पाटे तेनो उपशम करो हे भगवन ! इत्यादिक गीतो ते अप्सराओएं वारंवार संभळाव्या. ते मुनिए नमुचिने सिंहासन उपरथी पृथ्वीपर orlपाडी नाख्यो, अने पूर्व तथा पश्चिम समुद्र उपर वे पगलां मृकी सर्वजनने भयभीत कर्या, आ वृत्तांत महापद्मचक्रीना जाणवामां आवतो. ते त्यां आव्या तेने समस्त संघे तथा मुरासुर ममुदाये शांति माटे विविध उपचारोबडे उपशामित कर्या त्यारथी विष्णुकुमार त्रिविक्रम नामथी प्रख्यात थया. ए मुनिनो कोप उपशांत थयो त्यारे आलोचना तथा प्रतिक्रमण करी शुद्ध थया. कयुके के-'आर्यों गच्छमां अथवा कुल गण के संघमा तथा चैत्यनो विनाश यतो होय त्यां आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमणवडे विशुद्ध थाय थाय छ जेम विलुपनिर्जराथी' आ विष्णुकुमार मुनि निष्कलंक श्रामण्य=चारित्र पाळी केवळज्ञान उत्पन्न यतां सिद्धि पाम्या; तथा महापद्म चक्रवंतिं पण दीक्षा ग्रहण करी सुगति पाम्या. आ प्रमाणे आठमा चक्रवर्ति महापद्मनु दृष्टांत का. एगछतं पसाहिता । महिं माणनिमूरणो । हरिसेणो मणुस्सिंदो । पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४२ ॥ (पगच्छत्त) महीं पृथ्वीने एकछत्रा प्रसाधित करी-माननो "निषूरण-प्रतिपक्षीनो गर्ष उतारनार हरिषेण नामनो मनुष्येन्द्र-राजा अनुसर गति मोक्षगतिने प्राप्त थया. ४२ 5 Tài बालबाDUAD m For Private and Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie चराध्यपन सूत्रम् ॥१०४८॥ भाषांतर अध्य०१८ १०४८॥ व्या०-पुनहें मुने! हरिषेणो मनुष्येन्द्रो हरिषेणनामा नवमश्चक्री अनुत्तरां गति सिाद प्राप्तः किं कृत्वा ? महीं पृथ्वीमेकच्छन्त्रां प्रसाध्य प्रपाल्य. कीदृशो हरिषेणः ? माननिसरणोऽहंकारिशत्रुमानदलनः ॥४२॥ पुनरपि हे मुने ! हरिषेण मनुष्येन्द्र हरिषेण नामना नवमा चक्रवर्ति अनुत्तर गति=सिद्धिने पाम्या. केम करीने? मही=पृथ्वाने एकच्छत्रा प्रसाधित करीने-एटले स्वाधीन करी तेनुं परिपालन करीने हरिषेण केवा? माननिधरण= अहंकारी शत्रुनु मान खंडन करनार. अत्र हरिषेणदृष्टांत:-कांपिल्ये नगरे महाहरिराज्ञो मेरोदेव्याः कुक्षौ चतुर्दशस्वमसूचितो हरिषेणनामा चक्रवर्ति समुत्पन्नः क्रमेण यौवनं प्राप्तः पित्रा राज्ये स्थापितः. उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि, प्रसाधितं च भरतं, कृतपहाभिषेको हरिषेण उदारान् भोगान् भुजन् कालं गमयति. अन्यदा लघुकर्मतया भववासाद्विरक्तः स एवं चिंतितुं प्रवृत्तः, पूर्वकृतसुकृतकर्मवशेन मयात्रेदशी ऋद्धिः प्राप्ता, पुनरपि परलोकहितं करोमि उक्तं च-मासैरष्टभिरही वा। पूर्वेण वयसा यथा ॥ तत्कर्तव्यं मनुष्येण । यथांते सुखमेधते ॥१॥ एवमादि परिभाव्य पुत्रं राज्ये निवेश्य म निकांता, उत्पन्न केवलश्च सिद्धिं गतः. पंचदशधनुमच्चत्वं दशवर्षसहस्रायुश्च संजातमिति हरिषेणचकिदृष्टांतः. ९.१४२१ अत्रे हरिषेण टांत कहे छे-कांपिल्य नगरमां महाहरि राजानी मरुरेवी नामनी राणोनो कुंखे चतुर्दश स्वमथी मुचित हरिषण नामना चक्रवर्ति उत्पन्न थया.ते क्रमे करी यौवन प्राप्त यया त्यारे पिताये राज्य उपर स्थाप्या त्यारे चउद रत्नो उत्पन्न थयां,भरतक्षे अनु प्रसाधन कयु स्यारे तेने पट्टाभिषेक करवामां आव्यो अने तेओ उंचा प्रकारना भोग भोगवता काल निर्गमन करता हता. एक २ समये स्वयं लघुकर्म होवाथी संसारवासथी विरक्त यता एवो विचार करवा लाग्या के-पूर्वे करेलां कृतकर्मोने लीधे आ भवमां Fer Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४९।। उचराध्य-1BER मने आवी ऋद्धि प्राप्त थइ छे तो हधे परलोक हित कराय तो सार- रे-"पुरुषे जनाळा तथा शियाळाना आठ मासमाए पन सूत्रम् काम करी लेवु जोइए के अंतेचोमासामा मुखे रहेवाय; आखा दिवसमा एवं काम करी लेबु के अंते रात्रे मुखे सुवाय,पोतानी ॥१०४९॥ उमरना आगला भागमा अर्थात पचास वर्षमा एवं काम करी लेवु के अंतेवृद्धावस्थामा सीदाबुन पडे,अने आखी जींदगीमां एवं साधन करी लेवु के परलोकमां सद्गति पमाय." आवो विचार करी पुत्रने राज्य उपर बेसाडी पोते नीकळी गया अने क्रमे केवळज्ञान उत्पन्न थवाथी सिद्धि पाम्या. तेमनु शरीर पंदर धनुःप्रमाण उंचु इतु अने ए हरिषेण चक्रवर्तीए दश हजार वर्ष आ. युष्य भोगन्थु आ प्रमाणे हरिषेणर्नु दृष्टांत पूर्ण थयु. अनिओ रायसहस्सेहिं । सुपरिचाइ दमं चरे ।। जयनामो जिनक्वायं । पत्तो गहमणुतरं ।। ४३ ।। | [अनिओ०] हजारो राजा जेनी पाछळ चालता पवा जय नामना चक्रवत्ति, सम्यक परित्याग करी जिने आख्यात-कहेला दमचारिने आचरी अने अनुसर गति-मोक्षगतिने प्राप्त थया. ४३ . व्या-जयनामैकादशश्चक्री जिनाख्यातं जिनोक्तं धर्म चरित्वा चानुत्तरां गति प्राप्तः, कीदृशो जयनामा ? राजसहस्रैरन्वितो नृपसहस्रेण परिवृतो जैनी दीक्षामचरत. पुनः कीदृशो जयनामा? सुपरित्यागी सम्यक परित्यागी.४३ जय नामना अगीयारमा चक्रवत्ति जिनाख्यात-जिनेश्वरे प्ररूपणा करेला धर्मने आचरीने अनुत्तर गति-मोक्षगतिने प्राप्त थया. जयनामा केवा ? हजारो राजाओए अन्वित परिवारित जैनी दीक्षा आचरीने तथा सम्यक् प्रकारे परित्याग करीने. ४३ अत्र जयनामचक्रवर्तिदृष्टांत:-राजगृहे नगरे वप्राया रायाः कुक्षौ चतुर्दशस्वमसूचितो जयनामा पुत्रो जातः For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचराध्यपन सूत्रम् ॥१०५०॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५०॥ الي حالتها السلطه التاليه فيها فقالتحالف الطالفقيه الحقيقية | क्रमेण संसाधितभरतश्चक्रीं जातः, राजश्रियमनुभुवन भोगेभ्यो विरक्तो जातः, एवं च चिंतितवान-सुचिरमपि उषित्वा स्यात् प्रियविप्रयोगः । सुचिरमपि चरित्वा नास्ति भोगेषु तृप्तिः ॥ सुचिरमपि सुपुष्टं याति नाशं शरीरं । | सुचिरमपि विचित्यो धर्म एकः सहायः ॥ १॥ पवं संवेगमुपागतो निष्क्रांतोऽनुक्रमेण सिद्धा. द्वादशधनुर्देहमानो वर्षसहस्रायुश्चेष आसीदिति जयचक्रीदृष्टांतः. ११ । अहीं जय चक्रवर्तीनुं दृष्टांत कहे छे-राजगृह नगरमां वपा नामनी राणीनी कुंखे चतुर्दश स्वप्न सूचित जय नामनो पुत्र जन्म्यो. क्रमे क्रमे भरतक्षेत्रनुं प्रसाधन करी चक्रवर्ती थयो. राजलक्ष्मीना वैभवो अनुभवतां भोभ भोगवाथी विरक्त थयो. एम विचायु के-"लांबा काळ सुधी जीवी निवास करीये तो पण प्रियजनोथी वियोग तो थवानो, तेम चिरकाळ पर्यंत भोग सेवाये तो पण दृप्ति नहींज थवानी. वळी आ शरीरने घणा समय सुधी पोषीए तो पण ते नाश तो पामवानुज, पण दीर्घ समय पर्यंत पाळेलो धर्म एकज अंते सहाय थवानो" आम चिंतन करतां संवेग पामी नीकल्या अने अनुक्रमे सिद्धि पाम्या. आ जयचक्रीन देहमान द्वादशवनुपर्नु हतु अने हजार वर्ष आयुष्य भोगव्यु. अगीयारमा जयचक्रीनुं दृष्टांत पूर्ण थयु. दसण्णरजं मुइयं । चहत्ताणं मुणी चरे ॥दसण्णभद्दो निक्खतो । सक्खं सक्केण चोइओ ॥५४॥ [दसणं०] साक्षात् शक्र-इन्द्रे प्रेरित दशार्णभद्र राजाए मुदित आनन्द देनाएं दशार्ण देशचें राज्य त्यजीने नीकल्या अने मुनि-दी|| क्षित था विचर्या. ४४ व्या-दशार्णभद्रो राजा साक्षात् शक्रेण चोदितः प्रेरितः सन् निष्क्रांतः, गृहस्थावस्थातो निःसृतः. पुनमौनी For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersal Gyarmandie उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०५१॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५१॥ सन्नचरत. मुनेः कर्म मौन, मौनमस्यास्तीति मौनी, मुनिर्भूत्वा विहारमकरोत्. किं कृत्का ? दशार्णराज्यं त्यक्त्वा, दशानां देशानां राज्यं दशार्णराज्यं. कीदृशं दशार्णराज्यं ? मुदितं समृद्धं ॥ ४४ ॥ दशार्ण भद्र राजा साक्षात् शक्र-इन्द्रे प्रेरित थइ निष्क्रांत थया. गृहस्थावस्थाथी छुटा धया अने मुनि भवजित बनीने विचर्या=विहार कॉ. केम करीने ? दशार्ण देशनुं मुदित समृद्ध राज्य त्यजीने. ४४ अत्र दशार्णभद्रदृष्टांत:-अस्ति विराटदेशे धन्यपुरं नाम सन्निवेशः, तत्रैको मदहरनामा महत्तरपुत्रोऽस्ति, तस्य भार्या दुःशीला नगरीरक्षकेण समं चौर्यरतिं कुर्वत्यस्ति. अन्यदा तत्र सन्निवेशे नटेर्नाट्य प्रारब्धं, तत्रैको नर्तकः स्त्रीवेशं कृत्वा नृत्यन्नस्ति. घनो लोको दर्शनार्थ मिलितोऽस्ति, सापि तत्र गतास्ति. सा स्त्रीरूपधरं तं नर्तकं प्रेक्ष्य पुरुषं च ज्ञात्वा कामविह्वला जाता, एकं तत्पुरुषं प्राह, गद्यसावनेन वेषेण मद्गृहे समागत्य मया समं रमते, तदाहमस्मै अष्टोत्तरशतद्रव्यं ददामि. तेन प्रतिपन्न, भणितं च त्वं याहि ? एष ते पृष्टौ त्वरितमेव समायास्यति. एषोऽपि तत्पृष्टौ तद्गृहे गतः, तया पादशौचनं दत्तं, स भोक्तुमुपविष्टः, तया परिवेषितं क्षैरेय्या भृतं भाजनं, यावदसौ भुक्ते, तावतारक्षकस्तत्रायातोऽवदत् कपाटमुद्घाटयेति. सा नटपुरुषमुवाच, त्वं तिलगृहोदरे प्रविश ? यावदेनं निवर्तयामि.स तिलगृहोदरे प्रविष्टः,बुभुक्षितः सन् कोणस्थांस्तिलान् फूत्कृत्यफूत्कृत्य खादति.आगतस्तलारक्षः कपाट पिधाय. क्षरेयीभृतं पात्रं दृष्ट्वा स भोक्तुमुपविष्टः, यावजेमति तावत्तस्याः पतिरे समायातः. तयोक्तं तलारक्षस्य शीघ्रमुत्तिष्ट? प्रविशास्मिंस्तिलगृहोदरे, परं दूरे न गंतव्यं, कोणे सर्पस्तिष्टति, त्वया तत्र प्रदेशे न गंतव्यं. अविष्टस्त For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५२॥ लारक्षस्तिलगृहोदरे, पतिस्तत्रायातः क्षरेयीपात्रं दृष्ट्वा तेन पृष्टं किमेतत् ? तयोक्तं बुभुक्षितास्मीति जेमामि. स उवाच सुत्चराध्य स्वं तिष्ट? अहं पथश्रांतत्वाद्विशेषतो बुभुक्षितोऽस्मीति प्रथमं जेमामि. तयोक्तमद्याष्टमी वर्तते, कथमस्नातो जेमसि? यन सूत्रम् तेनोक्तं त्वं स्मातासीति तव स्नानेन मम स्नानं जातमिति प्रोच्य स भोक्तुमुपविष्टः.. ॥१०५२॥ दशार्णभद्र दृष्टांत:-विराट देशमां धन्यपुर नामे नगरने विषये मदहर नामनो महत्तरनो पुत्र हतो तेनी भार्या अति दुष्ट शीळ वाळी हती ते नगरी रक्षकनी साथे छानी चालती हती. एक समये ते स्थाने नटोये नाट्य आरंभ्यु तेमां एक नट स्त्रीरूप धारण करी नृत्य करतो हतो तेने जोइ जोवा गयेली आ कुलटाए काम विल थइ ए नटने कहेवराव्यु के-'जो आ स्त्रीवेषथीन मारे धेर आधी मारी साथे रमे तो हुं तेने १०८ द्रव्य आपु.' ते नटने आ वात पहोंची तेणे कहेवराव्यु के-"तारी पुंठेपुंठे तरतज आर्बु छु.' जेवी ते चाली के तेनी पाछल आ स्त्रीवेषधारी नट पण पहोंच्यो, घरे जइ तेने पग धोवा पाणी आप्यु अने तेने जमवा बेसाब्यो. ते स्त्रीए एक थाळी खीरनी भरीने पीरसी. ज्यां ते जमवा मांडे छे त्यां ए स्त्रीनो जार नगर रक्षके आवी कमाड ठोक्यु ते स्त्रीए पेला नटने कबु-तुंआ तल भरेला ओरडामा जतो रहे. हुं तेने हमणां रवाना करी दउं ते नट तलवाळा घरमा पेठो पण भूख्यो हतो तेथी खुणामां पडेला तल चोळी कुंकी कुंकीने खावा लाग्यो. पेको रक्षक तो कमाड बन्ध करी खीर भरेलुं पात्र तैयार देखी खावा बेठो, ज्यां नमवा मांडे के त्यां तो ए कुलटानो धणी आव्यो अने बारj ठोक्यु. आ तला रक्षकने स्वीए कड्य-जलदी उभा थइ आ तलना ओरडामा पेसी जाओ. पण तेमां दर मा जशो हो, केमके खुणामां एक मर्प रहेछे माटे तमे ते तरफ न PEजता आगळज बेसी रहेजो. एनलारक्षक तलवाळा ओरडामा पेठो अने आगळेज बेसी रह्यो. हवे ए स्त्रीनो धणी घरमा आवी जुए त لالالالالالالالالافلات من قبل العيد For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५३॥ उचराध्य- छे तो खीर भरेलु पात्र दी? तेथी पूछ्यु के-"आ शुं ?" त्यारे स्त्री बोली के-'मने भूख लागी हती ते जमुं छु.' पति बोल्यो केपन सूत्रम् "तु जरा खोभर, हुँ दर मार्गथी चालीने आवतां थाकीने बहु भूख्यो छु तेथी हुंज प्रथम जमुं;" स्त्रीए का-'आज अष्टमी छे ॥१०५३॥ ते नाह्या विना केम जमशो ?' पति कहे-'तु नाही छो, तारा स्नानथी हुं पण नाह्यो समजी लइश, भूख बहु लागी छे.' आम | कहीने जमवा मंडी गयो.. इतश्च तिलभक्षकनटफूत्कारश्रवणे सर्पोऽधमिनि फूत्करोतीति भीतस्तलारक्षस्तिलगृहोदरानिर्गतो नष्टः, ततोऽयमेवावसर इति कृत्वा स्त्रीवेषधरो नटोऽपि नष्टः पत्या पृष्टा सा, स्त्रि! किमेतत् ? तयोक्तं मया त्वं सांप्रतमेव वारितो यदद्याष्टम्यां त्वमस्नातो मा भोजनं कुरु ? त्वया चास्नातेनाद्य भोजनं कर्तुमारब्धं, अतस्त्वद्गृहे सदा वसंताविमौ पार्वतीमहेश्वरौ नष्ट्वा गतो. मदहर उवाच हा! दुष्टु कृतं मया, एवं पश्चात्तापकुर्वन पुनस्तां म उवाच, कोऽप्यस्त्युपायो यदेतो पुनरायातः ? सोवाच यदि न्यायेन वित्तमुपायं पूजां कुर्यास्तदा पुनरेती तव गृहे समापास्यतः. ततो गतो मदहरो देशांतरे, हबे पेलो स्त्रीवेषधारी नट खूणामां बेठो बेठो तल चोळा चोळी फुकीने खातो हतो तेनी फूंकोने सर्पना फूफाडा समजी पेलो तलारक्षक बीनो ते ओरडामाथी नोकळतोकने भाग्यो तेनी वांसे अकळायेलो नट पण नाठो, ते जोइने धणी बोल्यो के-'आ स्त्री पुरुष कोण हता? स्त्रीए हाजर जवाब दीधो के-में तमने हमणाज वार्या के आज अष्टमीने दिवसे नाह्या विना केम जमशो ? पण PE मे न मान्यु अने वगर नायेभोजन करवा लाग्या तेथी तपारा घरमा सदाकाळ वास करी रह्या इता ते पार्वती तथा परमे For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५४ श्वर नासी गया.' मा सांभळी मदहर बोल्यो के-'अरेरे ! में भुंडु कयु.' आम पश्चात्ताप करता ते फरीने स्त्रीने बोल्यो के-'हवे उत्तराध्य कोई उपाय थाय के ते बेय पाछा आपणां घरमां आवी बसे? त्यारे ते कुलठाए कधु के-'जो न्यायथी खरी कमाणी करी धन पन सूत्रम् मेळवीने ते धनबडे ए पार्वती परमेश्वरनी पूजा करो तो तेओ पुनः तमारे घेर आवे.' आ सांभळी मदहर देशांतरे कमावा चाल्यो. ॥