Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002542/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाएणणाणावरणिज्जं कम्मखवड़ स्वाध्याय शिक्षा आगम विशेषाङ्क पवार सभ्य मण्डल जयपुर सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर wwwvidainelibrar.org: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र स्वाध्याय शिक्षा (प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में शास्त्रीय ज्ञानवृद्धि की प्रेरक पुस्तक) पैंतालीसवीं पुस्तक &ষ্ঠB— ভিজান सम्पादक डॉ.धर्मचन्द जैन सम्पादक मण्डल कन्हैयालाल लोढ़ा प्रो. चांदमल कर्णावाट सम्पतराज डोसी प्रकाशचन्द जैन धर्मचन्द जैन प्रकाशक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाध्याय शिक्षा (आगम-विशेषाङ्क) प्रकाशक अ. भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ पारमार्थिक ट्रस्ट, इन्दौर के लिए सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल बापू बाजार, जयपुर-302003 फोन नं.- 2565997 सम्पादक डॉ. धर्मचन्द जैन सह आचार्य-संस्कृत विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर फोन नं. 2730081 फरवरी, 2003 माघ, 2059 मूल्य - 20 रुपये मात्र प्राप्ति स्थान : श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ घोड़ों का चौक, जोधपुर - 342001 (राज.) फोन नं. 2624891, फैक्स-2636763 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन आगमों में अध्यात्म, दर्शन, संस्कृति, इतिहास आदि विविध विषयों पर विपुल सामग्री उपलब्ध है। जिज्ञासु अध्येता उसका अवगाहन कर अपने जीवन को ज्योतिर्मय बनाने एवं विविध विषयों की ज्ञानराशि को आत्मसात् करने में समर्थ हो सकता है। ज्ञाननिधि आगमों के अध्ययन की ओर हमारी रुचि जागृत एवं अभिवृद्ध हो, इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए स्वाध्याय शिक्षा का यह 'आगम-विशेषाक' प्रकाशित किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि अप्रेल २००२ में जिनवाणी मासिक पत्रिका का 'आगमसाहित्य विशेषाङ्क' प्रकाशित किया गया था। उसका सर्वत्र स्वागत हुआ है तथा पाठकों ने अध्ययन कर आगमों के संबंध में जानकारी प्राप्त करते हुए 'विशेषाङ्क' की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जिनवाणी के आगम-साहित्य विशेषाङ्क के प्रकाशन के समय लेखकों का जो सहयोग मिला, उसके लिए सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल एवं जिनवाणी परिवार अनुगृहीत है। जिनवाणी विशेषाङ्क के समय जिन लेखों का प्रकाशन नहीं हो सका था, उन्हें स्वाध्याय शिक्षा के 'आगम-साहित्य' विशेषाङ्क के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें प्रमोद का अनुभव हो रहा है। इस विशेषाङ्क में जैन आगमों में वीतरागता, विज्ञान, पर्यावरण-संरक्षण, अहिंसा, संगीतकला, शिक्षा पारिभाषिक शब्दावली आदि अनेक विषयों पर विद्वानों के लेख समाविष्ट किए गए हैं। जिनवाणी पत्रिका के इस पूरक विशेषाङ्क को 'स्वाध्याय-शिक्षा के माध्यम से प्रकाशित करते हुए हम अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ पारमार्थिक ट्रस्ट, इन्दौर के आभारी हैं, जिसके सौजन्य से यह प्रकाशन संभव हो सका। सम्पादक डॉ. धर्मचन्द जी जैन को भी हम इस कार्य के सम्पादन हेतु हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। चेतनप्रकाशडूंगरवाल ईश्वरलाल ललवानी प्रकाशचन्दडागा अध्यक्ष कार्याध्यक्ष मंत्री सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अनुक्रमणिका सम्पादकीय जैन आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य : वीतरागता आचारांग सूत्र : एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैन आगमों में विज्ञान जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप जैनागमों में पर्यावरण-संरक्षण अर्द्धमागधी आगम-साहित्य की काव्यशास्त्रीय समीक्षा आवश्यक सूत्र आगम- साहित्य में संगीत कला जैनागमों में अहिंसा जैन आगमों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का संबंध आगम का महत्त्व जैनागमों में शिक्षार्थी का स्वरूप दशाश्रुतस्कन्ध : एक परिचय जैनागमों का सर्वमान्य रूप आवश्यक आगम- साहित्य के कतिपय शब्दों स्वाध्याय संघ की गतिविधियाँ की मीमांसा : डॉ. धर्मचन्द जैन : श्री सम्पतराज डोसी : डॉ. सागरमल जैन : डॉ. नन्दलाल जैन : श्री दुलीचन्द जैन 'साहित्यरत्न' : श्री कन्हैयालाल लोढ़ा : डॉ. हरिशंकर पाण्डेय : श्री पारसमल चण्डालिया : समणी संबोध प्रज्ञा : श्री रतनलाल बाफना : डॉ. राजकुमारी जैन : संकलित : डॉ. राजीव प्रचण्डिया : सुश्री श्वेता जैन : श्री जशकरण डागा : श्री रमेशमुनि शास्त्री : संकलित V 1 9 23 31 44 58 70 82 89 94 100 101 110 119 125 158 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा 192 अरहन्त अर्थरूप वाणी फरमाते हैं तथा शासन के हित के लिए गणधर उसे सूत्ररूप में गूंथते हैं। गणधर भी मात्र अंग आगमों की ही रचना करते हैं, किन्तु उनके अनन्तर स्थविर अंगबाह्य आगमों की रचना करते हैं गणहरथेरकयं वा आएसा, मुक्कवागरणओ वा। धुव-चल-विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं।।-विशेषावश्यक भाष्य गणधरों अथवा स्थविरों द्वारा रचित अंग एवं अनंग (अंग बाह्य) आगम दोनों का प्रामाण्य है। जब स्थविरकृत आगम तीर्थकर वाणी के अनुरूप एवं अबाधित हों तभी उनका प्रामाण्य स्वीकार्य होता है। ___मूलाचार में कहा गया है कि सूत्र गणधर कथित, प्रत्येकबुद्ध कथित, श्रुतकेवलि कथित तथा दशपूर्वी कथित होता है सुत्तंगणहरकथिदं,तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं, अभिण्णदसपुबकथिदं च।। मूलाचार 5.80 अर्थरूप प्ररूपण की दृष्टि से सभी तीर्थंकरों के आगम एक जैसे होते हैं, इस दृष्टि से आगमों को शाश्वत भी कहा जाता है, किन्तु शब्द की दृष्टि से प्रत्येक तीर्थकर के काल में आगमों का ग्रथन या निर्माण किया जाता है। वर्तमान में उपलब्ध अंग-आगम गणधर सुधर्मास्वामी द्वारा ग्रथित हैं, किन्तु उपांग, मूल, छेद आदि अंगबाह्य सूत्र स्थविर कृत हैं। स्मरणशक्ति में आयी शिथिलता के कारण इन आगमों की पाँच बार वाचनाएँ हुई। आगमों की पाटलिपुत्र (वीर निर्वाण १६० वर्ष), कुमारी पर्वत (वीर निर्वाण ३०० वर्ष), मथुरा (वीर निर्वाण ८२७), वल्लभी (नागार्जुनीय वाचना) एवं वल्लभी (वीर निर्वाण ६८० वर्ष) में वाचनाएँ हुई। इनमें अन्तिम वाचना देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय हुई। आगम की यह परम्परा उसके पश्चात् निरन्तर उसी रूप में चल रही है। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने आगमों का नया निर्माण नहीं किया, किन्तु उन्होंने आगमों को सम्पादित कर उन्हें लिपिबद्ध कराया। आगमों का लेखन देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय ही हुआ, ऐसा माना जाता है। आगमों की अपनी विशिष्ट शैली है, जिसमें जम्बूस्वामी आर्य सुधर्मा स्वामी से पृच्छा करते हैं तथा आर्य सुधर्मास्वामी शिष्य जम्बूस्वामी को भगवान महावीर से Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा सुना वैसा अर्थ सूत्र रूप में फरमाते हैं- “सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं' (हे आयुष्मन् (जम्बू) मैंने सुना है, उन भगवान (महावीर) के द्वारा इस प्रकार कहा गया है) आगमों के वर्गीकरण को लेकर अब तक चार रूप प्राप्त होते हैं। सबसे प्राचीन रूप समवायांग सूत्र में दृष्टिगोचर होता है, जिसके अनुसार आगमों को पूर्व और अंग के रूप में विभक्त किया गया है। पूर्वो की संख्या चौदह एवं अंगों की संख्या बारह बताते हुए उनके नाम भी दिए गए हैं। (द्रष्टव्य समवायांग, समवाय १४ एवं गणिपिटक वर्णन) दूसरा वर्गीकरण नन्दिसूत्र में उपलब्ध होता है, जिसके अनुसार आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य भेदों में विभक्त किया गया है- अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा अंगपविट्ठं अंगबाहिरं च (नंदीसूत्र, ४३)। तृतीय वर्गीकरण चार अनुयोगों के रूप में प्राप्त होता है, जिसके अनुसार समस्त आगम चार अनुयोगों में समाविष्ट हो जाते हैं। चार अनुयोग हैं- १. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग। यह वर्गीकरण आर्यरक्षित द्वारा किये जाने का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में चार अनुयोगों के नाम इस प्रकार हैं- १. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग। आगमों के चौथे वर्गीकरण में इन्हें अंग, उपांग, मूल और छेद सूत्रों में विभक्त किया गया है। पहले अंगसूत्रों के अतिरिक्त सभी सूत्र अंगबाह्य में सम्मिलित होते थे, किन्तु उपांग आदि के रूप में विभाजन होने पर यह ही वर्गीकरण अधिक प्रचलन में आ गया। विक्रम संवत् १३३४ में निर्मित प्रभावक चरित में अंग, उपांग, मूल और छेद के विभाजन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है ततश्चतुर्विधः कार्योऽनुयोगोऽतः परं मया। ततोऽङ्गोपाङ्गमूलाख्यग्रन्थच्छेदकृतागमः ।। -प्रभावकचरितम्, 24 इसके अनन्तर उपाध्याय समयसुन्दरगणि विरचित 'समाचारी शतक' में भी इस विभाजन का उल्लेख मिलता है। प्रकीर्णक शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत प्राचीन है, जिसे आगम की चार विधाओं से पृथक् माना जाता है। वर्तमान में स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय ३२ आगमों को मान्य करते हैं तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के अनुसार ४५ आगम मान्य हैं। मूर्तिपूजकों के मत में ८४ आगम भी मान्य रहे हैं। स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय में ३२ आगमों की गणना इस प्रकार VI * स्वाध्याय शिक्षा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है- ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र, ४ छेदसूत्र एवं आवश्यक सूत्र । ११ अंग आगम हैं- आचारांग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती(व्याख्याप्रज्ञप्ति),ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण और विपाक सूत्र । आचारांग सूत्र में अहिंसा, असंगता, अप्रमत्ततारूप साधना के विभिन्न सूत्र बिखरे पड़े हैं। इसमें पुनर्जन्म एवं आत्म-स्वरूप का भी निरूपण है। इसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भगवान महावीर की साधना का भी विवरण उपलब्ध है । सूत्रकृतांग में भी आचारांग की भांति दो श्रुतस्कन्ध हैं। दोनों श्रुतस्कंधों में कुल २३ अध्ययन हैं। इसमें विभिन्न दार्शनिक मतों का उपस्थापन कर निराकरण किया गया है तथा अहिंसा, अपरिग्रह, प्रत्याख्यान आदि साधना के विभिन्न विषयों की चर्चा की गई है। अंगसूत्रों में आचारांग एवं सूत्रकृतांग की प्राचीनता के संबंध में सभी विद्वान एकमत हैं। इन दोनों आगनों की भाषा एवं विषयवस्तु दोनों प्राचीन हैं। स्थानांग एवं समवायांग सूत्र में संख्या के आधार पर विविध विषयों एवं तथ्यों का संकलन है। स्थानांग सूत्र में एक से लेकर दस संख्याओं में इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साधना आदि के विभिन्न विषय संगृहीत हैं। समवायांग सूत्र में एक से लेकर सौ एवं कोटि संख्या तक के तथ्यों का संकलन है, जिनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि की सूचनाओं के अतिरिक्त जीवादि भेदों का वर्णन है । व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का अपर नाम भगवती सूत्र है। भगवती सूत्र में प्रश्नोत्तर शैली में स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक, अलोक आदि के संबंध में विस्तृत एवं सूक्ष्म चर्चा उपलब्ध होती है । विभज्यवाद की शैली में भ. महावीर ने गौतम गणधर, रोह अणगार, जयन्ती श्राविका आदि के प्रश्नों का सुन्दर समाधान किया है। इसमें गोशालक, शिवराजर्षि, स्कन्द परिव्राजक, तामली तापस आदि का भी वर्णन मिलता है । ज्ञाताधर्मकथा में ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दृष्टान्तों से आचार की दृढ़ता का उपदेश दिया गया है। इसका सांस्कृतिक दृष्टि से भी बड़ा महत्त्व है। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द आदि दस श्रमणोपासकों की साधना का वर्णन है, जो श्रावक समाज के लिए प्रेरणादायी है । अन्तकृत्दशा सूत्र उन ६० साधकों के जीवन का वर्णन करता है जो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हुए। इसमें गजसुकुमाल, अर्जुनमाली और अतिमुक्त कुमार का जीवन चरित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अनुत्तरौपपातिक दशा सूत्र में उन साधकों का वर्णन है जिन्होंने अपनी साधना के बल पर अनुत्तर विमान में जन्म ग्रहण किया है। प्रश्नव्याकरण सूत्र का प्राचीन रूप लुप्त हो गया है। वर्तमान में जो प्रश्नव्याकरण उपलब्ध है, उसमें स्वाध्याय शिक्षा VII Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा आदि ५ आस्रव और अहिंसा आदि ५ संवर का वर्णन उपलब्ध है। विपाक सूत्र में शुभ-अशुभ कर्म करने के फल को सुख और दुःख की प्राप्ति में घटित करते हुए कई कथानक दिये गये हैं। बारहवाँ अंग दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है। इसमें परिकर्म सूत्र, अनुयोग, पूर्व और चूलिका के भेद से विस्तृत निरूपण हुआ था। १२ उपांग सूत्र हैं औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, निरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा । औपपातिक सूत्र में चम्पानगरी, पूर्णभद्र उद्यान, वनखण्ड, अशोक वृक्ष, कोणिक राजा, धारिणी रानी और भगवान महावीर का वर्णन हुआ है। राजप्रश्नीय सूत्र में सूर्याभदेव के द्वारा भगवान महावीर के प्रति नाट्यादि विधि से भक्तिभाव प्रकट किया गया है। इसके उत्तरार्द्ध भाग में केशी श्रमण के साथ राजा प्रदेशी का रोचक संवाद है, जिसमें आत्मा को शरीर से भिन्न सिद्ध किया गया है। जीवाजीवाभिगम सूत्र में जीव और अजीव द्रव्यों का विस्तार से वर्णन हुआ है। इस आगम की ६ प्रतिपत्तियों में जीव के विविध प्रकार से भेद किये गये हैं । प्रज्ञापना सूत्र के ३६ पदों में जीव - अजीव, आस्रव-संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्वों से संबद्ध विभिन्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इसमें स्थिति, उच्छ्वास, भाषा, शरीर, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या, अवगाहना, क्रिया, कर्म-प्रकृति, आहार, उपयोग आदि विषय चर्चित हैं। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, भगवान ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती, कालचक्र आदि का निरूपण है। सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय लगभग एक जैसा है। इनमें खगोलशास्त्र का व्यवस्थित वर्णन है। निरयावलिका आदि पाँच सूत्रों में ऐतिहासिक कथानक हैं। निरयावलिका में नरक में जाने वाले राजकुमारों का वर्णन है। कल्पावतंसिका में कल्प अर्थात् देवलोक में उत्पन्न होने वाले सम्राट् श्रेणिक के दस पौत्रों का वर्णन है। पुष्पिका सूत्र में उन दस देवों का वर्णन है जो पुष्पक विमानों में बैठकर भगवान महावीर के दर्शन करने आये । पुष्पचूलिका सूत्र में भी दस देवों का वर्णन है जो पुष्पचूलिका विमान में बैठकर भगवान का दर्शन करने आये । वृष्णिदशा सूत्र में वृष्णिवंश के बलभद्र के निषध कुमारादि बारह पुत्रों का वर्णन है, जो भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षित हुए और सर्वार्थसिद्ध विमान में देवायु को भोगकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेते हुए मोक्ष प्राप्त करेंगे। VIII ४ मूलसूत्र हैं- उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार । उत्तराध्ययन सूत्र ३६ अध्ययनों में विभक्त है । इन अध्ययनों में विनय, स्वाध्याय शिक्षा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा परीषह, मरण, अप्रमत्तता, मोक्ष मार्ग, प्रवचन माता, कर्म प्रकृति, लेश्या आदि विषयों की चर्चा है। आचार्य शय्यंभव रचित दशवैकालिक सूत्र के १० अध्ययनों में श्रमणाचार का अच्छा प्रतिपादन है। नन्दीसूत्र देववाचक द्वारा रचित है तथा इसमें पंचविध ज्ञानों का सुन्दर निरूपण है। अनुयोगद्वार सूत्र में निक्षेप, उपक्रम, आनुपूर्वी, प्रमाणद्वार, अनुगम, नय आदि के वर्णन के साथ काव्यशास्त्र आदि के संबंध में भी जानकारी विद्यमान है। ४ छेदसूत्र हैं- दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के उत्सर्ग एवं अपवाद नियम दिये हैं। प्रायश्चित्त का विधान भी किया गया है। दशाश्रुतस्कन्ध के दस अध्ययनों में २० असमाधि दोष, २१ शबल दोष, ३३ आशातना आदि का वर्णन है। कल्पसूत्र इसके आठवें अध्ययन से प्रसूत है। बृहत्कल्पसूत्र में श्रमण-श्रमणियों के लिए कल्पनीय एवं अकल्पनीय वस्त्र, पात्र आदि का विवेचन है। व्यवहार सूत्र में विहार, चातुर्मास, आवास, पद आदि व्यवहारों का निरूपण है। निशीथ सूत्र को आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की पांचवी चूला माना जाता है। इसमें साध्वाचार में लगे दोषों के निवारण हेतु प्रायश्चित्त की विशेष व्यवस्था है। - बत्तीसवें आवश्यक सूत्र में सामायिक आदि षड्आवश्यकों का वर्णन है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में जीतकल्प एवं महानिशीथ की छेदसूत्रों में गणना करके छः छेदसूत्र माने जाते हैं। ओघनियुक्ति-पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्रों में गिना जाता है। वे दस प्रकीर्णकों को भी आगम में सम्मिलित करते हैं। दस प्रकीर्णक हैं- १. चतुःशरण २. आतुर प्रत्याख्यान ३. भक्त-परिज्ञा, ४. संस्तारक ५. तंदुलवैचारिक ६. चन्द्रवेध्यक ७. देवेन्द्रस्तव ८. गणिविद्या ६. महाप्रत्याख्यान १०. गच्छाचार। इस प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ४५ सूत्र मान्य हैं (स्थानकवासी द्वारा मान्य ३२ आगम + उपर्युक्त १३ आगम)। इस परम्परा में ८४ आगम भी मान्य हैं, जिसमें २०अन्य प्रकीर्णक, १० नियुक्तियाँ तथा ६ अन्य ग्रन्थ सम्मिलित किए जाते हैं। ___ 20 अन्य प्रकीर्णक-१. ऋषिभाषित २. अजीवकल्प ३. गच्छाचार ४. मरणसमाधि ५. तित्थोगालिय ६. आराधनापताका ७. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति ८. ज्योतिष्करण्डक ६. अंगविद्या १०. सिद्धप्राभृत ११. सारावली १२. जीवविभक्ति १३. पिण्डविशुद्धि १४. पर्यन्त-आराधना १५.योनिप्राभृत १६. अंगचूलिका १७. बंगचूलिका १८. वृद्धचतुःशरण १६. जम्बूपयन्ना २०. कल्पसूत्र। स्वाध्याय शिक्षा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 नियुक्तियाँ- १.आवश्यकनियुक्ति २.दशवैकालिकनियुक्ति ३. उत्तराध्ययननियुक्ति ४.आचारांगनियुक्ति ५.सूत्रकृतांगनियुक्ति ६. सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति ७. बृहत्कल्पनियुक्ति ८. व्यवहारनियुक्ति ६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति १०. ऋषिभाषितनियुक्ति। 9 अन्य ग्रन्थ- १. यतिजीतकल्प २. श्राद्धजीतकल्प ३. पाक्षिकसूत्र ४. क्षमापनासूत्र ५. वन्दित्तु ६. तिथिप्रकरण ७. कवचप्रकरण ८. संसक्तनियुक्ति ६. विशेषावश्यकभाष्या दिगम्बर परम्परा इन अर्धमागधी आगमों को मान्य नहीं करती। इनके यहाँ पुष्पदन्त एवं भूतबली द्वारा रचित षट्खण्डागम, गणधर द्वारा रचित कषायप्राभृत, वट्टकेर कृत मूलाचार, अपराजित सूरि की भगवती आराधना, आचार्य कुन्दकुन्द की समयसार आदि कृतियों को आगम के रूप में मान्य किया गया है। दिगम्बर परम्परा भले ही श्वेताम्बर आगमों को मान्य नहीं करती हो, किन्तु स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि दो-चार बातों को छोड़कर श्वेताम्बरों एवं दिगम्बरों में कोई मतभेद नहीं है। इसी प्रकार श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के साथ तेरापंथ एवं स्थानकवासियों का मूर्तिपूजा के बिन्दु के अतिरिक्त कोई विशेष मतभेद नहीं है। स्थानकवासियों एवं तेरापंथियों के तो आगम पूर्णतः समान हैं। इनमें जो मतभेद उभरकर आते हैं, वे व्याख्यागत मतभेद हैं। जैनदर्शन के सभी सम्प्रदायों में मूल दार्शनिक मान्यताओं में प्रायः एकरूपता है, जो भेद है वह आचारगत भेद है। वह आचार-संबंधी भेद ही फिर दार्शनिक रूप से विकसित हुए हैं। आगमों का अध्ययन सबके लिए समान रूप से उपादेय है। एक दूसरे की परम्परा के आगमों का अध्ययन करने से मिथ्यात्व नहीं लगता है। मिथ्यात्व तो दृष्टि में होता है, उससे बचना चाहिए। जहा सूई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ।। -उत्तराध्ययन सूत्र 29.59 जिस प्रकार धागे सहित सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं है, उसी प्रकार शास्त्रज्ञान सहित जीव संसार में विनष्ट नही होता। आगम का यह वचन आगमसूत्रों की महत्ता को प्रकट करता है। आगमों में जो ज्ञान-निधि है वह जीवन में पदे-पदे उपयोगी है। बीसवीं शती में जैनागम और उसके व्याख्या-साहित्य का प्रकाशन अनेक स्थानों से हुआ है। अधिकांश आगमों के अनुवाद और विवेचन हिन्दी और गुजराती स्वाध्याय शिक्षा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाओं में उपलब्ध हैं। कुछ आगम अंग्रेजी भाषा में भी अनूदित और विवेचित हुए हैं। हर्मन जेकोबी, वाल्टर शुबिंग आदि विदेशी विद्वानों ने भी इस दिशा में अग्रणी रूप से कार्य कर जैन साहित्य की महत्ता को भारतीयों और वैदेशिकों के मध्य प्रतिष्ठित किया है। आचारांग सूत्र का प्रथम संस्करण हर्मन जैकोबी द्वारा बर्लिन से प्रकाशित किया गया था। भारत में आचार्य श्री आत्माराम जी म.सा., आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा., पूज्य श्री अमोलकऋषि जी, मुनि श्री पुण्यविजय जी, मुनि श्री जम्बूविजय जी, श्री सागरानन्दसूरि जी, आचार्य श्री तुलसी जी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी, उपाध्याय श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' आदि ने आगमों के संपादन, अनुवाद, विवेचन या टीका लेखन के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान किया है। विद्वत् समाज में प. श्री दलसुख मालवणिया, पं. श्री बेचरदास दोशी, पं. श्री शोभाचन्द भारिल्ल आदि के नाम आदरपूर्वक लिए जाते हैं। अभी तक भाष्य, चूर्णि और संस्कृत टीकाओं के अनुवाद सामने नहीं आए हैं। प्रकीर्णकों का अनुवाद आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर से हो रहा है। नियुक्तियों पर लाडनूं और वाराणसी में कार्य चल रहा है। भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक के अवसर पर उनकी वाणी के अंश रूप में मान्य आगमों के अध्ययन को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से जिनवाणी का अप्रेल-२००२ में 'जैनागम-साहित्य' विशेषाङ्क प्रकाशित किया गया। इस विशेषाङ्क में स्थानकवासी एवं तेरापन्थ सम्प्रदाय द्वारा मान्य सभी ३२ आगमों के अतिरिक्त प्रकीर्णकों एवं आगमों के व्याख्या-साहित्य पर भी निबन्ध संगृहीत हैं। दिगम्बर परम्परा में मान्य प्रमुख आगमतुल्य ग्रन्थों का परिचय भी इसमें समाविष्ट जैनागम-साहित्य के परिचय हेतु पूर्व में भी कुछ प्रकाशन हुए हैं, उनमें एच.आर. कापड़िया की पुस्तक- A History of Jaina Canonical Literature, श्री विजयमुनि शास्त्री की “आगम और व्याख्या साहित्य", आचार्य देवेन्द्रमुनि जी की “जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा", आचार्य जयन्तसेनसूरि जी द्वारा सम्पादित “जैनागम : एक अनुशीलन" पुस्तकें प्रकाश में आई हैं। पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के प्रथम दो भाग भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज के "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" एवं डॉ. जगदीशचन्द्र जैन के 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' पुस्तकों में भी आगम-साहित्य का परिचय विद्यमान है। इसके अतिरिक्त अहमदाबाद स्वाध्याय शिक्षा में - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में १६८६ में हुई संगोष्ठी के शोध-पत्रों की पुस्तक 'जैन आगम साहित्य' डॉ. के. आर. चन्द्र के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई है। श्री मधुकरमुनि जी द्वारा संक्षेप में 'जैनागम : एक परिचय' नामक लघुपुस्तिका भी लिखी गई है। