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भाषांतर अध्य०१८ ॥१०६४॥
J सद्धर्मानुष्ठानमेव कुरु ? यत उक्तंउत्तराध्य-DE
हासा तथा प्रहासा बन्नेए दीठो त्यारे का के-तमारा आ शरीरथी अमारी साये भोग न थइ शके, तमे पाछा तमारे नगर यन सूत्रम्
BE जाओ अने पगना अंगुठाथी लइ मस्तकपर्यंत बळता अग्निवडे आलु शरीर बाळो त्यारे तमे फरी आ पंचशैलना अधीश बनीने अमारी ॥१.६४॥
51 साये भोग भोगववानी इच्छा पूर्ण करी शकशो. सोनी बोल्यो के-हवे पाछो हुं मारे गाम केम जइ शकुं ? त्यारे ए बेमांनी एक र देवीए पोतानी हाथेळीवती उपाडीने ए सोनीने तेना नगरना उद्यानमां की दोधो. लोको तेने पूछवा लाग्या के त्यां तमे शृं JE] आश्चर्य जायु? तेणे कयु-में पंचशैलद्वीप सांभळ्यो हतो ते दीठो अने अनुभव्यो पण, ज्यां अति वखाणवा योग्य हासा तथा | PE प्रहासा नामनी बे देवीओ बसे छे. हवे अहीं आवीने कुमारनन्दी सोनीए तो पोताना पगना अंगुठे अनि मुकी मस्तक सुधी आखं
शरीर वाळवा मांडयु, त्यारे तेना मित्र नागिल मामना श्रावके रोक्यो अने का के-'हे मित्र! तारुं आ कुत्सित पुरुषना जेवू चेष्टित उचित नथी. महानुभाव ! आ मनुष्य जन्म दुर्लभ छ तेने हारी जा मां आ भोग सुख तुच्छ छ यद्यपि तुं भोगार्थी छो तथापि सद्धर्मना अनुष्ठान करो. कह्यु छ के
धणओ धणत्थियाणं । कामत्थीणं च सव्वकामकरो। सग्गापवग्गसंगम-हेऊ जिणदेसिजो धम्मा ॥ १ ॥ इत्यादिशिक्षावादेर्मित्रेण स वार्यमाणोऽपि इंगिनीमरणेन मृतः पंचशैलाधिपति र्जातः. तन्मिन्त्रस्य श्रावकस्य महान् खेदो जातः, अहो! भोगकार्य जना इत्थं क्लिश्यंति. जानन्तोऽपि वयं किमत्र गार्हस्थ्य स्थिताः स्म इति स श्रावकः प्रवजितः, क्रमेण कालं कृत्वाऽच्युत्तदेवलोके समुत्पन्नः. अवधिना स स्ववृत्तांतं जानातिस्म. अन्यदा नन्दीश्वरयात्रार्थ
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