१०५४॥ दशार्णदेशे ईक्षुवाटककर्मणि लग्नः, दशगद्याणकसुवर्ण लब्धं, तथाप्यल्पमिति कृत्वा स न तुष्टि प्राप. इतPE स्ततो भ्रमन् स एकदाटव्यां प्रविष्टः, पिप्पलतरुमूले विश्राम गृह्णाति. अत्रांतरेऽश्वापहृतो दशार्णभद्रस्तत्रायातः, तं दृष्ट्वा राज्ञा पृष्टं, कस्त्वं ? किमर्थमत्रायातः ? स उवाच यथास्थितवृत्तांत. राज्ञा चिंतितमसौ स्त्रिग विप्रतारितः परदेशे भ्रमन्नस्ति. ततस्तस्य स्त्रीचरितमुक्त्वा तं च स्वगृहे नीत्वा भोजनादिचिंतनं विहितं. राज्ञा चिंतितमहो असत्यदेवेऽपीश्वरादौ कीदृशी भक्तिर्वर्तते ? मया सत्यदेवेऽपि श्रीमहावीरे विद्यमानेऽपि तादृशं भक्तिप्रपंचनं न विहितमिति राजा यावचिंतयति तावदेकप्रतिहार पुरुषेण गज्ञोऽग्रे एवमुक्तं भगवान् श्रीमहावीरः समायातः. राजा परितुष्टश्चितयति, यदि नामैष मदहरो विशिष्टविवेकरहितोऽपि निजदेवपूजासंपादनार्थमेवं परिक्लिश्यते, ततोऽस्माभिरीशः सारासारविवेचनविचक्षणःसमग्रसामग्या त्रिभुवनचिंतामणिकल्पस्य श्रीमहावीरस्य विशेषेण पूजा कार्येति. ततः कल्येऽहं मर्वया तथा श्रीमहावीरं वंदिष्ये, यथा केनाप्येवं न वंदितः पूर्व. ततो द्वितीयदिवसे कृतप्रभातकृत्यः स्नातविलिप्तालंकृतदेहः स्फार रूपयौवनलावण्यनेपथ्ययुक्तः सर्वांगोपांगालंकृत्या चतुरंगिण्या सेनया सहितो यहुभिर्भत्रिसामंतः श्रेष्टिसार्थवाहैश्च परिवृतः, भंभादिवादित्रश्रेणिवधिरितदिगंतरालो गंधर्वैर्गीयमानगुणो नृत्यंतीभि For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्चराध्य यन मूत्रम् भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५५॥ विलासिनीभिः पोषितनेत्ररसो गजेन्द्रारूढो दशार्णभद्रभूपतिर्भगवतो वन्दनार्थमायातः. दशार्ण देशमा जइ शेरडोना वाडमां खेडुने त्या काम करवा रह्यो. दश गधाणा सुवर्ण कमाणो त्यारे तेने थोडुं छे एम तो लाग्युं तेथी घर तरफ न वळतां आम तेम भमतो एकदा अरण्यमा पेठो त्यां एक पीपळाना झाडतळे विसामो लेवा वेठो त्यां घोडाना खेचाणथी दशार्णभद्र राजा आची चड्या. आ मदहरने जोइ राजाए पूछ्यु के-'तुं कोण छो अने क्याथी आवे छे ? जवावमा आ मदहरे पोतानो सघळो वृत्तांत कही संभळाव्यो ते सांभळी राजा समजी गया के आने खीए छेतों छे तेथी बीचाडो आ परदेशमां भटके छे. राजाए तेने स्त्रीचरित्र संभळावी पोताना राजमां तेने लइ जइने तेना खावा पीचा बगेरेनी योजना करावी पोता पासे राख्यो. राजाए चिंतन कर्यु के-अदृष्ट देवमां आवी भक्ति करे छे अने में तो सत्यदेव महावीर विद्यमान छे तेनी भक्ति पण नथी कराती. आम राजा ज्यां चिंतन करी रह्या छे तेटलामा एक प्रतीहारे राजा आगळ आवीने खबर कह्या के-'भगवान श्रीमहाहावीर पधार्या.' राजासांभळीने घणो संतोष पाम्यो अने मनमां चिंतन करवा लाग्यो के-आ मदहर विवेक बुद्धिहीन होवा छतां पण पोताना देवनी पूजा संपादन करवा आटलो कष्ट उठावे छे तो पछी सार असारनो विवेक करवामां विचक्षण एवो हुँ तेणे तो समग्र सामग्रीवडे त्रिभुवन चित्तामणि समान श्रीमहावीरनी विशेषे करी पूजा करवी जोइये; तेथी काले हुं मारी सर्व समृद्धिथी श्रीमहावीरनी एची वंदना करूं के जेवी आज दिवस सुधीमा कोइए पण करी न होय; पछी बीजे दिवसे सवारमा प्रातःकृत्य करी नाही धोइ आखे शरीरे चंदनादि विलेपन करी प्रकट रूप लावण्य तथा वेश रचनायुक्त बनी सर्व अंग उपांगा अलंकार धारण | करी चतुरंगिणी सेना सहित घणा मंत्रिसामंतादिकने साथे लइ तेमज नगरना शेठीया तथा वेपारीओथी परिचारित अने आगळ For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५६॥ वादित्र वगेरेना नादथी दिशा प्रदेशोने अधिरित करतो आगळ गंधर्वो गान करता आवे छे तथा विलासिनीओ नृत्ऽ करे छे तेने उचराध्य नेत्रथी जोइ आनन्द पामतो हाथी उपर चडीने दशार्णभद्र राजा भगवान्ने बंदना करवा आव्या. पन सूत्रम् विशुद्धभावेन भगवान् वदिनः राजा मदहरश्च हर्ष प्राप्ती. अत्रांतरे शक्रेण चिंतितं मत्कृतया महाविभूत्याऽसौ ॥१०५६॥ 15 दशार्णभद्रः प्रतिबोधं यास्यनीति. शक ईदृशीं विभूति विकुर्वितवान्, तथाहि-ऐरावणहस्तिनोऽष्ठौ दंता विकुविताः, दंते दंतेऽष्टाष्टपुष्करिण्यो विकुर्विताः, पुष्करिण्यां पुष्करिण्यामष्टावष्टौ पद्मानि, पद्म पद्मेऽष्टाष्ट पत्राणि, पत्रे कारण्या करण्याला पवे द्वात्रिंशद्बद्धनाट्यानि. अनयो विभूत्या ऐरावणारूढेन शक्रेण प्रदक्षिणीकृत्य भगवान् वंदितः. तं तादृशं दृष्ट्वा दशाणभद्रेण चिंतितमहो खलु तुच्छोऽहं, यस्तुच्छया विभूत्या गर्व कृतवान्. यत उक्तं-अदिहभद्दा थोवेण वि । हुँति उत्तणाणीया ।। णच्चइ उत्तालमुहो हु । मूसगो वीहिमासज्ज ॥१॥ (अस्या व्याख्या-अदृष्टभद्रा नीचाः स्तोकेनायुप्ताना भवंति मातीत्यर्थः. हु इति वितर्के मषको व्रीहिमासाद्योत्तालमुख उच्चैर्मुखो नृत्यति.) विशुद्ध भावपूर्वक वंदना करी, साथे आवेलो मदहर पण वन्दन करी हर्ष पाम्यो. आ समये इन्द्रे विचार्यु के-'हुँ मारी समृदि| देखाडीश तेथी दशार्णभद्र राजा प्रतिबोध पामशे' आम विचारी इन्द्रे पोतानी समृद्धि विकुर्वी-पोताना ऐरावण हाथीना आठ दांत विका , दरेक दांते आठ आठ पुष्करिणी, एक एक पुष्करिणीमां आठ आठ पद्म, प्रत्येक पद्मे आठ आठ पान अने पाने पाने बत्रीश बत्रीश नाध्य बान्धेला; आवो विभूति साथे लइ ए ऐरावण हाथी उपर चडीने इन्द्रे आवी भगवान्ने प्रदक्षिणा लइ वंदना करी. आवा इन्द्रने जोह दशार्णभद्रना मनमां ययुके-'अहो! तो तुच्छ छु के जे तुच्छ विभूतिथी गर्व करुं छु.' कहुं छे के For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०५७॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५७॥ अदृष्टभद्र-जेणे कोइ दिवस समृद्धिमुख जोयु पण न होय तेवा-नीच पुरुषो थोडाथी पण फूलाइ जाय छे अने मदमा आवी जाय छे. चीता पाट पढी जाय के जेमके मृषक उदर व्रीहि साजना कण देखा मोडे उचुं करी नाचवा मंडी जाय छे.'१ ___ अनेन शक्रेण प्राग्भवे शुद्धो धर्मः कृतः, तत ईदृशी ऋद्धिलब्धा, ततोऽहमपि तमेव धर्म करोमि, किं ममात्र विषादेन ? उक्तं च-समसंख्याश्यवः सन् । पुरुषः पुरुषं किमन्यमभ्येति ॥ पुण्यैरधिकतरं चे-मनु सोऽपि करोतु तान्येव ॥१॥ इत्यादिसंवेगभावनया प्रतियुद्धः क्षयोपशम्प्राप्तचारित्रमोहनीयो भगवतंप्रत्येवं दशार्णभद्रोऽवादीत् , | भगवन् ! भवचारकादहं निविण्णोऽस्मि. ततश्चारित्रप्रदानेनानुग्रह मम कुरु? भगवता तदानीमेव मदहरणेन समं सब दशार्णभद्रो दीक्षितः, शक्रेण तदा वंदितः, उक्तं च श्रमणमार्गग्रहणेन त्वयैव जितं, येनेदृशी ऋद्धिः सहसा परित्यक्ता. पूर्व त्वयाऽभिमानग्रस्तेन द्रव्यवंदनं कृतमिति त्वमेव धन्यो नाहमिति दशार्णभद्रमुनेः प्रशंसां कृत्वा शक्रः स्वस्थानं गतवानिति दशार्णभद्रदृष्टांत: ११ ____ आ शक्र=इन्द्रे पूर्व भवमां शुद्ध धर्म पाळेल के तेथी तेने आवी ऋदिनी लब्धि थइ छे तो हुपण तेबोज धर्म करुं आ बाबत मारे खेद कर्ये शृंथवार्नु हतु ? कह्युछे के-पुरुष, समान संख्याना अवयवोवाळो होवा छतां बीजा पुरुष पासे केम जतो हो ? कदाच जे धनवान पुरुष पासे दरिद्र पुरुष जाय त्यारे एम माने के-धनवाने पुण्य करेल के तेथी ते श्रेष्ठ बन्यो छे तो ते दरिद्रे पण तेवा पुण्यकर्मो करवा. १, इत्यादिक संवेग भावनाकरवाथी प्रतिबुद थइ क्षयोपशमबडे चारित्रमोहनीय प्राप्त थवाथी राजा दशार्णभद्र भगवान पत्ये एम बोल्या के-'हे भगवन् ! हुं आ भवना फेराथी निर्विष्ण-कंटाळ्यो-छु माटे मने चारित्र प्रदान करीने For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥ १०५८।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आप मारो अनुग्रह करो.' तेज क्षणे भगवाने पेला साथै आवेला मदहर सहित दशार्णभद्रने दीक्षा दीघी त्यारे शक्रे तेने बन्दन अनेक के श्रमणमार्गनुं ग्रहण करीने तमे जीत्या के जेणे आवी समृद्धिनो सहसा परित्याग कर्यो. प्रथम तमे अभिमानग्रस्त न द्रव्यवन्दन कतु अने हवे प्रव्रज्या स्वीकारी भाववंदन कर्यु तेथी तमे धन्य छो. हुं तमारा तुल्य नथी. एवी रीते दशार्णभद्रमुनिनी प्रशंसा करी शक स्वस्थाने सीधाव्या. इति दशार्णभद्रनुं दृष्टांत, (११) नमी नमेइ अप्पाणं । सक्खं सक्केण चोइओ ॥ चइऊण गेहं वैदेही । सामण्णे पज्जुबढिओ ||४५ || [नमी०] वैदेही-विदेह देशना राजा नमि आत्माने नमावी साक्षात् शक्र इन्द्रे प्रेर्या तेथी ग्रहने त्यजीने श्रामण्य= साधुत्वमां स्थित था. ४५ व्या० - पुनर्हे मुने ! विदेहेषु देशेषु भवो वैदेही, विदेहदेशस्वामी नमिनामा नृपो गेहं गृहवासं त्यक्त्वा श्रामयं साधुध पर्युपस्थितः, चारित्र्योग्यानुष्ठानं प्रत्युद्यतोऽभूदित्यर्थः पुनः स मुनिः साक्षाद्ब्राह्मणरूपेण शक्रेण प्रेरितः सन् ज्ञानचर्यायां परीक्षितः सन्नात्मानं नमेइ इति नये स्थापयति, क्रोधादिकषायरहितो भवतीत्यर्थः ॥ ४५ ॥ अथ द्वाभ्यां गाथाभ्यां चतुर्णां प्रत्येकबुद्धानामेकसमये सिद्धानां नामान्याह - हे मुने ! वैदेही विदेह देशना स्वामी नमि नामे राजा गृहवास त्यजीने श्रामण्य= साधुधर्मने प्राप्त थया. चारित्र योग्य अनु. ठानमा उक्त थया. बळी ते मुनि साक्षात् ब्राह्मणनुं रूप लइ आवेला शक्रे प्रेरित थइ ज्ञानचर्चानी कसोटीमां पार उतरी आत्माने नयमां स्थापित कर्यो - अर्थात् क्रोधादि कषायरहित थया. ४५, हवे बे गाथावडे चारेप्रत्येक बुद्धो के जे एकज समये सिद्ध थया छे, तेओनां नामस्थानादि निर्देश करे छे. For Private and Personal Use Only ܛܟܢ 8 ܒ0 भाषांतर अध्य०१८ ।। १०५८॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चराध्य यन सूत्रम् | भाषांतर अध्य०१८ ॥१०५९॥ ॥१०५९॥ करकंडू कलिंगेसु । पंचालेसु य दृम्मुहो। नमीगया विदेहेसु । गंधारेसुध निग्गई ॥ ४६ ।। एवं नरिंदवसहा | निक्खता जिणमामणे ॥ पुत्ते रज्जे ठवेऊणं । सामन्ने पज्जुवटिया ॥४७॥ (करकंडू) (यव) कलिंग देशमा करकंडू, पांचाळ देशमा द्विमुख, विदेह देशमां नमिराजा अने गांधार देशमां नगाति; ४६ एम नरेन्द्रमां वृषभ-श्रेष्ठ-ए चारे प्रत्येकवुद्ध महापुरुषो जिनशासने विषये श्रद्धा करी नीकल्या अने राज्य उपर पोतपोताना पुत्रने स्थापित करी श्रामण्य चारित्रमा पर्युपस्थित थया. ४७ व्या०-हे मुने! करकंडू राजा कलिंगेषु देशेष्वभूदित्यध्याहारः, च पुनः पांचालेषु देशेषु द्विमुखो नृपोऽभूत् विदेहेषु देशेषु नमी राजाभूत , च पुनर्गधारेषु गंधारनामदेशेषु निर्गतिनामा राजाभूत्. एते चत्वारःकरकंडुद्विमुखनमिनिर्गतिनामानो नरेन्द्रबृषभा राजमुख्याः पुत्रान राज्ये स्थापयित्वा पश्चाजिनशासने जिनाज्ञायां श्रामण्ये चारित्रे पर्युपस्थिताः, चारित्रयोग्यक्रियानुष्ठाननत्पराः संतो निष्कांताः संसारान्निःसृताः, भवभ्रमणाद्विरता आसन्नित्यध्याहारः, सिद्धि प्राप्ता इति भावः एतेषां चतुर्णा प्रत्येकबुद्धानां कथा प्रसंगतः पूर्व नमेरभ्ययनतो ज्ञेया. ॥४६॥४७॥ हे मुने ! करकंडू राजा कलिंग देशमा 'थया' (एटलो अध्याहार छे) वळी पांचाळ देशमां द्विमुख राजा थया तथा विदेह देशने विषये नमि राजा यया अने गांधार नामक देशमां नगाति राजा थया. आ चारे करकंडू, निमुख, नमि तथा नगाति; चारे नरेन्द्रवृषभ एटले राजाओमा मुख्य गणाता नृपतिनो पोतपोताना राज्य उपर पुत्रोने स्थापित करी पछी जिनशासन-श्रामण्य= | चारित्रमा पर्युपस्थित=निष्ठावाला थया. चारित्र योग्य क्रियानुष्ठानमां तत्पर थइ नीकल्या; अर्थात् संसारथी छुटा थइ भवभ्रमणथी For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य पन सूत्रम् ॥१०६०॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६०॥ لا विराम पाम्या. मिद्धि पाम्या एवो भावार्थ छे. आ चारे प्रत्येकबुद्धोनी विस्तीर्ण कथा प्रथम नमिना अध्ययनमा निरूपण कराइ |JE गइ छे ते ते अध्ययनथी जाणी लेवानी छ. ४६-४७ सोवीररायवेसहो । चत्ताण मुणी चरे ॥ उदायणो पब्बाओ। पत्तो गइमणुत्तरं ॥४८॥ (सोवीर०) सौवीर देशना राजवृषभ-धेष्ठ राजा उदायन बधुं त्यजीने प्रव्रजित थया अने मुनि-चारित्र आचरी अनुत्तर गतिने प्राप्त थया४८ व्या०-सौवीरराजवृषभः, सौवीराणां देशानी राजा सौवीरराजः, स चासो वृषभश्च सौनोरराजवृषभो राज्यभारधरणसमर्थः सौवीरदेशेषु भूपमुख्या, एतादृश उदायननामा राजा वीतभयपत्तनाधीशो मौनं मुनिधर्ममाचरत्. किं कृत्वा ? राज्यं परिहत्य. स चोदायन: प्रजिनः सन्ननुत्तरां प्रधानां गतिं प्राप्तः ॥४८॥ सौवीर देशना राजवृषभ राज्यभार धारण करवा समर्थ होवाथी वृषभ समान, अर्थात् सौवीर देशना राजाओमां मुख्य गणाता उदायन नामना राजा जे वीतभयपत्तनना अधीश इता तेणे मौन मुनिधर्म आचरण कों. केम करीने ? राज्यने त्यजीने ते उदायन राजा प्रवजित थइ अनुत्तरा=पधानगतिने प्राप्त यया. ४४ अत्रोदायनभूपदृष्टांत:--भरतक्षेत्रे सौवीरदेशे वीतभयनामनगरे उदायनो नाम राजा, तस्य प्रभावती राज्ञी, तयोर्येष्टपुत्रोऽभीचिनामाभवत्. तस्य भागिनेयः केशीनामाभूत. स उदायनराजा सिंधुसौवीरप्रमुखषोडशजनपदानां, दीतभयप्रमुखत्रिशतत्रिषष्टिनगराणां महासेनप्रमुखाणां दशराज्ञां बद्धमुकुटानां छत्राणां चामराणां चैश्वर्य पालयन्नस्ति, इतश्चंपायां नगर्या कुमारनंदी नाम सुवर्णकारोऽस्ति. स व स्त्रीलंपटो यत्र यत्र सुरूपां दारिकां पश्यति खाजाचालामाका الفنالهادفنه ليل وصفحاتنا الخالد For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Si Kailasagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्य०१८ उत्तराध्य जानाति वा, तत्र तत्र पंचशससुवर्णानि दत्वा तां परिणयति. एवं च तेन पंचशतकन्याः परिणीता, एकस्तंभं प्रासादं कारयित्वा स ताभिः समं क्रीडति. तस्य च मित्रं नागिलनामा श्रावकोऽस्ति. अथ पञ्चशैलदीपवास्तव्यहामाप्रहामायन सूत्रम् व्यंतयौँ स्तः, तयोर्भर्ता विन्मालिनामदेवोऽस्ति, सोऽन्यदा च्युतः. ताभ्यां चिंतितं कमपि व्युग्राहयावः, स आव॥