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उत्तराध्य
पन सूत्रम् ॥८९५||
॥४॥ इदं चतुर्थ ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानं. ४. एषा चतुर्थी वाटिका ४. अथ पंचमी प्राह
ते निग्रंथ थाय होय कहेवाय, के जे स्त्रीयोनां मनोहर देखतां वेतन चित्तने आक्षिप्त करनारां, बळी मनोरम-मनने रमाइ- भाषांतर नारां एटले मनमां चिंतन करतां आडाद आपे एवां इंद्रियो नयन, बदन, जघन, वक्षःस्थल, नाभि, कक्षा; इत्यादिक पति आलोक D अध्य०१३ चारेकोर दृष्टि करीने निध्याता-एटले अत्यंत प्रीति पूर्वक जोया पछी मनमा अतिशय चिंतन करनारो जे न थाय ते निग्रंथ थाय.
| ॥८९५॥ आम कहेतां शिष्य पूछे छे के 'ते केम? त्यां आचार्य कहे . हे शिष्य ! निग्रंथने स्त्रीयोनां पूर्व कहेला इंद्रियोने चारे कोर दृष्टि फेरवीने निहाळतो अथवा ('आ' उपसर्गनो अर्थ 'ईषत'='जराक' एवो पण छे ते उपरथी) जरा पण ते तरफ दृष्टि करतो तथा नितरां अत्यंत ध्यान मनमां चिंतन करतो अर्थात् स्त्रीयोनां इंदयो उपर दृष्टि लगाडीने उभेला ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचर्यमा शंका आदिक दोषो समुत्पन्न पाय छे तेटला माटे निश्चयें निग्रंथे स्त्रीयोनां मनोहर तथा मनोरम इंद्रियोने नीहाळी जोनारा तथा जराय पण नजर नाखी मनमां ते इंद्रियोना निध्याता=चिंतन करनारा न य. स्त्रीना इंद्रियोने रागथी जोनार तथा तेनुं मनमां चिंतन | करनार साधु न होय. ४ आ चतुर्थ ब्रह्मचर्य समाधिस्थान का, आ चतुर्थी वाटिका, हवे पंचमी कहे छे.
नो निग्गथे इत्थीणं कुडतरंसि वा, संतरंसि वा, भित्तितरंसि वा, कूईयस वा, रूहयसरना, गीयसई वा, हसियसई या, धणियसई वा, कंदियसई वा, विलवियसह वा, सुणित्ता हवइ, से निग्गंथे. तं कहमिति चेत् आयरिय आह-निग्गंथस्स खलु इत्थीणं कुडंतरंसि वा, संतरंसि वा, भितितरंसि वा, कूड पसदं वा, मइयसई, वा, गीयसहं, वा, हसियसह वा, थणियसई वा, कंदियमई वा, सुणमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा, कंखा वा,
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