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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम् ॥९२४॥ भाषांतर अध्य०१७ | ॥९२४॥ (पडिलेहेइ०) जे प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे छे तथा पादकंबळने ज्यां त्यां नाखी दीये छ वळी प्रतिलेखनामां अनायुक्त-आलस्यवाळो होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ९ व्या०-पुनः पापश्रणः स उच्यते, स इति कः ? यो वस्त्रपात्रादिकं निजोपकरण प्रमत्तः सन् प्रतिलेखयति, मनोविना प्रतिलेखयतीत्यर्थः, पुनर्यः पादकंवलं पादपुंछनमथवा पात्रकंबलमपोज्झति, यत्र तत्राऽप्रमार्जितेऽपतिलेखिते स्थले निक्षिपति. अत्र पात्रकंबलग्रहणेन सर्वोपधिग्रहणं कर्तव्यं. पुनर्यःप्रतिलेखनायां स्वकीयसर्वोपधिप्रतिलेखनायामनायुक्त आलस्यभाक् प्रत्युपेक्षोनुपयुक्त इत्यर्थः. एतादृशः पापश्रमणो भवेत् . ॥९॥ बळी पण पापश्रमण तो ते कहेवाय के जे वस्त्र पात्र आदिक पोतानां उपकरणोने प्रमत्त रही मतिलेखन करे-मन विना प्रतिलेखना करे. तथा जे पादकंबळपादपुंछन अथवा पात्रकंबल वगेरेने ज्यां त्यां नाखी दीये अर्थात जे स्थान मार्जित न करेल होय तेम पतिलेखित निरिक्षित पण न होय तेवा स्थानमा फगावी नाखे. अही पात्रकंबल पदथी सर्व उपकरणो ग्रहण समजवा छे, वळी जे प्रतिलेखनामा एटले पोतानां सर्व उपधिनी प्रतिलेखना करवामां अनायुक्त-चीवट वगरनो आलस्ययुक्त रहे अर्थात प्रत्युपेक्षावाळो अनुपयुक्त कहेवाय. एवो पापश्रमण होय छे. ९ पडिलेहेइ पमत्ते । से किंचि हु निसामि वा ॥ गुरुं परिभवई निच्छ । पावसमणित्ति वुचई ॥ १० ॥ (पडिलेहेइ०) प्रमत्त रही प्रतिलेखन करे अने ते वळी कंद सांभळतां सांभळ्तां करे अने गुरुने पराभव-संताप करे ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. १० الا وهتافاااااااااااااا For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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