१०६१॥ f] योभर्ता भवति. स्वयोग्य पुरुषगवेषणायेतस्ततो व्रजंतीभ्यां ताभ्यां चंपानगां कुमारनन्दी सुवर्णकारः पंचशतस्त्रीपरि वृतो दृष्टः. ताभ्यां चिंतितमेष स्त्रीलंपटः सुखेन व्युग्राहयिष्यते. ___अत्रे उदायन राजानुं दृष्टांत कहे छे-आ भरतक्षेत्रमा सौवीर देशने विषये वीतमय नामे नगर हतु तेमा उदाय नामे राजा Pाहता ते सिन्धु सौवीर आदिक १६ देशोना तथा वीतभय आदिक ३६३ नगरोना पालक हता, अने मस्तके मुकुट धारण करनारा छत्र चामरादि ऐश्वर्य युक्त दश राजाओना पालक-उपरी हता. आ समयमां चम्पानगरीमा कुमारनंदी नामे सोनी रहेतो इतो ते घणोज स्त्रीलंपट होवाथी ज्यां त्यां मुरूपा कन्या देखे के जाणे त्या त्यां पांचसो सोनामहोरो आपीने ते कन्या परणे, भाम करता तेणे पांचसो कन्याओ परणी भेगी करी. एक स्तंभ प्रासाद करावीने तेमां ए स्त्रीओ साथे क्रीडा करतो. तेनो मित्र एक नागिल नामनो श्रावक हतो. एवामा एम बन्यु के पञ्चशैलद्वीपमा वमती हासा तथा महासा नामनी बे व्यन्तरीओ हती ते बेयनो भर्ती एक विद्युन्माली नामनो देव हतो ते काळे करी च्युत थयो ते वारे पेली वे व्यंतरीओए विचार्य के हवे कोकने पकडवो जोइए के जे आपण बेयनो भा थाय, त्यारे ते बेय व्यन्तरीओ पोताने योग्य बरनी शोधमां फरवा नीकळी पडी. आम तेम फरतां तेओए | चंपानगरीमा कुमारनन्दी सोनी पांचसो खीओथी घेरायेलो दीठो तेने जोइने आ बन्नेए विचार्यु के आ स्त्रीलंपट सहेलाइथी सपाटामां For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbabirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥१.६२॥ अध्य०१८ ॥१० टेड शकाशे. आम धारी ते बन्ने सोनी पासे आवी. कुमारनन्दी भणति के भवत्यौ ? कुतः समायाते? ते आहतुरावां हासाग्रहासादेव्यो, तदुपमोहितः कुमारनंदी सुवर्णकारस्ते देव्यौ भोगार्थ प्रार्थितवान्. ताभ्यां भणितं यद्यस्मद्भोगकार्य तदा पंचशैलदीपं समागच्छेः. एवं भणित्वा ते देव्यावुत्पतिते, गते च स्वस्थानं. अथ स राज्ञः सुवर्ण दत्वा परहं वादयतिस्म, कुमारनन्दीसुवर्णकारं यः पंचशैलदीप नयति तस्य स धनकोटिं ददाति. एकेन स्थविरेण तत्पटहः स्पृष्टः, कुमारनंदिना तस्य कोटिधनं दत्तं. स्थविरोऽपि तद्धनं पुत्राणां दत्वा कुमारनन्दिना सह यानपात्रमारूढः समुद्रमध्ये प्रविष्टः, यावरे गतस्तावदेकं वर्ट दृष्टवान , स्थविर उवाच तस्य वटस्याधो वाहनं निर्गमिष्यति, नत्र जलावतोंऽस्तीति वाहनं भक्ष्यति, त्वं त्वेतवटशाखामाश्रयः, बटेऽत्र पंचशैलद्वीपाद्भारंडपक्षिणः समायास्यंति, संध्यायां तच्चरणेपु स्वं वपुः स्ववस्त्रेण दृढं यध्नीयाः, ते च प्रभाते इस उद्दीनाः पञ्चशैलं यास्यंति, त्वमपि तैः समं पंचशैलं गच्छेः, स्थविरेणैवमुच्यमाने तबाहनं वटाधो गतं. कुमारनंदिना वटशाखाबलंवनं कृतं, भग्नं च तद्वाहनं. कुमारनन्दी तु भारंडपक्षिचरणावलम्बेन पञ्चेशले गतः. सोनीए पूच्यु के तमे घे कोण छो ? अने क्याथी आवो छो? ते बोली के अमे हासा तथा प्रहासा वे देवीओ छइए आ बन्नेना रूपथी मोहित थयेल कुमारनन्दी सोनीए तेओनी पासे भोगमार्थना करी त्यारे बनेए का के-जो अमारी साथे भोगविलास करवा होय तो पश्चशैलीद्वीप स्थान छे त्या आवद्यु; आटलु बोली ते बेय देवीओ आकाशमा उडीने पोताने स्थाने गइ पछी सोनीए राजाने सुवर्ण आपी गाममा पटह (पडह) वजडाव्यो के-कुमारनन्दी सोनीने जे पञ्चशैलद्वीपे लइ जाय तेने एक कोटि धन आपशे. For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६३।। उत्तराध्य PE एक वृद्ध ए ढोलने स्पर्श करी बीडं झील्यु. कुमारनंदीए तेने कोटि धन आप्यु ए वृद्ध पण पोताना पुत्रोने ते धन सोपी कुमारन. न्दीनी साथे वहाणमां बेसी समुद्रमध्ये प्रविष्ट थया. धणे दूर जतां एक बडनुं वृक्ष नजरे पड्युत्यारे वृद्धे कड्यु के-आ वड देखाय यन सूत्रम् छे तेनी हेठे ज्यारे आ बहाण जाय त्यारे तमारे ए बडनी शाखाने पकडी लटकी रहे. कारण के ए ठेकाणे पाणीमां आवत्त-घु॥१०६३॥ It मरी छे तेथी आ वडाण भांगी भुको थइ जशे. ए वडनी डाळे तमे लटकता हशो त्यां पञ्चशैलद्वीपथी भारंडपक्षीओ आवशे; संध्याAE काळे तमारे तमाएं शरीर ते पक्षीना चरणमां वस्त्रवडे दृढ रीते बांधी देवू ज्यारे सवारे ते अहींथी उडीने पञ्चशैलद्वीपे जशे ते all बखते तमे पण पंचशैलद्वीपे पहोंची जशो. ए वृद्ध आटली वात करी रह्यो त्यां तो वहाण वड नीचे गर्दा के झट कुमारनन्दी वडनी हाळ पकडी लटकी रह्यो, वहाणतो जलनी घुमरीमां अटवाइ भांगी नष्ट थयु. कुमारनन्दो भारंड पङ्गीना चरणना अवलम्बनथी पंचशैलद्वीपे पहोंची गयो. हासापहासाभ्यां दृष्टः, उक्तं च नवैतेन शरीरेण नावाभ्यां भोगो विधीयते, स्वनगरे गत्वांगुष्टत आरभ्य मस्तकं यावज्ज्वलनेन स्वं शरीरं त्वं दह? यथा पंचशैलाधीशो भूत्वाऽस्मद्भोगेहां पूर्णीकुरु? तेनोक्तं तत्राहं कथं यामि? ताभ्यां करतले समुत्पाट्य तन्नगरोद्याने म मुक्तः. ततो लोकस्तं पृच्छति, किं त्वया तत्राश्चर्य दृष्टं ? स भगति, दृष्टं भुनमनुभूतं पंचशैल द्वीपं मया, यत्र प्रशस्ते हासाग्रहासाभिधे देव्यौ स्तः. अथात्र कुमारनन्दिना स्वांगुष्टेऽग्नि मोचयित्वा मस्तकं यावत् स्वशरीरं ज्वालयितुमारब्धं, तदा मित्रेणायं वारितः, भो मित्र ! तवेदं कापुरुषजनोचितं चेष्टितं न युक्तं. महानुभाव! दुर्लभ मनुष्यजन्म मा हारय ? तुच्छमिदं भोगसुखमस्ति. किं च यद्यपि त्वं भोगार्थि तथापि For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir JE भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६४॥ J सद्धर्मानुष्ठानमेव कुरु ? यत उक्तंउत्तराध्य-DE हासा तथा प्रहासा बन्नेए दीठो त्यारे का के-तमारा आ शरीरथी अमारी साये भोग न थइ शके, तमे पाछा तमारे नगर यन सूत्रम् BE जाओ अने पगना अंगुठाथी लइ मस्तकपर्यंत बळता अग्निवडे आलु शरीर बाळो त्यारे तमे फरी आ पंचशैलना अधीश बनीने अमारी ॥१.६४॥ 51 साये भोग भोगववानी इच्छा पूर्ण करी शकशो. सोनी बोल्यो के-हवे पाछो हुं मारे गाम केम जइ शकुं ? त्यारे ए बेमांनी एक र देवीए पोतानी हाथेळीवती उपाडीने ए सोनीने तेना नगरना उद्यानमां की दोधो. लोको तेने पूछवा लाग्या के त्यां तमे शृं JE] आश्चर्य जायु? तेणे कयु-में पंचशैलद्वीप सांभळ्यो हतो ते दीठो अने अनुभव्यो पण, ज्यां अति वखाणवा योग्य हासा तथा | PE प्रहासा नामनी बे देवीओ बसे छे. हवे अहीं आवीने कुमारनन्दी सोनीए तो पोताना पगना अंगुठे अनि मुकी मस्तक सुधी आखं शरीर वाळवा मांडयु, त्यारे तेना मित्र नागिल मामना श्रावके रोक्यो अने का के-'हे मित्र! तारुं आ कुत्सित पुरुषना जेवू चेष्टित उचित नथी. महानुभाव ! आ मनुष्य जन्म दुर्लभ छ तेने हारी जा मां आ भोग सुख तुच्छ छ यद्यपि तुं भोगार्थी छो तथापि सद्धर्मना अनुष्ठान करो. कह्यु छ के धणओ धणत्थियाणं । कामत्थीणं च सव्वकामकरो। सग्गापवग्गसंगम-हेऊ जिणदेसिजो धम्मा ॥ १ ॥ इत्यादिशिक्षावादेर्मित्रेण स वार्यमाणोऽपि इंगिनीमरणेन मृतः पंचशैलाधिपति र्जातः. तन्मिन्त्रस्य श्रावकस्य महान् खेदो जातः, अहो! भोगकार्य जना इत्थं क्लिश्यंति. जानन्तोऽपि वयं किमत्र गार्हस्थ्य स्थिताः स्म इति स श्रावकः प्रवजितः, क्रमेण कालं कृत्वाऽच्युत्तदेवलोके समुत्पन्नः. अवधिना स स्ववृत्तांतं जानातिस्म. अन्यदा नन्दीश्वरयात्रार्थ For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घन सूत्रम् ॥१०६५ ॥ क www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वे देवेन्द्राश्चलिताः, स श्रावकदेवोऽप्यच्युतेन्द्रेण समं चलितः, तदा पंचशैलत्रिप्रस्वस्वा देवस्य गले पटहो लग्नः, उत्तारितो नोत्तरत्ति. हासाप्रहामाभ्यामुक्तमियं पंचशैलद्वीपवासिनः स्थितिः, यबंदीश्वर द्वीपयाarrafoneri देवेंद्राणां पुरः परहे वादयन् विद्युन्मालिदेवस्तत्र याति तनस्त्वं खेदं मा कुरु ? गललग्नमिमं पद वादयन् गीतानि गायनीभ्यामावाभ्यां सह नन्दीश्वरद्वीपे याहि ? ततः स तथा कुर्वन्नंदीश्वरद्वीपोडेशेन चलितः श्रावकदेवस्तं मखेदं पटलं वाढतं दृष्ट्ोपयोगेनोपलक्षितवान्, भगति च भो त्वं मां जानासि ? म भणति कः शक्रादिदे वान जानाति ? ततस्तं श्रावकदेवस्तस्य स्वप्राग्भवरूपं दर्शयतिस्म, सर्व पूर्ववृत्तांनमाख्यानि ततः संवेगमापन्नः म देवो भणति, तदानीम किं करोमि ? श्रावकदेवो भगति श्रीवर्धमानस्वामिनः प्रतिमां कुरु ? यथा तब सम्यक्त्वं सुस्थिरं भवति, यत उक्तं- जो कारवेड़ जिणपडिमं । जिणाण जिगरागदोसमोहाणं । सो पावइ अन्नभवे । सुहजणणं धम्मवररयणं ॥ १ ॥ अनच - दारिद्द दोहग्गं । कुजाइकुसरीरकुगःकुमईओ || अवमाणरोबसोआ । नटुिं जिण विवकारीण ॥ २ ॥ "जिनेन्द्रे देशानारूपे कहेला धर्म धनार्थीने धन देनारो, कामार्थीनी सर्व कामना पुरनारो तथा स्वर्ग अने अपवर्ग=मोक्ष=नो हेतु . १" इत्यादि शिखामणनां वचनोथी मित्रे वार्यो तो पण ए सोनी इंगिनी मरणथी मृत यह पंचशैलनो अधिपति थयो. तेना ते श्रावक मित्रने बहुज खेद थयो के 'अहो ! भोग माटे जनो आम कष्ट वे छे ? अरे जाणता छतां शामाटे आपणे आग्रहमां पडी रह्या छइए ? आम वैराग्य पामी ते श्रावक नागिल माजित थयो अनेक काळ करी अच्युत देवलोकमां उत्पन्न For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥ १०६५ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०६६ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थयो अवधिज्ञानथी ते पोतानुं वृत्तांत जाणतो हतो. एक समये नन्दीश्वर यात्रार्थ सर्वे देवो चाल्या त्यारे ते श्रावक देव पण अच्युत | देवेन्द्रनी साथे चाल्यो, आ बखते पेलो सोनी जे पंचशैलनो अधिपति थयो तेनुं नाम विद्युन्माली के ते देवना गलामां एक पटह= ढोल हतो तेणे नारवा मांड्यो पण उतरे नहीं ते जोड़ने दासा तथा महासाए कहां के पंचशैलद्वीपवासीनी आज स्थिति छे केनन्दीश्वरी यात्रार्थे ज्यारे देवेंद्रो चाले तेनी आगळ विद्युन्मालीदेव पटड वगाडता चाले माटे तगे खेद जरायम करो अने गळामां बांधेलो ढोल बगाडता आवो अने अमे बेय गान करशुं तेनी साथे नन्दीश्वरद्वीपे जवाशे. त्यारे तेणे ते प्रमाणे करतां नन्दी द्वीप भी सर्वे चाल्या. आ समये पेलो नागील श्रावक देव थयो छे तेणे आ सोनी = विद्युन्मालीने कचवातां कचवातां ढोल बगाडतो जोयो त्यारे तेने उपयोगवडे जाणी लइने कछु के-केम तुं मने जाणे हे?' आ सांभळळी सोनी बोल्यो के - ' शक्रादि देबोने कोण न जाणे ?' ते वारे श्रवकदेवे तेने पूर्व भवनुं रुप देखाडी सर्व वृत्तांत को तेथी ते देव संवेग पामी बोल्यो 'त्यारे हवे शुं करूं ?' श्रावक देवे कह्यु' के 'श्रीवर्द्धमानस्वामीनी प्रतिमां करावो जेथी तमारुं सम्यक्त्व सुस्थिर थाय. कछु छे के - 'रागद्वेष तथा मोह जेणे जीत्या छे एवा जिनोनी जे प्रतिमा करावे ते अन्यभवे सुख उत्पन्न करे तेवुं धर्म फल पामे छे. १ वळी पण क छे के-"जिनबिम्ब करावनारने दारिद्र्य, दौर्भाग्य' कुजाति, कुशरीर, कुगति, कुमति, अपमान, रोग तथा शोक, एमांनुं कथं न थाय. '२ ततः सविद्युन्माली महाहिमवच्छिखराट्रोशीर्षचंदनदारुं छेदयित्वा श्रीवर्धमानस्वामिप्रतिमां निर्वर्तितवान्, hi कालं प्रतिमा पूजिता, तत आयुःक्षये तां च मंजूषायां क्षिप्तवान् तस्मिन्नवसरे षण्मासान् यावदितस्ततो भ्रमद्वाहनं वायुभिरास्फाल्यमानं स विलोकितवान, तत्र गत्वा चासौ तमुत्पातमुपशामितवान, सांपात्रिकाणां च तां For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६६॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१८ ॥१.६७॥ मंजुषां दत्तवान् , भणितवांश, देवाधिदेवप्रतिमा चावास्ति. ततस्तां लात्वा सांयात्रिका वीतभयपत्तनं प्राप्ताः, तत्रोउत्तराध्य दायनराजा तापसभक्तस्तस्य सा मजूषा दत्ता, कथितं च सुरवचनं, मिलितच तत्र ब्राह्मणादिकभूरिलोको भणति JE/ च गोविंदाय नम इत्युक्ते मञ्जूषा नोद्घटिता. तत्र केचिद्भणत्यत्र देवाधिदेवश्चतुर्मुखो ब्रह्मास्ति. अन्ये केचिद्वदंत्यत्र ॥१०६७॥ चतुर्भुजो विष्णुरेवास्नि, केचिद्भणत्यत्र महेश्वरो देवाधिदेवोऽस्ति, अस्मिन्नवमरे तत्रोदायनराजपट्टराज्ञी चेटकराजपुत्री idl प्रभावतीनाम्नी श्रमणोपामिका तत्रायाता. तया तस्या मंजूषायाः पूजां कृत्वैवं भणितं-गयरागदोसमोहो । मन्वन्नू अट्ठपाडिहरसंजुत्तो ॥ देवाहिदेवगुरुओ। अइरा मे दसणं देर ॥१॥ एवमुक्त्वा तया मंजूषायां हस्तेन परशुप्रहारो दत्तः, उद्घटिता सा मंजूषा, तस्यां दृष्टाऽनीवसुंदराऽम्लानपुष्पमालालंकृता श्रीवर्धमानस्वामिप्रतिमा, जाता जिनशासनोन्नतिः, अतीवानंदिता प्रभावत्येवं बभाण-सव्वन्नू सोमदंसण | अपुण्णभव भवियजणमणानंद ।। जय चिंतामणि जगगुरु । जय जय जिण वोर अकलंको ॥१॥ तत्र प्रभावत्यांऽतःपुरमध्ये चैत्यगृहं कारितं, तत्रेयं प्रतिमा स्थापिता. तां च त्रिकालं सा पवित्रा पूजयति. | पछी ते विद्युन्मालीए महोटा हिमालयना शिखर उपरथी गोशीर्ष नामक चंदन जातिनुं वृक्ष कपारी मगाव्युं अने तेनी श्रीव मानस्वामीनी प्रतिमा बनवावी केटलोक काळ ते प्रतिमानी पूजा करी. आयुःक्षय थतां ते मूर्ति पेटडीमा राखी, तेटलायां छ महीनाथी वायुवडे आम तेम अथडातुं वहाण तेणे दीडं. त्यां जइ तेणे ए वायुने लीधे जे उत्पात (तोफान) यतो हतो तेने उपशांत कर्यो अने वहाणवटीने ए पेटडी आपीने का के-आमां देवाधिदेवनी प्रतिमा छे. ते लइने पेला वहाणवाळा वीतभय पत्तन गया For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥ १०६८। