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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-३८ यन सूत्रम् ॥ भाषांतर अध्य०१६ ॥९०६॥ ॥९०५| जे विविक्त-एकांत होय तथा अनाकीर्ण-सांकडमां न होय तेमज स्त्रीजनोथी रहित होय एवा भालय-उपाश्रयने ब्रह्मचर्यनी रक्षा अर्थे साधु सेवे.१ ___ व्या०-साधुब्रह्मचारी तमालयं तमुपाश्रयं निषेवेत. तु पदपूरणे, तं के ? य आलयो विविक्त एकांतभूतः, तत्रत्य वास्तव्यस्त्रीजनेन चशब्दात्पशुपंडकैरपि रहितः, पंडकशब्देन नपुंसक उच्यते. कालाकालविभागागतसाध्वीजनं श्राद्वीजनं चाश्रित्य विविक्तत्वं ज्ञेयं, यदुक्तं-अठ्ठनीपक्खिए मोत्तुं । वायणाकालमेव य ॥ सेसकालंमि इंतीओ। नेया उ अकालचारीओ ॥१॥ तस्माद्य आलयः स्यादिभिरसेवितस्तनालयं ब्रह्मचारी साधुश्च निषेवेत इत्यर्थः. पुनर्यश्चालयोऽनाकीर्णो गृहस्थानां गृहाद दूरवर्ती. किमर्थ ? ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थ, यो हि स्वब्रह्मचर्य रक्षितुमिच्छति स एतादृशमुपाश्रयं निषेवते. अत्र लिंगव्यत्ययः प्राकृतत्वात्. ॥ १॥ साधु ब्रह्मचारी ते आलय उपाश्रयने सेवे ('तु' पादपूरणार्थ छे.) ते केवो आलय ? जे आलय विविक्त एकांत भूत होय वळी त्यां वसता स्त्री जनोए तेमज 'च' शब्दथी पशुपंडक बगेरेथी पण रहित होय पंडक शब्दं करी नपुंसक कहेवाय छे. अही काळ तथा अकाळना विभाग पूर्वक आवतां साध्वीजन तथा श्राद्धीजनने आश्रय लइ विविक्तपणुं समजवानुं छे. कड्युछे के-'अष्टमी पावी मूकीने तथा वाचना समय छोडीने बाकीना काळमां स्त्रीयोने अकाले विचारनारी जाणवी ? ते कारणथी जे आलय स्त्रीआदिके सेवित न होय तेवा आलयने ब्रह्मचारी अने साधु सेवे, चळी जे आलय अनाकीर्ण होय, अर्थात् गृहस्थोनां घरोथी दूर होय, 'शा माटे ! ब्रह्मचर्यनी रक्षा अर्थे जे पोतानुं ब्रह्मचर्य जाळवत्रा इच्छे ते आवा उपाश्रयने सेवे अहिं प्राकृत होवाथी रक्षार्था=ए For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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