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उत्तराध्ययन सूत्रम्।
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अतिमात्र आहार पाणीनुं आहरण करनार होय तो निश्चये ते ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्थमां शंकादिक दोषो उत्पन्न थाय छे. ते कारण माटे शंकादिक दोषोनो प्रादुर्भाव थाय छे तेथी निश्वये निग्रंथे अतिमात्र पान के भोजन न लेकुं ८ एम आ अष्टम ब्रह्मचर्य समाधिस्थानक आ अष्टमी वाटिका दवे नवमी कहे छे.
नोनिग्गंथे विभूसाणुवाई हवइ, से निग्गंथे, तं कहमिति चेत् आयरियाह- निग्गंधे खलु विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थीजणस्स अहिलासणिज्जे हवइ, तओ णं तस्स इत्थीजणेणं अहिल सिज्जमाणस्स बंभयारिस्त बंभवेर संका वा० तम्हा खलु नो निग्गंथे विभूसियवत्तिए भवेज्जा ॥ ९॥
निर्ग्रथ विभूषणानुपाती - शरीर शोभानी पाछळ चीवट राखनार न होय ते निर्बंध थाय 'ते केम ?' एम पूछे त्यां आचार्य कहे छे निग्रंथ जो विभूषावृत्तिक- 'मारु शरीर विभूषित है एवी वृत्तिवाळो विभूषित शरीर थाय तो स्त्रीजननो निश्चये अभिलषणोय थाय, तदनंतर स्त्रीजनोना अभिलाषविषय बनेला प ब्रह्मचारीना ब्रह्मचर्य विषयमा शंकादि दोषो उत्पन्न थाय तेथी निश्चये निर्बंध विभूषित वृत्तिवाळो न थाय. ९
व्या० – स निग्रंथो भवेत्, यो विभूषानुषाती नो भवेत् विभूषां शरीरशोभामनुवर्त्तयितुमनुपतितुं विधातुं शीलमस्येति विभूषानुवर्ती, विभूषानुपाती वा, शरीरशोभाकरणोपकरणैः स्नानदंतधावनादिभिः संस्कारकर्ता न भवेत्, स साधुर्ब्रह्मचारी. इति श्रुत्वा तदा शिष्यः प्राह तत्कथमिति चेत्तदाचार्य आह- खलु निश्चयेन निग्रंथः साधुविभूषानुवर्तकः शरीरशोभाकारी विभूषितशरीरः स्नानाद्यलंकृततनुः पुमान् स्त्रीजनस्याभिलषणीयः कामाय वांछ
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भाषांतर अध्य०१६
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