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भाषांतर अध्य०१८
॥९९६॥
राजा चन्द्रयशाए राज्य, राष्ट्र, पुर, अंतःपुर, स्वजनवर्ग, इत्यादिक तमामनो त्याग करी सुत्रताचार्य समीपे जा त्यां चतुर्थ, षष्ठ, उत्तराध्य
अष्टम; आदिक विचित्र तपःकर्मावडे आत्माने भावित करी मांते संलेखना करी सनत्कुमार देवलोकने पाम्यो त्यांथी च्युत यह रत्नयन सूत्रम्
पुरमा जिनधर्म नामनो श्रेष्ठिपुत्र थयो. ते जिनवचनोथी भावित मनवाळो सम्यक्त्वना मूळभूत बादशविध श्रावकधर्मर्नु पालन करतो ॥९९६॥
हमेशा जिनेन्द्रपूजामां परायण रही काळ गाळतो. अहीं ते नागदत्त पोतानी मिया विष्णुश्रीने राजा लइ गयो तेथी स्त्रीविरहथी दुःखित थइ भ्रांत चित्तवाळो आर्चध्यानथी शरीरनु क्षपण करी घणीक पशु पक्षि योनिओमां भटक्यो. अंते सिंहपुर नगरमा अग्निशर्मा नामनो ब्राह्मण थयो. काळे त्रिदंडि व्रत ग्रहण करी द्विमासोपवास व्रत करतो रत्नपुरमा आव्यो त्यां हरिवाहन नामे राजा इतो ते तापसोनो परम भक्त हतो तेणे आ तपस्वी आव्या सांभळी तेने पारणा दिने निमंत्रण आपी बोलाव्या. ज्यारे राजाने त्यां आ तपस्वी पारणा करवा आव्या त्यां जिनधर्म नामनो श्रावक के जे नागदत्तशेठनी स्त्री विष्णुश्रीने बलात् हरीनार विक्रमयशा राजानो अवतार हतो ते आवी चड्यो तेने जोतांज पारणा करवा आवेला तपस्वीना मनमा पूर्वभवना वैरनुं स्मरण थां रोषथी रक्तनेत्रवाळा ते तपस्वीए राजाने कयु के-जो तारे मने जमाडवो होय तो आ श्रेष्टिनी पीठ उपर थाळ राखीने मने जमाड तो हूँ | जमीश अन्यथा जमीश नहि. ग़जाए कबु-आ तो महोटा शेठीया छे कहो तो बीजा कोइ माणसनी पीठपर थाळ राखी भोजन
करो. ते तपस्वी बोल्यो के-'एनीज पीठ पर भोजन करीश, बीजा कोइनी पीठपर नहीं. तपस्वीना आग्रहथी राजाए कबुल कयु अने | राजाना वचन उपरथी जिनधर्म शेठे पण स्वीकार्य अने पोतानी पोठ उपर थाळ मूकाव्यो. थाळमां उनो बळवळतो द्धपाक भरेलो Pा हतो ते थाळ पीठ उपर मूकतां आखो वांसो दास्यो तेनी बलतरा शेठे सहन करी अने तपस्वी जम्या-शेठे पूर्व भवना दुष्कर्मन
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