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उत्तराध्यपन सूत्रम् ॥१००२।।
3 भाषांतर
अध्य०१८ ॥१००२॥
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महाराज ! देवानां रूपयौवनतेजांसि प्रथमवयसः समारभ्य षण्मासशेषायुःसमयं यावद्वस्थितानि भवंति, यावज्जीवं न हीयंते. भवतां शरीरे त्वाश्चर्य दृश्यते, यत्तव रूपलावण्यादिकं सांप्रतमेव दृष्टं नष्टं. राज्ञा भणितं कथमेवं भवद्भ्यां ज्ञातं ? ताभ्यां शक्रप्रशंसादिकः सर्वोऽपि वृत्तांतः कथितः.
एक समये मुधर्मा सभामां सौधर्मेंद्र सिंहासन उपर अनेक देवदेवीओए सेवा कराता स्थित छे त्यां एक इशान कल्पदेव सौध| मैंद्र पासे आव्यो तेना देहनी प्रभाथी सभास्थित देवोनी देहप्रभा सर्वतः नष्ट थइ, मूर्य उगतां चंद्रादिकनी पेठे सर्व देवो निःप्रभ | थइ गया. ते पाछा पोताने स्थाने गया त्यारे देवोए सौधर्मेन्द्रने पूछ्यु के-'हे स्वामिन् ! आ देवनी आवी प्रभा क्या कारणथी थयेली छे ? इन्द्रे का के-एणे पूर्व भवमा आचाम्लबर्द्धमान अखंड तप कयु छे तेना प्रभावथी तेना देहनी आवी प्रभा थइ छे. त्यारे देवोए फरीथी इन्द्रने पूछयु के-"एना जेबो दीप्तिमान कोइ अन्य पण छे के नहीं" त्यारे इन्द्रे उत्तरमा का के-"हस्तिनागपुरने विषये कुरुवंशी सनत्कुमार नामनो चक्री छे तेनुं रुप सर्व देगेना करतां पण अधिक छे." आ इन्द्रना वचनमा अश्रद्वा करता विजय तथा बैजयंत ए वे देवो ब्राह्मण- रुप धारण करी हस्तिनागपुर आव्या. राजभवनना प्रतीहार द्वारथी खसी गयेल हता एटले ते बन्ने राजगृहनी अंदर प्रविष्ट थया. अने राजसमीपे आवी उभा. तो शरीरे तेल चोळावता राजाने जोइ अत्यंत विस्मय पाम्या अने परस्पर बोल्या के-इन्द्रे वर्णव्यु हतु तेनाथी पण आ राजानु रूप अधिक छे. राजाये तेओने पूछयु के-'आप बन्ने शा माटे अत्रे आब्याछो ? त्यारे देवो बोल्या के-आपना रुपनां त्रिभुवनमा वखाण सांभळी ते जोवाना कौतुकथी अमे बेय अत्रे आन्या छइए. राजाना मनमा पोताना रुपनो गर्व आव्यो तेथी ते बोल्यो के-'हे विमो! तमोए मारु रुप | जोयु ? थोडो
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