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर से प्रकाशित आगमों की भूमिकाएँ भी आगमों का ज्ञान कराने में सहायक हैं। अंग-आगमों के परिचय हेतु आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर से सद्यः प्रकाशित पुस्तक 'अंग साहित्य : मनन और मीमांसा' भी उल्लेखनीय है। जिनवाणी पत्रिका के विशेषाङ्क के अनन्तर जो लेख अवशिष्ट रहे वे स्वाध्याय-शिक्षा के आगम-विशेषाङक के रूप में प्रकाशित किए जा रहे हैं। इस विशेषाङ्क में आचारांग, आवश्यकसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध आदि कतिपय आगमों के अतिरिक्त आगम-साहित्य में वीतरागता, विज्ञान, अहिंसा, पर्यावरण-संरक्षण, संगीतकला, शिक्षा, आगम-साहित्य की काव्यशास्त्रीय समीक्षा आदि अनेक विषयों पर लेख सम्मिलित हैं। आगमों में वर्णित विभिन्न विषयों से पाठकों को अवगत कराना ही इस विशेषाङ्क का लक्ष्य रहा है। लेखकों के सहयोग के बिना इसका प्रकाशन संभव नहीं था । अतः उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के अध्यक्ष श्री चेतनप्रकाश जी डूंगरवाल के प्रोत्साहन एवं मन्त्री श्री प्रकाशचन्द जी डागा का सर्वविध सहयोग के लिए मैं उनका भी हार्दिक कृतज्ञ हूँ। आशा है स्वाध्याय-शिक्षा का यह आगम-विशेषाङ्क स्वाध्यायी पाठकों के ज्ञान में किचिं वृद्धि करने में सहायक सिद्ध होगा। –धर्मचन्द जैन XII स्वाध्याय शिक्षा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य : वीतरागता श्री सम्पतराज डोसी वीतरागता की प्राप्ति के उपायों का निरूपण ही आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य है। आगमों में संस्कृति, इतिहास, खगोल आदि का भी निरूपण मिलता है, किन्तु आगम आध्यात्मिक संदेश से ओतप्रोत हैं, इसमें सन्देह नहीं। आगम पाठक को वीतरागता की ओर कदम बढ़ाने की प्रेरणा करते हैं। श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ के पूर्व संयोजक एवं प्रतिष्ठित विद्वान् श्री डोसी जी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप के प्रतिपादन को आधार बनाकर आगमों में वीतरागता को प्रमुख प्रतिपाद्य के रूप में प्रस्तुत किया है। -सम्पादक %3 ___ संसारस्थ जीवों में जैसे शरीर के अन्दर आत्मा मुख्य होती है, ठीक इसी प्रकार जैन धर्म या जैन दर्शन रूप शरीर में वीतरागता उसमें रही हुई आत्मा के समान है। जैन शब्द के अर्थ पर विचार करें तो जिन अर्थात् रागद्वेष को जीतने वाले वीतराग जिनेश्वरों द्वारा जो प्ररूपित है उसे जैन धर्म कहते हैं। दूसरे अर्थ के अनुसार जिन अर्थात् वीतराग जिनेश्वरों के उपासक को जैन कहते हैं। जैनधर्म ईश्वरवादी न होकर आत्मवादी है या दूसरे शब्दों में कहें तो अवतारवादी नहीं होकर उत्तारवादी है। ईश्वरवाद में परमात्मा अवतार धारण करके दुष्टों को मार कर धर्म का उत्थान करते हैं, जबकि उत्तारवाद में आत्मा अपने अज्ञान एवं मोह अथवा रागद्वेष को नष्ट करके स्व एवं पर का कल्याण करते हुए परमात्मा बनता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि संसार की प्रत्येक आत्मा परमात्मा स्वरूप है और अपने अन्दर रहे हुए परमात्म भाव को स्वयं के सत् पुरुषार्थ द्वारा प्रकट करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। कहा भी है सिद्धां जैसो जीव है, जीव सो ही सिद्ध होय। कर्म मैल का आन्तरा, बूझे विरला कोय।। विश्व के अधिकांश धर्म एवं दर्शन परमात्मा को एक एवं सारे जगत का निर्माता मानते हैं। वे उसे जगत के प्रत्येक प्राणी का निर्माण करने वाला एवं उसको सुख-दुःख देने वाला भी मानते हैं। जैसाकि कहा भी है- "हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ है।" परन्तु जैन दर्शन का मानना है कि जगत के सभी जीव अपने सुख दुःख, जन्म-मरण आदि के कर्ता स्वयं ही हैं। जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २० गाथा ३७ में कहा है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पढिओ सुप्पट्ठिओ।। अर्थात् आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है और विकर्ता अर्थात् कर्मों Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का नाश करने वाला भी स्वयं ही है। सत्कर्म करने वाली आत्मा अपनी मित्र और दुष्कर्म करने वाली आत्मा अपनी शत्रु है। प्रश्न उठ सकता है कि जब आत्मा स्वयं ही अपने सुख, दुःख का कर्ता है तो वह दुःखी होने का कार्य करता ही क्यों है? समाधान यह है कि प्राणिमात्र चाहता तो हमेशा सुख ही है और जितने भी कार्य करता है वह सुख के लिये ही करता है, पर फिर भी नहीं चाहते हुए भी दुःख उसको मिलता है और वह दुःख उसे भोगना भी पड़ता है। जिस प्रकार छोटा बच्चा अज्ञानवश अग्नि या सांप को भी खिलौना समझ कर सुख के लिये उसे पकड़ लेता है तो अज्ञान के फलस्वरूप उसे सुखी के बजाय दुःखी होना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार जब तक आत्मा को अपने अन्दर छुपे हुए ज्ञान का भान नहीं होता तब तक उसे सुख भौतिक पदार्थों जैसे धन, कुटुम्ब, शरीर आदि में दिखता है। इस कारण वह उन पदार्थों से राग या ममत्व करता है, पर चूंकि सभी भौतिक पदार्थ जड़ हैं, न उनमें चेतना है न संवेदना ही तथा न सुख अथवा दुःख ही। जैसे रेत में तेल या पानी में मक्खन का गुण होता ही नहीं तो लाख प्रयत्न करने पर भी मिलेगा कैसे? इसी प्रकार भौतिक वस्तुओं में सुख का गुण है ही नहीं तो मिलेगा कैसे? परन्तु जब तक आत्मा को अपने असली स्वरूप व अपने अन्दर छिपे हुए गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक जीव से शिव, आत्मा से परमात्मा, संसारी से सिद्ध बनने की कला को नहीं जान सकता। ___ जैन दर्शन का मानना है कि आत्मा अपने अज्ञान और मोह को दूर करके अगर अपने अन्दर छुपे हुए राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि शत्रुओं को जीत कर वीतराग बन जाय तो वह अपने ही अन्दर छुपे हुए अनन्त सुख, अतुल शान्ति एवं अपार आनन्द को प्रकट कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। जैन दर्शन एक सच्चा आस्तिकवादी दर्शन है, जिसमें पहले स्वयं आत्मा पर श्रद्धा या विश्वास होने की बात को आवश्यक बताया गया है, जिसे आगमिक भाषा में सम्यग् दर्शन कहा जाता है। प्रत्येक आत्मा कर्म एवं शरीर के साथ अनादि काल से रहने के कारण वह अपने आपको, शरीर अर्थात् जड़ रूप ही मानने लग जाता है। सुख एवं शान्ति आत्मा का निज गुण होने के कारण सुख एवं शान्ति उसकी नैसर्गिक मांग है। जैसाकि प्रत्यक्ष भी देखा जाता है छोटे से छोटा प्राणी चाहे चींटी हो या कुन्थु, मनुष्य हो या पशु, प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से घबराता है। दुःख से बचने का उपाय और सुख को प्राप्त करने का उपाय जीवन भर करता रहता है, किन्तु जब तक आत्मा को सम्यग् दर्शन नहीं हो जाता तब तक सुख का प्रयास सफल - स्वाध्याय शिक्षा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होता। ___ राजप्रश्नीय सूत्र में राजा प्रदेशी के कथानक के माध्यम से समझाया गया कि राजा प्रदेशी ने सुना था कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न द्रव्य हैं, पर चूंकि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण न तो दिखाई देता है न अनुभव में आता है, न मशीनों से जाना या परखा जा सकता है। उसने आत्मा को देखने, जानने एवं मानने के लिये अनेक मनुष्यों को विविध प्रकार से मारकर, काटकर हत्याएँ भी की, पर आत्मा को देखने व जानने में सफल नहीं हो सका। एक बार उसने 'केशीश्रमण' नाम के महामुनि के दर्शन किये और विविध प्रकार के प्रश्न, तर्क, वितर्क आदि आत्मा को जानने और मानने के लिये किये। सभी प्रश्नों के यथोचित उत्तरों के माध्यम से उसे समझ में आ गया कि मैं स्वयं आत्मा हूँ और शरीर, धन, कुटुम्ब आदि सब प्रत्यक्ष जड़ हैं तो उसका दृढ़ विश्वास हो गया कि मैं स्वयं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति का स्वामी हूँ। इस दृढ़ निश्चय से उसकी मानसिकता बदल गई और शरीर, कुटुम्ब, धनादि से तथा राज्य से आसक्ति स्वतः कम पड़ गई। यहां तक कि प्राणप्यारी पत्नी (महारानी) तक से ममत्व एवं राग कम हो गया और ज्यों ज्यों समभाव में रहने लगा त्यों त्यों अत्यन्त शान्ति की अनुभूति होने लगी। उसने श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किये तथा दो दो दिन के उपवास अर्थात् बेले-बेले की तपस्या करने लगा। राज्य में रहते हुए भी राजा के त्याग एवं वैराग्य से रानी के भोगों के स्वार्थ में कमी पड़ने के कारण उसका राजा के प्रति राग (मोह) द्वेष में बदल गया और षड्यन्त्र करके राजा को विष तक दे दिया। परन्तु राजा का त्याग, वैराग्य सच्चा था और सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पूर्वक था, इसलिये उसने मरते समय तक रानी पर किंचित् मात्र भी द्वेष नहीं करते हुए पूर्ण समाधि पूर्वक मरण को प्राप्त किया। भवान्तर में वह पूर्ण वीतरागता को प्राप्त कर लेगा अर्थात् आत्मा से परमात्मा बन जायेगा। ऐसी वीतरागता की साधना के लिये जैन आगमों में चार उपाय बताये गये णाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पण्णत्तो, जिणेहि वरदंसीहिं।। -उत्त.अ.28.गा.2 अर्थात् ज्ञान,दर्शन, चारित्र और तप- ये चारों मिलकर मोक्ष अर्थात् वीतरागता के मार्ग हैं, ऐसा जिनेश्वरों अर्थात् वीतरागियों ने कहा है। इन चारों का संक्षिप्त अर्थ निम्न प्रकार है स्वाध्याय शिक्षा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग् ज्ञान- जीव अर्थात् आत्मा, अजीव अर्थात् जड़ पुद्गल, बन्ध अर्थात् आत्मा का पुद्गलों, कमों एवं शरीर आदि से संबंध होना तथा मोक्ष अर्थात् आत्मा का कों एवं शरीर आदि के बन्धन से सर्वथा छूट जाना, ये मुख्य चार तत्त्व तथा बन्ध के कारण को आम्नव, बन्ध को रोकने के उपाय को संवर और बंधन के आंशिक तोड़ने को निर्जरा, इस तरह सात तत्त्व एवं आस्रव के शुभ भेद को पुण्य तथा अशुभ भेद को पाप इस प्रकार नव तत्त्वों के स्वरूप को विस्तार से अथवा संक्षेप से जानने को सम्यग् ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान का स्वरूप, ज्ञान के भेद-प्रभेदों का पूर्ण विवरण विस्तार से नन्दी सूत्र में तथा तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध है। ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख उपाय, विनय, विनीत शिष्य के लक्षण, गुण, अविनय से हानियां आदि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १ में हैं। अज्ञान सारे दुःखों का मूल, संसार परिभ्रमण का कारण आदि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ६ में है। संसारस्थ जीवों में पाने वाले ज्ञान, अज्ञान आदि का वर्णन पन्नवणा एवं भगवती सूत्र में विस्तार से किया गया है। सम्यग् दर्शन-उपर्युक्त जीवाजीव आदि तत्त्वों पर दृढ़ विश्वास अर्थात् आत्मपरक विश्वास का होना। आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान आत्मा के स्तर पर होना तथा इन तत्त्वों का अनुभूति परक ज्ञान जिन महापुरुषों को हो गया तथा जिन्होंने रागद्वेष रूप बन्धनों को तोड़ कर वीतरागता को प्राप्त कर लिया ऐसे जिनेश्वरों के प्रति पूर्ण विश्वास होने को सम्यग् दर्शन कहा गया है। सम्यग् दर्शन का स्वरूप, भेद, लक्षण, प्राप्ति के उपाय आदि तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन २ में तथा विविध प्रमाण, नय, निक्षेप आदि से सम्यग् दर्शन की चर्चा राजप्रश्नीय सूत्र में है। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति में रुचि, प्रभावना आदि का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ में है। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति की प्रक्रिया, भेद, प्रभेद आदि कर्मग्रन्थ भाग २ तथा तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन २ में उपलब्ध है। सम्यग् दर्शन की महिमा एवं लाभ आचारांग में वर्णित है। सम्यग दर्शन का दृढ़ता से पालन करने वाले श्रावकों का वर्णन उपासकदशांग सूत्र में वर्णित है। सम्यक्त्व पराक्रम (उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६) में सम्यग् दर्शन, वीतरागता आदि का विस्तार से वर्णन उपलब्ध है। सम्यक चारित्र- सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन होने के पश्चात् अठारह पापों का त्याग करना तथा पंच महाव्रतों को धारण करना, पाँच समिति तीन गुप्ति का पालन करते हुए विषय, कषाय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि का नाश करने में सतत स्वाध्याय शिक्षा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयत्नशील रहने को सम्यक् चारित्र कहा जाता है। श्रमण आचार का पूरा वर्णन दशवैकालिक, आचारांग आदि में चारित्र की दृष्टि से तथा श्रमणों व निर्ग्रन्थों के भेद, प्रभेद आदि भगवती शतक २५ में है । पाँच संवर एवं पाँच आस्रव द्वारों का विस्तृत वर्णन प्रश्न व्याकरण सूत्र में है । सम्यक् चारित्र के ग्रहण का एवं हिंसादि पापों से निवृत्ति का पूर्ण उपदेश आचारांग सूत्र में है। चारित्र के भेद, प्रभेद आदि भगवती सूत्र शतक २५ में हैं। पांच समिति, तीन गुप्ति का पूरा वर्णन उत्तराध्ययन अध्ययन २४ में है । साधु-समाचारी का पूर्ण वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में तथा चारित्र के भेद, प्रभेद आदि भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ६,७ में किया गया है। सम्यक् तप- पुराने संचित कर्मों का नाश करने हेतु अशनादि का त्याग तथा स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि करना सम्यक् तप कहलाता है। तप का स्वरूप व भेदों का वर्णन उत्तराध्ययन अध्ययन ३०, रत्नावली, कनकावली आदि का वर्णन अन्तगडदशा सूत्र, तपस्वी साधकों का वर्णन आचारांग, उववाई, अणुत्तरोववाई, भगवती सूत्र आदि में विशेष रूप से उपलब्ध है। सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप ये चारों साधनाएँ वीतरागता की प्राप्ति के लिए परम आवश्यक हैं। वीतरागता वास्तव में एक वैज्ञानिक तथ्य है। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक आत्मा सुख चाहता है और वह जीवन पर्यन्त जितने भी कार्य करता है सुखप्राप्ति के लिये ही करता है । परन्तु अनन्त काल तक अनन्त जन्मों में सुख का प्रयास करने पर भी वह सम्पूर्ण सुखी बन नहीं पाता। इसका कारण यह है कि आत्मा पुद्गल से मिलने वाले सुख को ही सच्चा सुख मान लेता है अर्थात् धन, कुटुम्ब,शरीर, अहम् आदि के सुख को ही सच्चा सुख मान लेता है जो कि वास्तव में सुख न होकर सुखाभास मात्र है और इस सुख के अन्दर छिपी हुई अशान्ति एवं तनाव रूप दुःख के रहस्य को न समझ सकने के कारण यह क्षणिक सुख अन्त में पुनः दुःख रूप बन जाता है। जन्म-मरण, संयोग-वियोग, लाभ-हानि एवं मान-अपमान में से प्रायः जन्म, संयोग, लाभ एवं मान में सुख माना जाता है और इनके विपरीत मरण, वियोग, हानि एवं अपमान में दुःख माना जाता है । पर गहराई से देखने पर पता चलता है कि मरण के दुःख का मूल जन्म, वियोग के दुःख का मूल संयोग, हानि के दुःख का मूल लाभ एवं अपमान के दुःख का मूल सम्मान में छिपा हुआ होता है। जन्म, संयोग, लाभ स्वाध्याय शिक्षा 5 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सम्मान ये चार अनुकूल लगते हैं और अनुकूलता में व्यक्ति सुख मानता है व राग करता है और मरण, वियोग, हानि और अपमान को प्रतिकूलता मानता है और दुःख अनुभव करता है। इनसे संबंधित वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति पर द्वेष करता है। गहराई से चिन्तन करने पर पता चलता है कि प्रतिकूलता के दुःख का मूल अनुकूलता का सुख है। प्रतिकूलता के निमित्त वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर द्वेष की जड़ अनुकूलता के राग में छिपी होती है। राग चूंकि अनुकूलता में होता है इसलिये इसकी बुराई न समझ में आती है न महसूस होती है। इन राग और द्वेष दोनों का मूल ममत्व होता है। संसार में सारे दुःखों का मूल ही ममत्व होता है । जीवन को शरीर, धन, कुटुम्ब, अहं आदि में सुख दिखाई देता है, इस कारण वह इनसे ममत्व करता है । वास्तव में तो इनसे सुख मिलता ही नहीं, पर फिर भी अज्ञान एवं संस्कार के कारण जीव को सुख लगता है। जैसे कोई मिठाई पहले तो चाव से खाता है और खाकर प्रसन्न होता है, पर खाते-खाते ही धीरे-धीरे सुख समाप्त हो जाता है। खाने से पहले जितना और जैसा राग होता है वह धीरे-धीरे कम पड़ जाता है और फिर राग के स्थान पर द्वेष बढ़ने लग जाता है। बढ़ते-बढ़ते वह द्वेष भी इतना बढ़ जाता है कि वह उस मिठाई को देखना तक नहीं चाहता। ठीक इसी प्रकार प्रायः सभी भौतिक सुखों की स्थिति हुआ करती है। राग एवं द्वेष ये दोनों जहर के समान हैं, पर राग मीठा जहर है और द्वेष खारे जहर के समान है। राग में दुःख भी सुख रूप लगता है। जैसे एक लड़की अपने दस किलो वजन के भाई को खुशी खुशी उठा कर फिरती है पर उसको अगर पाँच किलो वजन के पत्थर को उठाने का कहें तो वह उसे भार लगेगा। इसी प्रकार एक सेठ की दुकान पर एक रोज सुबह से ग्राहकों की भीड़ लग गई। दुकान पर सेठ के साथ मुनीम भी कार्य कर रहा था । ग्राहकी दिन भर ऐसी रही कि सेठ और मुनीम दोनों का खाना आया हुआ पड़ा ही रह गया । ग्राहकी जोरदार होने से सेठ को न भूख महसूस हुई, न थकान, न टेंशन। पर मुनीम को तो भूख, थकान और टेंशन जबरदस्त हो गया। स्पष्ट है कि सेठजी को राग के कारण भूख, थकान एवं टेंशन रूप प्रत्यक्ष दुःख भी महसूस नहीं हुआ। इसी प्रकार आभूषणों का भार भी प्रत्यक्ष भार रूप दुःख होने पर भी वह भार बुरा महसूस नहीं होता। जैन आगमों में रागादि पाप को किंपाक फल की उपमा से उपमित किया " जहा किंपाकफलाणं परिणामो न सुन्दरो । स्वाध्याय शिक्षा गया है 6 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो।।" जिस प्रकार किंपाक फल दिखने में सुन्दर होता है, किन्तु उसका परिणाम सुन्दर नहीं है इसी प्रकार भोगे गए भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता, अनुभव काल में भले ही वे सुन्दर लगते हों। इस राग को जीतना या नष्ट करना ही वीतरागता है। संक्षेप में कहा जाय तो लगभग सभी जैन आगमों में किसी न किसी रूप में वीतरागता की ही बात कही गई है। चाहे वह जीव, अजीव आदि नव तत्त्वों के विस्तार के रूप में हो, जैसे उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ एवं ठाणांग सूत्र ठाणा ६, पन्नवणा सूत्र पद १,२,३,५,६ आदि में, तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५, ६ आदि में है। पाँच आम्नव व पांच संवर तत्त्व का विस्तार प्रश्नव्याकरण सूत्र में है। जीव अजीव का वर्णन जीवाजीवाभिगम सूत्र आदि में है। कर्म-सिद्धान्त के रूप में पूरा कर्मग्रन्थ भाग १ से ६, जिनमें कर्मों का स्वरूप, भेद, प्रभेद, कर्म बन्ध के कारण, बन्ध की स्थिति, उदय, निर्जरा आदि तथा कर्मों से मुक्त होने के उपाय के रूप में गुणस्थानों का पूर्ण स्वरूप, भेद तथा आत्मा कैसे-कैसे रागद्वेष को क्रमशः कम करते-करते पूर्ण वीतरागता को प्राप्त करके मुक्त तक हो सकता है, का वर्णन उपलब्ध है। वीतरागता की साधना आंशिक रूप में करने वाले श्रावकों का वर्णन उपासकदशांग सूत्र में, भगवती सूत्र आदि में है। वीतरागता की पूर्ण साधना करने वाले श्रमण-साधकों का वर्णन भगवती सूत्र, अन्तकृतदशांग सूत्र, अनुत्तरौपपातिक सूत्र आदि में उपलब्ध है। रागद्वेष रूप अधर्म करने एवं दुःखद फल भोगने वालों का वर्णन दुःख विपाक सूत्र में तथा रागद्वेष को आंशिक क्षय करने रूप धर्म करने वालों व उसका सुखद फल भोगने वालों का वर्णन सुख विपाक सूत्र में है। जैन दर्शन एवं सभी जैन आगमों का सूक्ष्म अवलोकन करने से यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि वीतरागता इन आगमों का प्राण है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सबका समावेश रागद्वेष में हो जाता है। शास्त्रकारों ने इन दोनों को भाव शत्रु माना है तथा इनके जीतने वालों को वीतराग अथवा अरिहन्त कहा है। जैन धर्म के सभी फिरकों ने नमस्कार सूत्र को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। नमस्कार सूत्र का प्रथम पद भी इन्हीं वीतराग अरिहन्तों के लिए अर्पित है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३२ गाथा ७ में "रागो य दोसो य बिय कम्मबीयं" कहकर राग एवं द्वेष को सभी कर्मों के एवं पापों के बीज रूप बताया है . स्वाध्याय शिक्षा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा संसार में सुखी होने के लिये दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 2 की गाथा में “छिदाहिं दोसं, विणएज्जं रागं" कहकर द्वेष का छेदन करने एवं राग पर विजय करने का उपदेश दिया गया है। राग और द्वेष को महान् बन्धन तथा स्नेह (राग) को भयंकर पाश उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३ गाथा ४३ में बताकर इनको काटने का उपदेश दिया गया है राग और द्वेष दोनों की उत्पत्ति का मूल कारण ममत्व अथवा मोह कहलाता है। आठ कर्मों में सबसे प्रबल कर्म मोह को माना गया है। आचार्य श्री गजेन्द्र मुनि ने स्तवन की कड़ी में कितना सुन्दरे कहा ममता से संताप उठाया, भेद ज्ञान की पैनी धार से > "रागद्दोसाओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा । ते छिन्दित्तु, जहानायं विहरामि जहक्कमं । । " शास्त्रकारों ने भी उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३२ गाथा २ में कहा" णाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवज्जणाए " अर्थात् ज्ञान सभी भावों का प्रकाशक है तथा अज्ञान एवं मोह का नाश करने वाला है। इसी प्रकार - "" "वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि, तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिंदई । है। - उत्त. 29/45 अर्थात् वीतराग भाव से स्नेह के अनुबन्धनों और तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद हो जाता है। आज हुआ विश्वास । काट दिया वह पाश ।। मेरे अन्तर भया प्रकाश..... 8 उत्तराध्ययन सूत्र २६.३६ में कहा गया कि "वीयरागभाव पडिवन्ने वि य नं जीवे सम सुहदुक्खे भवइ । " अर्थात् वीतराग राग भाव को प्राप्त हुआ जीव सुख-दुःख में सम हो जाता उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३५ गाथा २१ में कहा गया है "निमम्मो निरहंकारो, वीयरागो अणासवो । संपत्ते केवलं गाणं, सासयं परिणिव्वुए ।।" अर्थात् निर्मम, वीतराग एवं आस्रवों से रहित निर्ग्रन्थ मुनि, शाश्वत केवलज्ञान को प्राप्त कर परिनिर्वृत हो जाता है अर्थात् पूर्णतया आत्मस्थ हो जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों का मुख्य प्रतिपाद्य वीतरागता ही है। - संगीता साड़ीज, डागा बाजार, जोधपुर (राज.) स्वाध्याय शिक्षा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांग सत्र: एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण डॉ. सागरमल जैन आचारांगसूत्र मनुष्य को अप्रमत्त, निर्भय, असंग, संवेदनशील एवं अहिंसक बनने की प्रेरणा करता है। मनुष्य की मनोवृत्तियों एवं आदर्शों का भी इसमें वर्णन मिलता है। आधुनिक मनोविज्ञान भी मन एवं उसकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है। जैन धर्म-दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान डॉ. सागरमल जी जैन ने अपने इस आलेख में आचारांग सूत्र के दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष का आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया है। -सम्पादक आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूंकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के संबंध में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहियेयह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएँ एवं संभावनाएँ क्या हैं? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना संभव नहीं है। हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है। अस्तित्व संबंधी जिज्ञासा-मानवीय बद्धि का प्रथम प्रश्न ____ आचारांग सूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व संबंधी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए। के अहं आसी के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि।।1.1.1.3 इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरान्त किस रूप में होऊँगा, यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वबोध या स्वरूप बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन दृष्टि क्या और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधर्म की सारी मान्यताएँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं। इसीलिये सूत्रकार ने कहा है कि जो इस 'अस्तित्व' या 'स्वसत्ता' को जान लेता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है । (सोहं से आयावाई लोगवाई कम्पवाई किरियावाई-1.1.1.4-5) व्यक्ति के लिये मूलभूत और सारभूत तत्त्व उसका अपना अस्तित्व ही है और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियाँ मानी गयी हैं। सत्य की खोज में संदेह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है । आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है वह दार्शनिक दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते हुए तो यहां तक कहा गया है कि "संसयपरिआगओ संसारे परिन्नये (1.5.1)” अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता है। विचार या चिन्तन से विवेक जागृत होता है, ज्ञान के नये आयाम प्रकट होने लगते हैं । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो यात्रा सन्देह से प्रारम्भ होती है, अन्त में श्रद्धा तक पहुंच जाती है। अपना समाधान पाने पर संदेह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत समाधान रहित अन्धश्रद्धा की परिणति संदेह में होगी। जो संदेह से चलेगा, अन्त में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुंच जायेगा। यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय | आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है- जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए - 1.5.5। इस प्रकार वह ज्ञान को आत्मस्वभाव या आत्मस्वरूप बताता है। जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहाँ आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु अनुभूति ( वेदना ) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण स्वाध्याय शिक्षा 10 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध होता है। वैसे आचारांग सूत्र में तथा परवर्ती जैन ग्रन्थों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांग का आत्मा के विज्ञाता स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णतः समभाव या समाधि की उपलब्धि संभव नहीं है। जब तक सुख- दुःखात्मक वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा परभाव में स्थित होता है, चित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का स्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता द्रष्टा रूप में स्वरूपतः उपलब्ध होता है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः उपलब्ध नहीं है। मन का ज्ञान : साधना का प्रथम चरण निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता है- जो मणं परिजाणई से निग्गथे जे मणे अपावए-2.15.45। जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निर्ग्रन्थ है, इस प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है मन को जानना और दूसरा चरण है मन को अपवित्र नहीं होने देना। मन की शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का मतलब है अन्दर झांककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की ग्रन्थियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। रोग का ज्ञान और उसका निदान उससे छुटकारा पाने के लिये आवश्यक है। आधुनिक मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण विधि में भी मनोग्रन्थियों से मुक्त होने के लिये उनको जानना आवश्यक माना गया है। अन्तर्दर्शन और मनोविश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं, आचारांग में उन्हें निर्ग्रन्थ-साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुतः आचारांग की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति सतत जागरूकता है। चित्तवृत्तियों का दर्शन सम्यग्दर्शन है, स्वस्वभाव में रमना है। आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोग्रन्थियों को तोड़ने की बात कहता है उसी प्रकार जैन दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथिभेद की बात कहता है। ग्रन्थि, ग्रन्थि भेद और निर्ग्रन्थ शब्दों के प्रयोग स्वयं आचारांग की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुतः ग्रन्थियों से मुक्ति ही साधना का लक्ष्य है- गंथेहि विवत्तेहि आउकालस्स पारए-1.8.8.11। जो ग्रन्थियों से रहित है वही निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ होने का अर्थ है- राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गांठ का खुल जाना, जीवन में अन्दर और बाहर से एकरूप हो जाना, मुखौटों की जिन्दगी से दूर जाना, स्वाध्याय शिक्षा में __ 11 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि ग्रन्थि का निर्माण होता है राग भाव से, आसक्ति से, मायाचार या मुखौटों की जिन्दगी से। इस प्रकार आचारांग एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांग के अनुसार बन्धन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आन्तरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि -बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव 1.5.2। बन्धन और मोक्ष हमारे अध्यवसायों किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बन्धन ही वास्तविक बन्धन है। गांठें जिन्होंने हमें बांध रखा है, वे हमारे मन की गांठें हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि-कामेसु गिद्धा निचयं करेंति-1.3.21 कामभोगों के प्रति आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए-1.1.21 आचारांग के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, वही समस्त पीड़ाओं की जननी है। (आतुरा परिताउँति-1.1.2) यहां हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि- आसंच छदं च विगिंच धीरे। तुम चेव तं सल्लमाटु-1.2.4। हे धीर पुरुष! विषय-भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। तुम स्वयं इस कांटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बंधन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है- जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा-1.4.2 अर्थात बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं, वे भी कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न करती हैं। मनोवृत्तियों की सापेक्षता ___ आचारांग सूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग(प्रेम), द्वेष, मोह आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। (जे एगं जाणइ से सवं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ,जे एगं नामे से बहुं नामे जे 12 * स्वाध्याय शिक्षा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु नामे से एगं नामे-1.3.4) आश्चर्य यही है कि अभी तक इन सूत्रों के तत्त्वमीमांसीय या ज्ञानमीमांसीय अर्थ लगाये गये और इनके मनोवैज्ञानिक संदर्भ को ओझल किया गया, जबकि ये सूत्र विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं। इस उद्देशक का सम्पूर्ण संदर्भ विशुद्ध रूप से मनोवैज्ञानिक हैं, जो मनोविज्ञान का विषय है। इन कषायों के दुश्चक्र से वही मुक्त हो सकता है, जो अप्रमत्तचेता है, क्योंकि जैसे ही व्यक्ति इनके प्रति सजग बनता है, इनके कारणों और परिणामों को देखने लगता है, वह मनोवृत्तियों के पारस्परिक संबंध स्पष्ट होते हुए पाता है। जब व्यक्ति क्रोध को देखता है, तो क्रोध के कारणभूत द्वेषभाव और द्वेष के कारणभूत रागभाव को भी देख लेता है। जब वह अहं या मान द्रष्टा बनता है, तो अहं की तुष्टि के लिये मायावी मुखौटों का जीवन भी उसके सामने स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकार ने पूरी स्पष्टता के साथ इस बात को प्रस्तुत किया कि किस प्रकार किसी एक मनोवृत्ति (कषाय) का द्रष्टा दूसरी सभी सापेक्ष रूप से रही हुई मनोवृत्तियों का द्रष्टा बन जाता है। वह कहता है- जो क्रोध को देखता है, वह मान(अहंकार) को देख लेता है। जो मान को देखता है वह माया (कपटवृत्ति) को देख लेता है। जो माया को देखता है वह लोभ को देख लेता है। जो लोभ को देखता है वह राग-द्वेष को देख लेता है। जो राग-द्वेष को देखता है, वह मोह (अविद्या) को देख लेता है और जो मोह को देखता है वह गर्भ (भावी जन्म) को देखता है और जो गर्भ को देखता है वह जन्म-मरण की प्रक्रिया को देखता है। इस प्रकार एक कषाय का सम्यक् विश्लेषण उससे संबंधित अन्य कषायों का तथा उनके परिणामों और कारणों का सम्यक् बोध करा देता है (१.