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तपस्विना परम भक्त उदायन राजाने ते पेटडी आपी अने विद्युन्माली देवे कहेलुं वचन क. त्यां ब्राह्मणादिक घणा लोको मळ्या अने 'गोविन्दाय नमः' एम बोल्या पण ते पेटडी उवडी नहि. कोइ बोल्या के आमां देवाधिदेव चतुर्मुख ब्रह्मा के बीजा बोल्या के-आमां चतुर्भुज विष्णुज छे.' वळी कोइ बोल्या के-महेश्वर देवाधिदेव छे ते आ पेटडीमां छे आ वखते उदायन राजानी पट्टराणी चेटक राजानी पुत्री प्रभावती नामे हती ते श्रमणनी उपासक हती ते त्यां आवी तेणीए ते पेटडीनी पासे एम बोली के 'राग द्वेष तथा मोह जेना गत थया छे बळी जे सर्वज्ञ होइ अष्ट प्रतिहार्य संयुक्त छे एवा देवाधिदेव गुरु शीघ्र मने दर्शन दीओ.' आम बोलीने तेणीए ए पेटडी उपर पोताने हाये कुहाडानो प्रहार कर्यो के ते पेटडी उघडी गइ एटले अंदर रहेळी अत्यंत सुंदर तथा न करमाय तेवां पुष्पोनी माळावडे शोभती श्रीवर्द्धमानस्वामिनी प्रतिमा जोवामां आवी. जिनशासननी उन्नति यह प्रभावती घणीज आनन्द पामती बोली - " हे सर्वज्ञ ! हे सौम्यदर्शन ! अपुण्यभव भविकजनना मनने आनन्द देनारा हे चिन्तामणिरूप जगद्गुरु ! हे अकलङ्क जिनवीर ! तमे जय पामो. १" पछी प्रभावतीए अंतःपुरमा चैत्य बनवावी तेमां ए प्रतिमा स्थापित करी. आ प्रतिमानी प्रभावतो त्रिकाळ पूजा करवा लागी. अन्यदा प्रभावती राज्ञी तत्प्रतिमायाः पुरो नृत्यति, राजा च वीणां वादयति तदानीं स राजा तस्य मस्तकं न न पश्यति, राज्ञोऽधृतिर्जाता, हस्ताद्वीगा पतिता, राज्ञ्या पृष्टं किं मया दुष्टं नर्तित ? राजा मौनमालम्य स्थितः राज्या अतिनिर्बधेन स उक्तवान्, यत्तव महतकमपश्यन्नहं व्याकुलीभूतो हस्तद्वीणां पातितवान् सा भगति मया सुचिरं श्रधर्मः पलितः, न किंचिन्मम मरणाङ्गीतिरस्ति अन्ददा सत्प्रतिमापूजनमर्थः स्नाता सा राजीव For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥ १०६८। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०६९॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६९॥ समानारमा वखाण्यानयेल्युवाच, नया च दनानि, परं प्रभावती दृष्टिभ्रमेण, मया च रक्तानि वस्त्राण्यानीतानीति ज्ञात्वा क्रुद्धा माहू, जिनगृहे प्रविशंत्या मम रक्तानि वस्त्राणि ददासीत्युक्त्वा चेटीमादर्शण हसवती, मर्मणि तत्पहारलग्नात्मा मृता. प्रभावत्या चिंतितं हा!मया निरपराधत्रमजीववधकरणाद् व्रतं भग्नं. अतः परं किं मे जीवितव्येन ? ननस्नया राझ्या राज्ञ उक्तमहं भक्तं प्रत्याख्यामि. राज्ञा नेवेति प्रतिपादितं. तया पुन: पुनस्तथेयोच्यते, तदा राज्ञोक्तं, यदि त्वं देवी भूत्वा मां प्रतियोधयमिनदा संभ प्रत्याख्याहि ? राझ्या तद्रचोंगीकृतं. भक्तं प्रत्याख्याय समाधिना मृत्वा मा देवलोकं गता देवोऽभूत. एक समये ते प्रतिमा आगळ प्रभावती नृत्य करती हती अने राजा उदायन वीणा वगाडता हता ते वारे राजाए प्रभावतीनु | मस्तक न दीर्छ तेथी राजा अधीरो बन्यो के हाथमांथी वोणा पडी गइ. राणीए पूछ्यु-"केम मारा नृत्यमां कई दोष थयो?" आ सांभळी राजा मौन बेसी रह्या. त्यारे राणीए अति हठथी कारण जाणवा आग्रह को त्यारे राजाए "में तारूं मस्तक न दीर्छ तेथी व्याकुल थयो एटले हाथमांथी वीणा पडी गइ" आ खरी हकीकत कही दीधी ते सांभळीने प्रभावती बोली के-'में तो घणा | काळ सुधी श्रावक धर्म पाळ्यो के मने मरणनी जराय व्हीक नथी. अन्पदा प्रभावती ते प्रतिमा पूजवा नाही त्यारे पोतानी दासीने "मारे पहेरवाना वस्त्र लइ आव" आम का ते दासीए आणी आपेला वन प्रभावतीए पोतानी दृष्टिना दोपथी रातां जाणीने जरा क्रोध करीने दासीने कई के-'मने जिनगृहमा प्रवेश करवा टाणे आ रातां वस्त्र केम दीधां?' एम बोली पासे पडेलो अरिसो उपाडीने ते दासीने मार्यो ते पेली दासीने. मर्मस्थानमा लागवाथी दासी मरी गइ. प्रभावतीने लाग्यु के-'हा ! में निरपराध त्रस For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७०॥ JE] जीवनो वध कर्यो तेथी मारुं व्रत भग्न थयु, हवे मारे जीबीने शुं करवू ?' आम विचार आवतां राणीए राजाने का के-'हु आंजथी उत्तराध्य अन्ननुं प्रत्याख्यान करुं हुं.' राजाए ना पाडी तो पण ते तो फरी फरीने एर्नु एज बोलवा लागी त्यारे रानाए का के-जो तुं यन सूत्रम् मुआ पछी देवी थइने मने प्रतिबोध करतो भले भक्त-अन्ननुं प्रत्याख्यान कर.' राणीए राजानुं कहे, अंगीकार कर्यु ते वारे अन्ननुं ॥१०७०॥ प्रत्याख्यान करी समाधिवडे मरण पामी देवलोके जइ त्या देव थइ. तां च प्रतिमा कुजा देवदत्ता दासो त्रिकालं पूजयनि. प्रभावतीदेवस्तृदायनं राजानं प्रनियोधयति, न च स सं. बुध्ध्यते. राजा तु तापसभक्तोऽतः स देवस्तापसरूरं कृत्वाऽमृतफलानि गृहीत्वाऽागतो राज्ञे दत्तवान्. राज्ञा तान्यास्वादितानि, पृष्टश्च तापसः कैतानिफलानि ? तापमो भणति, एतन्नगराभ्यर्णेऽस्मदाश्रमोऽस्ति, तत्रैतानि फलानि मंति. राजा तेन सममेकाक्येव तत्र गतः, परं तत्र तापसः स तुमारब्धः. राजा ततो नष्टस्तस्मिन्नेव घने जैनसाधून ददर्श, तेषामसौ शरणमाश्रितः. भयं मा कुर्विति तैराश्वासितः, तापसा निवृत्ताः, साधुभिश्च तस्यैवं धर्म उक्तः ते राणीनी पूज्य मूर्तिनी देवदत्ता नामनी कुब्जा (वक्रांगा) दासी त्रणे काळ पूजा करवा लागी प्रभावतीनो जोव जे देव PEथयो ते देव उदायन राजाने प्रतिबोध दीये छे पण राजाने जराय बोध लागतो नथी, कारण के राजा तापस भक्त हतो तेथी ते देव तापसरूप धारण करी अमृतफळो साथे लइने राजा पासे आवी ते फळो दीघा ते राजाए आस्वादन कर्या अने ते तापसने पूछ्यु के-'आ फळ क्यां छे? तापसे कयुं-'आ नगर समीपे अमारो आश्रम के त्यां आ फळो थाय छे.' राजा ते तापसनी साथे एकलोज त्यां गयो पण त्यां तापसाए तो तेने हणवा मांड्यो तेथी त्यांथी नासोने राजा तेज वनमा आगळ चाल्यो त्यां जैनसाधु For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७१॥ ओने दीठा, अने गजाए ते साधुभोनुं शरण लीधुं. 'जराय भय मा पामशो' एम तेश्रोए आश्वासन आप्यु एटले तापसो पाछा उत्तराध्य-12 चाल्या गया अने साधुओंए तेने धर्म उपदेशवा मांड्योयन सूत्रम् ॥१०७१॥ धम्मो चेवेत्थ मत्ताणं । मरणं भवमायरे ।। देवं धम्म गुरुंचेव । धम्मस्थी य परिक्वए ॥१॥ दमभट्टदोमरहिओ । देवो धम्मोवि निउणयसहिओ ॥ सुगुरू य वंभयागे । आरंभपरिग्गहा विरओ ॥ ५ ॥ इत्यादिकोपदेशेन स राजा प्रतियोधितः, प्रतिपन्नो जिनधर्मः, प्रभावतोदेव आत्मान दर्शयित्वा राजानं च स्थिरीकृत्य स्वस्थाने गतः. एवमुदायनराजा श्रावको जाता. इतश्च गंधारदेशवास्तव्यः मत्यनामा श्रावकः मर्वत जिनजन्मभूम्पादितीर्थानि वंदमानो चैनाढ्यं यावद्गतः, नत्र शाश्वनपनिमावंदनार्थमुपवासत्रयं कुलवान, ततस्तुष्टया नदधिष्ठातृदेव्या नस्य शाश्वनजिनप्रतिमा दर्शिताः, तेन च चंदिताः अथ नया देव्या तस्मै श्रावकाय कामित गुटिका दत्ता, ततः म निवृत्तो वीनभयपत्तने जीवितस्वामिप्रतिमां वंदितुमायातः, गोशीर्षचंदनमागी तां स ववंदे. देवात्तस्यातोमारो रोग उत्पन्नः, कुब्जया दास्या स प्रतिचरितः स नीरुग् जातः.तुष्टेन तेन तस्यै कामगुणिता गुटिका दत्ताः,कथितश्च तामा चिनिवार्थमाधकम्भावः, ___'आ लोकमां धर्म सम्यकप्रकारे प्राणरक्षणरूप छे, भवसागरमा शरणभूत , धर्मार्थी पुरुष देव धर्म तथा गुरुने परीक्षा करी स्वीकारे.' १ अढार दोष रहित होय ते देव, तथा निपुण द्रय सहित धर्म, अने ब्रह्मचारी तथा आरंभ परिग्रहथी विरत तेवा गुरु; | (अंगीकार योग्य समजवा.) २ इत्यादिक उपदेशवडे ते राजाने प्रतिबोधित कर्या त्यारे राजाए जिनधर्म अंगीकार कर्यो. पछी देव ययेली प्रभावताए पोतार्नु स्वरूप दर्शावी राजाने स्थिर करीने पोताने स्थाने गया. एम उदायन राजा श्रावक थया. एवामां गांधार For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HALDIO भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७२।। Ut देशनो रहेवासी एक सत्य नामनो श्रावक सर्वत्र जिनोनी जन्मभूमि आदिक तीर्थोनी बंदना करतो करतो वैनाढ्य पर्वत उपर जइ उत्तराध्य | पहोंच्यो, त्यां शाश्वत प्रतिमाओना वंदन माटे त्रण उपवास कर्या त्यारे ते स्थाननी अधिष्ठात्री देवताए प्रसन्न थइने शाश्वतजिनसत्रम् प्रतिमाओ देखाडी एटले ए सत्य श्रावके वंदना करी, अने अति तुष्ट थयेली ए देवीए ए श्रावकने कामित गुटिकाओ आपी ते ॥१०७२।। ISE लइने ए श्रावक त्यांथी पाछो बळीने वीतभय नगरमा जीवित स्वामीनी प्रतिमाने वांदवा आव्यो, त्यां गोशीर्ष चंदनमयी जे प्रतिमा हती तेनुं ते सत्य श्रावके वंदन कयु-दैवयोगे ते श्रावकने त्यां अतिसार व्याधि थयो, तेनी कुब्जा दासीए सारवार करी तेथी साजो थयो, आथी तेणे प्रसन्न थइने पातानी पासे जे कामगुटिका हती ते कुब्जा दासोने आपी, अने ते मनमां चिंतन करीये ते अर्थनी सिद्धि करे छे एत्रो ए गुटिकामां चमत्कार छ ए पण तेने कयु. अन्यदा सा दास्यहं सुवर्णवर्णा सुरूपा भवानीति चिंतयित्वैकां गुटिकां भक्षितवतो, सुवर्णवर्णा सुरूग च जाता. ततस्तस्याः सुवर्णगुलिकेति नाम जातं. अन्यदा मा चिंतयति भोगसुखमनुभवामि, एष उदायनराजा मम पिता, अपरे मत्तुल्याः केऽपि राजानो न संतीति चंडयोतमेव मनसि कृत्वा द्वितीयां गुटिकां भक्षितवती. तदानीं तस्य चंडप्रयोतस्य स्वप्ने देवनया कथितं वीतभयपत्तने उदायनराज्ञो दासी सुवर्णगुलिकानाम्नी सुवर्णवर्णाऽनीवरूपवती त्वद्योग्यास्ति. चंडप्रयोतेन सुवर्णगुलिकायाः ममीपे दतः प्रेषितः. दूतेनैकांते तस्या एवं कथितं चंडप्रद्योतस्त्वामीहते. तया भणितमत्र चंडप्रद्योतः प्रथममायातु तं पश्यामि, पश्चायथारुच्या तेन सहायास्यामि. दूतेन गत्वा तस्या वचनं चंडप्रद्योतस्योक्तं. सोऽप्यनलगिरिहस्तिममारुय रात्रौतायातः, इष्टस्तया रुचितश्च. सा भणति यदीमा प्रतिमा For Private and Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagersuri Gyarmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७३॥ साधं नयसि तदाहमायामि, मान्यथेनि. ततस्तेन तत्स्थानस्थापनयोग्यान्यप्रतिमा तदानीं नास्तीति तस्यां रात्रौ नत्रोउत्तराध्य षित्वा स स्वनगरे पश्चाद्गतः, तत्र तादृशीं जिनप्रतिमा कारयित्वा पुनरवायातस्तां पतिमा नत्र स्थापयित्वा मूलप्रतिमां यन सूत्रम् | 38दासी च गृहीत्वोजयिनीं स गतः, ॥१०७३॥ एक समये ए कुब्जा दासीये-'हुँ मुवर्ण जेवा वर्णवाळी सुरुषा यार्ड' आq चिंतन करी एक गुटिका भक्षण करी तेथी ते सुवर्णRE! वर्णी सुरूपा बनी गइ अने ए दासीनुं त्यारथी सुवर्णगुलिका नाम पड्यु. वळी तेणीए एक वखते-'हुं विविध भोगसुखोने अनुभवू मा उदायन राजा तो मारा पिता तुल्य छे अने अपर राजा तो कोइ मारा समान रूपाळा नथी' आम विचार करती चंडप्रद्योत राजानुं मनमा ध्यान राग्वीने बीजी गुटिका भक्षण करी, त्यारे चंडपद्योत राजाने स्वप्नमां देवताए का के-'वीतभयपुरमा उदायन राजानी दासी सुवर्णगुलिका नामनी मुवर्णवर्णी अति रूपवती तमारा योग्यज छे.' राजा चंडमद्योते आ उपरथी सुवर्णगुलिका पासे दूत मोकल्यो. ते एकांतमा तेणीने मळीने का के-' अमारा स्वामी राजा चंडपद्योत तमने चाहे छे.' आ सांभळी दासीए का के--'प्रथम चंदप्रद्योत अहीं आवे तेने हुं जोउं पछी मारी मरजी प्रमाणे हुं तेनी साथे जइश.' आ वचनो दने जइनेज्यारे चंडप्रद्योतने कहां त्यारे ते पोताना अनलगिरि नामना हाथी उपर चडी रात्रनो त्यां आ यो तेने दासोए जोयो पटले तेने मन भाव्यो. आ सुवर्णगुलिकाए चंडपद्योत राजाने का के-'जो आ पतिमा साथे लीयो तो हुँ आवं; अन्यथा नहि. त्यारे ए मूर्तिने ठेकाणे मुकवा योग्य अन्य मृत्ति ते बखते हाजर नहीं होचाथी राजा ते रात्री त्यां रहीने पोताने नगर पाछो चाल्यो गयो. त्यां तेवीज बोजी मूर्ति तैयार करावी फरी पाछो दासी पासे आव्यो, त्यां पोते तैयार करावी लावेली जिनप्रतिमा मूकीने पेली गोशीर्ष चन्दनमतिमा For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उचराध्य भाषांतर अध्य०१८ यन सूत्रम् ॥१०७४॥ ॥२०७४|| तथा सुवर्ण गुलिकाने लइने पोतानी उज्जयिनी नगरी गयो. तत्रानलगिरिणा मुत्रपुरीषे कृते तद्गंधेन वीतभयपत्तनसत्का हस्तिनो निर्मदा जाता:. उदायनराज्ञा तत्कारणं गवेषितं, अनलगिरिहस्तिनः पदं दृष्टं, उदायनेन चिंतितं स किमर्थमत्रायातः? गृहमानुषैरुक्तं सुवर्णगुलिका न दृश्यते. राज्ञोक्तं सा चेटी चंडप्रद्योतेन गृहीता, परंप्रतिमां विलोकयत? तैरुक्तं प्रतिमा दृश्यते, परं पुष्पाणि म्लानानि दृश्यंते राज्ञा गत्वा स्वयं प्रतिमाविलोकिता पुष्पम्लानिदर्शनेन राज्ञा ज्ञातं, गेयं सा प्रतिमा किं त्वन्येति विषण्णेन राज्ञा दृतश्चंडप्रद्योतांतिके प्रेषितः, मम दास्या नास्ति कार्य, परं प्रतिमा त्वरितं प्रेषयेति दूतेन चंडप्रद्योतस्योक्तं. चंडप्रद्योतः प्रतिमां नार्पयति. तदा सैन्येन समं ज्येष्टमास एवोदाथनश्चलितः, यावन्मरुदेशे तत्सैन्यमायातं, तावजलाप्राप्त्या तत्सैन्यं तृषाक्रांतं व्याकुलीबभूव. तदानीं राज्ञा प्रभावतीदेवश्चितितः, तेन समागत्य त्रीणि पुष्कराणि कृतानि, तेषु जललाभात्सर्व सैन्यं स्वस्थं जातं. ज्यारे चंडपयोत राजा वीतभय नगरमां रात्रना सुवर्णगुलिकाने लेवा गया त्यारे पोतानो अनलगिरि हाथी शहेरनी बहार जे J ठेकाणे बांध्यो हतो ते ठेकाणे ते हाथीए मूत्र तथा पुरीष (लाद) करेलां ए हाथीना गंधथी वीतभय नगरमांना हाथीओ बधा मद रहित बनी गया, तेनु कारण जाणवा उदायन राजाए शोध करतां अनलगिरि हाथीना पगलां दीठां उदायन मनमा चिन्तन करे छे के-ते अनलगिरि हाथी अहीं शा वास्ते आवेल होय ? तेटलामां तो गृह मनुष्योए आवीने फरीयाद दीधी के-सुवर्णगुलिका देखाती नथी.' राजा बोल्या के-रखे ए दासीने चंदप्रद्योत राजा लइ गया होय. पण जुओ तो खरा के प्रतिमा तो पडी छे ने ? الفي الجولة الامتحانات التلفاقد لطة For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०७५ ॥ 