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उत्तराध्य
भाषांतर अध्य०१५
यन सूत्रम् ॥८७०॥
॥८७०॥
شاندار موجود
वास्तुशास्त्रोक्तं. अंगविद्या शरीरस्पर्शनस्य नेत्रादीनां स्फुरणस्य वा विचारोंगविचारशास्त्रं. पुनः स्वरस्य विजयो दुर्गाशृगालीवायसतित्तरादीनां स्वरस्य विजयस्तस्य शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः. य एताभिविद्याभिराजीविकां न करोति स भिक्षुारत्यर्थः ॥७॥
भिक्षु ते कहेवाय के जे आवी विद्याओथी जीविका न करे. ए विद्याओ कइ ? छेदाय ते छिन्न कहेवाय; वस्त्रादिकने उंदर बगेरे करडे अथवा अग्निथी बळे, काजळ कादव वगेरेथी लीपाय, फाटे; इत्यादिक उपरथी शुभ अशुभ फळ कहेवू ए छिन्नविद्या कहेवाय छे. ज्यारे नवा वस्त्रमा कंइ विकार थाय ते उपर विचार कराय छे. रत्नमालामां कहेल छे के-'वस्त्रना खूणाओमां देवो वसे छे, पडखे बच्चे तथा छेडाओमां मनुष्यो अने चाकीना त्रण अंश राक्षसना छे, एवी रीते शयन आशन तथा पादुकामां पण समजवू.१' काजळ कादव छाणवडे वस्त्र लेपाय अथवा बळे किंवा फाटे त्यारे बुद्धिमाने नवप्रकारे इष्ट अनिष्ट फळनो विचार करवानो छ. २ देवाताशमा भोगमाप्ति, मनुष्याशमा पुत्रमाप्ति अने राक्षसाशमा मृत्यु थाय; माते सर्वांशमा पण इष्ट तथा अनिष्ट फळ जाणवू, आम नवा वखना विषयमा सारां नरतां फळ कयां छे वहीं वस्त्र पहेरवाना विषयमां शुभ अशुभ फळ थाय छे ते मूचनन करनाऊं यंत्र आपवामां आवे छे. । देव । राक्षस | देव । इत्यादि विद्याभोवडे आजीविका न करे ते साधु; वळी जे स्वर विद्यानो प्रयोग न करे; | मनुष्य राक्षस मनुष्य | स्वर षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत अने निषाद; आ सात स्वरो तंत्री बीणा तथा | देव राक्षस | देव | कंठथी उत्पन्न थाय छे. षड्ज स्वर मयूर बोले छे; पंचम स्वर कोयल उच्चारे छे, इत्यादि संगीत
لالالالالالالالالافلاکیانفجالبكالكونج
التقنا لللنا وانا
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