३.४) , क्योंकि सभी मनोवृत्तियाँ परस्पर सापेक्ष होकर रहती हैं। जहाँ लोभवृत्ति होती है वहां माया या कपटाचार आ ही जाता है। जहां कपटाचार होता है वहां उसके पीछे मान या अहंकार का प्रश्न जुड़ा रहता है और जहां मान या अहंकार होता है उसके साथ क्रोध जुड़ा रहता है। राग के बिना द्वेष का और द्वेष के बिना राग का टिकाव नहीं है। इसी प्रकार क्रोध का टिकाव अहंकार पर और अहंकार का टिकाव मायाचार पर, मायाचार का टिकाव लोभ पर निर्भर करता है। कोई भी कषाय दूसरी कषाय से पूरी तरह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकती है, अतः किसी एक कषाय का समग्र भाव से विजेता सभी कषायों का विजेता बन जाता है और एक द्रष्टा सभी का द्रष्टा बन जाता है। कषाय विजय का उपाय : द्रष्टा या साक्षीभाव ____ आचारांग में मुनि और अमुनि का अन्तर स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि जो सोता है, वह अमुनि है, जो जागता है वह मुनि है। यहाँ जागने का तात्पर्य है स्वाध्याय शिक्षा - 13 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने प्रति, अपनी मनोवृत्तियों के प्रति सजग होना या अप्रमत्तचेता होना। प्रश्न हो सकता है कि अप्रमत्तचेता या सजग होना क्यों आवश्यक है? वस्तुतः जब व्यक्ति अपने अन्तर में झांककर अपनी वृत्तियों का द्रष्टा बनता है तो दुर्विचार और दृष्प्रवृत्तियाँ स्वयं विलीन होती जाती हैं। जब घर का मालिक जागता है तो चोर प्रवेश नहीं करते हैं, उसी प्रकार जो साधक सजग हैं, अप्रमत्त हैं, तो उनमें कषाय पनप नहीं सकता, क्योंकि कषाय स्वयं प्रमाद है तथा प्रमाद और अप्रमाद एक साथ नहीं रह सकते हैं। अतः अप्रमाद होने पर कषाय पनप नहीं सकते। आचारांग सूत्र में बार-बार कहा गया है- 'तू देख' 'तु देख' (पास! पास!)। यहां देखने का तात्पर्य है अपने प्रति या अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होना। क्योंकि जो द्रष्टा है,वही निरुपाधिक दशा को प्राप्त हो सकता है (किमत्थि उवाही पासगस्स, ण विज्जइ? नत्थि-१.3.४) वस्तुतः आत्मा जब अपने शुद्ध ज्ञाता स्वरूप में अवस्थित होती है तब संसार के समस्त पदार्थ ही नहीं वरन् उसकी अपनी चित्तवृत्तियां और मनोभाव भी उसे 'पर' (स्व से भिन्न) प्रतीत होते हैं। जब वह 'पर' को 'पर' के रूप में जान लेता है और उससे अपनी पृथक्ता का बोध कर लेता है तब वह अपने शुद्ध ज्ञायक स्वरूप को जानकर उसमें अवस्थित हो जाता है। यही वह अवसर होता है, जब मुक्ति का द्वार उद्घाटित होता है, क्योंकि जिसने 'पर' को 'पर' के रूप में जान लिया है उसके लिए ममत्व या राग के लिए कोई स्थान ही नहीं रहता है। राग के गिर जाने पर वीतरागता का प्रकटन होता है और मुक्ति का द्वार खुल जाता है। मन के पवित्रीकरण की मनोवैज्ञानिक विधि चित्त को अपवित्र नहीं होने देने के लिये मन की वृत्तियों को देखना जरूरी है, क्योंकि यह मन को दृष्प्रवृत्तियों से बचाने की एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मन एक ही समय में द्रष्टा और कर्ता की दो भूमिकाओं का निर्वाह नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिये वह अपने क्रोध का कर्ता एवं द्रष्टा एक साथ नहीं हो सकता। मन जब कर्ता से द्रष्टा की भूमिका में आता है तो मनोविकार स्वयं विलीन होने लगते हैं। मन तो स्वतः ही वासना और विकार से मुक्त हो जाता है। इसलिये कहा गया है- अप्पमत्तो कामेहि उवरतो-1.2.11 सवतो पमत्तस्स भयं-अप्पमत्तस्स नत्थि भयं-1.3.4। जो अप्रमत्त है वह कामनाओं से और पाप कर्मों से उपरत है, प्रमत्त को ही विषय-विकार में फंसने का भय है, अप्रमत्त को नहीं। अप्रमत्तता या सम्यग्द्रष्टा की अवस्था में पापकर्म असंभव हो जाता है, इसीलिये 14 स्वाध्याय शिक्षा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है- सम्मत्तदंसी न करेइ पावं-1.3.2 अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांग में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टा भाव में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वतः शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि “आयंकदंसी न करेइ पावं-1.3.21' पुनः एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है, उसके लिये पाप कर्म में फंसना एक मनोवैज्ञानिक असंभावना बन जाती है। जब व्यक्ति पापकर्म या हिंसाजनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव करता है, तो हिंसा करना उसके लिये असंभव हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक सत्यों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है। धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस संदर्भ में आचारांग के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर है। वह आचार शुद्धि से विचार शुद्धि की ओर बढ़ता है। आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे भूया, सब्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतवा- एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए-1.4.1) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है, समियाए धम्मे आरियेहि पवेइए (1.8.3) वस्तुतः धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती है। अहिंसा व्यावहारिक समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही धर्म है। सैद्धान्तिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है स्वाध्याय शिक्षा - - 15 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब समभाव बन जाती है। समत्व या समता धर्म क्यों? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि समता को धर्म क्यों माना जावे? जैन परम्परा के परवर्ती ग्रन्थों में धर्म की व्याख्या 'वत्थु-सहावो धम्मो' के रूप में की गई है, अतः समता को तभी धर्म माना जा सकता है जबकि वह प्राणीय स्वभाव सिद्ध हो जावे। जरा इस प्रश्न पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें। जैन दर्शन में मानव प्रकृति एवं प्राणीय प्रकृति का गहन विश्लेषण किया गया है। महावीर से जब यह पूछा गया कि आत्मा क्या है? आत्मा का साध्य या आदर्श क्या है? तब महावीर ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया था वह आज भी मनावैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है। (आयाए सामाइए आया सामइयस्स अट्ठेभगवतीसूत्र)। वस्तुतः जहां भी जीवन है, चेतना है, वहां समत्व के संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिये प्रयासशील बने, यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में 'जीवन गतिशील संतुलन है' (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि पृ.२५८)। स्पेन्सर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस संतुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फर्स्ट प्रिंसिपल्स-स्पेन्स, पृ. ६६)। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिये संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्त्वपूर्ण लक्षण है। इस प्रकार जैन दर्शन में समभाव या वीतराग दशा को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व-स्वभाव है वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्स प्रभृति कुछ पाश्चात्त्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन 16 - स्वाध्याय शिक्षा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अनुसार नित्य और निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसें तो संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग-संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है। क्योंकि संघर्ष मिटाने के लिए होता है। जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं। मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की साधना है, क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं। संघर्ष से विचलन जीवन में पाये जाते हैं, लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं हैं, क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनको समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समता की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी मानसिक असंतुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं। अतः आचारांग में इन्हें अशुभ माना गया है। इसके विपरीत वासनाशून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही जीवन का आदर्श है, क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती हैं, अतः उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुतः समत्व की उपलब्धि आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है और जो जीवन का साध्य एवं स्वभाव हो, वही धर्म कहा जा सकता है। आचारांग स्पष्ट रूप से कहता है कि जो समता को जानता है वही मुनिधर्म को जानता है। आचारांग में अहिंसा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आचारांग में अहिंसा के सिद्धान्त को मनोवैज्ञानिक आधार पर ही स्थापित करने का प्रयास किया गया है। अहिंसा को अर्हत् प्रवचन का सार और शुद्ध एवं शाश्वत धर्म बताया गया है। सर्वप्रथम हमें विचार करना है कि अहिंसा को ही धर्म क्यों माना जावे। सूत्रकार इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक उत्तर प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि सभी प्राणियों में जिजीविषा प्रधान है, पुनः सभी को सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल है। (सब्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला-1.2.3) अहिंसा का अधिष्ठान यही मनोवैज्ञानिक सत्य है। अस्तित्व और सुख की चाह प्राणीय स्वभाव है। जैन विचारकों स्वाध्याय शिक्षा 17 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। यद्यपि मेकेंजी ने "भय' को अहिंसा का आधार माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहां तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है। अतः आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर प्रतिष्ठित किया गया है। पुनः अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ-साथ तुल्यता बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। वहां कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ.... एयं तुल्लमन्नेसिं-1.1.7। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता बोध के आधार पर होने वाला यह आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग, १.५.५)। आगे कहता है कि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग १.२.३)। यहां अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा प्रतीत होता है, क्योंकि यहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक दूसरे के प्रति परबुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की संभावनाएं उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक ओर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा या घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है- शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र 18 - स्वाध्याय शिक्षा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रतिकार दूसरे शस्त्र के द्वारा संभव है। शान्ति की स्थापना तो अहिंसा या प्रेम द्वारा ही संभव है, क्योंकि अशस्त्र से बढ़कर कुछ अन्य नहीं है। (आचारांग १.३.४) आचारांग में मानवीय व्यवहार के प्रेरक तत्त्व सामान्यतया राग और द्वेष ये दो कर्म बीज माने गये हैं, किन्तु इनमें भी राग ही प्रमुख तथ्य है। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि आसक्ति ही कर्म का प्रेरक तथ्य है(१.३.२)। आचारांग और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों ही इस संबंध में एकमत हैं कि मानवीय व्यवहार के मूलभूत प्रकार कितने है, इस संबंध में कोई निश्चित संख्या नहीं मिलती है। पाश्चात्त्य मनोविज्ञान में जहाँ फ्रायड काम या राग को ही एकमात्र मूल प्रेरक मानते हैं, वहीं दूसरे विचारकों ने मूलभूत प्रेरकों की संख्या सौ तक मानी है। फिर भी पाश्चात्त्य मनोविज्ञान में सामान्यतया निम्न १४ मूल प्रवृत्तियाँ मानी गई हैं १. पलायनवृत्ति (भय) २. घृणा ३. जिज्ञासा ४. आक्रामकता (क्रोध) ५. आत्मगौरव (मान) ६. आत्महीनता ७. मातृत्व की संप्रेरणा ८. समूह भावना ६. संग्रहवृत्ति १०. रचनात्मकता ११. भोजनान्वेषण १२. काम १३. शरणागति और १४. हास्य (आमोद)। आचारांग सूत्र में भय, जिज्ञासा, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, आत्मीयता, हास्य आदि का यत्र-तत्र बिखरा हुआ उल्लेख उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त हिंसा के कारणों का निर्देश करते हुए कुछ कर्म प्रेरकों का उल्लेख उपलब्ध है। यथा जीवन जीने के लिये, प्रशंसा और मान-सम्मान पाने के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए तथा शारीरीक एवं मानसिक दुःखों की निवृत्ति हेतु प्राणी हिंसा करता है। (१.१.४) दमन का प्रत्यय और आचारांग सामान्यतया आचारांग में इन्द्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया है। वह तो शरीर को सुखा डालने की बात भी कहता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण इन्द्रिय निरोध संभव है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इन्द्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है? आंख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है तो वह उसके सौन्दर्य दर्शन से वंचित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः यह विचारणीय प्रश्न है कि इन्द्रिय दमन के संबंध में क्या आचारांग का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है? आचारांग इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यही बात कहता है कि इन्द्रिय व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय सेवन के स्वाध्याय शिक्षा - 19 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल में जो निहित राग-द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। इस संबंध में उसमें जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं, अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि आंखों के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाये, अतः रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि नासिका के समक्ष आयी हुई सुगन्ध सूंघने में न आए, अतः गन्ध का नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति आने वाले राग- द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। अतः रस का नहीं, किन्तु रस के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये। यह शक्य नहीं है कि शरीर से सम्पर्क होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो । अतः स्पर्श का नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए ( आचारांग २.१५.१०१-१०५ ) । उत्तराध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गयी है । उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए राग-द्वेष के कारण नहीं होते हैं। ये विषय रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, वीतरागियों के बंधन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। काम भोग न किसी को बंधन में डालते हैं और न किसी को मुक्त ही करते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वहीं राग-द्वेष से विकृत होता है (उत्तराध्ययन ३२.१००-१०१) जैन दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है। औपशमिक मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग औपशमिक मार्ग है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में यह दमन का मार्ग है, जबकि क्षायिक मार्ग वासनाओं के निरसन का मार्ग है । वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। यह दमन नहीं, अपितु चित्त विशुद्धि है । दमन तो मानसिक गन्दगी को ढकने मात्र में है और जैन दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार नहीं करता। जैन दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में यह स्पष्ट रूप से बताया है कि वासनाओं को दबाकर आने वाली साधना विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यता पदच्युत हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक के समान ही दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है । इसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु उनसे ऊपर उठ जाना है। वह स्वाध्याय शिक्षा 20 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय निग्रह नहीं, अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है। अतः यह स्पष्ट है कि आचारांग सूत्र अपनी विवेचनाओं में मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है । उत्तम आचार के जो नियम - उपनियम बनाये गये हैं, वे भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं, किन्तु यहां उन सबकी गहराइयों में जाना संभव नहीं है। यद्यपि इस सम्पूर्ण विवेचना का यह अर्थ भी नहीं है कि आचारांग में जो कुछ कहा गया, वह सभी मनोवैज्ञानिक सत्यों पर आधारित है। अहिंसा, समता और अनासक्ति के जो आदर्श उसमें प्रस्तुत किये गए हैं, वे चाहे मनोवैज्ञानिक आधारों पर अधिष्ठित हों, किन्तु उनकी जीवन में पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही प्रश्न चिह्न भी लगाया जा सकता है। ये आदर्श के रूप में चाहे कितने ही सुहावने हों, किन्तु मानव जीवन में इनकी व्यावहारिक संभावना कितनी है, यह विवाद का विषय बन सकता है। फिर भी मानवीय दुर्बलता के आधार पर उनसे विमुख होना उचित नहीं होगा। क्योंकि इनके द्वारा ही न केवल मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होगा, अपितु लोक मंगल की भावना भी साकार बन सकेगी। आचारांग में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं कि आचारांग मूलतः दर्शन का ग्रन्थ न होकर आचार शास्त्र का ग्रन्थ है, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उसमें दर्शन के तत्त्वों का पूर्णतः अभाव है । आचारांग का प्रारम्भ ही एक पारिणामिक नित्य आत्मा की अवधारणा से होता है । आचारांग आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करके चलता है। वह कर्म की अवधारणा को भी स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि कर्म ही बन्धन के कारण हैं। यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो उसमें कर्म को पौद्गलिक मानकर कर्म शरीर का भी उल्लेख किया गया है और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का ही विधूनन करे । इसी प्रकार आचारांग में आस्रव, संवर और प्रकारान्तर से निर्जरा की व्यवस्थाएँ भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या करता है । अतः हम कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, बन्धन, आनव, संवर, निर्जरा और मुक्ति इन सब अवधारणाओं को चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है । फिर भी उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के संबंध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है जो उसके स्वाध्याय शिक्षा 21 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार-शास्त्र की पूर्ण मान्यता के लिए अपरिहार्य हैं। जैनधर्म का जो विकसित तत्त्वज्ञान है उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्गल को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतन्त्र व्याख्या नहीं। आचारांग के आचार नियम जहां तक आचारांग में प्रतिपादित आचार नियमों का प्रश्न है मूलतः वे सभी नियम अहिंसा को केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। आचारांग के आचार नियमों का केन्द्र बिन्दु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरमसीमा तक अपनाया जा सकता है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग के दो श्रुतस्कन्धों में जहां प्रथम श्रुतस्कन्ध आचार के सामान्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है वहां द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्र रूप में संकेत किया गया है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में इनसे ऊपर उठकर कैसा जीवन जिया जा सकता है, इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनि जीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाय इसका विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्तिम भाग जहां एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर वह इन्द्रिय विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि आचारांग का आचार पक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता। -सागर टेन्ट हाउस, नई सड़क, शाजापुरम.प्र.) 22 - स्वाध्याय शिक्षा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों में विज्ञान डॉ. नन्दलाल जैन जैनागमों की विषयवस्तु का क्षेत्र व्यापक है। इनमें दुःखमुक्ति की साधना का प्रतिपादन तो है ही, किन्तु आधुनिक विज्ञान की कई शाखाओं के बीज भी आगमों में उपलब्ध हैं। रसायनशास्त्र के विशेषज्ञ एवं जैन धर्म-दर्शन के प्रतिष्ठित विद्वान् डॉ. नन्दलाल जैन ने अपने आलेख में मूर्त एवं अमूर्त जगत् से सम्बद्ध विज्ञान की विषयवस्तु का अन्वेषण किया है। उन्होंने आगमों में उपलब्ध भौतिकी, रसायनविज्ञान, जीवविज्ञान, आयुर्विज्ञान, आहारविज्ञान, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, मनोविज्ञान आदि की ओर पाठकों का ध्यान दिलाने के साथ अमूर्त जगत् के पराविज्ञान एवं अध्यात्मविज्ञान की भी चर्चा की है। - सम्पादक शास्त्रों के अनुसार जिनवाणी या आगमवाणी में अनेक विशेषताएँ हैं, जिनमें से कतिपय इस प्रकार हैं १. यह अठारह दोष-रहित सर्वज्ञ या वीतराग द्वारा कथित होती है। २. यह प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से अबाधित होती है। ३. युक्ति शास्त्र की अविरोधी या अविसंवादी होती है। जैनों का विश्वास है कि जैन आगम स्वयं अनुभूत एवं अतिशय प्रज्ञा के प्रतीक हैं। वे न तो परामानवीय शक्ति से आदिष्ट हैं और न ही परामानवीय या दिव्य दूत द्वारा प्रकटित हैं। अतः स्वानुभूति की प्रामाणिकता निर्बाध है। फिर भी, हमारे आचार्य क्रमिक स्मृति- हानि, प्रज्ञाहानि तथा अन्य कारणों से प्रत्यक्ष ज्ञानियों की वाणी को अंशतः ही स्मृति में रख सके। बहुतेरा अंश लुप्त हो गया और अल्प अंश हमें उपलब्ध है। हमारे आगम संकलयिता या निर्माता आचार्य बुद्धिवादी कोटि के थे। ईश्वरवाद के विरोधी होने के कारण आगमों में श्रद्धा एवं विश्वास उत्पन्न करने के लिये उन्होंने इनमें वैज्ञानिकता के तत्त्व समाहित किये। उन्होंने इस हेतु कुछ आधार दिये १. 'क्या, क्यों और कैसे ' की जिज्ञासुवृत्ति । २. ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया का अवग्रहादि - चतुष्क करण ३. बुद्धि और तर्कशास्त्र का प्रयोग । आगमों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति की उद्घोषणाएँ हमारे सांसारिक जीवन के दो मूल रूप हैं- १. भौतिक और २. आध्यात्मिक। आगमों का लक्ष्य मानव को आध्यात्मिक प्रगति के उत्कर्ष पर पहुंचाना रहा है। फलतः उनमें लगभग दो तिहाई विवरण इसी कोटि के हैं। फिर भी, चूंकि हम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिक जगत में रहते हैं, अतः प्रायः एक तिहाई वर्णन भौतिक जगत से भी संबंधित है। इसके अतिरिक्त आध्यात्मिक प्रगति के लिये व्रत, उपवास, साधनाएँ एवं ध्यान जैसी भौतिक प्रवृत्तियां भी करनी पड़ती हैं। हमारे भौतिक जीवन में भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जो हमारे ज्ञान-विज्ञान को प्रभावित करते हैं। इन शास्त्रीय वर्णनों के ज्ञान के लिये हमारे आचार्यों ने अनेक संकेत दिये हैं। उन्होंने अपने शास्त्रों में मनुष्य को वैज्ञानिक बनकर धर्मरुचि जागृत करने की शिक्षा दी है। वस्तुतः मनुष्य अपना प्रासंगिक जीवन बाह्य जगत के निरीक्षणों से प्रारंभ करता है। फलतः वह वैज्ञानिक पहले है और अन्तर्जगत् के निरीक्षक या अनुभव के रूप में धार्मिक बाद में है। आचारांग में वैज्ञानिकता प्रकट हुई है, उसमें कहा है१. मैं दृष्ट, श्रुत, मनन एवं अनुभव सिद्ध धर्म का उपदेश दे रहा हूँ। २. जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। ३. तत्त्व का अध्ययन कुशाग्र बुद्धि से करना चाहिए। ४. अनुभवकर्ता के लिये उपदेश की आवश्यकता नहीं है। उत्तराध्ययन तो स्पष्ट कहता है कि धर्म की परीक्षा बुद्धि, प्रज्ञा एवं विज्ञान या अनासक्ति से करना चाहिये। आचार्य कुंदकुंद ने भी कहा है कि वे अपने अनुभव के आधार पर ही बातें कह रहे हैं। यदि उनमें कोई पूर्वापर-विरोध हो, तो उसे दूर कर लेना चाहिए। समन्तभद्र ने भी प्रत्यक्ष और अनुमान के अविरोधी एवं खंडन रहित शास्त्रों की मान्यता की बात कही है। शास्त्रों में प्राप्त ज्ञान यथार्थ(न कम न अधिक), असंदिग्ध एवं अ-विपरीत या सम्यक् होता है। समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि को तो परीक्षा प्रधान ही माना गया है। इनके समय से ही परीक्षा ग्रंथ प्रारंभ हुए हैं। तर्कवाद के युग में भौतिक घटनाओं के निरीक्षणों की परीक्षा तर्क से की जाती है। यही कारण है कि अनेक न्याय- ग्रन्थों में दृश्य जगत् से संबंधित कितने ही प्रकरण मन एवं चक्षु की अप्राप्यकारिता, ज्ञान-प्राप्ति के उपाय, पुद्गल और जीव-जगत् आदि आये हैं। आचार्य हेमचन्द्र भी शास्त्र का एक लक्षण परीक्षण और उसकी योग्यता ही मानते हैं। सिद्धसेन ने भी यही कहा है कि मूर्त तत्त्वों का ज्ञान तर्क से और अमूर्त तत्त्वों का ज्ञान 'आगम' से करना चाहिए। आगमों में विज्ञान : मूर्त जगत सामान्यतः 'विज्ञान' शब्द को भौतिक जगत्-दृश्य जगत् की घटनाओं से संबंधित ज्ञान माना जाता है। पर वस्तुतः उसे दो रूपों में मानना चाहिए। मूर्त का ज्ञान और अमूर्त जगत् का ज्ञान। उसे आजकल 'विज्ञान' एवं 'अधि-विज्ञान' भी ___24 - स्वाध्याय शिक्षा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है। हमारे वर्तमान 'आगम' दोनों प्रकार के ज्ञानों के आदि स्रोत हैं। सर्वप्रथम हम भौतिक जगत् से संबंधित विज्ञानों को लें। इस कोटि में आजकल भौतिकी (परमाणुवाद, ऊर्जावाद आदि) रसायन (पदार्थ विज्ञान), जीव विज्ञान (स्थावर एवं त्रस जगत) आयुर्विज्ञान, आहार विज्ञान, गणित और ज्योतिर्विज्ञान, सिविल एवं सैन्य इंजीनियरी मनोविज्ञान आदि विषय आते हैं। यदि हम आगमों का इस दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें लगता है कि आचारांग से लेकर अनुयोगद्वार और नंदिसूत्र तक प्रायः सभी ग्रंथों में उनमें से एकानेक विषयक तत्कालीन ज्ञान भरा हुआ है। उदाहरणार्थ आचारांग में आहार विज्ञान, जीव-विज्ञान, रोग-विज्ञान आदि का अच्छा विवरण है। यहीं से एकेन्द्रियों की सजीवता और उसके पीड़न की प्रक्रिया में दोष बताये गये हैं। सूत्रकृतांग में विविध जीवों की उत्पत्ति, शरीर आदि का विवरण है। 