________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उत्तराध्य
पन मृत्रम
भाषांतर अध्य०१८ ॥१००३॥
॥१००३॥
4
समय थोभो तो हुँ मारी आ स्थान सभामां आवी बेसुं त्यारे जोजो.' 'भले एम करशुं आम बोली बन्ने ब्राह्मणो नीकली गया. चक्री पण झट स्नान करी सर्व अंग तथा उपांगमां आभूषणो धारण करी सभामां आवी सिंहासन उपर बेठा. बन्ने ब्राह्मणोने बोलाव्या. आ ब्राह्मणरूपधारी देवो सभामां आवी चक्रीनुं रूप जोइ अतिखिन्न थइ बोल्या के-'अहो! मनुष्योना रूप, लावण्य तथा यौवन क्षणवारमा दृष्ट नष्ट जेवा होय छे.' ब्राह्मणोना आवां वचन सांभळी चक्री बोल्या के-' हे ब्राह्मणो ! तमे आम खिन्न थइने कम मारा शरीरने निंदो छो? ते बोल्या के-'हे महाराज ! देवनां रुप यौवन तथा तेज प्रथम बयथी मांडीने छ मास आयुष्य शेप | रहे त्यां सुधी जेवा ने तेवा रहे छे. जीवतां सुधी हीन थतां नथी, तमारा शरीरमांतो आश्चर्य देखाय छे के जे तमारु रूप लावण्यादिक अमे जे हमणाज जोयु हतू ते क्षणमां दृष्ट नष्टथइ गयु. राजाए का के-'तमे एम केम जाण्य? त्यारे ब्राह्मणोए इन्द्र करेली प्रशंसा आदिक सघळो वृत्तांत कह्यो.
चक्रिणा तु केयूरादिविभूषितं याहयुगलं पश्यता, हारादिविभूषितमपि स्ववक्षःस्थलं विवर्णमुपलक्ष्य चिंतितमहो! अनित्यता संसारस्य ! अमारता शरीरस्य ! एतावन्मात्रेणापि कालेन मच्छरीरस्य यौवनतेजांसि नष्टानि. अयुक्तोऽस्मिन् भवे प्रनियन्धः, शरीरमोहोऽज्ञानं, रूपयौवनाभिमानो मुखत्वं, भोगासेवनमुन्मा::,परिग्रहो ग्रह इव, नदेनत्मर्य व्युत्सृज्य परलोकहितं संयम गृहामीति विचार्य चक्रिणा पुत्रः स्वराज्येऽभिषिक्तः, स्वयं संयमग्रहणायगेद्यता जाता. तदानीं ताभ्यां देवाभ्यां भणितं-अणुचरियं धीर तुमे । चरियं निययस्म पुब्बपरिसस्म ॥ भरहमहानरवडणो। तिहुअणविक्वायकित्तिस्स ॥१॥ इत्यायुक्त्वा देवौ गतो. चक्च्यपि तदानीमेव सर्व परिग्रहं परित्यज्य विरताचार्य समीपे प्रव्रजितः. ततः स्त्रीरत्नप्रमुखाणि सर्वरत्नानि, शेषाश्च रमण्यः, सर्वेऽपि नरेंद्राः सर्वसैन्यलोका नव निधयश्च
ان الاناناليا عباسياناتها لكل الاسنان الايلات
For Private and Personal Use Only