龍 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माणसोये छेटेथी जोड़ने क' के 'प्रतिमा तो छे. पण उपरनां पुष्प करमाइ गयां छे.' राजाए पोते जड़ने प्रतिमा जोइ त्यारे करमायेला पुष्प उपरथी जायं के ए प्रतिमा नथी किंतु एने ठेकाणे बीजी प्रतिमा सूकायेली छे.' राजाए खिन्न थइने चन्डभयोतने दूत मोकली कवरात्र्यं के-'मारे दासीनु कंइ काम नथी पण प्रतिमा सत्वर मोकली दीयो.' दूते पाछा आवीने कछु के 'चण्ड मूर्ति पाछी आपतो नथी.' आ सांभळी उदायन राजाये तरतज पोतानु सैन्य तैयार करावी ज्येष्ठ मासमांज उज्जयनी भणी प्रयाण करी चाल्या ज्यां मरुदेश (मारवाड) मां सेना आवी त्यां जळ न मळवाथी तृषातुर थयेली सेना व्याकुल थबा लागी. त्यारे राजाह प्रभावती देवg fचन्तन करतां तेणे आवीने त्रण तळात्र करी आप्यां तेमां जळ पुष्कळ मळवाथी सैन्य स्वस्थ थ. क्रमेणोदायनराजोज्जयिनीं गतः कथितवांश्च भो चंडप्रयोत ! तव मम च साक्षायुद्धं भवतु, किं नु लोकेन मारितेन ? अश्वस्थे वा स्वा मया य युद्धमंगीकर्तव्यं चंडप्रद्योतेनोक्तं रथस्थेनैव त्वया मया च योद्धव्यं, प्रभाते चंडप्रद्योतः कपटं कृतवान् स्वयमनलगिरिहस्तिनमारुह्य संग्रामांगणे समाया : उदायनस्तु स्वप्रतिज्ञानिर्वाही रथारूः संग्रामांगणे समागतः तदानीमुदायनेन चंडप्रथोनस्योक्तं त्वमसत्यप्रतिज्ञो जातः, कपटं च कृतवानसि तथापि तव मत्तो मोक्षो नास्तीति भणित्वोदायनेन रथो मंडल्यां क्षिप्तः, चंडप्रयोतेन तत्पुष्टावनलगिरिहस्ती वेगेन क्षिप्नः म हस्ती यं यं पादमुत्क्षिपति, तं नमुदायनः शरैर्विध्यति यावद्धस्ती भूमौ निपतितः, तत्स्कंधात बद्धः, तस्य च ललाटे मम दासीपतिरित्यक्षराणि लिखितानि तत उदयनराज्ञा चंडपोतदेशे स्वाधिकारिणः स्थापिताः, स्वयं तु चंडप्रद्योतं काष्टपिंजरे क्षित्वा सार्धं च नीत्वा स्वदेशप्रति चलितः सा प्रतिमा तु तनो For Private and Personal Use Only 現光明王兆龍" भाषांतर अध्य०१८ ॥ १०७५ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जातका सचराध्य यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१८ | ॥१०७६॥ ॥१०७६॥ नोशिष्टतीति तत्रैव सा मुक्ता. क्रमे करी राजा उदायन उज्जयनी पहोंच्या अने चंडपयोत राजाने केण मोकल्यु के-“हे चण्डप्रद्योत ! ठाला लोकोने मरावी नाखीने शुं लाभ थवानो ? आपणे बेय युद्ध करीये, जो तमे घोडा उपर आवो तो हुँ पण घोडा उपर आवु अने रथमां आवो तो हुँ पण तेम करूं.' चण्डप्रधोते कडेवराव्यु के-रथमां वेसीने आपणे बेय युद्ध करशुं प्रभातमा उदायन राजा रथारूढ थइ ज्यां नीकल्या त्यां चण्डप्रद्योत कपट करी पोताना अनलगिरि हस्ती उपर चडीने सामो आवतो दीठो. त्यारे रणांगणमा आवेला चंडपद्योतने उदायने कयु के-'तें तारी प्रतिज्ञा खोटी पाडी छे अने कपट कर्यु छ तथापि माराथी बचीने नथी जवानो' आम पडकारी रथ मंडळाकाळे भमाववा मांड्यो. चण्डप्रद्योते पण हाथीने स्थनी पाछळ वेगथी मंडळाकारे प्रेयों. आ हाथी जेम जेम पग उपाडे छे तेम तेम उदायन राजा ते हाथीना पगने तीक्षण बाणथी वींधतो जाय छे एम करतां हाथीना चारे पग बाणथी बींधातां हाथी पृथ्वीपर पडी गयो के तेज क्षणे उदायने स्थमाथी उतरीने हाथीना स्कंध उपरथी उतरता चण्डप्रद्योतने पकडीने बांधी लोधो. अने तेना कपाळमां 'दासीपति' आटला अक्षरो चिन्हित करी तेना राज्य उपर पोताना अधिकारीओ स्थापीने पोतेतो चंडप्रद्योत राजाने काष्टना पांजरामां नाखी पोतानी साथे लइ स्वदेश भणी चालता थया पेली पतिमा तो त्यांथी उखडीज नहीं एटले त्यांज रहेवा दीधी. ___ अविच्छिन्नप्रयाणैश्चलितस्य तस्यांतरा वर्षाकाल: समायातः, तेन रूद्धो दशमी राजभिधुलीप्राकारं कृत्वा मध्ये म रक्षितः सुखेन तत्र तिष्ठति, यत्स्वयं सुंक्त तत्पयोतस्यापि भोजयति. एकदा पर्युषणादिनमायातं, तदोदायनेनोपवासः कृतः, सपकारैः प्रद्योतः पृथग्भोजनार्थ पृष्टः, सचिंतवत्पद्य मां भोजनांतर्विषदानेन मारयिष्यतीति पृथग्भोजनार्थ For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersari Gyanmandir DO मां प्रश्नयंति.ततचंडप्रद्योतेनोक्तमद्य किं पृथग्भोजनार्थ पृच्छयते? तैरुक्तमद्य पर्यषणादिने उदायनराजोपोषितोऽस्तीति उत्तराध्य-100 यद्भवतो रोचते तत्पच्यते, प्रद्योतेनोक्तं ममाप्यद्योपवासोऽस्ति, न ज्ञातं मयाय पर्यषणादिनं, सूपकारश्चनप्रद्योतोक्तं IBE भाषांतर पन सूत्रम् कथितमुदायनराज्ञः, तेनापि चिंतितं जानाम्यहं यथायं धृर्तमाधर्मिकोऽस्ति, तथाप्यस्मिन् पद्धे मम पYषणा न शु- अध्य०१८ ॥१०७७॥ ध्ध्यति, इति चंधप्रद्योतो मुक्तः क्षामितश्च. तदक्षराच्छादननिमित्तं रत्नपदृस्तस्य मूनि पद्धः, स्वविषयश्च तस्य दत्तः. । ॥१०७७॥ ततः प्रभृति पट्टयदा राजानो जाताः, मुकुटबद्वाश्च पूर्वमप्यासन, वर्षा रात्रे व्यतिक्रांते उदायनराजा ततः प्रस्थितः. व्यापारार्थ यो वणिग्वर्गस्तत्रायातः स तत्रैव स्थितः, दशमो राजभिर्वामितत्वाद्दशपरं नाम नगरं प्रसिद्धं जातं. सतत प्रयाणथी चालतां वचमा वर्षाकाल आव्यो तेथी रोकाणा त्यां साथैना दश राजाओ पासे धुळनो गढ करावी मध्यमां मुरक्षित रीते त्यां सुखे रह्या. उदायन राजा पोते जे खाय तेज पदार्थ प्रद्योतने पण खवरावे जमाडे. एक वखने पर्यपणा दिन आयो त्यारे उदायनने तो उपवास करवानो हतो तेथी रसोयाए प्रद्योतरानाने पूज्यु के-'आपने माटे आजे शुं शुं रांधवानुं छे ? प्रद्योते जाण्यु के-'मारे माटे खास पृथक रांधवान पूछे ळे ते रखे मने विष देवा इच्छता होय' आम विचार आवतां रसोयाने पूछ्युं के-'आज मारे माटे नोखं करवानें केम पूछाय के ? रसोये जवाव आप्यो 'आज पर्युषणादिन होगयी उदायन राजा पौध करJE चाना तेथी तमारे एकनेज जमवानुं होवाथी तमने जे रुचे ते कहो ते प्रमाणे रसोइ थशे प्रद्योत बोल्यो-मारे पण आजे उपवास करचो छे, मने पर्युषणादिननी खबर नहोती. रसोयाए प्रद्योतनी हकीकत उदायनने कही राजाए जाण्यु के-'ए आपणी हारे धर्म | पाळवा जाय के पण पूर्ण के तो पण एने बांधी राखं त्यां सुधी मारी पर्युषणा शुद्ध न थाय.' एम धारीने चंडमधोतने छुटो करी For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्य घन सूत्रम् ॥१०७८ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षमापन क अने कपालमा जे 'दासीपति' एवा चार अक्षरो चिन्हित कर्ता हता ते ढांकवा माटे तेने मस्तके सोनानो पट्ट बन्यो अने तेनो देश तेने पाछो सौंप्यो. ते दिवसथी राजाओने माथे सुवर्णपट्ट बन्धाय छे, मुकुट बांधवानुं तो ते पहेलांथी चायुं वतुं हतुं, वर्षा रात्रीओ बीती त्यारे उदायन राजा त्यांथी सीधाव्या. अहीं राजानो पडाव घणो वखत रह्यो तेथी जे जे वेपारी अ आवीने वेपार रोजगार करता हता ते बधा अहज स्थिति करी रही गया. आ स्थान दश राजाओए मळोने बसावेलु होवाथी तेनुं दशपुर नगर एवं नाम पडी गयुं. अन्यदा स उदयनराजा पौषशालायां पौषधिकः पौषधं प्रतिपालयन् विहरति पूर्वरात्रसमये च तस्यैतादृशोऽभिप्रायः समुत्पन्नः, धन्यानि तानि ग्रामाकरनगराणि यत्र श्रमणो भगवान् श्रीमहावीरो विहरति, राजगृहेश्वरप्रभृतयो ये धन्यस्ते श्रमणस्य भगवतः श्रीमहावीरस्पांतिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्म शृण्वंति, पञ्चाणुतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं श्रावकधर्मे च प्रतिपद्यते, तथा मुंडी भूत्वाऽगारादनगारितां व्रजति ततो यदि श्रमणो भगवान् श्रीमहावीरः पूर्ण चरन् यदीहागच्छेत्, ततोऽहमपि भगवतोंनिके प्रव्रजामि उदायनस्यायमध्यवसायो भगवता ज्ञातः. प्रातश्चम्पातः प्रतिनिष्क्रम्य वीतभयपत्तनस्य मृगवनोद्याने भगवान् समवसृतः तत्र पर्षन्मिलिता, उदायनोऽपि तत्रातो भगवदंति धर्मं श्रुत्वा दृष्टश्चैवमवादीत्. स्वामिन्! भवदंतिकेऽहं प्रब्रजिष्यामि परं राज्यं कस्मैचिद्ददामीत्युक्वा भगवंतं वंदित्वा स स्वगृहाभिमुखं चलितः, भगवतापि प्रतिबंधं मा कार्षीरित्युक्तं ततो हस्तिरत्नमारुह्यादायनराजा स्वगृहे समायातः तत उदायनस्यैतादृशोऽध्यवसायः समुत्पन्नो यद्यहं स्वपुत्रमभीचिकुमारं राज्ये स्थापयित्वा For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७८ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir قلنا उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०७९॥ با این نوع भाषांतर अध्य०१८ ॥१०७९॥ لیفت تنقلات الهند प्रत्रजामि, तदायं राज्ये जनपदे मानुष्यकेषु कामभोगेषु मूछितोऽनाद्यनंत संमारकांतारं भ्रमिष्यति, ततः श्रेयः खलु मम निजकं भगिनीजातं केशिकुमार राज्ये स्थापयितुं. ___एक समये उदायन राजा पौषधवत लइ पौषधशाळामा पौषध पाळी विहरे के आगली रात्रनो समय छे त्यां तेना मनमां एवो अभिप्राय उत्पन्न थयो के-'त ग्राम आकर तथा नगर धन्य छे के ज्यां श्रमण भगवान श्रीमहावीर विहार करे छे. राजगृहेश्वर वगेरे जेओ श्रीमहावीर भगवान्नी समीपे रही केवळीए प्राप्त धर्मर्नु श्रवण करे छे. अने पंचाणु बतिक सप्तशिक्षा प्रतिक तथा द्वादशविध श्रावकधर्मने प्रतिपन्न थाय छे ते पण धन्य छे, बळी जेओ मुंडी बनी आगार छोडी अनगारिता सेवे के तेने पण धन्य छे. तेथीजो कदाच श्रमण भगवान् श्रीमहावीर पूर्वी अनुपूर्वीथी विचरता अहों आये तो हुँ पण भगवान्नी पासे पत्रज्या ग्रहण करूं.' राजा उदायननो आ अभिप्राय भगवाने जाण्यो. प्रातःकाळे चम्पानगरीथी नीकळी वीतभय नगरना भृगवन नापन। उद्यानमां समवस्त थया. त्यां पर्षद् (सभा) मळी, राजा उदायन पण त्यां भगवत्समीपे धर्म श्रवण करी घणो वर्ष पामी बोल्यो के-'हे स्वामिन् ! हूं आपनी पासे प्रवज्या लइश पण राज्य कोइने सोपी आधु' आटलू बोली भगवान्ने वंदी ते पोताना घर तरफ चाल्यो. भगवाने पण 'कंइ प्रतिबन्ध मा करोश' एटलुका. ते पछी इस्तीरत्न उपर चडी उदायन राजा पोताना राजमहेले आव्यो. आ वेळा उदायन राजाने एवो अध्यवसाय=निश्चय उपनो के-'जो हुं मारा पुत्र अभीचि कुमारने राज्य उपर स्थापीने दीक्षा लडं तो ते राज्य, देश, मनुष्यलोकना कामभोगो बगेरेमा मूर्छित बनी आ अनादि तथा अनन्त संसारमा भम्या करशे. माटे वधारे सारं तो ए छे । जे मारा भाणेज केशिकुमारने राज्य उपर स्थापित करूं. و دفعت تنقل لنقاط نقالی For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८०॥ एवं संप्रेक्ष्य शोभने तिधिकरणमुहूर्ते कौटुंबिकपुरुषानाकार्यैवमवादीत, क्षिप्रमेव केशिकुमारस्य राज्याभिषेकसाउत्तराध्य मग्रीमुपस्थापयत ? तैः कृतायां सर्वसामान्यां केशिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः, ततस्तत्र केशिकुमारो राजा जाता, पन सत्रम् उदायनराजा च केशिकुमारराजानं पृष्ट्वा तत्कृतनिष्क्रमणाभिषेक:श्रीमहावीरांतके प्रबजितः. बहुनि षष्टाष्टमदशमदा दशममासार्धमासक्षपणादीनि तपःकर्माणि कुर्वाणो विहरति. अन्यदा तस्योदायनराजर्षेरतप्रांताहारकरणेन महान् व्याधिरुत्पन्नः, वैद्यैरुक्तं दध्यौषधं कुरु ? स चोदायनराजर्षिर्भगवदाज्ञयैकाक्येव विहरति, अन्यदा विहरन् स बीत भये गतः. तत्र तस्य भागिनेयः केशिकुमारराजाऽमात्यैर्भणितः, स्वामिन्नेष उदायनराजर्षिः परिषहादिपराभूतः प्रवEll ज्यां मोक्तुकाम एकाक्येवेहायाता, तब राज्य मार्गयिष्यति. स प्राह दास्यामि. तैरुक्तं नैष राजधर्मः, स माह तहि किं क्रियते ? ते पाहुविषमस्य दीयते. राज्ञोक्तं यथेच्छं कुर्वतुः, ततस्तैरेकस्याः पशुपाल्या गृहे विषमिश्रितं दधि कारितं, 25 तेषां शिक्षया तया तस्य सहतं. आम विचारी सारां तिथि करण तथा मुहुर्तमां कुटुंबना पुरुषोने बोलावी एम बोल्या के- केशिकुमारने माटे राज्याभिषेकनी सामग्री जलदी हाजर करो' तेओए सर्व सामग्री तैयार करी एटले केशिकुमारने राज्य उपर अभिषिक्त कर्या त्यारथी त्यां केशिकुमार राजा यया अने उदायन राजा केशिकुमार राजाने पूछी तेणेज जेने निष्क्रमणाभिषेक कर्यो छे एवा श्रीमहावीर पासे प्रवजित थया. षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मासाद्धे, मासक्षपण, इत्यादि पणांक तपःकर्म आचरता विहार करे छे. एवायां एकदा ते उदायन राजर्षिने अंतप्रांताहार करवाथी महोटो व्याधि उत्पन्न थयो. वैद्योये कांदहीजें सेवन करो' ते उदायन राजर्षितो भगवदा له لا لا لا لا لا لا مانع دیدن تصارعة بافتاماقطه مشتاقالالالحاقدا هاتفاق For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ल उत्तराध्ययन सूत्रम् | ॥१०८१॥ | भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८१॥ ज्ञाथी एकलाज विहार करे के. एक समये ते विहस्ता वीतभयपुरमां गया त्यां तेनो भानेज केशिकमार राजा छे तेने मंत्रीओये | कयु के-'हे स्वामिन् ! आ उदायन राजर्षि परीपहादिकथी कंटाळीने प्रवज्या छोडी देवानी इच्छाथी एकलाज अहीं आव्या छे तमारी पासे राज्य मागशे' त्यारे केशिकुमार राजाए मंत्रीओने का के-'मागशे तो आपी दइश मंत्रीओ कहे 'ए राजधर्म न कहेवाय' ते बोल्यो के--'त्यारे शुं करवू ?' मंत्रीओ बोल्या के-'एने विष आपी देवाय' राजाए का 'तमने गमे ते करो.' पछी ए मंत्रीओए पशुपालन करनारी (आहीरण) ने घरे जइ विषमिश्रित दहीं तैयार कराव्युं अने ए मंत्रीओना शीखववाथी तेणीए ए दहीं उदायन साधुने आप्यु. उदायनभक्तया च देवतयाऽपटतं, उक्तं च तस्य देवतया, हे महर्षे ! तव विष दत्तं दध्यंतः, तेन दध्यौषधं. परिहर ? तद्वाक्याद्दधि परिहृतं, रोगो बधितुमाराब्धः, पुनस्तेन दध्यौषधं कर्तुमारब्धं. पुनरपि तदंतर्विषं देवतपापहृतं. एवं वारत्रयं जातं. अन्यदा देवता प्रमत्ता जाता, तैश्च विषं दत्तं. तत उदायनराजर्षिर्वहनि वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा मासिक्या संलेखनया केवलज्ञानमुत्पाद्य सिद्धः तस्य शय्यातरः कुंभकारस्तदानीं क्वचिद्ग्रामांतरे का ार्थ गतोऽभूत्. कुपितया च देवतया वीतभयस्योपरि पांशुवृष्टिर्मुक्ता. सकलमपि पुरमाच्छादितं, अद्यापि तथैवास्ति | शय्यात: कुंभकारस्तु शनिपल्ल्यां मुक्त:. उदायनराजपुत्रस्याभीचिकुमारस्य तदायं वृत्तांतो जातः. यदोदायनः के| शिकुमारं राज्येऽभिषिच्य प्रवजितस्तदास्यायमध्यवसायः समुत्पन्नः. अहमुदायनस्य ज्येष्टपुत्रः प्रभावत्यात्मजः, ताहशमपि मां मुक्त्वा केशिकुमारं राज्येऽभिषिच्योदायनः प्रवजिता, इत्यंतर्मानसिकेन दुःखेन पराभूनोऽसौ वीतभय For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्यपन सूत्रम् ॥१०८२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्तनं मुक्त्वा चंपायां कोणिकराजनमुपसंपद्य विपुलभोगसमन्वितोऽभूत् स चाभीचिकुमारः श्रमणोपासको विगत जीवाजीवोsप्युदायन राज्ञि समनुगतवैरोऽभूत्. अभीचिकुमारो बहूनि वर्षाणि श्रम गोपासक पर्यायं प्रतिपाल्यार्धमासिया संलेखनयोदानवैरस्थानमनालोच्य कालं कृत्वाऽसुरकुमारत्वेनोत्पन्नः एकपल्योपमस्थितिरस्यासीत. महावि देहे क्षेत्रे चायं सेत्स्यतीत्युदायन कथा. उदायननी भक्त देवता ए दहीं हरी गइ अने कहेती गइ के 'हे महर्षे ! नमने दहींनी अंदर विष दोधुं माटे हवे दहीं ले छोडी घो.' आ देवताना वाक्य उपरथी तेणे दहीं छोडी दीधु तेथी व्याधि वधवा मांड्यो त्यारे फरी तेणे दध्यौषध करवा मांड्यु. फरी पण तेमां विषनो योग थतां देवताए ते हरी लीधुं एम त्रण वार थयुं तेमां एक बखत देवतानो जरा प्रमाद थयो अने ते दुष्टो विष दधुं, तेथी उदायन राजर्षि घणांक वर्ष श्रामण्यपर्यायनुं पालन करी मासिकी संलेखनावडे केवळज्ञान मेळवी सिद्ध थया, हवे तेमनो शय्यातर एक कुंभार हतो ते कंह कामअर्थे बोजे गाम गयो हतो. अने पेळी देवता कुपित थइ तेणे वीतभय नगर उपर धुनी दृष्टि मूकी तेथी सकळ पुर डटाइ गयुं जे हजी पण तेमज के पेलो शय्यातर कुंभार जे शनिपल्ली नामक बीजे गाम गयो हतो ते मात्र बच्यो, आ तरफ उदायनराजाना पुत्र अभीचि कुमारनो वृत्तांत एवो बन्यो के-ज्यारे उदायन केशिकुमारने राज्य उपर अभिषिक्त करी पोते प्रव्रज्या लीघी त्यारे अभीचिकुमारने एम. लाम्युं के 'हुं उदायननो प्रभावतीथी जन्मेलो ज्येष्ठ पुत्र हुं तेवा मने मूकीने केशिकुमारनो राज्यउपर अभिषेक करी उदायन प्रब्रजित थया आवा मानसिक दुःखथी पराभूत थइ ते वीतभय नगर छोडीने चम्पानगरीमा कोणिक राजाने मळी पुष्कळ भोगशाळी थया हता, ते अभीचिकुमार जोके श्रमणोनो उपासक हतो तेम For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८२ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उतराध्ययन सूत्रम् ॥१०८३॥ www.kobatirth.org | अजीव आदिको जाणकार हतो. तथापि उदायनराजामां वैरभावयुक्त हतो. आ अभीचिकुमार घणां वर्षो सुधी श्रमणोपासक पर्यायनुं प्रतिपालन करी] अर्धमासिको संलेखनाबडे उदायन चैरस्थाननुं आलोचन नहि करतां काळ करी असुरकुमाररूपे उत्पन्न भयो. एक पल्योपम तेनी स्थिति यह. ते महाविदेहक्षेत्रमां सिद्धि पामशे. इति उदायन राजनो दृष्टांत. तहेव कामीराया । सेओ मञ्चपराकमो ॥ कामभोए परिचज्ज | पहने कम्ममहावणं ॥ ४९ ॥ [तद्देव०] तेज प्रमाणे श्रेयः = सत्यपराक्रम, अर्थात् श्रेयोमार्गरूप सत्यमां पराक्रमवान् पवा काशीराजाप कामभोगनो परित्याग करीने कर्मरूपी महावनने प्रकर्षे करी हायं. ४९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्या०—हे मुने ! तथैव तेनैव प्रकारेण पूर्वोक्तनृपवत्काशीदेशपतिर्नदननामा राजा सप्तमबलदेवः कर्मरूपं महावनं प्राहनदुन्मूलयामासेत्यर्थः किं कृत्वा ? भोगान् परित्यज्य कीदृशो | नंदनः ? श्रेगः सत्यपराक्रमः, श्रेषः कल्याणकारिकं यत् सत्यं संयमः श्रेयः सत्यं तत्र पराक्रमो यस्य स श्रेयः सत्यपराक्रमः. मोक्षदायक चारित्रधर्मे विहितवीर्य इत्यर्थः . ४९ ! तथैव तेज प्रकारे पूर्वोक्त राजाओनी पे5 काशीदेशना पति नंदन नामनः राजा=सप्तम बलदेवे, कर्मरूपी महावनने उन्मूलित क. उखेडी नाख्यु केम करीने? काम भोगोनो परित्याग करीने. राजा केवो ? श्रेयः सत्यपराक्रम, एटले कल्याणकारक सत्य संयम, एज श्रेयः सत्य तेने विषये पराक्रमवान् अर्थात् मोक्षदायक चारित्र धर्ममां दृढ वीर्यवान् ४९ अत्र काशीराजदृष्टांतः - वाणारस्यां नगर्यांमग्निशिखो राजा, तस्य जयंत्यभिधाना देवी, तस्याः कुक्षिसमुद्भूतः सप्तमबलदेवो नंदनो नाम, तस्यानुजो भ्राता शेषवतीराशीसुतो दचाख्यो वासुदेवः, स च पित्रा प्रदत्तराज्यः For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८३ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उचराध्य यन सूत्रम् ॥१०८४॥ www.kobatirth.org साधितभरतार्थो नंदनानुगतो राज्यश्रियं स्फीतामनुबभूव कालेन षट्पञ्चाशद्वर्षसहस्राण्यायुरतिवाह्य मृत्वा दत्तः पंचमनरकपृथिव्यामुत्पन्नः. नंदनोऽपि च गृहीतश्रामण्यः समुत्पादित केवलज्ञान: पंचषष्टिवर्षसहस्राणि जीवितमनुपालय मोक्षं गतः षड्विंशतिधनूंषि चानयोर्देहप्रमाणमासीत. इति काशीराजदृष्टांतः, अत्रे काशीराजनुं दृष्टांत कही देखाडे छे - वाराणसी नगरीमां अग्निशिख नामे राजा हतो तेनी जयंती नामनी देवी पट्टराणी हती तेनी कूखथी नन्दन नामनो सातमो बलदेव उत्पन्न थयो अने तेनो नानो भाइ शेषवती राणीनो पुत्र दत्त नामनो वासुदेव थयो. ए दत्तने पिताए राज्य आप्यु तेथी तेणे नन्दननी मददथी भरतनुं अर्ध-अर्थात् त्रण खंड साधित करी उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीने भोगवी छपन हजार वर्ष आयुष्य गाळी काळे करी दत्त राजा मृत थया ते पांचमी नरकभूमिमां उत्पन्न थया. नन्दनराजा पण श्रामण्य= साधुत्व अंगीकार करी केवळज्ञान पामी पांसठ हजार वर्ष पर्यंत जीवित भोगवी मोक्षे गया. ए बेय भाइओनु शरीरमान छवी धनुष हं. इति काशीराज दृष्टांत. तयविजओ राया | आणठ्ठाकित्ति पब्वए || रज्जं तु गुणसमिद्धं गुणसमिद्धं । पहित्तु य महायसो ॥ ५० ॥ [तहेव विजओ०] तेज प्रमाणे वळी नाश पानी के अकीर्ति जेनी एवो तथा महायशस्वी राजा विजय-बीजो बलदेव गुण समृद्ध राज्यने परिहारी-त्यजीने प्रब्रजित थया. ५० व्या०—हे मुने! तथैव विजयो नामा द्वितीयो बलदेवो राजा प्रब्रजितो दीक्षां प्रपन्नः किं कृत्वा ? राज्यं तु पहित्तु इति परिहृत्य, कीदृशं राज्यं ? गुणसमृद्धं गुणैः सप्तांगैः पूर्ण, स्वामी १ अमात्य २ सुहृत् ३ कोश ४ राष्ट्र For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८४ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Si Kailasagarsur Gyarmandie पशोराहालक्षितः, अथवा 'आणकामगुणः पूर्ण. कीटक भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८५॥ ५ दुर्ग ६ बलानि ७ च राज्यांगानि. अथवा गुणैरिंद्रियकामगुणः पूर्ण. कीदृशो विजयः? अनात आत्तध्यानरहितः. उत्तराध्य पुनः कीदृशः ? कीर्तिः कीयोपलक्षितः, अथवा 'आणकित्ति' इति 'आनष्टाऽकीर्तिः' आ समंतानष्टा अकीर्तिर्यस्य यन सूत्रम् | म आनष्टाऽकीर्तिः, अयशोरहितः पुनः कीदृशः ? महायशा महद्यशो यस्य म महायशाः ॥५०॥ ॥१०८५॥ हे मुने! तेबीज रीते विजयनो राजा के जे बीजो बलदेव थयो ते पण प्रबजित थया-दीक्षा लीधी. केम करीने ? राज्यने परिहरीने के, राज्य ? गुण एटले राजनां सात अंग, जेवांके-स्वामी १, अमात्य २, सुहृद ३, कोश ४, राष्ट्र ५. दुर्ग ६, बल= सैन्य ७, आ साते अंग जेना समृद्ध परिपूर्ण छे एवं. अथवा गुण एटले इन्द्रियोना काम्यविषयोथी परिपूर्ण. राजा केवो? अनार्त= आर्त ध्यानरहित तथा कीर्तिमान, अथवा आ=सर्वतः नष्ट छे अकीर्ति जेनी एवो अर्थात् अपयश रहित तथा महोटा यशवाळो. ५० अत्र विजयराजकथा-द्वारावत्या ब्रह्मगजस्य पुत्रः सुभद्राकुक्षिसंभूतो विजयनामा द्वितीय बलदेवोऽस्ति.स Bal च स्वलघुभ्रातृद्विसप्तवर्षसहस्रायुढिपृष्टवासुदेवमरणानंतरं श्रामण्यमंगीकृत्योत्पादित केवलज्ञानः पंचसप्ततिवर्षशन- | सहस्राणि सर्वायुरतिवाथ मुक्तिं गतः, सप्तनिध+षि चानयोहमानं. इनि विजयराजकथा. अत्रे विजय राजानी कथा कहे ठे-द्वारामतीमां ब्रह्मराजरो पुत्र सुभद्रानी कुखथी उद्भवेलो विजय नामनो चीजो बलदेव थयो. तेणे पोताना नाना भाइ द्विपृष्ठ वासुदेव बढतेर हजार वर्ष आयुष्य भोगवी मरण पाम्या पछी श्रामण्य साधुत्व अंगीकार करी क्रमेकरी केवलज्ञान मेळवी पंचोतेर लाख वर्षनु सर्व आयुष्य गाळीने मोक्षे गया. ए बेयर्नु देहमान सीतेर धनुष्यनु हतु. इति विजयराज कथा. For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य घन सूत्रम् ॥१०८६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तबुग्गं तवं किया। अविक्खित्तेण चेयसा । महव्वलो रायरिसी । आदाय सिरसा सिरिं ॥ ५१ ॥ (तदुग्गं०) तेबीजरीते महाबल नामना राजऋषि, मस्तकवडे श्री चारित्र लक्ष्मीने ग्रहण करीने अविक्षिप्त विक्षेपरहित चित्तथ तप करीने (मोक्षे गया) पटलो अध्याहार छे. ५१ व्या०-- तथैव महाबलनामा राजर्षिस्तृतीये भवे मोक्षं जगामेति शेषः किं कृत्वा ? अव्याक्षिप्तेन चेतसा स्थिरेण चित्तेन, उग्रं प्रधानं तपः कृत्वा पुनः किं कृत्वा ? शिरिसा मस्तकेन श्रियं चारित्रलक्ष्मीमादाय गृहीत्वा ॥ ५१ ॥ एवीजरीठे महावल राजर्षि त्रीजे भवे मोक्षे गया. (एटलं शेष छे.) केम करीने १ विक्षेपरहित = स्थिर चित्तथी उग्र=प्रधान तप करीने तथा मस्तकथी श्री=चारित्रलक्ष्मीने सादर ग्रहण करीने. ५१ अत्र महाबलराज्ञः कथा -- अत्रैव भरतक्षेत्रे हस्तिनागपुरं नगरमस्ति, तत्र बलनामा राजा, तस्य प्रभावतीनाम्नी राज्ञी, अन्यदा सा राज्ञी प्रवरशयनीयोपगतेषन्निद्रां गच्छंती शशांकशखवलं सिंह स्वप्ने दृष्ट प्रतिबुद्धा ततः सा तुष्टा यत्र यलस्य राज्ञः शयनीयं तत्रोपागच्छति, तं स्वप्नं च वलस्य राज्ञः कथयति ततः स बलो राजा तं स्वप्नं श्रुत्वा हृष्टस्तुष्ट एवमवादीत्, हे देवि! त्वया कल्याणकृत्स्वमो दृष्टः, अर्थलाभो भोगलाभो राज्यलाभश्च भविष्यति, एवं खलु तव नवमासेषु सार्धसप्तदिनान्यधिकेषु गतेषु कुलप्रदीपः कुलतिलकः सर्वलक्षणसंपूर्ण दारको भविष्यतीति. ततः सा प्रभावत्येतदर्थे श्रुत्वा हृष्टा तुष्टा बलस्य राज्ञस्तद्वचनं स्वीकरोति. राजाज्ञया च स्वशयनीये समागच्छति. अत्रे महाबल राजानी कथा कहे छे—आ भरतक्षेत्रमाज हस्तिनागपुर नगर छे त्यां बल नामनो राजा हतो तेनी प्रभावती For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८६॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८७॥ नामनी राणी हती. एक समये ते राणी उत्तम शय्या उपर जरा निद्रा आवतां चंद्र तथा शंखना जेवो धोळो सिंह स्वममा दीठो उत्तराध्य अने जागी गइ. त्यारे राजी थती ज्यां बलराजानी शय्या हती ते पासे जइ ए स्वमनी वात राजाने कही. राजा आ स्वमवृत्तांत यन सूत्रम् | सांभळी हर्ष तथा संतोष पामतो बोल्यो के-'हे देवि ! तें घणोज कल्याणकारक स्वम दीठो. अर्थलाभ, भोगलाभ, तथा राज्यलाभ: ॥१०८७|| BE एम प्रण लाभ थशे अने तने आजथी नवमास तथा साडा साडासात दिवसे कुलदीपक तथा कुलतिलकरूप सर्वे शुभ लक्षण संपूर्ण पुत्र आवशे. त्यारे तो ते प्रभावती आ हकीकत सांभळी इर्ष तथा संतोष पामती बलराजानां वचन स्वीकारी राजानी आज्ञा लइ sdi पोतानी शय्या उपर आवीने ती. । तत्प्रभृति च सा सुखेन गर्भमुदहति. प्रशस्तदोहदा प्रतिपूर्णदोहदा सा पूर्णषु मासेषु सुकुमालपाणिपादं मबलक्षणोपेतं देवकुमारोपमं दारकं प्रसूतवती. ततः प्रभावत्या देव्याः प्रतिचारिका बलं राजानं विजजयाभ्यां पुत्रजन्मना च वर्धापयंती. ततो वलराजैतमर्थ श्रुत्वा हृष्टस्तुष्टो धाराइतकदयपुष्पमिव समुच्छ्वसितरोमकूपस्तामामंगप्रतिचारिकाणां नुकुटवर्ज सर्व स्वशरीरालंकारं ददौ. मस्तकस्नपनादिकं प्रीतिदानं च यथेच्छं वितीर्णवान. नतः म बलो गजा कौटुंषिकपुरुषानाकारयति. आगतांश्च तानेवमवादीत , भो देवानुप्रियः! क्षिप्रमेव हस्तिनागपुरे नगरे चारकशोधनं मानोन्मानप्रवर्धनं कुरुत ? वर्धापनं च घोषयत? एवं राजाज्ञया ते तथैव कृतवंतः. प्राप्ते च द्वादशे दिवसे तस्य बालकस्य महायल इति नाम चक्रतुः ततो महाबलः पंचधात्रीपरिवृतो ववृधे. गृहीतकलाकलापश्च यौवनमनुप्राप्तोऽसदृशरूपलावण्यगुणोपेतानामष्टानां राजवरकन्यानामेकस्मिन्नेव दिवसे पाणिग्रहणमकरोत्. ततस्तस्य महायलकुमारस्य For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८८॥ मातापितरावतिशयेन हर्षेण महदष्टप्रासादोपशोभितं वासभवनं कारयत:. एतादृशं च प्रीतिदानं ददतः-अष्टौ हिरउत्तराध्य-100 ण्यकोटयः, अष्टौ मुकुटानि, अष्टौ कुंडलयुगलानि, अष्टौ हाराः, अष्टौ गौसाहसिक, अष्टौ ग्रामाः, अष्टौ दासाः, पन सूत्रम् अष्टौ मदहस्निन अष्टौसौवर्णस्थालानि, एवमन्यदपि सारं स्वापतेयं मातृपितृभ्यां तस्य दत्तं. ततः स महाबलः प्रासा॥१०८८॥ | दवरगत उदारभोगान् भुंजानो विचरति. ते दिवसथी ए राणीने गर्भ रह्यो. तेणीने सारा सारा पदार्थोनी वांछना थती ते सर्व दोहद इच्छा परिपूर्ण करवामां आवती. एम करतां नव मास अने साटासात दिवस चीततां सुकुमार हस्तपादादि अवयववाळा सर्व लक्षणसहित देवकुमारनी जेने उपमा देवाय एवा बाळकने राणीए जन्म आप्यो. त्यारे प्रभावती देवीनी परिचारिकाए बल राजाने जइने जय विजय सहित पुत्रजन्मनी वधाइ आपी. बळ राजा आ वधामणी सांभळीने हर्ष तथा संतोष पामी जळधाराथी सिंचित कदंब पुष्पनी पेठे रोमांच धारण करतो ते राणीनी अंगपरिचारिकाओने पोताना मुकुट सिवायना तमाम अंगाभरणो उतारीने आपी दीधां.अने ज्यारे राणीने दशवासार्नु मस्तकस्नपन=पहेलु नाण नवराव्यु त्यारे पण भीतिदान-इनाम आप्यां, बलराजाए कुटुंबना पुरुषोने बोलावीने का के-'हे देवने पण प्रिय जनो ! शीघ्र हस्तिीनागपूरने विषये चारक शोधो अने मानोन्मानना वधारा करो तथा वर्धापननी घोषणा करावो. राजानी आज्ञा प्रमाणे तेओए आखा शहेरमा व्यवस्था करावी. बारमो बासो आव्यो ते दिवसे ते बाळकनुं महावल ए, नाम कर्यु पछी वो पांच धात्री (धाव) थी पोषातो ए महाबळ अदाडे वृद्धि पाम्यो क्रमे करी सकळ कळाना समूहनुं शिक्षण पामो यौवनावस्थामां | आव्यो त्यारे तेना माता पिताए असाधारण रूप तथा लावग्य संपन्न सकल गुणसंयुक्त महोटा राजाभोनी आठ कन्यामा एकज For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०८९॥ दिवसे तेने परणाची, तथा ए महाबलकुमारना माता पिताए अतिहर्षथी आठ माळनो महोटो महेल तेने माटे कराव्यो, अने प्रीतिउत्तराध्ययन सूत्रम् दान तरिके आठ करोड सुवर्ण (महोरो), आठ मुकुटो, आठ कुंडळना युग्म (जोडी), आठ होर, आठ हजार गायो, आठ गाम, आठ दास, आठ मदमत्त हाथी, सुवर्णनां आठ थाळ तथा बीजी पण सारी सारी किंमति वस्तुओ माबापे तेने आपी. आ सघळू ॥१०८९॥ पामी महाबल कुमार महेन्लमां उदार भोगो भोगवता रहेता हता. तस्मिंश्च काले विमलस्वामिनः प्रपौत्रो धर्मघोषनामाऽनगारः पंचभिरनगारशतैः परिवृतो ग्रामानुग्रामं विहरन् Mall हस्तिनागपुरमागतः तस्यांतिके नागरिकपरिषत्समागता. महाबलोऽपि धर्म श्रोतुं तत्रायातः. श्रुत्वा च धर्म वैराग्यPH मापन्नो महावलकुमारो दृष्टस्तुष्टस्त्रिवारं नत्वैवनवादीत्. हे भगवन् ! श्रद्दधामि निग्रंथं प्रवचनं यथा भवद्भिक्तं स त्यमेवेति. संयममार्गमहमंगीकरिष्यामि, नवरं मातापितरावापृच्छामि. गुरवः प्रोचुः प्रतिबंधं माकार्षीः. ततः स महाबलो धर्मघोषमनगारं वंदित्वा हृष्टस्तुटो रथमारुख इस्तिनागपुरमध्ये यत्र स्वगृहं, तत्रोपागतो रथात्मत्यवतरति. पत्र | मातापितरौतत्रोपागत्येवमवादीत-अहो! मातापितरौ! मया धर्मघोषस्थानगारस्पांतिके धर्मः श्रुतः, स च धर्मो मेऽमिरुचितः, ततो महाबल कुमारं मातापितरावेत्रमबदनां, पत्र ! त्वं धन्यः कृतार्थश्च. तेवामां विमलस्वामीना प्रपौत्र (पशिष्य) धर्मघोष नामे अनगार साधु पांचसो साधुओथी परिवारित गाम पछी गाम विहार करता हस्तिनागपुरमां आव्या तेमनी पासे नगरनिवासी जनोनी परिषद्=मंडळी आवी अने राजा महाबल पण धर्म श्रवण करवा त्यां आब्या. धर्म श्रवण करीने महाबल कुमार वैराग्य पाम्या अने हर्ष तथा संतोषपूर्वक त्रणवार नमन करी आम बोल्या के-'हे For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org STI भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९०॥ भगवन् ! आ निग्रन्थ वचम उपर मने श्रद्धा थाय छे. आपे जे का ते सत्यज छे. हुं संयममार्गनुं ग्रहण करीश पण माता पितानी उचराध्य आज्ञा लइ आयु तो ठीक. गुरु बोल्या के-'प्रतिबन्ध म करीश.' ते पछी ए महाबल धर्मघोष अनगारने बंदीने हपंथी संतोष पामतो यन सूत्रम् al रथमां बेसी हस्तिनागपुर मध्ये ज्यां पोतानो महेल छे त्यां समीपे आची रथमांथी उतरीने ज्यां मातापिता हता त्यां आवीने बोल्यो R: के-'हे माता पिता ! में धर्मघोष अनगार समीपे धर्म सांभळ्यो ते धर्म मने बहु रुच्यो गम्यो त्यारे माता पिता बोल्या के-हे १४ पुत्र ! तुं धन्य छो अने कृतार्थ थयो.' ततः स महावल एवमवादीत्-अहो! मातापितरौ! इच्छाम्यहं भवदाज्ञया प्रव्रजितुं संसारभया दहमुद्विग्नोऽस्मीति, ततः सा प्रभावस्यनिष्ठामश्रुतपूर्वामिमां पुत्रषाचं श्रुत्वा रोमकूपगलत्स्वेदाकीर्णगात्रा शोकभरवेपितांगा निस्तेजस्का दीनवदना करतलमतिकमलमालेव म्लाना विकीर्णकेशहस्ता त्रुटित्या धरणी नले निपतितामूर्छिता च. परिचारिकाभिः कांचनकलशोक्षिप्तशीतलजलधाराभिषिच्यमाना समाश्वासिता सती रुद्यमानवमादीत-त्वमस्माकमेक एव पुत्रोऽसि, इष्टः कांतो रत्नभूतो निधिभूतो जीवितभूत उम्बर पुष्पवदुर्लभः,ततो नैवं वयमिच्छामस्तव क्षणमात्रमपि विप्रयोग, ततः पुत्र! त्वं तावद्गृहे तिष्ट ? यावद्वयं जीवामः. अस्मासु कालगतेषु परिवर्धितकुलसंतानस्त्वं पश्चात्परिव्रजे. ततः स महाबल एवमवादीन् , हे मातर्यत्वं वदसि तत्सर्व मोहविलमितं. परं मनुष्यभवे जन्मजरामरणशोकाभिभूतेऽध्रुवे संध्याभ्ररागसदृशे स्वप्नदर्शनोपमे विध्वंसनस्वभावे मम प्रीति स्ति. को जानाति हे मातः! कः पूर्व कः पश्चाद्वा गमिष्यति । अतोऽहं शीघ्रमेव प्रत्रजिष्यामि, For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१०९॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९ त्यारे ते महाबल बोल्यो के-'हे माता पिता ! आपनी आज्ञा पामीने हुँ प्रवज्या लेवा इच्छु छ. आ संसारना भयथी हु उद्धिम-कंटाळयो छु. त्यारे कोइ दिवस नहीं सांभळेली एवी पुत्रनी अनिष्ट वाणी सांभळी रुवाडे संवाडे चहेता परसेवाथी आगात्रवाळी तथा शोकना भारथी ध्रुजती निस्तेज दीनमुखवाळी हाथथी मसळी नाखेला कमलनी माळा जेथी म्लान थइ गइ, केशनो अंबोडो छूटी गयो जाणे त्रुटी पडो होय तेम धरणी तले मृर्जा खाइ पडी गइ, परिचारिकाओये सुवर्णकलश शीतल जळथी भरी तेना पर सिंचन कर्यु त्यारे जरा सावध यह रोती रोती बोली के-'अरे! तु अमारो एकनो एक पुत्र छो, बहु मनोहर छो बहु बहालो होइ अमारो रत्नभूत निधि भंडार तुल्य तथा जीवितभूत छो. उंबरना पुष्प जेवो दुर्लभ छो तेथी अमे क्षण मात्र पण तारो आम वियोग थाय ए नथी इच्छतां. माटे हे पुत्र ! अमे जीवतां छइये त्यां सुधी तो तु घरे रहे, अमे काळगत भृत थइये त्यारे तारा कुल संताननी वृद्धि करी पछी पत्रज्या लेजे. त्यारे महाबल बोल्यो-'हे मातः ! तमे जे कंइ बोल्या ते सर्व मोहविलसित छे परंतु जन्म, जरा, मरण, शोक, इत्यादिकथी अभिभूत तथा संध्याना वादळांना रंग जेवा अध्रुव-क्षणिक अने स्वम दर्शननी उपमा देवाय तेवा आ नाश स्वभाववान् मनुष्य भवमा मने जराय पीति नथी. वळी हे मातः ! कोण जाणे छे | जे कोण पूर्वे जशे अने कोण पाछळथी जशे ? माटे हु तो शीघ्र प्रव्रज्या ग्रहण करीश. ततः सा प्रभावत्येवमवादीत्, पुत्र ! इदं ते शरीरं विशिष्टरूपलक्षणोपेतं, विज्ञानविचक्षणं, रोगरहितं, सुखोचितं प्रथमयौवनस्थं वर्तते, अतस्त्वमेतादृशशरीरयौवनगुणाननुभव ? पश्चात्पव्रजे. ततः स महाबल एवमवादीत , | हे मातरिदं मनुष्यशरीरं दुःखायतनं, विविधव्याधिग्रस्तमस्थिसंबद्धं, नसाजालसंबद्धं, अशौचनिधानमनवस्थिताकारं For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kcbatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१०९२॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९२॥ सम्परालाका DDLADDADANDAudipper विनश्वरमेव भविष्यतीतीच्छाम्यहं त्वरित प्रबजितुं. ततः सा प्रभावत्येवमवादीत् पुत्र! मास्तव सर्वकलाकोमलस्वभावा मार्दवार्जवक्षमाविनयगुणयुक्ता हावभावविचक्षणा: सुविशुद्धशीलाः कुलशालिन्यः प्रगल्भवयस्का मनोऽनुकुलभावानुरक्ता अष्टौ तव भार्याः संति, ताभिः समं भोगान् भुंक्ष्व ? पश्चाद्य:परिपाके परिव्रजेः. त्यारे वळो प्रभावती बोल्यां-'हे पुत्र! आ तारुं विषिष्ट प्रकारना रूपवाळु तथा शुभलक्षण संपन्न, रोगरहित अने सुख भोगववा लायक इजी तो पहेली युवावस्थामा वर्ते हे माटे आवा शरीर तथा यौवनने योग्य गुणोनो अनुभवलीयो अने पछी प्रव्रज्या लेजो. महाबल बोल्यो के-'हे मातः ! आ शरीर अनेक दुःखोनुं घर छे, वळी विविध व्याधिओवडे ग्रस्त छे, हाडकांथी जडेलु, नसोनां जाळाथी बंधायेलु, अशुचि पदार्थोनू निधान-खाणरूप, अनवस्थित=क्षणे क्षणे बदलाता=आकारवालु सर्वथा नाश पापवानुंज माटे हुँ तो तुरत प्रवजित थवा इच्छु छु'. त्यारे प्रभावती कहे-अरे पुत्र ! आ तारी सर्व कला कुशल कोमल स्वभाववाली तथा मृदुता सरलता, क्षमा,विनय; इत्यादि गुणोथी युक्त, हावभावमां विचक्षण विशुद्ध शीळवाळी उत्तम कुळोनी समजु अवस्थावती तेमज तारा मनने अनुकुल भावे अनुसरनारी तारामां पूर्ण अनुरागवाळी आठ भार्याओ छे तेनी साथे हमणा तो भोग भोगवो ने पछे वयःपरिपाक-वृद्धता थाय त्यारे प्रव्रज्या लेजो. ततः स महाबल एवमवादीत्-इमे खलु मानुष्यकाः कामभोगा उच्चारप्रश्रवणश्लेष्मवातपित्ताश्रयाः शुक्रशोणितसमुद्भवा अल्पक्रीडिता बहुपसर्गाः कटुकविपाकदुःखानुबंधिनः सिद्धिविघातकारिणः संतीति सद्य एवाहं प्रवजिष्यामि. पुनर्मातापितरावेवमूचतु:-पुत्र! परंपरपर्यायाद्बहुहिरण्यसुवर्णविपुलधनधान्यानि स्वयमास्वादमानोड حالتحالقطار الحالي للانتقال الطاولالتقاليد فالاحالا For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir الانتقالار भाषांतर अध्य०१८ |१०९३॥ हुचराध्य न्येषां दानाचानुग्रहाण ? मनुष्यलोकसत्कारसन्मानान्यनुग्रहाण ? पश्चात्परिव्रजे, ततः स महाबल एवमवादीत-इदं यन सूत्रम् सर्व हिरण्यादिकं वस्त्वग्निग्राह्य, दायादग्राह्य,भृत्यग्राह्यमध्रुवं विद्युदचश्चल, नास्य भोगः केनापि ग्रहीतुं शक्या,इति शीघ्रमेवाहं प्रव्रजिष्यामि, ततो मातापितरौ विषयप्रवर्तकवाक्यैरेनं गृहे रक्षितुं न शक्नुतः, अथ संयमोद्वेगकरैरेव॥१०९३२॥ मूचतुः-पुत्र ! अयं निर्ग्रन्धमार्गो दुरनुचरोऽस्ति, अत्र लोहमया यवाश्चर्वणीयाः संति, गंगाप्रतिश्रोतमि गंतव्यमस्ति, arll समुद्रो भुजाभ्यां तरणीयोऽस्ति, दीप्ताग्निशिखायां प्रवेष्टव्यमस्ति, खड्गधारायां संचरणीयमस्ति, पुत्र ! निग्रन्थाना माधाकर्मिकं बीजादिभोजनं च न कर्तव्यमस्ति. पुत्र! त्वं तु सुकुमालोऽसि, सुखाचितोऽमि, न त्वं क्षुधातृषाशीती- | Ptण्यादिपरीषहोपसर्गान् सोढुं समर्थोऽसि. पुनभूमिशयनं, केशलोचनमस्नानं, ब्रह्मचर्य, भिक्षाचर्यां च विधातुन शक्नोऽसि. ततः पुत्र! त्वं तावद् गृहे तिष्ट यावद्वयं जीवामः, ततः स महाबल एवमवादीत्--अयं निर्ग्रन्थमार्गः क्लीवानां कातराणां चेहलोकप्रतिबद्धानां परलोकपरा खानां दुरनुचरोऽस्ति,न पुनर्वीरस्य निश्चितमतेः पुरुषस्य किमप्यत्र दुष्करणीयमस्तीति मामनुजानीत प्रव्रज्यागृहणार्थ. त्यारे महाबले क[-आ तो बधा मानुष्यक कामभोगो छे ते तो सघळा उच्चार (मळ) प्रश्रवण (मूत्रादि) श्लेष्म (लीट कफ) तथा वात पित्तादिकना आश्रयभूत अने शुक्र तथा शोणितथी उद्भवेला छे जेमां क्रीडा तो अल्प छे पण उपद्रवो घणा के बळी परिणामे कडवा दुःखनां कारण होइ मिदिना विघातक छे माटे हु सद्यः आजेज प्रत्रजित थइश. वळी माता पिता बोल्या 'हे पुत्र ! आपणा घणा पूर्व पुरुषोनी परंपराथी घणां सुवर्णथी भरेला खजाना छे ए धन तथा धान्यादि सम्पचिनो तमे पोते आस्वाद लोगो For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie A भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९४|| तथा बीजाओने दान दइने अनुग्रह करो. मनुष्यलोकना सत्कार तथा सन्मानोने स्वीकारो अने पछी परिव्रज्या लेजो.' महाबले उत्तराध्य-13 का-ए सबलु सुवर्णादिक वस्तु कह्यां ते कांतो राजग्राह्य अथवा अग्निग्राह्य के दायाद=भायातोना ग्रह्य थवाना अने कांतो नोकर पन सूत्रम् चाकरने हाथ पडवाना समजवा. वीजळी जेवा चश्चळ ए पदार्थोनो भोग कोइए लइ शकवानो नथी. माटे हुँ तो शीघ्र प्रव्रज्या ॥१०९॥ Bal इश. आम माता पिता बन्ने महाबळने विषय प्रवर्शक वाक्योवडे तो घरे राखी शक्या नहीं त्यारे हवे संयम उपर अभाव लाववा माटे आवां वचन बाल्या-'हे पुत्र ! आ निबन्ध मार्ग आचरवो घणो दुःखदायी छे, एमां तो लोढाना चव चाववाना छे, गंगाना प्रवाहने सामे जवानु छ, समुद्रने हाथी तरवो छे, बळता अग्निनी ज्वाळामां प्रवेश करवो छे, खड्गनी धारपर चालवानुं छे, हे पुत्र ! ए निर्ग्रन्योर्नु आधार्मिक बीजादि भोजन करवू पडशे; वळी हे पुत्र ! तुं तो बहु सुकुमाल छो अने सुख भोगववा लायक छो तेथी भूख, तरस, शीत, उष्ण, इत्यादि परोपह संबन्धी उपद्रवोने तुं सहन करवा समर्थ नथी. एमां तो बळी भूमि उपर मूवानुं केशन लुंचन करवानु, नवाय नहीं, माटे हे पुत्र! अमारा जीवता मूधी तो तु घरेज स्थिति कर.' त्यारे महाचल बोल्यो केए निम्रन्थमार्ग जे क्लीब होय जे व्हीकण होय वळी आ लोकमां बन्धाइ रह्या होय तथा परलोकथी विमुख होय तेवाओने तो खरेखर तमारा कहेवा प्रमाणे आचरवो दुष्कर छे पण जे वीर, निश्चित मतिमान् पुरुष होय तेने तो एमां क°य दुष्कर नथी माटे मने पव्रज्या लेवा अनुज्ञा आपो. अथ मातृपितृभ्यां तं गृहे रक्षयितुमशक्ताभ्यामवाञ्छयैव प्रव्रज्यानुमतिस्तस्य दत्ता. ततो बलराजा कौटुंबिकपाहस्तिनागपुरं बाह्याभ्यंतरे संमार्जितोपलिप्तं कारपति, तं महाबलं कुमारं च मातापितरौ सिंहासने समारोपयतः, AMACHANDOROADAALANAADAM For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् || ॥१०९५॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९५॥ عفية فالفا بیفات مجاني في السياره لیفانفجا ههنا لا सौवर्णिककलशानामष्टोत्तरशतेन यावद्भौमेयानामष्टोत्तरशतेन सर्वा महान् निष्क्रमणाभिषेकोऽस्य कृत: पिता बभाण पुत्र! भण? तव किं ददामि ? कस्य वस्तुनः सांप्रतं तवार्थः ? ततः स महाबल उवाच-इच्छामि तात! कुत्रिकापणादेकेन लक्षण पतद्ग्रह, एकेन लक्षण रजोहरणं, एकेन लक्षण काश्यपाकारणमिति.