'ठाणं और 'समवाओ' तो विविध विषयक ज्ञान के कोष हैं। उनमें परमाणुवाद, ध्वनि, प्रकाश, ऊष्मा आदि ऊर्जायें, जीव-विज्ञान के विविध पक्ष, सीखने योग्य ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ, गणितीय संख्याएँ, ज्योतिर्मण्डल के विवरण तथा मनोविज्ञान से संबंधित कषायों के विवरण, मनुष्यों एवं पशुओं के विविध रूपों की मनोवैज्ञानिक प्ररूपणाएँ, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक के भवनों एवं विमानों आदि का माप-पूर्ण विवरण, आयुर्विज्ञान के विविध अंग (गर्भधारण तथा गर्भपात भी), आहार विज्ञान आदि से संबंधित अनेक चर्चाएँ पाई जाती हैं। भगवती तो एक विश्वकोश जैसा लगता है। उसमें भी उपर्युक्त विषय स्थान-स्थान पर वर्णित हैं। इसमें अनेक स्थानों पर अनुयोग द्वारा विविध विषयों का वर्णन किया गया है। बहु-परमाणुक बंधों के भंगों की संख्या दी गई है। वनस्पति विज्ञान से संबंधित अनेक सामान्य व विशिष्ट जानकारियां दी गई हैं। अन्य स्थावरों तथा त्रस-जीवों के विषय में भी व्यापक सूचनाएँ हैं। वस्तुतः इन आगमों की विषयवस्तु को विषयवार संकलित कर प्रस्तुत करना चाहिये। इन्हें आर्यरक्षित के अनुयोग-वर्गीकरण से भी व्यापकतः वर्गीकृत कर प्रस्तुत करना चाहिये। ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, विपाकसूत्र, अंतगडदसा आदि कथा-प्रमुख आगमों में भी स्थान-स्थान पर दृश्य जगत् संबंधी अनेक विवरण हैं। इनमें स्वप्नशास्त्र भी आया है। अनेक प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री भी है। प्रश्नव्याकरण में . विविध कोटि के स्थावर एवं त्रस जीवों के विभिन्न कार्यों में उपयोग संबंधी सूचनाएँ हैं, जिनसे तत्कालीन समाज शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त होता है। ठाणं के समान संगीत, वाद्यों एवं तत्संबंधित नाट्यकला के विविध रूपों का वर्णन है जो आधुनिक दृष्टि से स्वाध्याय शिक्षा - 25 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी विवेचनीय है। अनेक विदेशी शोधकों ने जैनों की वर्तमान सामाजिक व धार्मिक व्यवस्थाओं पर शोध की है, पर भूतकालीन शोध भी आवश्यक है। ___ अंगबाह्य ग्रंथों में औपपातिक एवं राजप्रश्नीय में कलाओं, स्वप्नशास्त्र तथा अध्यात्म शास्त्र का अच्छा विवरण है। प्रज्ञापना और जीवाभिगम भी भगवती के समान ही विविध विषयों का ज्ञान देते हैं। ये भगवती की तुलना में किंचित् अधिक व्यवस्थित हैं और शीर्षकों के आधार पर वर्णन करते हैं। प्रज्ञापना में अजीव का वर्णन भी पर्याप्त विस्तृत है, जीव से संबंधित विविध विषय इसमें विस्तार से समाहित हैं। इसमें वनस्पति जगत् के प्रत्येक और साधारण भेदों का अच्छा वर्गीकरण है। इन जीवों के कर्म एवं लेश्या संबंधी विवरण आज मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। जीवाभिगम में २३ द्वारों के माध्यम से नरक, स्वर्ग एवं मध्यलोक के सभी प्रकार के स्त्री, पुरुषों एवं संमूर्छनों का विवरण है। यह बहुत ही विस्तृत है। सूर्य-चन्द्र-प्रज्ञप्ति-द्विक में ज्योर्तिमण्डल का विस्तृत वर्णन है। इसके विवरणों पर लिश्क ने कुछ काम किया है। इन पर अभी और काम करने की आवश्यकता है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तो एक प्रकार का भूगोल है। इस संबंध में अन्य आगमग्रन्थों में भी स्फुट विवरण मिलता है। जैनों का यह भूगोल तत्कालीन अन्य मतों की मान्यताओं के अनुसार ही है, लेकिन जैनाचार या सप्त-द्वीपी भूगोल की तुलना में असंख्यात द्वीप समुद्री भूगोल मानता है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति आदि ग्रंथ भी जैन भूगोल का वर्णन करते हैं। आधुनिक विचारकों में इस विषय पर पर्याप्त ऊहापोह है। दशवैकालिक और उत्तराध्ययन की गणना मूलसूत्रों में की जाती है। यद्यपि ये मुख्यतः मुनिचर्या से संबंधित हैं, पर इनके 'षड्जीवनिका और जीवाजीवविभक्ति' के अध्याय जीव-विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। यही नहीं, ऐसा माना जाता है कि ये ग्रंथ महावीर के निर्वाण के उपरांत कुछ ही समय में अस्तित्व में आये। इनके विवरणों के आधार पर अन्य ग्रंथों में वर्णित विवरणों के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। उनमें आहार-विज्ञान, मरण-विज्ञान, लेश्या और वर्ण का विज्ञान तथा साधुचर्या के विविधरूपों का वर्णन है। अनुयोगद्वार और नंदीसूत्र उत्तरवर्ती ग्रंथ हैं, पर इनकी मान्यता विद्वज्जगत में अच्छी है। नंदीसूत्र में ज्ञान का विस्तृत वर्णन है, जबकि अनुयोगद्वार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अंतर्गत परमाणुवाद, गणना-संख्या आदि का प्राथमिक विवरण है। इसमें परमाणु की अविभागिता को सुरक्षित रखने के लिये उसके दो भेद सूक्ष्म और व्यावहारिक किये हैं जिसे उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी माना है। यह परमाणुवाद का 26 - स्वाध्याय शिक्षा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास प्रदर्शित करता है। श्वेताम्बर आगमों के समान दिगम्बर आगमकल्प ग्रंथों में भी उपर्युक्त विषयों से संबंधित अनेकानेक वैज्ञानिक विवरण पाये जाते हैं। षट्खण्डागम ग्रंथ में गणित एवं जीव विज्ञान का अच्छा मनोवैज्ञानिक निरूपण है, जबकि कषायप्राभृत में मानव की कषायों के रूप में मानसिक प्रवृत्तियों का अच्छा दिग्दर्शन है। मूलाचार तो दिगंबरों का आचारांग है जिसमें जीव विज्ञान, आहार विज्ञान, मरण विज्ञान आदि अनेक विषय आये हैं। भगवती आराधना में मनुष्य के जन्म एवं शरीर रचना के विषय में तंदुलवेयालिय के समान विवरण है। यह वर्तमान ज्ञान के आधार पर तुलनात्मकतः अध्येय है। तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह देखा गया है कि अनेक वैज्ञानिक विवरणों में जैनों की दोनों मान्यताओं में किंचित् भिन्नता पाई जाती है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। आगमों में विज्ञान : अमूर्त जगत् अमूर्त जगत् के विज्ञान को अध्यात्म ज्ञान, पराविज्ञान या अधि विज्ञान कहते हैं। यह क्षेत्र अभी भौतिक विज्ञानियों के द्वारा आक्रांत नहीं हो पाया है, यह दृश्य जगत से परे है तथापि वैज्ञानिक अब यह कहने से नहीं चूकते कि चेतना सूक्ष्म अनुभव हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि 'अमूर्त' का अर्थ पूर्णतः मूर्तता का अभाव नहीं, स्पष्ट मूर्तता के अभाव के रूप में लेना चाहिए। हमारे आगम इस अमूर्त जगत के स्रष्टा एवं चरम विकासक हैं। चेतना की अमूर्त शुद्ध दशा को आत्मा कहा गया है। इसके सामान्य मूर्तरूप को 'जीव' कहा गया है। ‘आगम शब्दकोष' के आधार पर आगमों में 'जीव' और 'आत्मा' शब्दों के प्रयोग का अनुपात ३ : २ है। आत्मवाद प्रस्तुत होने पर अनीश्वरवादी और व्यवहारवादी दर्शन चार्वाक को समग्रतः तिरस्कृत किया गया और मूर्त जीव को अमूर्त आत्मा के अनंत चतुष्टयी रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया विकसित की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि 'आत्मा' शब्द भौतिक जगत के अध्यात्मीकरण के युग से प्रचलित हुआ एवं सामान्य जीव भी तब आत्मा बन गया। भगवती ने इसके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावात्मक रूप दिये। वहाँ इसके २३ नाम भी हैं जो इसके भौतिक रूपों को व्यक्त करते हैं। अध्यात्मता के कारण 'धम्मो हि हितयं पयाणं' के बदले 'आदहिदं कादव्वं' में परिणत हो गया। अस्तु, जीव को आत्मा में परिणत करने का एक विशिष्ट विज्ञान है जिसे प्रायः सभी आगमों में सामान्य और विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। - जैनों के छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थों में जीव सर्वप्रथम है। स्वाध्याय शिक्षा - 27. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भौतिकरूप से यह जीव विज्ञान का विषय है, पर आध्यात्मिक रूप से यह पराविज्ञान का विषय है। यह माना जाता है कि सामान्य जीव, अपनी अनेक प्रकार की ऊर्जाओं या शक्तियों को अनेक दिशाओं में प्रयुक्त करता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें आत्म-शक्ति / ऊर्जा है। अध्यात्म विज्ञान कहता है कि आत्मा में अनंत शक्ति है, केवल उसका विकास करना है । इसके लिये उसे अनेक दिशाओं से अपने उपयोग को हटाकर एक साथ एक ही दिशा में लगाना होगा। इस एकदिशीकरण से उसकी ऊर्जा कम व्ययित होगी और अंतरंग ऊर्जा में वृद्धि होगी। यही नहीं, यदि निवृत्ति मार्ग अपनाया जाय और आहार - निहार आदि का संयम किया जाय तो यह अंतरंग ऊर्जा और भी बढ़ सकती है। अध्यात्म-विज्ञान का मुख्य लक्ष्य अंतरंग ऊर्जा की वृद्धि का चरमोत्कर्ष करना है। इस अध्यात्म पथ पर निवृत्तिमार्गी या पलायनवादी होने का आरोप पश्चिमी विचारक लगाते रहे हैं। यह उनके तत्कालीन अज्ञान के कारण था। अब स्थिति काफी बदल गई है। अब 'अहादो निवित्ती' 'सुहे पवित्ती' के सकारात्मक पक्ष को प्रशस्त किया जाता है। यही नहीं महात्मा भगवानदीन ने श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं को भी व्यक्तिवाद से समाजवाद की ओर बढ़ने के आध्यात्मिक प्रक्रम के रूप में बताया है। शुभ प्रवृत्तियों का विज्ञान ही अध्यात्म विज्ञान है। प्रायः सभी आगम इसे मुक्ति का या साधु का मार्ग कहते हैं। इस मार्ग में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी में स्नान करना पड़ता है। इनमें भी चारित्र की बात मुख्य है, क्योंकि यह जीव की मन-वचन-कायात्मक प्रवृत्तियों का चक्र है जिसे एकदिशीकृत किया जाता है। आगमों में एतदर्थ कई उपाय बताये हैं-जप, तप, उपवासादि व्रत, ध्यान-योग आदि। इनका संक्षिप्त और विस्तृत वर्णन अनेक आगमों में पाया जाता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह माना जाता है कि हमारी अनेक प्रवृत्तियाँ मन या संकल्प प्रेरित होती हैं। अतः मन का नियन्त्रण एवं एकदिशीकरण करना लाभकारी होती है। मन के विषय में शास्त्रों में अच्छा विवरण है और वस्तुतः अध्यात्म-विज्ञान मनो- नियन्त्रण, भाव- नियन्त्रण या भाव -शुद्धि का विज्ञान ही है। यह मनोविज्ञान का विषय भी बन गया है। मनो- नियन्त्रण के लिये साधुचर्या में आहार - नियन्त्रण प्रमुख है। निर्दोष आहार की बात प्रायः सभी आगमों में बताई गई हैं। अचित्त भक्षण प्रायः सर्वत्र प्रतिपादित है। दिनचर्या की विविधता को एकदिशीकृत किया गया है। फलतः आगमों स्वाध्याय शिक्षा 28 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पिंड एषणा तथा ग्रहण एषणा का वर्णन है। निर्दोष आहार मनशुद्धि का प्रेरक है, सत्त्व गुण का वर्द्धक है। दिगंबर आगमों में दिन में एककाल आहार एवं प्रासुक जल का विधान है। निर्दोष आहार से सत्त्वगुण में वृद्धि होती है। पाचन-गुणांक समृद्ध होता है। इससे आचार शुद्धि भी होती है। आचार शुद्धि के अंतर्गत आठ प्रवचन-माताओं की आगमों में चर्चा है। दैनिक या अन्य कोटि के प्रतिक्रमण पाठ का उपदेश है। अनेक व्रत-उपवासों, भिक्षु प्रतिमाओं का विधान है। सामाचारी-दिनचर्या का भी उल्लेख है। पाँच समिति, तीन गुप्ति, परीषह-जय आदि का वर्णन है, जिससे यत्नपूर्वक चलना, बैठना, स्वाध्याय करना आदि प्रवृत्तियों में स्थिरता आती है। उनसे अहिंसक जीवन भी अभिवर्धित होता है। सामान्यतः आचार-शुद्धि शरीर क्रियाओं में शुद्धि की प्रतीक मानी जाती है। बाहरी आचार के पालन से अंतरंग क्रियाओं की वृत्ति में परिवर्तन होता है, जिससे शारीरिक ऊर्जा भी बढ़ती है। आहार-शुद्धि के अंतर्गत भाव-शुद्धि और मन-शुद्धि भी आती है। मनः शुद्धि का आज सामान्य जन के लिये भी महत्त्व बढ़ गया है। मनः शुद्धि या भाव शुद्धि के लिये आगमों में मंत्र-जप, प्रार्थना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं ध्यान योग के विस्तृत विवरण है। ये सभी प्रक्रियाएँ (अंतःस्रावों को परिवर्तित कर) मानसिक उद्वेगों को शांत करने में सहायक होती हैं। प्रार्थना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि से मन एकाग्र होता है। ध्यान योग का विज्ञान अनेक प्राचीन एवं नवीन ग्रंथों में है। विभिन्न प्रकार के ध्यान में होने वाले भावशुद्धि गत प्रभावों का अनेक आगमों में वर्णन है। आचारांग मे भी भ. महावीर के आसन एवं ध्यान मुद्राओं का वर्णन है। आगमों में ध्यान और उनके प्रभावों की अनेकत्र चर्चा है, पर उसकी क्रियाविधि तथा मात्रा की वैज्ञानिकता सिद्ध हुई है। हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड के वैज्ञानिकों ने तथा फिर पेडलर के प्रयोगों ने यह सिद्ध किया है कि ध्यान एवं उपवासों से आंतरिक ऊर्जा में पर्याप्त वृद्धि होती है और मस्तिष्क की चंचल तरंगों की प्रवृत्ति में स्थिरता आती है। यह ऊर्जा शरीर के सभी अंगों में व्याप्त होती है। साधुओं की ऊर्जा उन्हें प्रणाम करते समय, चरण स्पर्श करते समय, भावनाओं, मंत्रों एवं विचारों से भक्तों को मिलती है और वे शुभतर पथ की ओर अग्रसर होते हैं। उपवासों का भी एक विज्ञान है और उनसे शरीर क्रियात्मक तंत्र को कितना लाभ होता है यह बेंशन के प्रयोगों से पता चलता है। __आगमों में अध्यात्म की ओर अभिमुख होने की जो प्रक्रियाएँ बताई गई हैं, उन्हें बीसवीं सदी के प्रारंभ तक विज्ञान के क्षेत्र से बाहर ही माना जाता था। पर ये स्वाध्याय शिक्षा 29 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वास्थ्य विज्ञान, दीर्घजीविता विज्ञान एवं अन्य विज्ञानों की शाखा के रूप में विकसित हो रही हैं। इस प्रकार हमारे आगम ग्रंथ वर्तमान ज्ञान-विज्ञान के बीज भूत ग्रंथ हैं। ये बीज पनपते-पनपते अब महावृक्ष से हो गये हैं। इससे आगम-बीज की प्रच्छन्न जीवन्त शक्ति का अनुमान लगता है। -१२/६४४, बजरंग नगर, रीवा (म.प्र.)४८६009 30 -- स्वाध्याय शिक्षा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप श्री दुलीचन्द जैन 'साहित्यरत्न' जैनागमों में शिक्षा के संबंध में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। आगम- परम्परा गुरु-शिष्य परम्परा से ही आगे बढ़ती रही है, अतः शिष्य में शिक्षार्जन / ज्ञानार्जन के लिए कैसी पात्रता आवश्यक है - इसका विधान आगमों में कई स्थानों पर हुआ है। कर्मठ समाजसेवी एवं शिक्षाविद् श्री दुलीचन्द जैन ने अपने आलेख में जीवन मूल्यात्मक शिक्षा को भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्थान देने की प्रेरणा की है। -सम्पादक वर्तमान भारतीय शिक्षा भारतवर्ष की वर्तमान शिक्षा - प्रणाली परतंत्रता काल से ही अंग्रेजों द्वारा प्रचारित शिक्षा सिद्धान्तों पर आधारित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के चौवन वर्षों के बाद भी उसमें कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। एक विचारक ने ठीक ही कहा है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली न तो “भारतीय” है और न ही वास्तविक "शिक्षा" है । स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि शिक्षा मात्र उन विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो हमारे मस्तिष्क में ठूंस-ठूंस कर भर दी जाती हैं और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ जीवन भर रहकर गड़बड़ मचाया करती हैं। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो 'जीवन-निर्माण', 'मनुष्य-निर्माण' तथा ' चारित्र - निर्माण' में सहायक हों।' सहस्रों वर्षों से इस देश में तीर्थंकरों, ऋषियों एवं आचार्यों ने मूल्य-आधारित शिक्षा प्रणाली का प्रचार किया। डॉ. अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के संदर्भ में लिखा है - " प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तर्ज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों के संतुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती और उसे श्रेष्ठ बनाती है ताकि हम एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें। " " स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करने हेतु अनेक आयोगों का गठन हुआ और उन्होंने भी चरित्र - निर्माणकारी जीवन मूल्यों को शिक्षा में अन्तर्भूत करने पर जोर दिया। सन् १६६४ से सन् १६६६ तक डॉ . दौलतसिंह कोठारी, जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे, की अध्यक्षता में कोठारी आयोग का गठन हुआ । इसने अपने प्रतिवेदन में कहा- “केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबंध अपनी अधीनस्थ संस्थाओं में करना चाहिए। " सन् १९७५ में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) ने अपने प्रतिवेदन में कहा- “विद्यालय पाठ्यक्रम की रचना इस ढंग से की जाए कि चारित्र-निर्माण शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बने । " Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष है कि इसमें भारत के शाश्वत राष्ट्रीय जीवन-मूल्यों पर आधारित शिक्षा - दर्शन पर सम्यक् विचार तथा उनका अनुपालन नहीं हुआ। अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा-व्यवस्था आज भी उसी प्रकार से प्रचलित है। उसके परिणाम स्वरूप आज का विद्यार्थी दिशा - विहीन तथा बिना पतवार की नौका के समान भटकता दिखाई दे रहा है। शिक्षा क्षेत्र में चारों ओर अराजकता फैल गई है। अनुशासनहीनता व्यापक रूप में फैल गई है और उसका घातक प्रभाव हमारे सम्पूर्ण राजनैतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में भी फैला है। महान् चिंतक डॉ. नेमीचन्द जैन ने ठीक ही कहा है कि “ आज देश के पास सब कुछ है, सिर्फ एक निष्कलंक, निष्काम और देशभक्त चरित्र नहीं है। "" और इस भयावह परिस्थिति का सबसे बड़ा कारण है - हमारी दिशा विहीन दोषपूर्ण शिक्षा नीति । अतएव आवश्यकता है कि भारतीय जीवन मूल्यों को हमारी शिक्षा प्रणाली में अंतर्भूत किया जाय। भारतीय अध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान का समन्वय हमारे शिक्षा क्षेत्र में क्रान्ति लायेगा तथा उसका अनुकूल प्रभाव हमारे सारे राष्ट्रीय जीवन पर पड़ेगा। हमारे संविधान में “धर्म निरपेक्षता” को हमारी नीति का एक अंग माना गया है। “धर्म निरपेक्षता” शब्द ही भ्रामक है, क्योंकि भारतीय परम्परा के अनुसार हम 'धर्म' से निरपेक्ष नहीं रह सकते । धर्म निरपेक्षता का अर्थ मात्र इतना ही हो कि राज्य किसी विशेष धर्म का प्रचार नहीं करे, तब तक तो ठीक है, लेकिन इसका अर्थ धर्म से विमुख हो जाना कदापि नहीं है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही तीन धर्मों की धाराएँ मुख्य रूप से बहती रही हैं- वैदिक धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म। बाद में सिक्ख धर्म भी प्रारंभ हुआ। इन चारों धाराओं ने कुछ ऐसे नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य स्थापित किए, जिन्हें सनातन जीवन-मूल्य कह सकते हैं और वे प्रत्येक मानव पर लागू होते हैं। उनका हमारी शिक्षा प्रणाली में विनियोजन होना अत्यावश्यक है। जैनागमों में शिक्षा जैनागमों में शिक्षा एवं ज्ञान के बारे में विस्तृत चर्चाएँ मिलती हैं। वहाँ पर आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार की शिक्षाओं का विवेचन एवं दिशा-निर्देश मिलता है। हमें अध्यात्म - विद्या एवं आजीविका की विद्या दोनों की आवश्यकता है। आगम में शिक्षा अथवा ज्ञान-प्राप्ति के तीन उद्देश्य बताए गए "जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ।। " अर्थात् जिनशासन में उसी को ज्ञान कहा गया है जिससे तत्त्वों का बोध ,4 स्वाध्याय शिक्षा 32 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है, तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है। यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है । दशवैकालिक सूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्य बताए गए १. मुझे श्रुतज्ञान ( आगम का ज्ञान ) प्राप्त होगा। अतः मुझे अध्ययन करना चाहिए। २. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा । अतः अध्ययन करना चाहिए। ३. मैं अपने आपको धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए मुझे अध्ययन करना चाहिए। मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। ४. 5 इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर - ज्ञान नहीं माना गया। शिक्षा द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं बुद्धि की स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए तथा शिक्षार्थी धर्म के जीवन मूल्यों को अपनाने के योग्य बने । एकाग्रता के बिना व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक व्यक्ति शिक्षित हो पर मानसिक एकाग्रता से शून्य हो, उसे शिक्षा की विडंबना ही कहना चाहिए। इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने कहा"हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।" यही भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, जो सनातन काल से चला आ रहा है। उपनिषद् में कहा है“सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही है जो हमें विमुक्त करती है । विद्या किस चीज से विमुक्त करती है ? तो कहा गया कि हममें जो दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, तनाव की स्थिति है, ये चाहे शारीरिक स्तर पर हों या मानसिक स्तर पर, उनसे मुक्ति का साधन विद्या ही है। प्राचीन काल में विद्या के दो भेद कहे गए - विद्या और अविद्या । अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है- भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ हैआध्यात्मिक ज्ञान। जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ज्ञानों का सामंजस्य नहीं हो तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती। शिक्षा के ये संस्कार हमारे राष्ट्र की संपदा हैं, अनमोल धरोहर हैं। हमारे देश में भौतिक ज्ञान की अवहेलना नहीं की गई, किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म - विद्या को महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषित सूत्र में आया है "इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण स्वाध्याय शिक्षा उत्तमा । 33 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं विज्ज साहइत्ताण, सव्वदुक्खाण मुच्चती।। जेण बन्धं च मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। आयाभावं च जाणाति, सा विज्जा दक्खमोयणी।।" अर्थात् वही विद्या महाविद्या है और सभी विद्याओं में उत्तम है, जिसकी साधना करने से समस्त दुःखों से मुक्ति प्राप्त होती है। जिस विद्या से बंध और मोक्ष का, जीवों की गति और आगति का ज्ञान होता है तथा जिससे आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है, वही विद्या सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाली है। ज्ञान और चारित्र जैन आगमों में आचार्य, उपाध्याय एवं श्रमण/श्रमणियों को विद्या प्रदान करने का अधिकार दिया गया। आचार्य श्रुत-ज्ञान के प्रकाशक होते हैं। कहा है "जह दीवा दीवसमं, पइप्पए सो य दिप्पए दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति।।" अर्थात् जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल उठते हैं और वह स्वयं भी जलता रहता है, वैसे ही आचार्य होते हैं, वे स्वयं प्रकाशमान रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते रहते हैं। बोधपाहुड में कहा गया है कि आचार्य वे हैं, जो कर्म को क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शुद्ध शिक्षा देते हैं। ... जैन धर्म में श्रावक-श्राविकाओं को भी श्रुतज्ञान प्राप्त करने को कहा गया। श्रुतज्ञान दो प्रकार से प्राप्त होता है- आचार्यों, उपाध्यायों या श्रमणों द्वारा अथवा स्वयं की प्रेरणा द्वारा। लेकिन उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं, जो आचार में परिणत नहीं हो। आचार्य उमास्वाति ने कहा "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।।" सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की सम्मिलित आराधना द्वारा मोक्ष का मार्ग उपलब्ध होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया "नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्यि अमोक्खस्स निव्वाणं।।"" अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्रगुण निष्पन्न नहीं होता। चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण या परमशांति का लाभ नहीं होता। इसी बात को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया गया है "हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ।।'' _34 34 * स्वाध्याय शिक्षा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् क्रियाविहीन का ज्ञान और अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है वैसी ही स्थिति ज्ञानविहीन एवं क्रियाविहीन की होती है। आगे भी कहा गया कि “संजोअसिद्धीइ फलं वयति"" अर्थात् ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है। जैन आचार्यों ने चारित्रशुद्धि या आचारशुद्धि पर बहुत अधिक जोर दिया। शिक्षा द्वारा मनुष्य के उदात्त भावों की जागृति होनी चाहिए। उसमें प्रेम, करुणा, अनुकम्पा, परदुःखकातरता, क्षमा आदि मूल्यों का जागरण हो, वह मात्र जानकारियों तक सीमित नहीं रहे। आचारांग नियुक्ति में कहा गया "अंगाणं कि सारो? आयारो।।" अर्थात् अंग-साहित्य का सार क्या है? उसका सार आचार है। शीलपाहुड में कहा गया __"सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति।।15 अर्थात् शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इसी ग्रंथ में कहा गया "सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्म।।" अर्थात् शील गुण से रहित व्यक्तियों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है। मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, बिना चारित्र के ज्ञान का कोई मूल्य नहीं। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया "सुबहुसि सुयपहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि।।"" ___ अर्थात् शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम .. का? क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है? इस प्रकार जैन आचार्यों ने उस शिक्षा को ग्रहण करने का प्रतिपादन किया जो चारित्र को उन्नत करने वाली हो। शिक्षाशील कौन? ___ आगम शास्त्रों में शिक्षार्थी के गुणों-अवगुणों पर भी विचार किया गया। शिक्षा- प्राप्ति की योग्यता किस में है? इसका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है "वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणव। पियंकरे पियवाई से सिक्खं लद्भुमरिहई।।" स्वाध्याय शिक्षा से - - 35 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और तपस्वी होता है, मृदुल होता है तथा मधुर बोलता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी ग्रंथ में बताया गया कि आठ कारणों या स्थितियों से व्यक्ति शिक्षाशील कहा जाता है - १. हंसी-मजाक नहीं करना २. इन्द्रिय और मन पर सदा नियंत्रण रखना ३. किसी का मर्म (रहस्य) प्रकट नहीं करना ४. शील रहित ( आचार - विहीन) नहीं होना ५. विशील - दोषों से कलुषित नहीं होना ६. अति रस - लोलुप नहीं होना ७. क्रोध नहीं करना ८. सत्य में रत रहना। 