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उत्चराध्य
सूत्रम्
॥१०४५॥
بالصلالها سيقنا للجاليالي السكان الانقيا من لا قيمنا لمطالبه
आ नमुचिर्नु वाक्य सांभळी आचार्य पोताने स्थानके आव्या. सर्वे साधुओने पृच्छयु के-'हवे आपणे शृं करवु ?' त्यारे एक साधुए को के-'सदाकाळ तपो विशेपर्नु सेवन करता विष्णुकुमारमुनि हालमा मेरु पर्वतनी टोच उपर रहे छे ते महापद्मचक्रीना
भाषांतर भाइ थाय छे तेथी तेना वचनथी आ उपशांत थशे. आचार्य का के-'एने बोलाववा माटे जे विद्यालब्धि संपन्न होय ते जाओ'
16 अध्य०१८ ते वखते साधुभोमांथी एक बोल्यो के-'हुँ मेरु पर्वतनी चाळा टोच सुधी आकाशमार्गे जवा शक्तिमान् छ पण त्यांथी पाछु आन
॥१०४५॥ वाने अशक्त .' गुरुए कड्यु-'ए विष्णुकुमारज तने अहीं पाछो लइ आवशे.' त्यारे गुरुवचन मान्य करीने ते शिष्य आकाशमा उड्यो अने क्षणमात्रमा मेरुपर्वतनी टोच उपर पहोंच्यो. तेने आवतो जोइ विष्णुकुमारे धार्य के-कंडक महोटुं संघकार्य उत्पन्न थयु होय एम लागे के जेथी आ मुनि वर्षाकाळमां पण अहीं आब्या तदनंतर ते मुनिए आकाशमाथी उतरी विष्णुकुमारने प्रणाम करी पोताना आववानुं प्रयोजन कही देखाटयु. विष्णुकुमार ने मुनिने लइ टुंक वखतमा आकाशमार्गे गजपुर (हस्तिनापुर) मां ा या. गुरुओने वंदन करी गुरुनी आज्ञाथी साधुओ सहित विष्णुकुमारमुनि नमुचिनी सभामां गया त्या सर्व सामंतादिके वंदन कयु पण नमुचि तो तेमज सिंहासन उपर बेठो रह्यो, जराय विनय कयों नहों. विष्णुए धर्मकथन पूर्वक नमुचिने का के-'वर्षाकाळ छे त्यां| सुधी आ मुनिओ अहीं रडेशे.'
नमुचिना भणित, किमत्र पुन: पुनर्वचनप्रयासेन ? पंचदिवसान यावन्मुनयोऽत्र तिष्ठंतु, विष्णुना भणितं नवोघाने मुनयस्तिष्ठतु ततः संजातामर्षेण नमुचिनैवं भणित, मर्वपाखंडाधमैभवद्भिर्न मद्राज्ये स्थेयं, मद्राज्यं त्वरितं त्यजत ! यदि जीवितेन कार्य, ततः समुत्पन्नकोपानलेन विष्णुना भणितं, तथापि त्रयाणां पादानां स्थानं देहि ? ततो
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