ततो बलराजा कौटुंबिकपुरुक्षेत्रीण्यपि वस्तूनि प्रत्येकमेकैकलक्षणानायितवान्. ततः स काश्यपो वसुभूतिनामा बलेन राज्ञाभ्यनुज्ञातोऽष्टगुणपोतिकेन पिनद्धमुखश्चतुरंगुलवर्जकेशान् महाबलमस्तके चकते. प्रभावती तान केशान् हंसलक्षणपटशाटके प्रतिक्षिपति, तच्च वस्त्रं स्वोच्छीर्षकस्थाने न्यस्यति. ततः स महाबलो गोशीर्षचंदनानुलिप्तः सर्वालङ्कारविभूषितः पुरुषसहस्रवाह्यां शिविकामारूढः, एकया वरतरुण्या धृतातपत्रो द्वाभ्यां वरतरुणीभ्यां चाल्यमानवरचामरो मातृपितृभ्यामनेकभटकोटिपरिवृतः प्रव्रज्याग्रहणार्थ चलितः. आवी रीते ज्यारे माता पिता तेने घरे राखवा सर्वथा शक्तिमान न थया त्यारे पोतानी इच्छा नहीं छतां ते महाबलने प्रव्रज्या गृहण करवा माटे अनुज्ञा आपी. आ वखते बल राजाए पोताना कौटुंबिक जनो मारफत इस्तिनागपूरना अंदर तथा बहार साफ करावी पाणी छंटाची घरोना आंगणा लीपावी शहेर स्वच्छ कराव्यु. अने ते महाबल कुमारने तेना पिनाए सिंहासन उपर बेसाडी एकसो आठ माटीना कळशवडे सर्व प्रकारनी ऋतिथी महोटो निष्क्रमणाभिषेक चारित्र सेववा घरमांथी नीकली जवा टाणानो अभिषेक कर्यो. पिताए का-'हे पुत्र! तुं बोल, शुं तने हुँ आपु? आ वखते तारे कइ वस्तुनुं प्रयोजन के ? त्यारे महाबल बोल्यो के-कुत्रिकआपण दुकानथी एक लाखवढे पतद्गृह तथा एक लाखथी रजोहरण अने एक लाखवडे काश्यपाकारण इच्छु النقل المعاملات القلب مدل For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IJEN भाषांतर अध्य०१८ छु. बल राजए कौटुम्बिक पुरुषो द्वारा त्रणे वस्तु प्रत्येक एक एक लाख खरचीने मगावी दीधा ते पछी वसुभुति नामा काश्यपे उत्तराध्य बलराजाए आज्ञा करी तेथी अष्टगुण पोतीयांथी मुख ढांकीने चार अंगुल छोडीने महाबलना मस्तकना केश कातरी नाख्या. प्रभापन सूत्रम् 56 वती ते केश हसचिन्हत साडलामां नाखतां आव्या अने ते वाळ सहित वस्त्र पोताना ओशीका ठेकाणे राख्यु. ते पछी महाबलने ॥१०९६॥ गोशीर्ष चंदनवडे सर्व अंगे अनुलेपन कर्यु सर्व अलंकारोथी तेने शणगारवामां आव्या अने एक हजार पुरुषो उपाडे एवी पालखीमा चड्या एक बार वनिताए उपर छत्र धर्यु, वे वार वनिताओए वे बाजु चमर ढोळवा मांड्या अने माता पिता तथा अनेक भडवीरोथी परिवृत थइ प्रव्रज्या गृहण करवा माटे चाल्या. । तदानीं तं नगरलोका एवं प्रशंसंति, धन्योऽयं, सुलब्धजन्माघ महाबलकुमारो यः संसारभयोद्विग्नः सर्व सांसारिकविलासमपहाय प्रथमवयःस्थ एवं परिव्रजति. एवं लोकः प्रशस्यमानः प्रलोक्यमानोंगुलिभिदृश्यमानः पुष्पफलेषु विकीर्यमाणेषु, याचकेभ्यश्च स्वयं दानं ददद्धस्ति नागपुरमध्यं मध्ये निर्गच्छन् धर्मघोषानगारांतिके समायातः, शिचिकातश्च प्रत्यवतीर्णः ततो महाबलं कुमारं पुरतः कृत्वा मातापितरौ धर्मघोषमनगारं वंदित्वैवमवदतां, भगवन्नेष महाबलकुमारः संसारभयोद्विग्नः कामभोगविरक्तो भवदंतिके प्रवजितुमिच्छति, तत इमां शिष्यभिक्षां वयं दद्मः, स्वीकुर्वतु भवंतः. धर्मघोषानगार एवमुदाच यथासुखं देवानुप्रिया मा प्रतिबंधं कुरुत? ततः स महायलो हृष्टतुष्टो धर्मघोषमनगारं वंदित्वोत्तरपूर्वदिगंतरालेऽपक्रम्यालंकारवर्गमुत्तारयति. अश्रूणि मुंचंती प्रभावती देव्युत्तरीयवस्ने तमलंकारवर्ग प्रक्षिपति. महाबलकुमारप्रत्येवमवदत् , पुत्र ! अबार्थे विशेषाद् घटितव्ये यतितव्यं, अत्रार्थे न प्रमाद्यं, For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandie www.kobatirth.org उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥१.९७॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९७॥ ततः स महायला पंचमौष्टिक लोचं करोति. ततोऽसौ धर्मघोषानगारांतिके समागत्यैवमवादीत् , भगवन्नयं लोक आदीप्तप्रदीप्तो जरामरणग्रस्तश्चास्तीति स्वयमेव मां प्रव्राजयत ? । ते वखते तेने नगरनां लोको-'आ महाबलकुमारने धन्य छे, ए तो कृतार्थ यया, आणे जन्म भले धारण कयु के जे संसार| भयथी उद्विग्न थइने सर्व सांसारिक मुखोने पडता मूकी आवा प्रथमवयःस्थ युवानीमांज आची रीते प्रव्रज्या लीए छे.' आवी रीते प्रशंसा करवा लाग्यो, आम लोकोए प्रशंसा कराता तथा आंगली चींधी देखाडाता अने मार्गमा पुष्प फलादिक आगळ वेराय छे तेवी रीते हस्तिनागपुर सौंसरो वचमां याचकोने दान देतां देतां ठेठ उद्यानमा ज्यां धर्मघोष अनगार स्थित छे तेमनी समीपे आल्या. पालखीमाथी हेठा उतर्या, त्यारे महाबल कुमारने आगळ करी तेना माता पिता, धर्मघोष अनगारने वंदन करी बोल्या के-'भगवन् ! आ महाबल कुमार संसारभयथी उद्विग्न तथा कामभोगथी विरक्त थइ आठनी समीपे पत्रज्या गृहण करवा इच्छे छे तेथी आ शिष्यरूपी भिक्षा अमे आपने दइए छइए ते आप अंगीकार करो.' त्यारे धर्मघोष अनगार बोल्या के-'हे देवानुपिय ! मुखेथी भटे करे तमे प्रतिबंध मा करशो.' ते बखते महाबल हर्ष तथा संतोष पामी धर्मघोष साधुने वंदन करी इशान खुणामां जइ बधा अलंकारो उतार्या. आंखमाथी आंसु ढाळती प्रभावती देवी ते आभूषणो एक उत्तरीय वस्त्रमा नाखतां बोल्या के-'हे पुत्र ! आ बाबतमा तमारे विशेषतापूर्वक घडावानुं छे, यत्न करवानो छे, अने एमां प्रमाद करवानो नथी.' तदनन्तर महावले स्वयं पांच मुष्टिनो लोच को अने पछी धर्मघोष साधु पासे आवीने बोल्या के-'हे भगवन् ! आ लोक तो चळतो जळतो छे बळी जरा मरणादिथी ग्रस्त छे माटे आप स्वयं मने पत्रज्या दीक्षा आपो. له قفقا لتلافات ف عالة لتقدان بالاجا للحاف عليها الفنالها بصفر Someलाल For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir من الله ست ख उचराध्यपन सूत्रम् ॥१०९८॥ भाषांतर अध्य०१८ ॥१०९८॥ ३ كيفية اليمنالنا لمن لمحه لالالالالالالالا ततः स धर्मघोषसरिस्तं स्वयमेव प्रव्राज्य सामाचारीमशिक्षयत्. ततो महाबलोऽनगारो जातः. पंचसमितित्रिगुप्तियुक्तः क्रमेण चतुर्दशपूर्वधरश्चाभूत. बहुभिश्चतुर्थषष्टाष्टमादिभिर्विचित्रैस्तपःकर्मभिरात्मानं भावयन , द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्यायमनुपालयन , अंते मासिक्या संलेखनया आलोचितप्रतिक्रांतः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा स ब्रह्मकल्पे दशसागरोपमस्थितिको देवो बभूव. ततश्च्युतश्च श्रेष्ठिकुले वाणिजग्रामे पुत्रत्वेनोत्पन्नः. तत्र सुदर्शन इति कृतनामोन्मुक्तबालभावः श्रमणस्य श्रीमहावीरस्यांतिके प्रव्रजितः. क्रमेण सिद्धश्चेति महाबलकथाः ॥ १६ ॥ ते पछी ए धर्मघोषमूरिए पोतेज तेने प्रव्रज्या दीक्षा आपीने सामाचारीनुं शिक्षण आप्यु. हवे महाबल कुमार पण अनगार थया. पश्च समिति तथा त्रिगुप्ति युक्त थइ क्रमे करी चतुर्दश पूर्वधर पण थया. घणांक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदिक विचित्र तपः कर्मोवडे आत्माने भावित करी बार वर्ष पर्यंत श्रामण्य-साधुत्व पर्यायन पालन करीने अने मासिकी संलेखनावडे आलोचित तथा पतिक्रांत थइ प्राप्त छे समाधि जेने एवा काळमासे काळ करीने ते ब्रह्मकल्पमा दश सागरोपमनी स्थितिवाला देव थया; त्यांथी च्यवीने वाणिज ग्राममा श्रेष्ठिकुलने विषये पुत्र थइने अवतर्या त्यां तेनु सुदर्शन नाम हतु ते बाळ भावथी मुक्त थतांज श्रमण श्रीमहावीरनी समीपेज प्रव्रजित थया अने क्रमे करी सिद्ध यया. इति महाबळ कथा. १६ कहं धीरे अहेऊहिं । उम्मत्तव्य महिं चरे । एए विसेसमादाय । सूरा दढपरफमा ।। ५२॥ (कई धीरे०) धीर पुरुष अहेतुवडे उन्मत्तनी पेठे पृथ्वीपर केम विचरे? मा शूर तथा हद पराक्रमवाळा [भरतादिक पुरुषोए विशेष ग्रहण करीने (सम्यक्त्वनो आश्रय करेलो के.) ५२ For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अश्य०१८ ॥१०९९॥ व्या-हे मुने ! एते भरनादयः शूरा धैर्यवतः, पुनदृढपराक्रमाच संपमे स्थिरवीर्यभाजो बभूवुरिति शेषः. किं उत्तराध्य कृत्वा ? विशेषं मिथ्यादशिभ्यो जिनमतस्य विशेषं गृहीत्वा मनस्याधाय. तस्मात हे मुने! धीरः साधुरहेतुभिः क्रिया यन सूत्रम् १ अक्रिया २ विनय ३ अज्ञान ४ प्रमुखैः कुत्सितहेतुभिर्विपरीतभाषणैरुन्मत्त इव मद्यपानीव मयां पृथिव्यां कथं ॥१०९९॥ चरेत् ? तस्मात्चयापि धीरेण सता तत्रैव मनो निश्चितं विधेयमिति हार्द. ॥५२॥ PER हे मुने ! आ भरतादिक शूरो धैर्यवान् तथा दृढ पराक्रमवाळा=संयममां स्थिरवीर्य सेवी-थया. (एटलं शेष छे.) केम करीने ? विशेष एटले मिथ्यादर्शि करतां जिनमतनी विशिष्टता ग्रहीने, अर्थात् मनमां मनमां धारीने ते माटे हे मुने ! धीर साधु, अहेतुवडे एटले क्रिया १, अक्रिया २, विनय ३, अज्ञान ४, आदिक कुत्सित हेतुपयुक्त विपरित भाषणोथी उन्मत्त मद्यपी जेवा पृथ्वीमां केम विचरे ? अपितु स्वेच्छाथी जेम तेम प्रलाप करता जाज फरे ते कारण माटे तमारे पण धीर बनीने तेमांज मन निश्चित कर. ( एवं हाई छे.) ५२ अचंतनियाणखमा मच्चा मे भामिया वई ।। अतरिंसु तरंतेगे। नरिस्संति अणगया ॥ ५३ ।। (अञ्चत०) अत्यन्त निदान-कर्ममळ शोधन-मां समर्थ जनो में जे सत्य वाम् भाषिता-कही ते वाणीवडे पूर्व तरी गया छे तेम इमणां पण केटलाक तरी जाय छे अने अनागत-भविष्यना पण तरी जशे. ५३ व्या०-हे मुने! मे मया सत्या 'वई' इति सत्या वाक् भाषिना, प्राकृतवास्तृतीयायां षष्टी. जिनशासनमेवात्रयमित्येवंरूपा वाणी मयोक्ता. अनया वाण्यांगीकृतया यहयो जना अतरन् , संसारसमुद्रं तरंलिस्म, एकेऽनया वाण्ये APPEADSLR2E31 - -- For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दानीमपि तरंति, अनागता अप्यग्रे भाविनो भव्या अप्यनया वाण्या भवोदधि तरिष्यंति. कीदृशास्ते भूतभविउत्तराध्य. ध्यवर्तमानजनाः ? अत्यंतनिदानक्षमाः, अत्यंत निदानं कर्ममलशोधन लत्र क्षमाः कर्ममलप्रक्षालनसावधानाः, नितरां | भाषांतर यन मुत्रम् | दीयते शोध्यते पवित्रीक्रियतेऽनयेति निदानं, दैप शोधने इत्यस्य रूपं. ॥ ५३ ।।। अध्य०१८ ॥११०॥ हे सुने ! में सत्या वाक् भाषिता-कही, ('मे' ए षष्ठी प्राकृतमा तृतयाना अर्थमां थइ शके छे.) अर्थात जिनशासनो आश्रय EHI|११००॥ ३) करवो एवी में जे वाणी कही आ वाणीनो अंगीकार करीने पूर्वे घणाय जनो संसार समुद्रने तरी गया छे, केटलाक ए वाणीथी हमणा पण तरे छे तेम अनागत आगळ उपर भविष्यमा थनारा पण भव्य जीवो आ वाणीवडे भदोदधिने तरी जशे. वे भूत भवि|| प्यत तथा वर्तमान काळना जनो केवा ? अत्यन्त निदान कर्ममळ शोधन-मां क्षम, अर्थात कर्म मळ पक्षालन करवामां सावधान नितरां अत्यंत दोयते पवित्र कराय आनावडे, ते निदान " देर शोधने " धातुमाथी बनेलो आ निदान शब्द छे. ५३ कहं धीरे अहेऊहिं । अत्ताण परिआवसे ।। सव्वसंगविणिम्मुक्के । सिद्ध हवह नीरप सि बेमि ॥५४॥ कह धीरे धीर-साध, अहेतुबडे अर्थात् पूर्वोक्त क्रियावादी वगेरेना कुत्सित हेतुरूप वचनोवडे पोताना आत्माने केम परिवासित करे ? सर्वथा न करे, अने पम करीने सर्व संगथी विनिर्मुक्त थह नीरजा-रजोगुणथी रहित सिद्ध थाय छे. एम हुं बोलु छु. ५४ व्या०-धीरः माधुरहेतुभिः क्रियावाद्यादिकुमतीनां वचोयुक्त्यसत्प्ररूपणालक्षणैमिथ्यात्वस्य कारणैराणैरात्मानं स्वीकीयमात्मानं कथं पर्यावासयेत् ? कुत्सितहेतुनामावासमात्मानं कथं कुर्यात् ? अपि तु न कुर्यादित्यर्थः, किमित्धं स्थितस्य फलं स्यादित्याह-सर्वसंगौर्दव्यभावभेदेन संयोगैः मंयोगेभ्यो वा विशेषेण निर्मुक्तः सर्वमंगविनि For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥११०१॥ www.kobatirth.org ः सन् साधुः सिद्धो भवति, कर्ममलापहारेण नीरजा निर्मलः स्यादुज्ज्वलो भवेदित्याद्युपदेशं दत्वा क्षत्रियमुनिमहतले विजहार संयतमुनिरपि चारित्रं प्रपाल्य मोक्षं प्रापेति सुधर्मास्वामी जंबुस्वामीनं प्राह, हे जंत्र अहं ब्रवीमि इति परिसमाप्तौ ॥ ५४ ॥ इतिसंगतीयाध्ययनं. १८. इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायामुपाध्यायश्रीलक्ष्मीकीतिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां संयती द्याध्ययनमष्टादशमर्थतो व्याख्यातं. १८ धीर=साधु, अहेतुवडे एटले क्रियावादी वगेरे कुमतवाळाभोना वचननी युक्तिओथी असत् प्ररूपणात्मक मिध्यात्वनां कारणभूत वचनोव डे - पोताना आत्माने केम पर्यावासित करे ? एवा कुत्सित हेतुभोनो आवास पोताना आत्माने केम करे ? अपि तु नज करे. एवी रीते रहेबाथी शुं फळ थाय ? ते कहे छे- सर्व संगथी, अर्थात् द्रव्य तथा भाव भेदथी वे प्रकारना संयोगोथी विशेषे करी निर्मुक्त एटले सर्वसंगथी निर्मुक्त थइने ए साधु सिद्ध थाय छे. कर्ममळनां अपहारे करी नीरजाः = निर्मळ थाय = उज्ज्वल थाय; इत्यादि उपदेश दइने क्षत्रिय मुनिए महीतलमां विहार कर्यो अने संयतमुनि पण चारित्र परिपालन करी मोक्षे गया. सुधर्मास्वामि जम्बूस्वामीने कहे छेके - 'हे जम्बू ! एम हुं बोलु छु' इति संयतीय अध्ययन. १८ इति श्रीलक्ष्मीकीर्त्तिगण शिष्य लक्ष्मीवलभगणि विरचित उतराध्ययनसूत्रार्थदीपिका नामनी टीकामां संयतीयनामक अढारमुं अध्ययन अर्थथी व्याख्यात कर्यु-पूर्ण थयुं I 00: ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रे अष्टादशोऽध्ययनं संपूर्णम् ॥ L Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only די भाषांतर अध्य०१८ ॥११०१ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Imami amitiiIMIMMINI JOHINITIN INIMIM CineHINHINI TIMISSILIPI OGISESSED ॥ इति श्रीमदुत्तराध्ययनसूत्रे चतुर्थो भागः समाप्तः॥ can not wantino) www filmininascetur riun Tue) (COLA DE BORBERATIEKETE) Tante KIKAWALENTARNOBILNOTAIZRAINEDITE ALINILO For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.katestirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir For Private and Personal Use Only