19 जैन आगमों में शिक्षार्थी के लिए विनय, अनुशासन एवं प्रामाणिक जीवन पर बल दिया गया। इन्हीं गुणों से व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ बनता है । उपदेशमाला में कहा गया 20 “विणओ सासणे मूलं विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो?" अर्थात् विनय जिनशासन का मूल है। संयम और तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? दशवैकालिक सूत्र में भी कहा गया अभिगच्छइ । । ' "विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती, जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अर्थात् अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति- ये दो बातें जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी सूत्र में यह भी कहा गया" एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ ।। 22 अर्थात् इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है। विनय के द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्र ज्ञान एवं कीर्ति का संपादन करता है । अंत में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगम में विवेकसम्मत आचार पर जोर दिया गया। शिक्षार्थी प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करे। कहा है 36 विणीयस्स 23 "चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो । अर्थात् यदि साधक (शिक्षार्थी) प्रत्येक कार्य यतना (विवेक) से करता है, तो वह जल में कमल की भांति जगत् में निर्लेप रहता है । आगम में वाणी के विवेक पर भी जोर दिया गया। कहा है व । ,21 “हिअ - मिअ- अफरुसवाई, अणुवीइभासि वाइओ विणओ ।।' ,24 स्वाध्याय शिक्षा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात हित-मित, मृदु और विचारपूर्वक बोलना वाणी का विनय है। इसी प्रकार कहा गया है "पुट्विं बुद्धीए पासेत्ता, तत्तो वक्कमुदाहरे। अचक्खुओ व नेयारं, बुद्धिमनेसए गिरा।।" अर्थात् पहले बुद्धि से परख कर फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार पथ-प्रदर्शन की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती शिक्षा के साधक तत्त्व नीचे दी हुई पन्द्रह प्रकार की प्रवृत्तियों का सेवन करने वाला व्यक्ति शिक्षा के योग्य कहा गया है०१. जो नम्र होता है। ०२. जो चपल नहीं होता। ०३. जो मायावी नहीं होता। ०४. जो कुतूहल नहीं करता। ०५. जो किसी पर आक्षेप नहीं करता। ०६. जो क्रोध को टिकाकर नहीं रखता। ०७. जो मैत्री करने वाले के साथ मैत्री का व्यवहार करता है। ०८. जो ज्ञान का मद नहीं करता। ०६. स्खलना होने पर किसी का तिरस्कार नहीं करता। १०. मित्रों पर क्रोध नहीं करता। ११. अप्रियता रखने वाले मित्र की भी एकांत में प्रशंसा करता है। १२. कलह और हाथापाई का वर्जन करता है। १३. कुलीन होता है। १४. लज्जावान होता है। १५. प्रतिसंलीन-इन्द्रिय और मन का संगोपन करने वाला होता है। . शिक्षा के बाधक तत्त्व उत्तराध्ययन सूत्र में शिक्षा के बाधक तत्त्वों का भी वर्णन है___ "अह पेचहि ठाणेहिँ, जेहिं सिक्खा न लब्बई। थंभा कोहा पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य।।"" . इसी प्रकार निम्नलिखित चौदह प्रकार की प्रवृत्तियों का आसेवन करने वाला अविनीत शिक्षा के अयोग्य कहलाता है। वह निर्वाण--मानसिक शांति को स्वाध्याय शिक्षा - - - 37 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त नहीं होता०१. जो बार-बार क्रोध करता है। ०२. जो क्रोध को टिका कर रखता है। ०३. जो मैत्री करने वाले के साथ अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है। ०४. जो ज्ञान का मद करता है। ०५. किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है। ०६. मित्रों पर कुपित होता है। ०७. प्रियता रखने वाले मित्र की भी एकांत में बुराई करता है। ०८. असंबद्धभाषी है। ०६. द्रोही है। १०. अभिमानी है। ११. लुब्ध है। १२. जितेन्द्रिय नहीं है। १३. संविभाग नहीं करता है। १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है। स्वाध्याय का महत्त्व जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्वाध्याय शिक्षा का अभिन्न अंग है। भगवान महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान् तप है। बारह प्रकार के आंतरिक व बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से पूछा गया- "हे भगवन्! स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है?" भगवान ने उत्तर दिया "सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेई। ___ अर्थात् स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। वह कथन निम्न है "सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चखाणे य संजमे। अणण्हये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी।।" अर्थात् धर्म-श्रवण (स्वाध्याय) से निम्नांकित लाभ प्राप्त होते हैं 38 स्वाध्याय शिक्षा . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०१. ज्ञान ०२. विशिष्ट तत्त्वबोध ०३. प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति) ०४. संयम ०५. अनास्रव (नवीन कर्मों का निरोध) ०६. तप ०७. पूर्वबद्ध कर्मों का नाश सर्वथा कर्मरहित स्थिति व ०८. ०६. सिद्धि ( मुक्त स्थिति) इससे ज्ञात होता है कि जीवन की साधना में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि है। स्वाध्याय के अंग जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचन मिलता है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का प्रचलन था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे । वेदों को "श्रुति” और आगम को " श्रुत" कहा गया, यह इसी तथ्य का सूचक है। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पांच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है 1. वाचना- स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है। गुरुजनों से ज्ञान ग्रहण करना, उनके प्रवचन सुनना 'वाचना' कहलाता है। बड़े-बड़ें ज्ञानियों ने जो ज्ञान पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है, उसे पढ़ना भी वाचना कहलाता है। पढ़ना और किसी से सवचन सुनना यह दोनों वाचना के अन्तर्गत आते हैं। 2. पृच्छना - पढ़े या सुने हुए ज्ञान के बारे में कोई शंका हो या उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो तो उसके बारे में जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछना ताकि विषय स्पष्ट हो जाय 'पृच्छना' कहलाता है। इससे ज्ञान सम्यक् बनता है। जैन पद्धति में प्रश्नोत्तर को पृच्छना का अंग माना गया है। 3. परावर्तना- पूर्व पठित ज्ञान को बार-बार स्मरण करना या उसका पुनः-पुनः पारायण करना ताकि पाठ भूलें नहीं “परावर्तना" कहलाता है। बार-बार याद करने से ज्ञान स्मृति में स्थायी रूप से स्थिर हो जाता है। 4. अनुप्रेक्षा - ज्ञान के बारे में निरन्तर चिंतन-मनन करना तथा पठित ज्ञान को स्वाध्याय शिक्षा 39 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना 'अनुप्रेक्षा' कहलाता है। इससे ज्ञान में व्यापकता आती है। अनुप्रेक्षा द्वारा स्वाध्यायी ज्ञान में गंभीरता प्राप्त करता है। 5. धर्मकथा-जब स्वाध्यायी ज्ञान को ग्रहण कर उसे निश्शंक कर लेता है तब उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्मल ज्ञान के स्रोत से अन्य लोगों को ज्ञान देकर उनके ज्ञान की अभिवृद्धि करे। साधक वार्ता, चर्चा, प्रवचन, अध्यापन, प्रश्नोत्तर इत्यादि द्वारा अपने ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है एवं समाज को भी लाभान्वित करता है। जीवन का सर्वांगीण विकास __उपर्युक्त विवेचन से यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया है अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा की पूर्णता की उद्भावना है। चतुर्विध पुरुषार्थ द्वारा मनुष्य जीवन का सम्पूर्ण विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ में ही मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारे, दोनों तटबंध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धंधों आदि के काम आता है, उससे जीवों का कल्याण होता है, लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और तब वही पानी अनेक गांवों को जलमग्न कर देता है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राही-त्राही मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है। इन दो तटों की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहां पर जगत् और जीवन की उपेक्षा नहीं की गई, लेकिन संयममय, मर्यादानुकूल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहां पर पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को "धर्मपत्नी" कहा गया जो धर्म भावना को बढ़ाने वाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है “भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया। धम्माणुरागरत्ता, समसुहदुक्खसहाइया।।'' अर्थात् पत्नी धर्म में सहायता करने वाली, साथ देने वाली, अनुरागयुक्त तथा सुख-दुःख को समान रूप में बंटाने वाली होती है। 40 स्वाध्याय शिक्षा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहने का तात्पर्य यह है कि हम दुनियां की सभी सूचनाएँ प्राप्त करें। विज्ञान व भौतिक जगत् का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें, सारी उपलब्धियाँ प्राप्त करें, लेकिन इन सबके साथ धर्म के जीवन मूल्यों की उपेक्षा नहीं करें, उस स्थिति में विज्ञान भी विनाशक शक्ति न होकर मानवजाति के लिए कल्याणकारी सिद्ध होगा। तीन प्रकार के आचार्य ___ राजप्रश्नीय सूत्र में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख मिलता हैकलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। कलाचार्य जीवनोपयोगी ललित कलाओं, विज्ञान व सामाजिक ज्ञान जैसे विषयों की शिक्षा देता था। भाषा और लिपि, गणित, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत और नृत्य इन सबकी शिक्षाएँ कलाचार्य प्रदान करते थे। जैनागमों में पुरुषों की ६४ और स्त्री की ७२ कलाओं का विवरण मिलता है। दूसरी प्रकार की शिक्षा शिल्पाचार्य देते थे जो आजीविका या धन के अर्जन से संबंधित थी। शिल्प, उद्योग व व्यापार से संबंधित सारे का की शिक्षा देना शिल्पाचार्य का कार्य था। इन दोनों के अतिरिक्त तीसरा शिक्षक धर्माचार्य था, जिसका कार्य धर्म की शिक्षा प्रदान करना व चरित्र का विकास करना था। धर्माचार्य शील और सदाचरण का ज्ञान प्रदान करते थे। इन सब प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त करने के कारण ही हमारा श्रावक समाज बहत सम्पन्न था। सामान्य व्यक्ति उनको सेठ और साहूकार जैसे आदरसूचक संबोधन से पुकारता था। भगवान महावीर ने कहा है- "जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा" अर्थात् जो कर्म में शूर होता है, वही धर्म में शूर होता है। चरित्र को उन्नत बनाएँ ___आज सूचना तकनीकी का द्रुतगामी विकास हुआ है। रेडियो, टी.वी., कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि द्वारा विश्व का सम्पूर्ण ज्ञान सहजता से उपलब्ध हो रहा है, लेकिन अगर बालक के चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया तो ये वैज्ञानिक साधन उसे पतित कर सकते हैं। आज विश्व के सर्वाधिक समृद्ध राष्ट्र अमेरिका का एक विद्यार्थी १८ वर्ष की उम्र तक कम से कम १२००० हत्याएँ, बलात्कार आदि के दृश्य टी.वी. पर देख लेता है। उसी विद्यार्थी के कोमल मस्तिष्क पर इसका कितना भयंकर प्रभाव पड़ता है? आज यही तकनीकी हमारे देश में भी सुलभ हो गई है। अनेक प्रकार के चैनल व चलचित्र टी.वी. पर प्रदर्शित होते हैं जो २४ घंटे चलते रहते हैं। उनमें से अनेक हिंसा एवं अश्लीलता को बढ़ावा देने वाले, हमारे पारिवारिक जीवन को विखण्डित करने वाले होते हैं। हमारी सरकार भी अधिक स्वाध्याय शिक्षा - - 41 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमदनी के लालच में उन्हें बढ़ावा देती है। इसलिए समाज का यह दायित्व है कि जो व्यक्ति शिक्षण शालाएँ चलाते हैं, उनके द्वारा विद्यार्थियों को चरित्र- निर्माण के संस्कार दिए जाएँ। हमें विद्यालयों में जैन संस्कारों का भी ज्ञान देना होगा, यथा माता-पिता की भक्ति, गुरु-भक्ति, धर्म-भक्ति एवं राष्ट्र-भक्ति । इसी प्रकार से विद्यार्थियों को मानव मात्र से प्रेम, परोपकार की भावना, जीव रक्षा के संस्कार देने होंगे। उसे यह महसूस कराना कि कोई दुःखी व्यक्ति है तो उसको यथाशक्य मदद देना, सामान्य जन के सुख-दुःख में सम्मिलित होना, किसी के प्रति द्वेष नहीं रखना आदि संस्कार जीवन को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं। आज विश्व का बौद्धिक विकास बहुत हुआ, पर आध्यात्मिक विकास नहीं हुआ। महाकवि रामधारीसिंह दिनकर ने बड़ा सुन्दर कहा है___ "बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान। चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान?" मनुष्य की बुद्धि तृष्णा की दासी हो गई है। तृष्णा निरन्तर बढ़ती जा रही है। विज्ञान का भी उपयोग अधिकांशतः विध्वंसक अस्त्रों के सर्जन में हो रहा है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को सुख और शांति कैसे प्राप्त होगी? जैन शिक्षा का आदर्श भारत में शिक्षा का आदर्श माना गया भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वया जैन शिक्षा के तीन अभिन्न अंग हैं-श्रद्धा, भक्ति और कर्म। सम्यग्दर्शन से हम जीवन को श्रद्धामय बनाते हैं, सम्यग्ज्ञान से हम पदार्थों के सही स्वरूप को समझते हैं तथा सम्यक्चारित्र से हम सुकर्म की ओर प्रेरित होते हैं। इन तीनों का जब हमारे जीवन में विकास होता है तभी हमारे जीवन में पूर्णता आती है। शिक्षा के द्वारा बौद्धिक विकास के साथ-साथ शिक्षार्थी का आंतरिक व्यक्तित्व भी बदलना चाहिए। यही जैन शिक्षा का संदेश है- हम अप्रमत्त बनें, संयमी बनें, जागरूक बनें, चारित्र सम्पन्न बनें। तभी हमारे राष्ट्र का तथा विश्व का कल्याण संभव है। संदर्भ सूचि 01. शिक्षा-स्वामी विवेकानन्द, पृ.7, प्रकाशक-रामकृष्ण मठ, नागपुर। 02. प्राचीन भारत में शिक्षा- डॉ. ए.एस.अल्तेकर, पृ.12 03. शाकाहार-क्रान्ति (मासिक, नवम्बर-दिसम्बर 2001) पृ.6 04. मूलाचार, गाथा 267 05. स्थानांग सूत्र, स्थान 4 - ___42 - स्वाध्याय शिक्षा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06. शिक्षा-स्वामी विवेकानन्द, पृ.8 07. इसिभासियाइं सूत्र, गाथा 17/1-2 08. उत्तराध्ययन सूत्र नियुक्ति, गाथा 8 09. बोधपाहुड़, गाथा 16 10. तत्त्वार्थसूत्र, सूत्र 1 11. उत्तराध्ययन सूत्र गाथा 28/30 12. आवश्यकनियुक्ति गाथा 101 13. आवश्यकनियुक्ति गाथा 102 14. आचारांगनियुक्ति गाथा 16 15. शीलपाहुड़, गाथा 2 16. शीलपाहुड़, गाथा 15 17. आवश्यकनियुक्ति गाथा 98 18. उत्तराध्ययन सूत्र गाथा 11/14 19. उत्तराध्ययन सूत्र गाथा 11/4-5 20. उपदेशमाला, गाथा 1/347 21. दशवैकालिक सूत्र गाथा 9/2/22 22. दशवैकालिक सूत्र गाथा 9/2/2 23. प्रवचनसार गाथा 3/18 24. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 322 25. व्यवहारभाष्यपीठिका, गाथा 76 26. उत्तराध्ययन सूत्र, गाथा 10/13 27. उत्तराध्ययन सूत्र, गाथा 11/3, 28. उत्तराध्ययन सूत्र, गाथा 11/6-9 29. उत्तराध्ययन सूत्र, गाथा 29/19 30. भगवती सूत्र, गाथा 2/111 31. उपासकदशांगसूत्र, गाथा 7/22/7 -70, Sembudoss Street, Chennai-600079 स्वाध्याय शिश 43 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में पर्यावरण-संरक्षण श्री कन्हैयालाल लोढा जैनागमों में पर्यावरण के संरक्षण के सूत्र यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि श्रावक के 12 व्रतों की भी पर्यावरण संरक्षण में भूमिका है। जैन धर्म-दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान आगम मर्मज्ञ श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने प्रस्तुत आलेख में पर्यावरण की व्यापक परिप्रेक्ष्य में चर्चा करते हुए भोग लिप्सा को पर्यावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण माना है तथा श्रावक के 12 व्रतों के आलोक में पर्यावरण-संरक्षण का प्रतिपादन किया है। - सम्पादक जैन धर्म में 'पर्यावरण' शब्द का प्रयोग प्राकृतिक पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणिजगत तथा मानव - जीवन से संबंधित आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों से सम्बद्ध है। इन समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक विकार है । आत्मिक विकार का क्रियात्मक' रूप विषय भोग है। भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण प्रदूषणों को उत्पन्न किया है। इन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन धर्म में श्रावक व्रतों का पालन बताया है। यहाँ इसी पर विस्तार से विवेचन किया जा रहा है। पर्यावरण शब्द ‘परि’ उपसर्गपूर्वक 'आवरण' शब्द से बना है। जिसका अर्थ है जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो, चारों ओर से घेरे हुए हो। पर्यावरण शब्द का अन्य समानार्थक शब्द है- वातावरण । वातावरण का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परन्तु वर्तमान में 'वातावरण' शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण अर्थात् मानव-जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है- परिशुद्ध, अशुद्ध । जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए अहितकर होता है वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं। पाश्चात्त्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक है। परन्तु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैन धर्म में पर्यावरण प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन धर्म में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकार्थक शब्द हैं। जैन धर्म सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण को मानता है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण के कटु फल, फूल, पत्ते व कांटे हैं। अतः जैन धर्म मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है और इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटाना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परन्तु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप से मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है, जबकि जैन वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट हो सकते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण है- आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार। आत्मिक विकार हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि। इन्हें पाप कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति। भोगों की पूर्ति के लिये भोग-सामग्री व सुविधा चाहिये। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा-प्राप्ति के लिये धन-सम्पत्ति चाहिये। धनप्राप्त करने के लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित कार्य करता है, स्वास्थ्य के लिये हानिकारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है, कई प्रकार के प्रदूषणों को जन्म देता है। वर्तमान में विश्व में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं उन सबके मूल में भोग लिप्सा व लोभ वृत्ति ही मुख्य है। जब तक जीवन में भोगवृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक भोग सामग्री प्राप्त करने के लिये लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहां लोभ होता है वहां पाप की उत्पत्ति होगी ही। पाप प्रदूषण पैदा करेगा ही। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का त्याग ही जैन धर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार है। पापों से मुक्ति को ही जैन धर्म में मुक्ति कहा है। अतः जैन धर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषणों (दोषों) को दूर करने की साधना है। जैन धर्म में अनगार एवं आगार ये दो प्रकार के धर्म कहे हैं। अनगार धर्म के धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की साधना करते हैं। आगार धर्म के धारण करने वाले गृहस्थ होते हैं। उनके लिये बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है। यही आगार धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहां बारह व्रतों का स्वाध्याय शिक्षा - 45 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन किया जा रहा है। 1. स्थूल प्राणातिपात का त्याग पहला व्रत है - स्थूल प्राणातिपात का त्याग करना । प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दश कहे गये हैं- १. श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण २. चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बलप्राण ४. रसनेन्द्रिय बलप्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण ६. मन बलप्राण ७. वचन बलप्राण ८. काय बलप्राण ६. श्वासोच्छ्वास बलप्राण और १०. आयुष्य बलप्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात लगे, हानि पहुंचे वह प्राणातिपात है । वह प्राणातिपात प्राणी का ही अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण अचेतन का नहीं। क्योंकि अचेतन (जड़) जगत् पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला-बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, न ही उसे सुख - दुःख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। इस प्रकार प्रत्येक प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है। जैन धर्म में समस्त पापों का, दोषों का, प्रदूषणों का मूल प्राणातिपात को ही माना है। यहां यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करते हैं? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है इससे उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल- विसर्जन आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं, परन्तु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप से उपयोग करे तो न तो प्रकृति को हानि पहुंचती है और न प्राणशक्ति में कमी होती है। इससे प्राणी के जीवन तथा प्रकृति का संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परन्तु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा । पर जब प्राणी के जीवन का लक्ष्य सहजं प्राकृतिक / स्वाभाविक जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत हो अपने हित-अहित को, कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य को भूल जाता है। वह भोग के वशीभूत हो वह कार्य भी करने लगता है जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो । उदाहरणार्थ - किसी भी मनुष्य से कहा जाय कि तुम्हारी आंखों का मूल्य पांच लाख रुपये देते हैं, तुम अपनी दोनों आंखों को हमें बेच दो तो कोई भी आंखे बेचने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि वह आंखों को अमूल्य मानता है । परन्तु वही मनुष्य चक्षु इन्द्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो स्वाध्याय शिक्षा 46 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टेलीविजन, सिनेमा आदि अधिक समय देखकर अपनी आंखों से अधिक काम लेकर इनकी शक्ति क्षीण कर देता है। वह अपनी आंखों की अमूल्य प्राण शक्ति को हानि पहुंचा कर अपना ही अहित कर लेता है। यही बात कान, जीभ आदि समस्त इन्द्रियों के प्राणातिपात पर घटित होती है। जैन धर्म में पृथ्वी, पानी, हवा तथा वनस्पति में जीव माना है, इन्हें प्राण वाला माना है, इन्हें विकृत करने को इनका प्राणातिपात माना है, परन्तु मनुष्य अपनी सुख-सुविधा एवं संपत्ति के लोभ से इनका प्राण हरण कर इन्हें निर्जीव, निष्प्राण एवं प्रदूषित कर रहा है, यथापृथ्वीकाय का प्राणातिपात प्रदूषण- कृषि भूमि में रासायनिक खाद एवं एन्टीबायोटिक दवाएँ डालकर भूमि को निर्जीव बनाया जा रहा है जिससे उसकी उर्वरा शक्ति/ प्राणशक्ति नष्ट होती है। परिणामस्वरूप भूमि बंजर हो जाती है फिर उसमें कुछ भी पैदा नहीं होता है तथा रासायनिक खाद से पैदा हुई फसल शरीर के लिए हानिकारक एवं प्रदूषित होती है। ___ भूमि का दोहन करके खाने खोदकर, खनिज पदार्थ, लोह, तांबा, कोयला, पत्थर आदि प्रतिवर्ष करोड़ों टन निकाला जा रहा है, उसे निर्जीव बनाया जा रहा है तथा उसे कौड़ियों के भाव में विदेशों को विदेशी मुद्रा अर्जन करने के लिए बेचा जा रहा है। भले ही इस भूमि दोहन से भावी पीढ़ियों के लिये वह खनिज पदार्थ न बचे, भावी पीढ़ियाँ इन पदार्थों के लिये तरस-तरस कर मरें, अपने पूर्वजों के इस दुष्कर्म का फल अत्यन्त दुःखी होकर भोगें, इस बात की चिन्ता वर्तमान पीढ़ी व सरकारों को कतई नहीं है। यही बात पैट्रोलियम पदार्थों पर भी घटित होती है। उसका भी इसी प्रकार भयंकर दोहन हो रहा है। आज विश्व में पचास करोड़ कारें, लाखों दुपहिया वाहन, करोड़ों कारखानों में अरबों टन पेट्रोल जलाया जा रहा है, जिससे पेट्रोल के भंडार खाली होते जा रहे हैं। इससे एक दिन भावी पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। इस प्रकार पेट्रोल तथा लोहा आदि वस्तुओं का दोहन तथा इनसे पैदा होने वाला जल-प्रदूषण व तापमान वृद्धि का दुष्प्रभाव- ये सब भावी पीढ़ियों के लिए अभिशाप बनने वाले हैं। अप्काय का प्राणातिपात प्रदूषण- जल में अन्य पदार्थ मिलने से अप्काय के जीवों के प्राणों का हरण होता है यही जल प्रदूषण है, वर्तमान काल में धन कमाने के लिये बड़े- बड़े कारखाने लगे हैं, उनमें प्रतिदिन करोड़ो-अरबों लीटर जल का उपयोग होता है। वह सब जल प्रदूषित हो जाता है, रासायनिक पदार्थों के संपर्क से, नगर के गंदे नालों का जल मल-मूत्र आदि गंदगी से दूषित होता जा रहा है। यह स्वाध्याय शिक्षा - - 47 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूषित जल धरती में उतर कर कुओं के जल को तथा नदी में गिरकर नदी के जल को दूषित करता जा रहा है तथा दूषित जल के कीटाणुओं का नाश करने के लिये पीने के पानी की टंकियों में पोटेशियम परमेंगनेट मिलाया जा रहा है जो स्वास्थ्य के लिये अहितकर है। नलों से भी जल का बहुत अपव्यय होता है। यह सब जल का प्रदूषण ही है। जैन धर्म में एक बूंद जल भी व्यर्थ ढोलना पाप तथा बुरा माना गया है। अतः धर्म के सिद्धान्तों का पालन किया जाय तो जल के प्रदूषण से पूरा बचा जा सकता है। तेजस्काय का प्राणातिपात प्रदूषण- जीवन के लिये जैसे जल और वायु आवश्यक हैं वैसे ही उष्णता भी आवश्यक है। यह आवश्यक उष्णता सूर्य से स्वतः प्राप्त होती रहती है। इस उष्णता से शरीर को कुछ भी हानि नहीं होती है अर्थात् यह उष्णता (उष्मा) पूर्ण रूप से प्रदूषण रहित होती है। परन्तु मनुष्य अतिरिक्त उष्णता प्राप्त करने के लिए कंडे, कोयले, लकड़ी आदि जलाकर कृत्रिम उपायों से आग पैदा करता है। कोयले, लकड़ी, गैस आदि जलाने से जो आग उत्पन्न होती है उससे वातावरण प्रदूषित होता