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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥१०४७॥ मस्तक छेदावीश. ते पछी ते विष्णुकुमार नाना प्रकारना रूप धारण करी बचा मांड्यो. ते क्रमे करी एक लक्ष योजन प्रमाणर्नु उचराध्य रूप धायु, पगला चे मुकता तो गाम आकर नगर पर्वत सागर वैगेरेथी व्याप्त आखी पृथ्वी कंपी उठी अने पर्वतनां शिखरो पाडी यन सूत्रम् नाख्यां, समग्र त्रिभुवनमां क्षोभ करता ते मुनिने इन्द्रे जाण्या तेथी तेना कोपनी उपशांति करवा इन्द्रे गायन देवीभोने मोकली ॥१०४७॥380 तेओ गावा लागी के-'पोताने तथा परने संताप करनारो तेमज धर्मरूपी वननो दावाग्निरूप, वळी कुगतिनो हेतु एवो कोप के पाटे तेनो उपशम करो हे भगवन ! इत्यादिक गीतो ते अप्सराओएं वारंवार संभळाव्या. ते मुनिए नमुचिने सिंहासन उपरथी पृथ्वीपर orlपाडी नाख्यो, अने पूर्व तथा पश्चिम समुद्र उपर वे पगलां मृकी सर्वजनने भयभीत कर्या, आ वृत्तांत महापद्मचक्रीना जाणवामां आवतो. ते त्यां आव्या तेने समस्त संघे तथा मुरासुर ममुदाये शांति माटे विविध उपचारोबडे उपशामित कर्या त्यारथी विष्णुकुमार त्रिविक्रम नामथी प्रख्यात थया. ए मुनिनो कोप उपशांत थयो त्यारे आलोचना तथा प्रतिक्रमण करी शुद्ध थया. कयुके के-'आर्यों गच्छमां अथवा कुल गण के संघमा तथा चैत्यनो विनाश यतो होय त्यां आलोचना पूर्वक प्रतिक्रमणवडे विशुद्ध थाय थाय छ जेम विलुपनिर्जराथी' आ विष्णुकुमार मुनि निष्कलंक श्रामण्य=चारित्र पाळी केवळज्ञान उत्पन्न यतां सिद्धि पाम्या; तथा महापद्म चक्रवंतिं पण दीक्षा ग्रहण करी सुगति पाम्या. आ प्रमाणे आठमा चक्रवर्ति महापद्मनु दृष्टांत का. एगछतं पसाहिता । महिं माणनिमूरणो । हरिसेणो मणुस्सिंदो । पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४२ ॥ (पगच्छत्त) महीं पृथ्वीने एकछत्रा प्रसाधित करी-माननो "निषूरण-प्रतिपक्षीनो गर्ष उतारनार हरिषेण नामनो मनुष्येन्द्र-राजा अनुसर गति मोक्षगतिने प्राप्त थया. ४२ 5 Tài बालबाDUAD m For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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