है। अंगीठी में कोयला, चूल्हें में लकड़ी, आदि के जलने से जो आग प्रज्वलित होती है उससे कार्बन डाइआक्साइड तथा कार्बन मोनोक्साइड आदि गैसें उत्पन्न होती हैं। ये गैसें श्वास के द्वारा फेफड़ों में जाकर रक्त में घुल जाती हैं, जिससे रक्त का हिमोग्लोबिन घटता है और रक्त अशुद्ध हो जाता है। यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है तथा मृत्यु का कारण भी बन जाता है। कमरे में अंगीठी जलाकर दरवाजा बंद कर देने से मृत्यु होने की घटनाएँ समाचार पत्रों में पढ़ने में आती ही रहती हैं। वर्तमान में फैक्ट्रियों एवं वाहनों के संचालन में पैट्रोल तथा डीजल जलने से कार्बन मोनोऑक्साइड व सल्फर डाई ऑक्साइड गैसें निकलती हैं, फैक्ट्री से इन गैसों के साथ नाइट्रोजन आक्साइड गैस भी निकलती हैं। ये गैसें एसिड बनाती हैं जो स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक हैं। ये गैसें वायुमंडल में व्याप्त हो जाती हैं, जहां ये वर्षा के जल में घुलकर धरती पर बरसती हैं। इसे एसिड ड्रेन रेन कहते हैं। यह वर्षा पेड़, पौधों, पशु, पक्षियों आदि जीवों के लिए तो घातक होती ही है, निर्जीव पदार्थों के लिए भी हानिकारक होती है। इन्हीं गैसों से उत्पन्न हुए एसिड से ताजमहल की दीवारों एवं सौन्दर्य को भारी क्षति पहुंची है। उपर्युक्त सभी गैसें तापमान में वृद्धि करती हैं, जिससे समुद्रों में स्थित हिमखण्डों एवं पर्वतों पर स्थित ग्लेशियरों की बर्फ पिघल रही है। बर्फ के पिघलने से समुद्रों के जल की सतह ऊपर उठ रही है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि कुछ ही 48 - स्वाध्याय शिक्षा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षों में समुद्र की सतह इतनी ऊपर उठ जायेगी कि जिससे बंगाल आदि समुद्रों के तटों पर स्थित अनेक क्षेत्रों की भूमि जलमग्न हो जायेगी तथा पर्वतों से निकल कर ग्रीष्म ऋतु में बहने वाली नदियां सूख जायेंगी, जिससे खेती की सिचांई की समस्या उत्पन्न हो जायेगी। अणुबम और परमाणुबम से प्रज्वलित अग्नि तो इतना भीषण प्रदूषण पैदा करती है कि कुछ ही क्षणों में लाखों लोगों को मृत्यु की गोद में पहुँचा देती है और शेष रहे मनुष्यों को अपंग कर देती है तथा भावी संतान के लिए विकलांगता का खतरा पैदा कर देती है। आशय यह है कि अग्निकाय का प्रदूषण मानव जाति के स्वास्थ्य एवं अस्तित्व के लिए भयंकर खतरनाक है । इसीलिए जैन साधु कृत्रिम अग्नि का उपयोग कभी नहीं करते हैं। वायुकाय का प्राणातिपात प्रदूषण- वायु में विकृत तत्त्व मिलने से वायुकाय के प्राणों का अतिपात होता है। यही वायु प्रदूषण है। बड़े कारखानों की चिमनियों से लगातार विषैला धुआं निकल कर वायु को दूषित करता जा रहा है, लाखों कारखानों में विषैली गैसों का उपयोग हो रहा है। वे गैसें वायु में मिलकर वायु में निहित प्राणशक्ति को क्षय कर रही हैं। इस प्रदूषण के प्रभाव से ध्रुवों में ओजोन परत भी क्षीण हो गई है, उसमें छेद होते जा रहे हैं, जिससे सूर्य की हानिकारक किरणें सीधे मानव शरीर पर पड़ेंगी, फलस्वरूप कैंसर आदि भयंकर असंख्य असाध्य रोगों का खतरा उत्पन्न हो जाने वाला है। वायु प्रदूषण से नगरों में नागरिकों को श्वास लेने के लिये स्वच्छ वायु मिलना कठिन हो गया है, दम घुटने लगा है, जिससे दमा / क्षय आदि रोग भयंकर रूप में फैलने लगे हैं। जैन धर्म में इस प्रकार के वायु के प्राणातिपात को, प्रदूषण को पाप माना है। वनस्पतिकाय प्राणातिपात प्रदूषण - जैनागम आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वनस्पति की तुलना मनुष्य जीवन से की है। जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है, खाता है उसी प्रकार वनस्पति भी बढ़ती है, भोजन करती है। वर्तमान में वनस्पतिकाय का प्राणातिपात भयंकर रूप से हो रहा है। लकड़ी के प्रलोभन से जंगल / वन काटे जा रहे हैं। पहले जहां पहाड़ों पर व समतल भूमि पर घने जंगल थे, जिनमें होकर पार होना कठिन था, जिन्हें अटवी कहा जाता था उनका तो आज नामोनिशां ही नहीं रहा। जो जंगल बचे हैं और जिन वनों को सरकार द्वारा सुरक्षित घोषित किया गया है उन वनों में भी चोरी छिपे भयंकर कटाई हो रही है। इसका स्वाध्याय शिक्षा 49 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाव जलवायु पर पड़ा है। इनके कट जाने से आर्द्रता कम हो गई, जिससे वर्षा में बहुत कमी हो गई है। वन के घने जंगलों में लगे वृक्ष प्रदूषित वायु का कार्बनडाई ऑक्साइड ग्रहण कर बदले में आक्सीजन देकर वायु को शुद्ध करते थे वह शुद्धीकरण की प्रक्रिया अति धीमी हो गई है। फलतः वायु में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जो मानव जाति के स्वास्थ्य के लिए अति हानिकारक है। रासायनिक खाद एवं कीटनाशक दवाइयों के डालने से कृषि उपज में अनाज फल, फूल, दालों की संरचना में उनका दूषित प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो स्वास्थ्य के लिये अति हानिकारक है एवं पौष्टिक तत्त्व का, विटामिन एवं प्रोटीन का भी घातक है। यही कारण है कि अमरीका में रासायनिक खाद से उत्पन्न हुए गेहूँ के . भाव से बिना रासायनिक खाद में उत्पन्न हुए गेहूँ का भाव आठ गुना है। त्रसकाय प्राणातिपात- दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव तथा केंचुए, चींटी, मधुमक्खी, भौरे, चूहे, सर्प, पक्षी, पशु आदि चलने फिरने वाले जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। इन जीवों की उत्पत्ति प्रकृति से स्वतः होती है तथा संतुलन भी बना रहता है। ये सभी जीव फसल का संतुलन बनाये रखने में सहायक होते हैं। केंचुआ भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाता है। आज दवाइयों से इन जीवों को मार दिया जाता है, जिससे पैदावार में असंतुलन हो गया है तथा जीवों की अनेक प्रजातियां लुप्त हो गई जैन धर्म में उपर्युक्त सब प्रकार के जीवों के प्राणातिपात करने रूप प्रदूषणों के त्याग का विधान किया गया है। यदि इस व्रत का पालन किया जाय और पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि को प्रदूषित न किया जाय, इनका हनन न किया जाय तो मानव जाति प्राकृतिक प्रदूषणों से सहज ही बच सकती है। फिर पर्यावरण के लिए तो किसी भी कानून को बनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। इस प्रकार से अहिंसा पालन से पर्यावरण की समस्त समस्याओं का समाधान संभव है। 2. मृषावाद विरमण दूसरा व्रत है- झूठ का त्याग। अर्थात् जो वस्तु जिस गुण, धर्म वाली है उसे वैसी ही बताया जाय। आज चारों ओर व्यापार में मृषावाद का ही बोलबाला है। उदाहरण के लिए रासायनिक खाद दीर्घकाल की उपज की खेतों की उर्वरा शक्ति को नष्ट करने वाला है तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है, उसकी इन बुराइयों को छिपाकर उसे खेती के लिए लाभप्रद बताया गया है। इसी प्रकार सिन्थेटिक धागे के वस्त्र स्वास्थ्य के लिए अति हानिकर हैं, उनकी इस यथार्थता को छिपाया जाता है - - 50 - -- - स्वाध्याय शिक्षा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उनके लाभ या गुण गाये जाते हैं। एन्टीबायोटिक दवाइयों से शरीर की प्रति रक्षात्मक शक्ति में भयंकर कमी होती है जिससे वृद्धावस्था में रोगों से प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं रहती है। इस तथ्य को छिपाया जाता है और धड़ल्ले से विज्ञापन द्वारा इसके लाभप्रद होने का प्रचार किया जाता है।आज का विज्ञापन दाता विज्ञापित वस्तु से दीर्घ काल में होने वाली भयंकर हानि को छुपाकर तथा उनके तात्कालिक लाभ को बढ़ा-चढ़ा कर बताकर जनता को मायाजाल में फंसाता है, यह धोखा है। जैन साधना में ऐसे कार्य को मृषावाद कहा है और इसका निषेध किया गया है। मृषावाद-त्याग के सिद्धान्त को अपना लिया जाय तो ऐसे प्रदूषणों से बचा जा सकता अपरा 3. अचौर्य व्रत अपहरण करना चोरी है।वर्तमान में अपहरण के नये-नये रूप निकल गये. हैं। व्यापार द्वारा उपभोक्ताओं के धन का अपहरण तो किया ही जाता है, कल-कारखानों में श्रमिकों को श्रम का पूरा प्रतिफल न देकर श्रम का भी अपहरण किया जाता है, उनकी विवशता का लाभ उठाया जाता है। जीवनरक्षक दवाइयों के बीस-तीस गुणें दाम रखकर तथा नकली दवाइयाँ बनाकर रोगियों को मृत्यु के मुख में धकेला जाता है। लॉटरी के द्वारा गरीबों के कठिन श्रम से की गई कमाई का अपहरण किया जा रहा है। संक्षेप में कहें तो जितने भी शोषण के तरीके हैं वे सभी अपहरण के रूप हैं। बिना प्रतिफल दिये या कम प्रतिफल देकर अधिक लाभ उठाना शोषण या अपहरण है। यह अति भयंकर आर्थिक प्रदूषण है। इसी से आर्थिक विषमता उत्पन्न होती है। इससे गरीब अधिक गरीब और धनवान अधिक धनवान होते जा रहे हैं। इस विषमता से ही आज आर्थिक जगत में भयंकर प्रतिद्वन्द्व व संघर्ष चल रहा है। युद्ध का भी प्रमुख कारण यह आर्थिक शोषण व प्रतिद्वद्विता या होड़ ही है। जैन धर्म में अपहरण व शोषण का त्याग प्रत्येक मानव के लिये आवश्यक बताया है ताकि पर्यावरण संतुलित रहे। यदि इस व्रत का पालन किया जाय तो भूखमरी, गरीबी, आर्थिक लूट, अकाल मृत्यु, युद्ध आदि प्रदूषणों का अंत हो सकता है। 4. व्यभिचार का त्याग चौथे व्रत में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य समस्त प्रकार के यौन संबंधों को त्याज्य कहा है। जैन धर्मानुयायियों के लिये परस्त्रीगमन, वेश्यागमन तथा अतिभोग को सर्वथा त्याज्य कहा गया है। इससे एड्स जैसे असाध्य रोगों से सहज ही बचा जा सकता है। आज एड्स तथा यौन संबंधी अनेक रोग व प्रदूषण बड़ी तेजी से स्वाध्याय शिक्षा - 51 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फैल रहे हैं जिससे मानव जाति के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। इसका कारण इस व्रत का पालन न करना भी है। कामोत्तेजक तथा अश्लील चित्र बनाना व देखना भी इस व्रत के दोष हैं। इससे आज विदेशों में एवं देश में भी अविवाहित लड़कियों के गर्भ रहने, गर्भपात कराने तथा तलाक आदि की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। ब्यूटी पार्लर, प्रसाधन सामग्री आदि से शारीरिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। इन भयंकर प्रदूषणों से बचाव भी इस व्रत का पालन करने से ही संभव है। 5. परिग्रह परिमाण व्रत गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन-धान्य, गाय, भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकता के अनुसार रखना, अधिक धन उपार्जन की दृष्टि से न रखना, इस व्रत के अन्तर्गत आता है। इस व्रत में परिग्रह या संग्रह को बुरा बताया गया है, उत्पादन को बुरा नहीं कहा है। आनन्द, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के हजारों गायें थीं। उन्होंने उनका परिमाण किया है, बेचा नहीं है। परिमाण की गई गायों के बछड़े-बछड़ी होते, ये परिमाण में अधिक हो जाते, वे दूसरों को दान दे दिये, जिससे वे उनका पालन पोषण कर आजीविका चलाते। कोई भोजन करना तो उपादेय माने और अन्न उत्पादन को हेय (बुरा) माने, यह घोर विसंगति है। अतः उत्पादन सर्व हितकारी प्रवृत्ति से करना अपनी सुख-सुविधा के लिये उसका संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठवृत्ति का विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे है- जो अपने धन का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया जाय तो विश्व की गरीबी दूर हो जाय। आर्थिक शोषण का अन्त हो जाय और जीवन के लिये आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत में होड़ लगी है- संघर्ष हो रहा है, उसका कारण परिग्रह ही है। इस आर्थिक बुराई या प्रदूषण से बचने का उपाय है- परिग्रह परिमाण व्रत। इस प्रकार व्रत के पालन से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धीकरण हो जाता है। 6. दिशा परिमाण व्रत धन कमाने तथा विषय-सुख भोगने के लिये मनुष्य देश-देशान्तरों का भ्रमण करता है। यह भ्रमण वित्त, भोग-परिग्रह, लोक-एषणा व भोग-वृद्धि का हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन धर्म में मानव जीवन के लक्ष्य शांति, मुक्ति, स्वाधीनता तथा परमानन्द प्राप्ति में बाधक माना गया है और इससे यथासंभव बचने के लिये इसकी मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने, 52 - स्वाध्याय शिक्षा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख-सुविधा प्राप्ति एवं अधिकाधिक भोग भोगने के लिये अपनी जन्मभूमि को छोड़कर शहरों की ओर दौड़ रहे हैं। फलस्वरूप एक ही शहर में लाखों, करोड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठी होती जा रही है। उन लोगों के यांत्रिक लाखों वाहनों तथा उद्योगों में लगे यंत्रों से निकली विषैली गैसों से, उनके मल-मूत्र से, उनके द्वारा फैंके हुए कूड़े कचरे से, उनके श्वास से निकली कार्बनडाई ऑक्साइड से भयंकर प्रदूषण फैलता जा रहा है। भारत में दिल्ली, कलकत्ता, कानपुर आदि शहर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जहाँ श्वास लेने के लिये शुद्ध वायु मिलना कठिन हो गया है जिससे दमा, क्षय, हृदय, कैंसर जैसी भयंकर बीमारियाँ बड़ी तीव्र गति से फैलती जा रही हैं। यदि दिशा परिमाण व्रत का पालन किया जाय अर्थात् अपने गांव में रहकर स्वास्थ्य प्रदायक, सादा, सहज स्वाभाविक, प्राकृतिक जीवन जिया जाय तो बड़े-बड़े नगरों में उत्पन्न होने वाले समस्त प्रदूषणों एवं दूषित पर्यावरण संबंधी समस्या से सहज में ही बचा जा सकता है। 7. उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत इस व्रत में फल-फूल, वस्त्र, विलेपन, खान-पान आदि समस्त उपभोगपरिभोग सामग्री की मर्यादा करने का विधान है। क्योंकि भोग-परिभोग ही आत्मिक दोषों, मानसिक द्वन्द्वों रूप प्रदूषणों के कारण हैं। अतः जैन धर्म में साधुओं के लिये तो इन्हें पूर्ण त्याज्य ही कहा है। गृहस्थ के लिये भी भोगों की वृद्धि को हेय माना है और इन्हें सीमित मर्यादित रखने का विधान है। जैन धर्म का मानना है कि उपभोगवादी संस्कृति ही समस्त दोषों व प्रदूषणों की जननी है। अतः जब तक संस्कृति का आधार उपभोग रहेगा तब तक प्रदूषण भी बना रहेगा। कारण कि किसी वस्तु का दुरुपयोग करने से ही प्रदूषण पैदा होता है। वस्तु के सदुपयोग से वस्तु का जितना उपयोग होता है उससे अधिक उसका उत्पादन होता है। उसका अनावश्यक व्यय (अपव्यय) नहीं होता है। भोगवादी संस्कृति पशुता की द्योतक है, पशु जीवन प्रकृति के आधीन है। पशु-पक्षी भूख लगने पर ही खाते हैं, भूख नहीं होने पर नहीं खाते हैं। इस प्रकार प्रकृति का संतुलन बना रहता है। परन्तु मनुष्य भूखा होने पर भी चाहे तो नहीं खाये और भूख न होने पर भी स्वाद के वश भोजन कर लेता है। अर्थात् मनुष्य का जीवन प्रकृति के आधीन नहीं है। वह प्रकृति से अपने को ऊपर उठाने में स्वतन्त्र है। यही मानव की विशेषता भी है। मानव इस स्वतन्त्रता का सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों कर सकता है। सदुपयोग है- प्रकृति का यथासंभव कम या उतना ही उपयोग करना जितना जीवन के लिये अत्यावश्यक है। स्वाध्याय शिक्षा - 53 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे प्रकृति की देन का/वस्तुओं का व्यर्थ व्यय नहीं होता है और प्रकृति का संतुलन बना रहता है। भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के फूल, पत्ते व फल को व्यर्थ तोड़ना अनुचित समझा जाता रहा है। पेड़-पौधों को क्षति पहुंचाना तो दूर रहा, उलटा उन्हें पूजा जाता है- खाद और जल देकर उनका संवर्धन व पोषण किया जाता है। यही कारण है कि आज से केवल एक सौ वर्ष पूर्व भारत में घने जंगल थे। जब से उपभोक्तावादी संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन हुआ, प्रचार-प्रसार हुआ, इसके पश्चात् सारे प्रदूषण पैदा हो गये, वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ पहले सिंह भ्रमण करते थे आज वहाँ खरगोश भी नहीं रहे। वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोगसामग्री अत्यधिक बढ़ गई है तथा बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप रोग बढ़ गये हैं और बढ़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टेलीविजन को ही लें, टेलीविजन के समीप बैठने से बच्चों में रक्त कैंसर जैसा असाध्य रोग बहुत अधिक बढ़ गया है। आंखों की दृष्टि तो कमजोर होती ही है। टेलीविजन के पर्दे पर जो चलचित्र दिखाये जाते हैं, उनमें प्रदर्शित अभिनेताअभिनेत्री के नृत्य, गान, हावभाव, वेशभूषा व अन्य भोग-सामग्री से दर्शकों के मन में कामोद्दीपन तो होता ही है साथ ही मन में अगणित भोग भोगने की कामनाएँ। वासनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं/ वासनाओं की पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, द्वन्द्व, कुंठाओं तथा मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है। जिससे व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यन्त दुःख भोगता है, साथ ही रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर, अल्सर, मधुमेह जैसे शारीरिक रोग का शिकार भी हो जाता है। जैन धर्म का मानना है कि भोग स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग हैं और इसके फलस्वरूप शारीरिक रोगों की उत्पत्ति होती है। फिर शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिये एन्टीबायोटिक दवाइयाँ ली जाती हैं, जिससे लाभ तो तत्काल मिलता है, परन्तु जीवन-शक्ति नष्ट हो जाती है। फलतः आयु घटकर अकाल में ही वे काल के गाल में समा जाते हैं, वर्तमान में उत्पन्न समस्त समस्याओं का मूल भोगवादी संस्कृति ही है। 8. अनर्थदण्ड विरमण - अनर्थ शब्द 'अन्' (नञ्-अ) पूर्वक 'अर्थ' शब्द से बना है। अन् के अनेक अर्थ फलित होते हैं। उनमें मुख्य हैं अभाव, विलोम। अर्थ कहते हैं-मतलब को। अतः 54 - → स्वाध्याय शिक्षा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनर्थ शब्द का अभाव में अभिप्राय है। बिना अर्थ, व्यर्थ, हित शून्य और विलोम रूप में अभिप्राय है- हानिप्रद। अतः जो कार्य अपने लिये हितकर न हो और दूसरों के लिये भी हानिकारक हो उसे अनर्थ दण्ड कहते हैं। जैसे- मनोरंजन के लिये ऊँटों की पीठ पर बच्चों को बांधकर ऊँटों को दौड़ाना, जिससे बच्चे चिल्लाते हैं तथा गिरकर मर जाते हैं, मुर्गी को व सांडों को परस्पर में लड़ाया जाता है। आजकल सौन्दर्य प्रसाधन-सामग्री के लिये अनेक पशु-पक्षियों की निर्मम हत्याएँ की जाती हैं, इस प्रकार प्रसाधन-सामग्री के निर्माण में पशुओं का वध तो होता ही है तथा सामग्री का उपयोग करने वाले के स्वास्थ्य को भी हानि पहुंचती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जो स्वादिष्ट वस्तुएँ बनाती हैं, उससे उन खाद्य पदार्थों के विटामिन-प्रोटीन आदि प्रकृति प्राप्त पोषक तत्त्व तो नष्ट हो ही जाते हैं, साथ ही उनका मूल्य बीसों गना हो जाता है जो अर्थ की बहुत बड़ी हानि या दंड है अर्थात् अनर्थदण्ड है। आज भोग-परिभोग के लिये जिन कृत्रिम वस्तुओं का निर्माण हो रहा है उन वस्तुओं के लाभकारी गुण या तत्त्व तो नष्ट हो ही जाते हैं, साथ ही वे स्वास्थ्य तथा आर्थिक दृष्टि से हानिकारक भी होती हैं, अतः वे अनर्थदण्ड रूप ही हैं। यही नहीं तली हुई चरपरी-चटपटी मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को भी अनर्थदण्ड रूप में लिया जा सकता है, क्योंकि ये शरीर के लिये हानिकारक होती हैं, पाचन शक्ति बिगाड़ती हैं। आस्ट्रेलिया, यूरोप आदि देशों के विकसित नागरिक स्वास्थ्य के लिये ऐसी तली हुई, मिर्च, मसालेदार वस्तुओं को प्रयोग में लेना उचित नहीं मानते हैं। अतः इन्हें भी अनर्थदण्ड के रूप में लिया जा सकता है। ये शरीर के लिये हानिकारक होती हैं, पाचन शक्ति बिगाड़ती हैं। सिन्थेटिक वस्त्र भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं, इसलिये अब विदेशों में पुनः सूती वस्त्रों को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। जिससे इनकी मांग बढ़ी है। यदि अनर्थदण्ड विरमण-व्रत का पालन किया जाय तो इन सब प्रदूषणों से बचा जा सकता है। 9. सामायिक 10. देशावकासिक 11. पौषधव्रत ये तीनों व्रत मानसिक एवं आत्मिक विकारों/प्रदूषणों से बचने तथा गुणों का पोषण करने के लिये हैं। अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से रहना, उनसे प्रभावित न होना, उनके प्रति राग-द्वेष न करना, मन का संतुलन न खोना सामायिक है। इससे व्यक्ति परिस्थिति से अतीत हो जाता है, ऊपर उठ जाता है। फलतः सांसारिक सुख-दुःख के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। फिर उसे तनाव, हीनभाव, अन्तर्द्वन्द्व, भय, चिंता जैसे मानसिक रोग या विकार नहीं सताते हैं। . स्वाध्याय शिक्षा 55 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशावकासिक व्रत छठे दिशि तथा सातवें भोग- परिभोग परिमाण व्रत इन दोनों व्रतों का ही विशेष रूप है। छठे तथा सातवें व्रत में दिशा व भोग्य वस्तुओं की जो मर्यादा की है उसे प्रतिदिन के लिये लागू करना इस व्रत का उद्देश्य है। पौषध व्रत में सांसारिक प्रवृत्तियों से एक दिन के लिये विश्राम लेना होता है। इसमें साधुत्व का आचरण करना है, साधुत्व (त्याग) का रस चखना है । विश्राम से शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, विवेक का उदय होता है, संवेदनशक्ति का विकास होता है अर्थात् आत्मिक गुणों का पोषण होता है। 12. अतिथि संविभाग व्रत गृहस्थ जीवन में दान का बहुत महत्त्व है। गृहस्थ जीवन का भूषण न्यायपूर्वक उत्पादन व उपार्जन करना तथा उसे आवश्यकता वाले लोगों में वितरण करना है । जो उत्पादन व उपार्जन नहीं करता है वह अकर्मण्य व आलसी है, यह गृहस्थ जीवन के लिये दूषण है। इसी प्रकार जो उत्पादन करके संग्रह करता है वह भी दूषण है। गृहस्थ जीवन की सुन्दरता व सार्थकता अपनी न्यायपूर्वक उपार्जित सामग्री सें बालक, वृद्ध, रोगी, सेवक, संत, महात्मा आदि उन लोगों की सेवा करने में है जो उपार्जन करने में असमर्थ हैं। जैन धर्म में तप का बड़ा महत्त्व है। तप में १. अनशन २. ऊनोदरी - भूख से कम खाना ३. आयंबिल - रस परित्याग आदि सम्मिलित हैं। ये सभी तप भोजन से होने वाले प्रदूषणों को दूर करते हैं। उदर को अतिभोजन तथा गरिष्ठ भोजन को पचाने में कठिनाई होती है। जिससे पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है तथा पेट में सडान्ध पैदा हो जाती है जो गैस (वायु) बनाती है, जिससे अनेक रोग पैदा होते हैं। कहा जाता है कि सभी रोगों की जड़ उदर विकार है, पेट की खराबी है। यह पेट की खराबी तथा इससे संबंधित अगणित रोग उपवास, ऊनोदरी तथा आयंबिल से मिट जाते हैं। रूस में तो सभी रोगों के उपचार के लिये उपवास चिकित्सा प्रचलित है। पूज्य श्री घासीलाल जी म. सा. ने हजारों रोगियों का रोग आयंबिल तप से ही दूर किया था। आयंबिल में एक ही प्रकार का घृत, तेल आदि विंगय से रहित भोजन किया जाता है, जिससे जितनी भूख है उससे अधिक भोजन से बचा जा सकता है। एक ही रस के भोजन में आमाशय को अनजाईम - जिनसे भोजन पचता है बनाने में कठिनाई नहीं होती है। इसीलिये आस्ट्रेलिया निवासी प्रायः एक समय में एक ही रस का भोजन करते हैं। यदि मीठे स्वाद की वस्तुएँ खाते हैं तो उनके साथ खट्टे नमकीन आदि स्वाद की वस्तुएँ नहीं खाते हैं। तात्पर्य यह है कि शारीरिक रोगरूप स्वाध्याय शिक्षा 56 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदूषण को दूर करने की दृष्टि से तप का बड़ा महत्त्व है। इसी प्रकार रात्रि भोजन त्याग, मांसाहार त्याग, मद्य त्याग, शिकार त्याग आदि जैन दर्शन के सिद्धान्तों से शारीरिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। उपसंहार- प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राण-शक्ति के विकास से है, न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा भोग-परिभोग सामग्री की वृद्धि से। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र के पर्यावरणों में प्रदूषण की उत्पत्ति प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से, भोग से होती है, क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं जो प्रदूषण पैदा करते हैं और भोग के त्याग से, संयममय मर्यादित जीवन से उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में विकास या पोषण होता है। पर्यावरण प्रदूषण से बचें तथा पर्यावरण का समुचित शुद्धीकरण हो, यही जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान का उद्देश्य है। किसी भी प्रकार का वातावरण दूषित न हो, इसके लिए जैन दर्शन में गृहस्थ धर्म के रूप में उपर्युक्त बारह व्रतों के पालन का प्रतिपादन किया गया है। इन बारह व्रतों में प्रथम तीन व्रत दूसरों के प्रति होने वाली बुराइयों व प्रदूषणों से बचाते हैं। चौथे से लेकर सातवें तक तथा दसवाँ व्रत भोग-परिभोग को, मर्यादित रखने के लिए हैं जिनसे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। आठवाँ व्रत सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाता है। नवमा व ग्यारहवाँ व्रत आत्म-पर्यावरण-शुद्धि का पोषक है। बारहवाँ व्रत सर्व हितकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने वाला है। इस प्रकार जैन जीवन-पद्धति समस्त प्रकार के पर्यावरण शुद्धि में बड़ी सहायक है। -82/141, मानसरोवर, जयपुर (राज.) स्वाध्याय शिक्षा - .57 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्द्धमागधी आगम-साहित्य की काव्यशास्त्रीय समीक्षा डॉ. हरिशंकर पाण्डेय आगमों में आचार, धर्म एवं दर्शन के तत्त्व तो सन्निहित हैं ही, किन्तु इनका अपना साहित्यिक महत्त्व भी है। जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के डॉ. हरिशंकर पाण्डेय ने अर्द्धमागधी आगम-वाड्मय का साहित्यिक मूल्यांकन करते हुए उसमें निहित रस, गुण एवं अलंकारों की चर्चा की है। -सम्पादक _आप्त-प्ररूपित एवं गुरु-शिष्य परम्परा से आगत ज्ञान-परम्परा को आगम कहते हैं, जो अनिष्टपरिहारक, इष्टोपकारक तथा मंगल संस्थापक होता है। पूर्ण-प्रज्ञ ऋषियों की वह अमरा वाणी आगम है, जो देश, काल आदि की सीमाओं को अतिक्रांत कर स्वतः प्रामाण्य के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। जिसमें जीवन का पूर्ण सत्य समुद्घाटित होता है तथा जिसके हर पद में परम मंगल और शिव का सुमधुर संगीत सुनाई पड़ता है। जन्म-जन्मान्तर में साधना-संलीन, समाधि-सिद्ध पुरुष परम सत्य का साक्षात्कार कर शेष संसार के कल्याण की सात्त्विक भावना से विभूषित होकर जब साक्षात्कृत सत्य की अभिव्यक्ति करता है, तो वही शब्दाभिव्यक्ति 'आगम' शब्द से वाच्य होती है। मुख्यवृत्ति से आगम शब्द परमविद्या, श्रेष्ठविद्या, पराशक्ति, पराविद्या आदि का वाचक है, गौण रूप से शब्द संदर्भ या आत्मविद्या के प्रतिपादक ग्रंथ को भी आगम कहा जाता है। . आगम की अनेक परम्पराएं हैं। जैनागम उनमें से प्रमुख है। जैनागम की दो परम्पराएँ हैं-श्वेताम्बर और दिगम्बर। आचारांगादि आगम श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत हैं, दिगम्बर इनका लोप मानते हैं। प्रस्तुत संदर्भ में श्वेताम्बर किंवा अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के काव्य-वैशिष्ट्य पर दृष्टिपात अभिधेय है। उपदेश की तीन पद्धतियाँ स्वीकृत हैं१. प्रभु सम्मित २. मित्र सम्मित (सुहृद् सम्मित) ३. कान्ता सम्मित इन तीनों उपदेश पद्धतियों में “कान्तासम्मित" श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इसकी सफलता निश्चित है। पति कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो, सदाचारिणी पत्नी अपने मीठे-मीठे वचनों से समझाकर मार्ग पर ला ही देती है,उसी तरह की काव्यात्मक उपदेश पद्धति को कान्तासम्मित उपदेश पद्धति कहते हैं।' गीत, संगीत, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यादि के माध्यम से दिया गया उपदेश अत्यधिक सफल एवं प्रभावक होता है। यही कारण है कि जीवन-हित-साधक, साधु-संत, आचार्य, धर्मोपदेशक अपने उपदेश को सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए काव्यभाषा का उपयोग करते हैं। आर्षवाणी-आगम में अनेक रमणीय काव्यसंपदाओं का उपयोग किया गया है। रस, गुण, अलंकार, रीति, छन्द, बिम्ब, प्रतीक, सौन्दर्य आदि काव्यात्मक सरणियों की उपस्थिति आगम साहित्य में हमें प्राप्त होती है। 1. रस आगम-साहित्य में संसार-तृष्णा के क्षय रूप निर्वेद से समुत्पन्न शान्तरस का आधिक्य है। वीर, शृंगार, बीभत्स आदि रसों का भी प्रयोग हुआ है। इनका न केवल व्यावहारिक विनियोजन ही हुआ है, अपितु रसों का सैद्धान्तिक विवेचन स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। अनुयोगद्वार में रसों-वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, वीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशांत का सुन्दर विवेचन हुआ है। वहाँ रसों के क्रम-व्यत्यय एवं मान्यता में थोड़ा सा अन्तर दिखाई पड़ता है। काव्यशास्त्र के नौ रसों में परिगणित भयानक रस यहाँ नहीं है। वृत्तिकार ने भयानक रस को रौद्ररस में अन्तर्भूत मानकर आगम मत का पोषण किया है। इस परम्परा में एक व्रीडनक रस का उल्लेख है, जो काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में उल्लिखित नहीं है। यह रस वस्तुतः संयम (लज्जा) का द्योतक है। आगमों में व्रीडा-लज्जा आदि को इन्द्रिय-संयमन के रूप में अधिक महत्त्व दिया गया है। मुनियों के लिए आवश्यक माना गया है। आचारांग में "लज्जमाणा पुढो पास आदि सूक्तियों का अनेक बार प्रयोग हुआ है। शांत रस- अनुयोगद्वार में शान्तरस का स्वरूप एवं उदाहरण दोनों उपन्यस्त हैं पसंतरसलक्खणं निद्दो समणसमाहाणसं भवो जो पसंतभावेणं। अविकारलक्खणो सो रसो पसंतो ति नायो।। अर्थात् स्वस्थ मन की समाधि (एकाग्रता) और प्रशांत भाव से शान्त रस उत्पन्न होता है। अविकार उसका लक्षण है। उदाहरण- सम्भावनिबिगारं उवसंत-पसंत-सोम-दिट्ठीयं। ही! जण मुणिणो सोहइ मुहकमलं पीवरसिरीयं।। अर्थात् स्वभाव से निर्विकार, प्रशांत, सौम्यदृष्टि युक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित हो रहा है। यहां प्रशांत (निर्वेद) स्थायी भाव है। संसार की दुःखरूपता आलम्बन एवं शांत वातावरण उद्दीपन विभाव है। ध्यान, स्वाध्याय शिक्षा - 59 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि आदि का आवरण अनुभाव है। हर्ष, धृति, प्रसन्नता आदि व्यभिचारी भाव हैं। इस प्रकार यहां शांतरस की पुष्टि हो रही है। आचारांग में शांतरस का सुन्दर प्रयोग मिलता है। भगवान महावीर सांसारिक निर्वेद से अभिभूत होकर संयम-यात्रा में प्रस्थान करते हैं अहासुयं वदिस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाय। संखाय तंसि हेमंते अहुणा पव्वइए रीयत्था।। णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए एयं खु अणुधम्मियं तस्स।। चत्तारि साहिए मासे बहवे पाण जाइया आगम्म। अभिरुज्झ कायं विहरिस् आरुसियाणं तत्थ हिंसिंसु।। भगवान ने संकल्प किया- मैं हेमन्त में इस वस्त्र से शरीर को आच्छादित नहीं करूंगा। वे जीवन पर्यन्त कष्ट सहन करने का संकल्प कर चुके थे। यह उनकी धर्मानुगामिता थी। अभिनिष्क्रमण के समय लगाए गए सुन्दर सुगंधित लेप से आकर्षित होकर भ्रमर आदि प्राणी शरीर पर आकर रस चूसते और डंक मारते थे। यह क्रम चार मास से कुछ अधिक समय तक चलता रहा। यहां पर नित्यानित्य वस्तु-विवेक से समुत्थ सांसारिक अनासक्ति रूप निर्वेद स्थायी भाव है, जो संसार की दुःखरूपता एवं विनश्वरता आदि आलम्बन विभावों से उत्पन्न दीक्षा आदि उद्दीपन से उद्दीप्त, विहार, संयम, ध्यानादि अनुभावों से कार्यरूप में परिणत तथा धृति, क्षमा आदि व्यभिचारिकों की सहायता से शांतरस के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में अनेक स्थलों पर शांतरस का सुन्दर वातावरण समुत्थित है। अन्य रस- शांत रस के अतिरिक्त शृंगार, वीर रसादिकों का भी पर्याप्त मात्रा में प्रयोग हुआ है। "शृंगाररस" का विनियोजन अनेक स्थलों पर हुआ है। सिंगार शब्द भी अनेक बार प्रयुक्त है- सिंगारागारचारुवेसा। अनुयोगद्वार में सिंगार के लक्षण एवं उदाहरण दोनों मिलते हैं। सिंगारो नाम रसो रतिसंजोगामिलाससंजणणा। मंडणविलास विम्बोय-हासलीलारमणलिंगो।। अर्थात् रति और संयोग की अभिलाषा से शृंगार रस उत्पन्न होता है। विभूषा, विलास, विब्बोक, हास्य, लीला और रमण उसके चिह्न होते हैं। . उदाहरण- सिंगारो रसो जहामहुरं विलासललियं हिययुम्मादणकरं जुवाणाणं। - स्वाध्याय शिक्षा - 60 - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामा सदुद्दामं दाएती मेहलादाम।।" अर्थात् श्यामा स्त्री मधुर, विलास से ललित, युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाला, धुंघरू के शब्दों से मुखर मेखलासूत्र दिखलाती है। . वीररस का लक्षण एवं उदाहरण अनेक स्थलों पर मिलता है। भगवान महावीर की तपश्चर्या के वर्णन क्रम से शांतवीर या तपवीर का उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है। वहां पर दो उपमानों के द्वारा वीर रस की महनीयता का उद्घाटन किया गया है णाओ संगाम सीसे वा।" सूरो संगामसीसे वा।।" अर्थात् जैसे श्रेष्ठ हाथी एवं शूरवीर योद्धा भयंकर संग्राम को पार कर जाता है उसी प्रकार भगवान महावीर भी परीषह समर को पार कर जेता बन गए। भयानक, अद्भुत, रौद्र, शृंगार आदि रसों का भी प्रभूत प्रयोग मिलता है। 2. गुण आत्मा के शौर्य, पराक्रम, साहस, उत्साह आदि गुणों के समान रस के उत्कर्षाधायक एवं अपरिहार्य धर्म को गुण कहा जाता है ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मन।" उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गणाः।।" __ आचार्य मम्मट ने तीन गुणों की स्वीकृति दी है- माधुर्य, ओज और प्रसाद ये नवरसों से उत्पन्न सामाजिक की तीन चित्तावस्था-द्रुति, विस्तार और विकास के द्योतक हैं।" आगमों में तीनों गुणों का प्रभूत प्रयोग मिलता है। मुनि जीवन के अकृत्रिम चित्रण में माधुर्य गुण एवं प्रसादगुण का आधिक्य होता है वहीं विलास, शोभा आदि के वर्णन में ओज व्यंजक शब्दों का विनियोजन हुआ है। माधुर्यगुण-आचारांग सूत्र में छोटे-छोटे सामासिक या असामासिक पदों का विनियोजन एवं माधुर्यव्यंजक वर्गों के संयोजन से मधुरिमा का उपस्थापन हो रहा है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए। जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो।।" अर्थात् वही वीर प्रशंसित होता है जो कामवासना से बद्ध व्यक्ति को मुक्त करता है। यह शरीर जैसा भीतर है वैसा बाहर है, जैसा बाहर है, वैसा भीतर है। यहाँ उपर्युक्त उदाहरण में सर्वथा समासरहित पदों का विन्यास हुआ है तथा र, त, ज, ब, प आदि माधुर्य व्यंजक वर्गों के साथ ह आदि ओजोव्यंजक वर्गों स्वाध्याय शिक्षा - 4 61 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भी प्रयोग होने से गुणात्मक चारुता का संवर्द्धन हुआ है। उत्तराध्ययन में राजर्षि नमि के प्रसंग में माधुर्यगुण की अतिशयता अभिव्यंजित हो रही है नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइयो, चइउण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवढिओ। एवं करेन्ति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा, विणियन्ति भोगेसु जहा से नी रायरिसी।।" अर्थात् इन्द्र द्वारा वन्दन किए जाने पर राजर्षि नमि ने अपनी आत्मा को विनत किया। साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित किए जाने पर गृह और वैदेही (मिथिला की राजलक्ष्मी) को त्यागकर श्रामण्य भाव की आराधना में तत्पर हो गए। जो संबुद्ध, पंडित और प्रविचक्षण हैं, वे इसी तरह धर्म करते है तथा कामभोगों से निवृत्त हो जाते हैं। ___ ज्ञाताधर्मकथा का एक सुन्दर उदाहरण, जिसमें देवी धारिणी के कमनीय रूप सौन्दर्य का रमणीय चित्रण मिलता है तस्स णं सेणियस्स रण्णो धारिणी णामं देवी होत्था सुकुमाल- पाणिपाया अहीणपंचिंदियसरीरालक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणप्प- माणसुजायसव्वंगसुदरंगी ससिसोमाकारकंतपियदसणा......।" उपासकदशाध्ययन सूत्र में शिवनन्दा के वर्णन में माधुर्य गुण का रमणीय उपस्थापन हुआ है- तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स सिवानंदा नाम भारिया होत्था पडिपुण्णपंचिंदियसरीरा......सुरूवा। ओज गुण-जो गुण मन में उत्साह, वीरता आदि को जागृत करे, उस दीप्तिप्रधान गुण को ओज कहते हैं। उसका उत्तरोत्तर विकास वीर, बीभत्स तथा रौद्ररसों में देखा जाता है। दीप्त्यात्म-विस्तृतेर्हे तुरोजो वीररस-स्थितिः । बीभत्सरौदरसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च।। आगमों में अनेक स्थलों पर ओज गुण की उपस्थिति है। तपश्चर्या की उत्कटता, संयमवीरता, व्रतों में उत्तरोत्तर उत्साह का संवर्धन, राजाओं के युद्ध का वर्णन, दुष्ट देवों के द्वारा साधकों को दिए जाने वाले उपसर्गों के निरूपण-क्रम में ओजगुण का प्रयोग हुआ है। - भगवान महावीर के साधना-जीवन में उत्तरोत्तर विकसित उत्साह का साम्राज्य विद्यमान है। जिस श्रद्धा के साथ भगवान ने अभिनिष्क्रमण किया था, उसी श्रद्धा के साथ अन्तकाल तक साधना में लगे रहे। लाख विघ्न-बाधाओं एवं अन्तरायों ___62 - --- - स्वाध्याय शिक्षा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आने पर भी वे साधना-समर में पूर्ण विजयी हुए। साधना क्रम में प्राप्त अन्तरायों को सहने में महावीर की महावीरता स्तुत्य है हयपुब्बो तत्थदंडेण अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं, अदु लेलुणा कवालेणं हंता हंता बहवे कंदिसु । सूरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे, पडिसेवमाणे फरुसाइं अचले भगवं रीइत्था।।" अर्थात् साधना-काल में लाढ देश में कुछ लोग दण्ड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्र, चपेटा, मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान पर प्रहार करते हुए खुशी से चिल्लाते थे। जैसे कवच पहने हुआ योद्धा संग्रामशीर्ष में विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान कष्टों को झेलते हुए ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे परीषहों के भयंकर समर को जीत कर विजेता बन गए, वीर बन गये। वैभव के वर्णन में भी लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग देखा जाता है, जहां ओजगुण का आधिक्य है। उपासकदशाध्ययन में आनन्द की समृद्धि का उदाहरण द्रष्टव्य है दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणबाहणे बहुधण। जायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विछिड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स.....।। __ अर्थात् धनाढ्य आनन्द-दीप्त प्रभावशाली) भवन, शयन आसन और यानादि से सम्पन्न था। उत्कृष्ट सुवर्ण एवं चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग- प्रयोग सम्प्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से वह धन के सम्यग विनियोग और प्रयोग में, नीतिपूर्वक द्रव्योपार्जन में संलग्न था। उसके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी बहुत से खाद्य पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियाँ, गाय, भैंस, बैल, बकरियाँ आदि थीं। बीभत्स और रौद्र रसों में ओजगुण का आधिक्य होता है। आगमों में अनेक स्थलों पर बीभत्स और रौद्र रस की उपस्थिति देखी जा सकती है। उपासकदशासूत्र में कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक आदि के जीवन में बीभत्स एवं रौद्ररसों की उपस्थिति से,ओज गुण की विद्यमानता देखी जा सकती है। प्रसाद गुण- इसके आधार रूप में चित्त का व्यापकत्व सन्निहित है। श्रवण मात्र से ही जो रचना चित्त में सहज रूप से व्याप्त हो जाए उसे प्रसाद गुण कहते हैं। आचार्य मम्मट कहते हैं कि सूखे ईंधन में अग्नि के सदृश या धुले वस्त्र में स्वच्छ जल स्वाध्याय शिक्षा 63 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 के समान जो सहसा चित्त में व्याप्त हो जाए, वह सभी रसों और रचनाओं में रहने वाला प्रसाद गुण है। शुष्के धनाग्निवत् स्वच्छजलवत्सहसैव यः । व्याप्नोत्यन्यत् प्रसादोऽसौ सर्वत्र विहितस्थितिः।। इसमें ऐसे शब्द प्रयुक्त होते हैं, जिनके श्रवण मात्र से ही अर्थ की प्रतीति होने लगती है। सरलता, सर्वजनसुलभता तथा सहजग्राह्यता आदि प्रसाद गुण का वैशिष्ट्य है। आगम-साहित्य में प्रसाद गुण का ही साम्राज्य विद्यमान है। आचारांग सूत्र में आत्मा के स्वरूप वर्णन में प्रसाद का विलास अवलोकनीय है सब्वे सरा णियटॅति। तक्का जत्थ ण विज्जइ। मई तत्थ ण गाहिया। उवमा ण विज्जए। अपयस्स पयं णत्थि। से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे.....।। अर्थात् सभी स्वर वहाँ से लौट जाते हैं (आत्मा शब्दग्राह्य नहीं है) तर्क भी उसे नहीं पकड़ सकते (तर्कग्राह्य नहीं है) मति भी नहीं जा सकती है, उसकी कोई उपमा नहीं है। उसका बोधक कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गंध है, न रस है, न स्पर्श है। अर्थात् वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है। उपासकदशाध्ययन में भगवान महावीर और सुधर्मा स्वामी के वर्णन में प्रसाद गुण की रमणीयता दृग्गोचर हो रही है। प्रथम अध्ययन में आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन है, उसके बाद भगवान महावीर का । आर्य सुधर्मास्वामी के वर्णनविषयक प्रसंग प्रसाद गुण की प्रसन्नता से परिव्याप्त हैं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्ज सुहम्मे नाम थेरे जातिसंपण्णे, कुलसंपण्णे, बलसंपण्णे, रूवसंपण्णे, विणयसंपण्णे, नाणसंपण्णे, दंसणसंपण्णे, चरित्तसंपण्णे, लज्जासंपण्णे, लाघवसंपण्णे, ओयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियणिद्दे, जिइदिए जियपरीसहे, जीवियासमरण- भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे.....उवागच्छइ।।" इस प्रसंग में आर्य सुधर्मा स्वामी के चारित्रिक गुणों पर प्रकाश डाला गया है। भगवान के उत्कृष्ट चारित्र का समुत्थापक संदर्भ अवलोकनीय हैसमणेणं भगवया महावीरेणं जाव आइगरेणं तित्थगरेणं, सयंसंबुद्धेणं, - स्वाध्याय शिक्षा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं, पुरिसवरगंधहत्थिएणं, लोगुत्तमेणं, लोगनाहेणं, लोगपइवेणं, लोगफज्जोयगरेणं.....तारएणं सासयं ठाणमुवगएणं।" 3. अलंकार __अलंकार साहित्य का प्राण है। अलंकार विनियोजन से कथन में चारुता, अभिव्यक्ति में प्रभविष्णुता आदि का संवर्द्धन होता है। जिसके द्वारा साहित्यिक कथन की बाह्यशोभा का संवर्द्धन होता है, उसे अलंकार कहते हैं। आचार्य मम्मट ने लिखा उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽडगद्वारेण जातुचित्। हारादिवदल कारास्ते ऽनु फासोपमादयः ।। __ अर्थात् जो शब्दार्थ साहित्य की शोभा का संवर्धन करते हैं, वे शरीर शोभा संवर्द्धक हार आभूषणों के समान अनुप्रास, उपमादि अलंकार हैं। पंडितराज जगन्नाथ ने व्यंग्य की रमणीयता को बढ़ाने वाले को अलंकार कहा है काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयताप्रयोजका अलंकाराः।" अलंकार प्रयोग का मुख्य प्रयोजन है- शोभासंवर्द्धन वर्णन-वैशिष्टय का प्रतिपादन। आगम-साहित्य में प्रभूत मात्रा में अलंकारों का विनियोजन हुआ है। इसमें श्लेष, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, काव्यलिंग, दीपक, परिकर, स्वभावोक्ति, विभावना, विशेषोक्ति, विरोध, अनन्वय आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग हुआ है। कुछ प्रमुख अलंकारों का निर्देशन अधोविन्यस्त है। अनुप्रास- आगमों में अनुप्रास अलंकार का प्रभूत प्रयोग हुआ है। आचारांग में अनेक स्थलों पर अनुप्रास का सौन्दर्य नृत्य करता परिलक्षित होता है। इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाइमरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहे। संयमी पुरुष का वर्णन करते हुए ऋषि कहता हैसं वसुमं सबसमन्नागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्ज पावं कम्म।" यहां पर “पण्णाणेणं अप्पाणेणं" में अनुप्रास अलंकार है। लोकसार नामक अध्ययन में शक्ति के आधार पर तीन प्रकार के मनुष्य बताये हैं। वहाँ अनुप्रास का सुन्दर विलास द्रष्टव्य है___ जे पुन्बुलाई णो पच्छाणिवाई। जे पुवबुट्ठाई पच्छाणिवाई। जे णो पुब्बुट्ठाई णो पच्छाणिवाई।। स्वाध्याय शिक्षा - - - 65 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र के पाँचवे अध्ययन में थावच्चापुत्र के वर्णनप्रसंग में ऋषि कहता है एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउद्विग्गे भीए जम्मजरमरणां ण इच्छइ देवाणुप्पियाणं...." उपमा-सादृश्य को उपमा कहते हैं। दो वस्तुओं में चमत्कारजनक साम्य उपमा है। आगमों में अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विनियोग हुआ है। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर की उपमा नाग (श्रेष्ठ हाथी) एवं शूरवीर योद्धा से दी गई है ___णाओ संगामसीसे वा। सूरो संगामसीसे वा।।" सूत्रकृतांग में कामभोग में लिप्त मनुष्य की उपमा मृग से दी गई है। जैसे मृग शंका करने योग्य वस्तु पर शंका नहीं करता। तथा अशंक्य पर शंका करता है और विनाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार अहितात्मा अनार्य अशंकनीय पर शंका और शंकनीय पर विश्वास करते हुए विनाश को प्राप्त होता है जविणोमिगा जहा संता......" . आगमों में मूर्त के लिए अमूर्त्त, भाव पदार्थ के लिए अभाव, जीव के लिए निर्जीव, मनुष्य के लिए पशु आदि उपमानों का चयन किया गया है, जिससे काव्यभाषागतचारुता एवं सहज आकर्षण धर्म का संवर्द्धन होता है। एक उपमेय के लिए अनेक उपमानों का प्रयोग उत्कृष्ट चारुता का परिचायक है। अनुपलब्ध वस्तु का उपमान के रूप में नियोजन काव्यत्व-चारुता का संवर्द्धक बन जाता है। थावच्चा पुत्र के रूप लावण्य का वर्णन करते हुए आगमकार कहता है कि उसका दर्शन कौन कहे, नाम-श्रवण भी गूलर के फूल के समान दुर्लभ है ___उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणाए?" इसमें उपमा के साथ अपत्ति का भी सुन्दर योग बना है। किमंग......में अर्थापत्ति है। परिकर- आगमकार परिकर अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। सभी अलंकारों की अपेक्षा आगमों में परिकर अलंकार का अधिक प्रयोग हुआ है। किसी महापुरुष-भगवान महावीर, गणधर, गणधर-शिष्य, सभा, राजप्रासाद आदि के वर्णन में परिकरालंकार की शोभा बनी है। एक या अनेक साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग को परिकर कहते हैं। काव्यप्रकाशकार मम्मट ने लिखा है विशेषणैः सत्साकूतैरुक्तिः परिकरस्तु सः।" 39 66 - - स्वाध्याय शिक्षा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसूत्र में परिकर के अनेक सुन्दर उदाहरण मिलते हैं। हिंसा में प्रवृत्त होने वाले मनुष्यों के लिए चार साध्रिपाय विशेषणों का प्रयोग कवि ने किया है अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए।" भगवान महावीर के लिए सात साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग मननीय है। एस विहीं अणुक्कतो माहणेण मईमया। अपडिण्णेण वीरेण कासवेण महेसिणा।।' उपासकदशाध्ययन के प्रारंभ में ही आर्य सुधर्मा के वर्णन क्रम में अनेक विशेषणों का प्रयोग हुआ है। जातिसंपण्णे कुलसंपण्णे बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणयसंपण्णे...12 इस प्रकार अनेक अलंकारों का सुन्दर विनियोजन आगमों में उत्कृष्ट काव्यत्व की उपस्थिति का संसूचक है। 4. शैली अभिव्यक्ति के प्रकार, पद्धति आदि को शैली कहते हैं। पदविन्यास आदि को शैली कहते हैं। इसे रीति भी कहते हैं। प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति ही शैली है। लेखक, कवि और कलाकार द्वारा अपनी कल्पना में विद्यमान विश्व की अभिव्यक्ति के साधन एवं पाठक को संतुष्ट, आकर्षित और मुग्ध करने के माध्यम को शैली कहते हैं। शैली व्यंजनात्मक युक्ति है जिससे भाषा की शक्ति का संवर्द्धन होता है। आगमकारों ने अनेक शैलियों का प्रयोग किया है। जिनमें प्रमुख हैं- सूत्रात्मक शैली, चौर्ण शैली, भेदस्वरूपविवरणात्मक शैली, प्रश्नोत्तर शैली, संवाद शैली, पृष्ठावलोकन शैली, मण्डनस्थापत्य, उपचारवक्रता, कौतुहलसंवर्धका शैली, उदात्तीकरण, मनोविकारविरेचक, चित्रात्मक शैली आदि। सूत्रात्मक शैली में अल्प शब्दों में अधिक का विवेचन कर दिया जाता है। आचारांग इस शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। से आयावाई लोगावाई कम्मावाई किरियावाई-आचारांग 1.1.5। इस पंचपदात्मक वाक्य में जैनधर्म के चार स्तम्भों का निरूपण है, जिस पर जैन धर्म का अस्तित्व आधारित thor पणया वीरा महावीहिं 1.1.371 सब्जेसिं जीवियं पियं 1.2.64 चौर्णशैली गद्य-पद्य मिश्रित होती है। आचारांग में इसका उदाहरण देखा जा सकता है। 5. सूक्ति सूक्ति साहित्य की शोभा को बढ़ाती है। साहित्य के आदिकाल से ही सूक्ति स्वाध्याय शिक्षा - 67 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का साम्राज्य रहा है। सूक्तियाँ सामाजिक-व्यवस्था, अध्यात्म-शास्त्र, साहित्यिक एवं लोकतत्त्वों से संबंधित होती हैं। सूक्ति शोभन एवं चारु उक्ति है, जिसके प्रयोग से भाषा में प्रभविष्णुता, सशक्तता, चारुता, सहजग्राह्यता, चित्रात्मकता, रसनीयता एवं अलंकाररूपता आदि गुण सहजतया समाहित हो जाते हैं । आगम सूक्ति- कोश है। जीवन जगत् से संबद्ध सूक्तियों का मनोरम लास्य यहां विद्यमान होता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं 1. अस्सिं लोए पव्वहिए (आ.1.1.14) अज्ञानी व्यथा का अनुभव करते हैं। 2. णत्थि कालस्स णागमो(आ. 1.2.62) मृत्यु के लिए कोई क्षण अनवसर नहीं है। 3. कामा दुरतिक्कमा (आ.1.2.121) काम दुर्लघ्य हैं। 4. नो य उप्पज्जए असं (सू. 1.1.1.16) असत् का उत्पाद नहीं होता है। 5. जं छन्नं तं न वत्तव्वं (सू. 1.9.26) किसी की गोपनीय बात का उद्घाटन नहीं करना चाहिए। 6. बालजणो पगढमई (सू.1.11.2) अज्ञानी अभिमान करता है। इस प्रकार आगम साहित्य में समस्त काव्यप्रविधियों का प्रयोग किया गया है । दार्शनिक क्रम में सुन्दर अलंकारों का नियोजन भी आगमों की कवित्व प्रतिभा का निदर्शन है। संदर्भ ०१. काव्यप्रकाश १.२ ०२. अणुओगदाराइं (जैन वि.भा.सं. १६६६) ८.३०६-३१८ ०३. अनुयोगद्वार मल्लधारीया वृत्ति पत्र १२६ ०४. आचारांगभाष्य (जै. वि.) १.१.१७, ४०, ७१,६६, १२६,१५० ०५. अण ु ओगदाराई ८.३१८.२ ०६. तत्रैव ८.३१८.२ ०७. आचारांगभाष्य १.६. १-३ ०८. ज्ञाताधर्मकथा-(ब्यावर सं . ) १.१६, राजप्रश्नीय ( ब्यावर सं.) पृ. ६, सूत्र ५ . अनुयोगद्वार ८.३११.२ ०६. १०. तत्रैव ८.३११.२ ११. आचारांगभाष्य १.६.३.८ १२. तत्रैव १.६.३.१३ १३. काव्यप्रकाश ८.८७ १४. तत्रैव ८.८६ . तत्रैव ८६ पर वामन झलकीकर टीका १५. १६. आचारांग २.१२८-१२६ 68 स्वाध्याय शिक्षा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. उत्तराध्ययन सूत्र ६.१६-६२ १८. ज्ञाताधर्मकथा १.१६ (ब्यावर संस्करण) १६. काव्यप्रकाश ६.१० २०. आचारांग १.६.३.१०,१३ २१. उपासकदशांग १.३ (ब्यावर संस्करण) २२. काव्यप्रकाश ८.७०,७१ २३. आचारांगसूत्र १.५.६,१२३-१२५, १३७,१३६,१४० २४. उपासकदशाध्ययन १.२ पृ. ६-७ २५. तत्रैव १.२ पृ.७ २६. काव्यप्रकाश ८.८ २७. रसगंगाधर-द्वितीयानन पृ. २०४, संपादित-मथुरानाथ शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास। २८. काव्यप्रकाश १.१०४ २६. तत्रैव ६.१०६,१०७ ३०. आचारांग सूत्र १.१.१.१० ३१. तत्रैव १.१.७.१७४ ३२. तत्रैव १.५.३.४२ ३३. ज्ञातधर्मकथा सूत्र १.५.२३ ३४. काव्यानुशासन पृ. ३३ ३५. आचारांग सूत्र १.६.३.८ ३६. तत्रैव १.६.३.१३ ३७. सूत्रकृतांग १.२.३३-४० ३८. ज्ञाताधर्मकथांग १.५.२३ ३६. काव्यप्रकाश १०.१८३ ४०. आचारांग सूत्र १.१.२.१३ ४१. तत्रैव १.६.४.१७ ४२. उपासगदसाओ-अंगसुत्ताणि भाग-३, पृ. ३६५ -जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज.) स्वाध्याय शिक्षा स्वाध्याय शिक्षा - - 69 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक सञ श्री पारसमल चण्डालिया आवश्यकसूत्र में श्रमण एवं श्रमणोपासक के लिए अवश्यकरणीय षड् आवश्यकों का निरूपण हुआ है। इसमें प्रतिक्रमण के विशेष पाठ हैं, जिनका अध्ययन श्रावकों के लिए भी उपादेय है। श्री चण्डालिया जी ने सामायिक आदि षडावश्यकों का प्रस्तुत लेख में सामान्य परिचय दिया है। -सम्पादक आवश्यक शब्द का अर्थ आगम बत्तीसी में आवश्यक सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है । 'आवश्यक' शब्द का अर्थ होता है- प्रतिदिन नियमित रूप से की जाने वाली क्रिया । जिस प्रकार शरीर निर्वाह हेतु आहार आदि की क्रिया प्रतिदिन की जाती है और यह आवश्यक क्रिया मानी जाती है उसी तरह आध्यात्मिक कल्याण के लिए जिस क्रिया का प्रतिदिन किया जाना आवश्यक है वह क्रिया 'आवश्यक' कही जाती है। ‘आवस्सयं’-‘आवश्यक' शब्द का निर्वचन - गूढार्थ स्पष्टीकरण आचार्य मलधारी हेमचन्द्र जी, आचार्य हरिभद्र जी, आचार्य मलयगिरिजी आदि अनेक आचार्यों ने किया है, किन्तु जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८७७-८७८ में जो स्पष्टीकरण दिया है वह विशेष रूप से चिंतनीय एवं मननीय है। जो अवश्य किया जाय वह आवश्यक है।' इसी बात को अनुयोग द्वार सूत्र में यों कहा है- "समणेण सावएण य अवस्सं कायव्वं हवइ जम्हा | अंते अहो - निसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ।।" अर्थात् साधु और श्रावक दोनों ही नित्य प्रति अर्थात् प्रतिदिन क्रमशः दिन और रात्रि के अंत में सामायिक आदि की साधना करते हैं, वह आवश्यक है। प्राकृत भाषा में आधार वाचक आपाश्रय शब्द भी 'आवस्सय' कहलाता है । जो गुणों की आधार भूमि हो, वह आवस्सय- आपाश्रय है । ' आवश्यक आध्यात्मिक समता, नम्रता, आत्म-निरीक्षण आदि सद्गुणों का आधार है, अतः वह आपाश्रय कहलाता है। आ+वश्य, आवश्यक-जो आत्मा को दुर्गुणों से हटा कर गुणों के अधीन करे, वह आवश्यक है। 3 प्राकृत में आवासक भी ‘आवस्सय' बन जाता है। अतः गुणों से शून्य आत्मा को गुणों से वासित करे, वह आवश्यक है । ' गुणों से आत्मा को वासित करने का अर्थ है - गुणों से युक्त करना। 5 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवस्सय का संस्कृत रूप जो आवासक होता है। उसका अर्थ है- अनुरंजन करना । जो आत्मा को ज्ञानादि गुणों से अनुरंजित करे, वह आवासकआवस्य कहलाता है । " 5 जो ज्ञानादि गुणों के द्वारा आत्मा को आवासित - आच्छादित करे वह आवासक - आवास्सय है। जब आत्मा ज्ञानादि गुणों से आच्छादित रहेगा तो दुर्गुण रूप धूल आत्मा पर नहीं पड़ने पाएगी। 6 अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक शब्द के आवश्यक, अवश्यकरणीय' आदि जो पर्यायवाची बताएँ हैं वे इस प्रकार हैं १. आवश्यक - अवश्य करने योग्य कार्य आवश्यक कहलाता है। सामायिक आदि की साधना चतुर्विध संघ के द्वारा अवश्य रूप से करने योग्य है, अतः आवश्यक है । २. अवश्यकरणीय - मुमुक्षु साधकों द्वारा नियमेन अनुष्ठेय होने के कारण अवश्यकरणीय है। ३. ध्रुवनिग्रह - अनादि होने के कारण कर्मों को ध्रुव कहते हैं। कर्मों का फल जन्म- जरा-मरण आदि भी अनादि है अतः वह भी ध्रुव है। अतः जो कर्म और कर्म फलस्वरूप संसार का निग्रह करता है, वह ध्रुवनिग्रह है। ४. विशोधि— कर्ममलिन आत्मा की विशुद्धि का हेतु होने से आवश्यक 'विशोधि' कहलाता है। ५. अध्ययन षट्कवर्ग - आवश्यक सूत्र के सामायिक आदि छह अध्ययन हैं अतः अध्ययन षट्क वर्ग है। ६. न्याय— अभीष्ट अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय होने से न्याय है अथवा आत्मा और कर्म के अनादिकालीन संबंध का अपनयन करने के कारण भी न्याय कहलाता है। ७. आराधना - मोक्ष की आराधना का हेतु होने से आराधना है। ८. मार्ग- मार्ग का अर्थ है- उपाय । मोक्षपुर का उपाय होने से मार्ग है। आवस्सय शब्द के उपर्युक्त व्युत्पत्तिपरक विभिन्न अर्थ आवश्यक की महत्ता का दिग्दर्शन करा रहे हैं। आवश्यक के भेद सम्यग्ज्ञान आदि गुणों का पूर्ण विकास करने के लिए जो क्रिया अर्थात् साधना अवश्य करने योग्य है, वह आवश्यक है। आवश्यक सूत्र में वर्णित आवश्यक के छह भेद इस प्रकार हैं स्वाध्याय शिक्षा 71 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सामायिक- राग-द्वेष के वश न होकर समभाव (माध्यस्थ भाव) में रहना. अर्थात् किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाते हुए सभी के साथ आत्म तुल्य व्यवहार करना एवं आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना ‘सामायिक' है। २. चतुर्विंशतिस्तव-२४ तीर्थंकरों के गुणों का भक्तिपूर्वक कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' है। इसका उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि है जो कि निर्जरा और आत्मा के विकास का साधन है। ३. वन्दना- मन, वचन और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार जिसके द्वारा पूज्यों के प्रति भक्ति बहुमान प्रकट किया जाय, 'वन्दना' कहलाता है। ४. प्रतिक्रमण-प्रमादवश शुभ योग से गिरकर अशुभ योग प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग प्राप्त करना अथवा अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभ योग में प्रवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' है। ५. कायोत्सर्ग- धर्मध्यान और शुक्लध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर के ममत्व का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है। ६. प्रत्याख्यान- द्रव्य और भाव से आत्मा के लिए अनिष्टकारी अतएव त्यागने योग्य अन्न, वस्त्रादि तथा अज्ञान, कषायादि का मन, वचन और काया से यथाशक्ति त्याग करना 'प्रत्याख्यान' है। षडावश्यक स्वरूप आत्मा को निर्मल अर्थात् कर्ममल रहित बनाने के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। इसलिए प्रतिक्रमण को 'आवश्यक' जैसा सार्थक नाम दिया गया है। पाप निवृत्ति रूप आवश्यक के छह अध्ययन हैं। इन छह आवश्यकों का विस्तृत स्वरूप इस प्रकार हैप्रथम आवश्यक-सामायिक ___ छह आवश्यकों में सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान दिया गया है। समभाव की प्राप्ति होना अर्थात् राग-द्वेष रहित माध्यस्थ भाव 'सामायिक' है। ममत्व भाव के कारण आत्मा अनादिकाल से चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रही है ऐसी आत्मा को समभाव में रमण कराने के लिए सावध योगों से निवृत्ति आवश्यक है, जो कि सामायिक से संभव है। आत्मोत्थान के लिए सामायिक मुख्य प्रयोग है, मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है। समस्त धार्मिक क्रियाओं के लिए आधारभूत होने से ही सामायिक को प्रथम स्थान प्रदान किया गया है। सामायिक अर्थात् आत्म-स्वरूप में रमण करना, सम्यग् ज्ञान, दर्शन ___72 - स्वाध्याय शिक्षा 72 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और तप में तल्लीन होना। सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोक्ष मार्ग है। मोक्ष मार्ग में सामायिक मुख्य है, यह बताने के लिए ही सामायिक आवश्यक को सबसे प्रथम रखा गया है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक में फरमाया है कि “आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे" अपने शुद्ध स्वरूप में रहा हुआ आत्मा ही सामायिक है। शुद्ध-बुद्ध-मुक्त चिदानन्द स्वरूप आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना ही सामायिक का प्रयोजन है। मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप कैसा है? आदि विचारने में तल्लीन होना, आत्मगवेषणा करना सामायिक है। अनुयोगद्वार सूत्र में सच्चा सामायिक व्रत क्या है? इसकी परिभाषा बताते हुए कहा है "जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं।।" अर्थात् जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है उसी का नाम सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने फरमाया है। "जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य। . तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं।।" अर्थात जो त्रस और स्थावर सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, सभी प्राणियों पर समभाव रखता है, उसी का सामायिक व्रत सच्चा है, ऐसा केवलज्ञानियों ने फरमाया है। ___सामायिक के आध्यात्मिक फल के लिए गौतम स्वामी प्रभु महावीर स्वामी से पूछते हैं कि __ "सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ?" हे भगवन्! सामायिक करने से जीव को क्या लाभ होता है। भगवान ने फरमाया "सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ" सामायिक करने से सावध योग से निवृत्ति होती है। (उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६) अर्थात् पाप कर्मों से सम्पूर्ण निवृत्ति होने पर आत्मा पूर्ण विशुद्ध और निर्मल बन जाती है, यानी मोक्ष पद को प्राप्त कर लेती है। सामायिक की साधना उत्कृष्ट है। सामायिक के बिना आत्मा का पूर्ण विकास असंभव है। सभी धार्मिक साधनाओं के मूल में सामायिक रहा हुआ है। जैन - 73 . स्वाध्याय शिक्षा Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति समता प्रधान है। समता भाव की दृष्टि से ही सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान प्राप्त है। दूसरा आवश्यक - चउवीसत्यव प्रथम सामायिक आवश्यक के बाद दूसरा आवश्यक है - चतुर्विंशतिस्तव । सावद्य योग से विरति ‘सामायिक' आवश्यक है। जीवन को सावद्य योग से निवृत्त, राग-द्वेष रहित, समभाव युक्त विशुद्ध बनाने के लिए साधक को सर्वोत्कृष्ट जीवन जीने वाले महापुरुषों के आलम्बन की आवश्यकता रहती है। चौबीस तीर्थंकर जो राग-द्वेष रहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुष हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, त्याग, वैराग्य और संयम-साधना के महान आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना, उनके गुणों का कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' कहलाता है। तीर्थंकरों, वीतराग देवों की स्तुति करने से साधक को महान् आध्यात्मिक बल व आदर्श जीवन की प्रेरणा मिलती है । अहंकार का नाश होता है, गुणों के प्रति अनुराग बढ़ता है और साधना का मार्ग प्रशस्त बनता है। शुभ भावों से दर्शन विशुद्धि होती है और दर्शन विशुद्धि से आत्मा कर्म मल से रहित होकर शुद्ध निर्मल हो जाती है - परमात्म पद को प्राप्त कर लेती है और वीतराग प्रभु के समान बन जाती है। चतुर्विंशतिस्तव के फल के लिए उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में पृच्छा की है "चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ ?" हे भगवन्! चतुर्विंशतिस्तव से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? "चउवीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ । " हे गौतम! चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन विशुद्धि होती है । समभाव में स्थित आत्मा ही वीतराग प्रभु के गुणों को जान सकती है, उनकी प्रशंसा कर सकती है। अर्थात् जब सामायिक की प्राप्ति हो जाती है तब ही भावपूर्वक तीर्थंकरों की स्तुति की जा सकती है । अतएव सामायिक आवश्यक के बाद चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है। तीसरा आवश्यक - वंदना चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरे आवश्यक में तीर्थंकर देवों की स्तुति की गई है । देव के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही है। तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश निर्ग्रन्थ मुनिराज ही देते हैं। तीसरे वंदना आवश्यक में गुरुदेव को वन्दन किया जाता है। मन, वचन और काया का वह शुभ व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति स्वाध्याय शिक्षा 74 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है 'वन्दना' कहलाता है। जो साधु द्रव्य और भाव से चारित्र सम्पन्न है, जिनेश्वर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलते हुए जिन प्रवचन का उपदेश देते हैं, वे ही सुगुरु हैं। आध्यात्मिक साधना में सदैव रत रहने वाले त्यागी-वैरागी, शुद्धाचारी, संयमनिष्ठ सुसाधु ही वंदनीय पूजनीय होते हैं। ऐसे सुसाधु-गुरु भगवन्तों को भावयुक्त उपयोग पूर्वक निःस्वार्थ भाव से किया हुआ वंदन कर्म-निर्जरा और अंत में मोक्ष का कारण बनता इसके विपरीत भाव चारित्र से ही द्रव्यलिंगी-कुसाधु अवंदनीय होते हैं। संयमभ्रष्ट वेशधारी कुसाधुओं को वंदन करने से कर्म-निर्जरा नहीं होती, अपितु वह कर्म-बंधन का कारण बनता है। सुगुरुओं को यथाविधि वंदन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है। वंदनीय में रहे हुए गुणों के प्रति आदर भाव होता है। तीर्थकर भगवंतों की आज्ञा का पालन होता है। वंदना करने का मूल उद्देश्य ही नम्रता प्राप्त करना है। नम्रता अर्थात् विनय ही जिनशासन का मूल है। उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २६ में गौतम प्रभु भगवान महावीर से पूछते हैं कि "वंदएणं भंते! जीवे किं जणयड?" हे भगवन! वंदन करने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर में भगवान महावीर फरमाते हैं कि "वंदएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ उच्चागोयं निबंधइ सोहग्गं च ण अप्पडिहयं आणाफलं निवत्तेइ, दाहिणभावं च णंजणयइ।" वंदन करने से यह आत्मा नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र का बंध करता है। सुभग, सुस्वर आदि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सभी उसकी आज्ञा स्वीकार करते हैं और वहीं दाक्षिण्य भाव कुशलता एवं सर्वप्रियता को प्राप्त करता है। ___ जो व्यक्ति अपने इष्ट देव तीर्थकर भगवंतों की स्तुति करता है, गुण स्मरण करता है वही तीर्थकर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलने वाले, जिनवाणी का उपदेश देने वाले गुरुओं को यथाविधि भक्तिभाव पूर्वक वंदन-नमस्कार कर सकता है। अतएव चतुर्विंशतिस्तव के बाद वंदना आवश्यक को स्थान दिया गया है। चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण ___ छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है। आजकल 'आवस्सय' की संज्ञा प्रतिक्रमण' प्रचलित है। इसके कई कारण हो सकते हैं। 'पडिक्कमण' . स्वाध्याय शिक्षा र - 75 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ 'आवस्सय' है और सब आवश्यको में अक्षर प्रमाण में बड़ा है। अतः सभी आवश्यकों को ‘प्रतिक्रमण' नाम से पुकारा जाने लगा हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । दूसरा कारण श्रमण भगवान महावीर का सप्रतिक्रमण धर्म है। अतः प्रतिदिन प्रातः, सायं प्रतिक्रमण करना साधक के लिए आवश्यक है अर्थात् सायं प्रातः प्रतिक्रमण 'आवश्यक' का ही नियत काल है, अन्य आवश्यक का नहीं। उन समयों में जो अन्य आवश्यक किये जाते हैं वे प्रतिक्रमण आवश्यक की पूर्ण भूमिका की उत्तरक्रिया के रूप में ही प्रायः होते हैं। इसलिए सभी आवश्यकों का 'प्रतिक्रमण' नाम हो जाना सहज लगता है। वंदना आवश्यक के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग-द्वेष रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं, वे ही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। जो गुरुदेव को वंदन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रखेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा? जो पाप मन से, वचन से और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से कराये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, इन सब पापों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आती है। व्रत में लगे हुए दोषों की सरल भावों से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है। प्रतिक्रमण का लाभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६ में पृच्छा की है कि "पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ?" हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है ? "पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिहेइ, पिहियवयच्छिदे पुण जीवे णिरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । " प्रतिक्रमण करने वाला व्रतों में बने हुए छिद्रों को बंद करता है, फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शब्दादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटा कर संयम मार्ग में विचरण करता है अर्थात् आत्मा संयम के साथ एकमेक हो जाती 76 स्वाध्याय शिक्षा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जो इन्द्रियाँ बाह्योन्मुखी हैं, वे अन्तर्मुखी हो जाती हैं। इन्द्रियां मन में लीन हो जाती हैं और मन आत्मा में रम जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण जो वापस लौटने की प्रक्रिया से चालू हुआ था, वह धीरे-धीरे 'आत्म स्वरूप स्थिति' में पहुँच जाता है। यही है प्रतिक्रमण का पूर्ण फला प्रतिक्रमण की यही है उपलब्धिा पाँचवा आवश्यक-कायोत्सर्ग . छह आवश्यक में कायोत्सर्ग पाँचवाँ आवश्यक है। कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं-काय और उत्सर्ग। जिनका अर्थ है- काय का त्याग। अर्थात् शरीर के ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद कायोत्सर्ग का स्थान है। प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंद कर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है। जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त की शुद्धि न की जाय, तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है वह किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता। अनाभोग आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगे बड़े अतिचारों की कायोत्सर्ग शुद्धि करता है। इसीलिए कायोत्सर्ग को पाँचवां स्थान दिया गया है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। वह पुराने पापों को धोकर साफ कर देता है। तस्सउत्तरी (उत्तरीकरण के पाठ) में यही कहा है कि पाप युक्त आत्मा को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशेष-शुद्धि करने के लिए, शल्यों का त्याग करने के लिए, पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग (शरीर के व्यापारों का त्याग) किया जाता है। अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग आवश्यक का नाम 'व्रण चिकित्सा' कहा है। व्रत रूप शरीर में अतिचार रूप व्रण (घाव, फोड़े) के लिए पाँचवां कायोत्सर्ग आवश्यक चिकित्सा रूप पुल्टिस (मरहम) का काम करता है। जैसे पुल्टिस, फोड़े के बिगड़े हुए रक्त को मवाद बना कर निकाल देता है और फोड़े की पीड़ा को शान्त कर देता है, उसी प्रकार यह काउस्सग्ग रूप पाँचवां आवश्यक व्रत में लगे हुए अतिचारों को और दोषों को दूर कर आत्मा को निर्मल एवं शांत बना देता है। उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का फल इस प्रकार कहा है __ "काउस्सग्गेणं भंते! जीवे कि जणयइ?" हे भगवन! कायोत्सर्ग करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है? स्वाध्याय शिक्षा -- 77 . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके उत्तर में भगवान फरमाते हैं कि "काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पण्णं पायच्छित्तं विसोहेइ विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे णिन्युयहियए ओहरियभरुव मारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ।।" कायोत्सर्ग करने से भूतकाल और वर्तमान काल के दोषों का प्रायश्चित्त करके जीव शुद्ध बनता है और जिस प्रकार बोझ उतर जाने से मजदूर सुखी होता है उसी प्रकार प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना हुआ जीव शान्त हृदय बन कर शुभ ध्यान ध्याता हुआ सुखपूर्वक विचरता है। छठा आवश्यक-प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान छठा आवश्यक है। प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है-त्याग करना। प्रत्याख्यान में तीन शब्द है- प्रति+आ+ख्यान। अविरति एवं असंयम के प्रति अर्थात् प्रतिकूल रूप में "आ" अर्थात् मर्यादा स्वरूप आकार के साथ, ‘ख्यान' अर्थात् प्रतिज्ञा को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं अथवा अमुक समय के लिए पहले से ही किसी वस्तु के त्याग कर देने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं। अविवेक आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा जानते हुए दर्प आदि से लगे बड़े अतिचारों की प्रत्याख्यान शुद्धि करता है अथवा प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा अतिचार की शुद्धि हो जाने पर प्रत्याख्यान द्वारा तप रूप नया लाभ होता है, अतःप्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है। जो साधक कायोत्सर्ग द्वारा विशेष चित्त-शुद्धि, एकाग्रता और आत्मबल प्राप्त करता है, वही प्रत्याख्यान का सच्चा अधिकारी है। अर्थात् प्रत्याख्यान के लिए विशिष्ट चित्त शुद्धि और विशेष उत्साह की अपेक्षा है। जो कायोत्सर्ग के बिना संभव नहीं है, अतः कायोत्सर्ग के पश्चात् प्रत्याख्यान को स्थान दिया गया है। ___ अनुयोगद्वारसूत्र में प्रत्याख्यान का नाम 'गुणधारण' कहा है। गुणधारण का अर्थ है- व्रत रूप गुणों को धारण करना। प्रत्याख्यान के द्वारा आत्मा को मन, वचन, काया की दुष्ट प्रवृत्तियों से रोक कर शुभ प्रवृत्तियों पर केन्द्रित करता है। ऐसा करने से इच्छा-निरोध, तृष्णा का अभाव, सुख-शान्ति आदि अनेक सद्गुणों की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में प्रत्याख्यान का फल इस प्रकार बताया है "पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ?" हे भगवन्! प्रत्याख्यान से जीव को क्या लाभ होता है ? इसके उत्तर में प्रभु 78 78 स्वाध्याय शिक्षा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फरमाते हैं कि "पच्चक्खाणेणं आसवदाराइं णिरुंभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छा णिरोहं जणयइ, इच्छाणिरोहं गए यणं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ।" प्रत्याख्यान करने से आस्रव द्वारों का निरोध होता है, प्रत्याख्यान करने से इच्छा का निरोध होता है, इच्छा का निरोध होने से जीव सभी पदार्थों में तृष्णा रहित बना हुआ परम शांति से विचरता है। आवश्यक, आवश्यक क्यों हैं? ग्रहण किए हुए व्रतों में प्रमादवश या अनजानपने में अतिचार दोष लगने की संभावना रहती है। जब तक दोषों को दूर नहीं किया जाता तब तक आत्मा शुद्ध नहीं बनती। आवश्यक (प्रतिक्रमण) के द्वारा दोषों की आलोचना की जाती है, आत्मा को अशुभ भावों से हटाकर शुभ भावों की तरफ ले जाया जाता है। प्रतिक्रमण के माध्यम से ही साधक अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है। भूलों को ध्यान में लाता है और मन, वचन, काया के पश्चात्ताप की अग्नि में आत्मा को निखारता है। आत्म-शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है। जैसे मार्ग में चलते हुए अनाभोग प्रमाद आदि से पैर में कांटा लग जाता है तो उसे निकालना आवश्यक होता है। जब तक कांटा नहीं निकाला जाता है तब तक ठीक ढंग से चला नहीं जा सकता है। कभी-कभी कांटा नहीं निकलने पर पैरों में विष फैल जाता है और चलने की शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादि ग्रहण करने के पश्चात् प्रमाद, अविवेक, आदि से अतिचार रूपी कांटे लग जाते हैं। जब तक उन अतिचारों को दूर नहीं किया जाता है, पापों का पश्चात्ताप रूप प्रतिक्रमण नहीं किया जाता है, तब तक जीव मोक्ष के निकट नहीं हो पाता है। अतिचारों की शुद्धि नहीं होने पर जीव विराधक बन जाता है, यहां तक कि सम्यक्त्व आदि से भी भ्रष्ट हो जाता है, अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य ये पाँच 'आचार' कहलाते हैं। पंचाचार की शुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण आवश्यक है। ___ कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि जीव पूर्वकृत कर्मों का क्षय करे और नवीन कर्मों का बंध नहीं करे। प्रतिक्रमण द्वारा पूर्वकृत पापों की निंदा की जाती है, आलोचना की जाती है और मन, वचन, काया से प्रायश्चित्त (पश्चात्ताप) किया जाता है, अतः कर्मों की निर्जरा होती है और भविष्य में कर्म-बन्धन रूकता है। प्रतिक्रमण से-"छू पिछला पाप से नवां न बांधू कोय" यह - स्वाध्याय शिक्षा - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्ति सिद्ध होती है। अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। शंका- जिसने व्रत धारण नहीं किये हैं, उसके लिए क्या आवश्यक (प्रतिक्रमण) करना आवश्यक है? __ समाधान- आवश्यक में छह आवश्यक हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। इनमें से केवल चौथा आवश्यक व्रतों के अतिचारों की आलोचना का है, शेष का संबंध इनसे नहीं है। कई पाठ सामान्य आलोचना के हैं, कई स्तुति के हैं और कई वन्दना के। कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान संबंधी प्रतिक्रमण का अंश भी भूत एवं भविष्य की आत्म-शुद्धि से संबंध रखता है। इस प्रकार व्रतधारी और बिना व्रतधारी सभी के लिए सामान्य रूप से प्रतिक्रमण की आवश्यकता है ही। जिसने व्रत नहीं लिया है उसका भी झुकाव व्रतों की ओर हो, यही सम्यक्त्वधारी से आशा की जाती है। चारित्र मोहनीय का विशिष्ट क्षयोपशम नहीं होने से व्रत न लेने में वह अपनी कमजोरी समझता है और उस शुभ दिन की प्रतीक्षा करता है जब कि वह व्रत धारण कर सकेगा। ऐसे सम्यक्त्वधारी के लिए व्रत एवं अतिचारों का गिनना व्यर्थ कैसे हो सकता है? उसे अपनी शक्ति का ध्यान आता है, व्रतधारियों के प्रति सम्मान भाव आता है एवं व्रतधारण की रुचि होती है। कई अतिचारों के पाठ सामान्य हैं। कई में समकित एवं ज्ञान के अतिचारों का वर्णन है, जिनकी आलोचना व्रतरहित सम्यक्त्व धारियों के लिए भी आवश्यक है। आवश्यक बत्तीसवाँ आगम है उसका स्वाध्याय आत्म कल्याण के लिए है। प्रतिक्रमण व्रतों की आलोचना के सिवाय निम्न कारणों से भी किया जाता है- १. जिन कार्यों को करने का मना है, उन्हें किया हो २. करने योग्य कार्य नहीं किया हो ३. वीतराग के वचनों पर श्रद्धा नहीं रखी हो। ४. सिद्धान्त विपरीत प्ररूपणा की हो। प्रतिक्रमण वैद्य की औषधि के समान है जिसका प्रतिदिन सेवन करने से विद्यमान रोग शांत हो जाते हैं, रोग नहीं होने पर उस औषधि के प्रभाव से वर्ण, रूप, यौवन और लावण्य आदि में वृद्धि होती है और भविष्य में रोग नहीं होते। इसी तरह यदि दोष लगे हों तो प्रतिक्रमण द्वारा उनकी शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगा हो तो प्रतिक्रमण चारित्र की विशेष शुद्धि करता है। इसलिए प्रतिक्रमण सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है। उपसंहार उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आवश्यक सूत्र का जीव शुद्धि के लिए कितना अधिक महत्त्व है। जीवन में आई गंदगियों को दूर कर देने के लिए यह निर्मल 80 - स्वाध्याय शिक्षा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदाकिनी है। इसमें प्रतिदिन अवगाहन कर अपने पाप को धो डालना प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है। __आजकल 'आवस्सय-आवश्यक' रटा जाता है, किन्तु उसका मर्म समझा या समझाया नहीं जाता। जिससे 'आवस्सय' साधना भार रूप होती जा रही है। 'आवस्सय' जीवन में ओतप्रोत हो जाने चाहिए। उपयोग सहित आवश्यकों के करने से निर्मल साधक का जीवन सुन्दर रूप से विकसित हो सकता है अतः आवश्यक को कण्ठस्थ करके उसके द्वारा मनोयोग पूर्वक नित्य क्रिया करना अत्युत्तम है। 'आवस्सय' से ही साधक जीवन का जन्म होता है, उससे ही साधना को पोषण मिलता है और उससे ही वह चरम उत्कर्ष पर पहुँचता है। संदर्भ 1. अवश्यं करणाद् आवश्यकम्।। 2. आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या आवस्सयं । गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति। 4. गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयतीति आवासकम् । 5. गुणैर्वा आवासक-अनुरंजक वस्त्रधूपादिवत्। 6. गुणैर्वा आत्मानं आवासयति-आच्छादयति, इति आवासकम् । – विशेषावश्यक भाष्य ।। 7: आवस्सयं अवस्सकरणिज्ज, धुवनिग्गहो विसोही य। अज्झयण-छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो।।-अनुयोगद्वारसूत्र -२१ बी, मुणोत कॉलोनी, ब्यावर-30५९०१ (राज.) - स्वाध्याय शिक्षा स्वाध्याय शिक्षा - 81 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-साहित्य में संगीत कला समणी संबोध प्रज्ञा आगम वाड्मय में यथाप्रसंग अनेक विद्याओं का समावेश हुआ है। तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का चित्रण भी आगमों में उपलब्ध है। 'संगीतकला' तत्कालीन संस्कृति के एक पक्ष को प्रकट करती है। आगमों में विद्यमान इस कला का किंचित् परिचय समणी संबोधप्रज्ञा जी ने कराया है। -सम्पादक - भारतीय संस्कृति संसार की श्रेष्ठतम संस्कृति है। अनेक धाराओं का मिश्रण लिए यह संस्कृति अपने आप में अनूठी है। कला भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है। कला शब्द श्रवण करते ही ७२ कलाओं की बात आती है। जैनसूत्रों में ७२ कलाओं का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। इन कलाओं का वर्गीकरण निम्न रूप में किया जा सकता है। ०१. लेखन, पठन-पाठन और गणित।' ०२.काव्य जिसमें पोरकत्व, आर्या, प्रहेलिका, मागधिका, गाथा, गीत और श्लोक . रचना का अन्तर्भाव होता है। ०३.रूपकला। ०४.संगीतकला जिसमें नृत्य, गीत, वाद्य, स्वरगत, पुष्करगत और समताल का अन्तर्भाव होता है। ०५.मिश्रितद्रव्यों के पृथक्करण की कला। ०६.द्यूत कला। ०७.स्वास्थ्य, विलेपन और भोजनकला। ०८.विविध प्रकार के लक्षण, चिहन आदि की कला। ०६.शकुन कला। १०.ज्योतिषकला। ११. रसायनकला। १२. वास्तुकला। १३. युद्धकला। कामशास्त्र में ६४ कलाओं का उल्लेख मिलता है। इन कलाओं में संगीतकला उच्चतम स्थान रखती है। शोपेनहावर शिल्पकला, वास्तुकला आदि से काव्यकला को उच्च मानते हैं, पर संगीत को वे कलाओं का सरताज मानते हैं। उनके अनुसार किसी वस्तु का बोध कराने के लिए अन्य कलाएँ एक-एक क्षण को व्यक्त Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती हैं, उसे संपूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर पातीं। संगीतकला अन्य कलाओं की तरह मानसिक बोध कराने की अनुकृति नहीं करती, बल्कि वह स्वयं की इच्छा की अनुकृति है और यह बोध कराने की क्रिया इसी की छाया है। संगीत का महत्त्व सर्वविदित है। संगीत तत्त्वमीमांसा और दर्शन से उत्पन्न होता है, इसका स्रोत अवचेतन मन है। संगीत में गीत, नृत्य एवं वाद्य तीनों ही सम्मिलित हैं। संगीतरत्नाकर में कहा गया है- गीत, वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते। गीत, वाद्य और नृत्य- ये तीनों मिलकर संगीत कहलाते हैं। वास्तव में ये स्वंतत्र हैं, किन्तु स्वतंत्र होते हुए भी वादन गान के अधीन एवं नर्तन वादन के अधीन है। प्राचीन काल में इनका प्रयोग अधिकतर एक साथ हुआ करता था। इन तीनों में गान को ही प्रधानता दी गई है नृतं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते।। संगीत की प्रधानता हर काल, हर उत्सव में है। प्राचीनकाल में उत्सवों और त्यौहारों के अवसर पर प्रायः स्त्री और पुरुष नाच-गाकर मनोरंजन किया करते थे। वाराणसी में मदन-महोत्सव खूब ठाट से मनाया जाता था। उत्तराध्ययन टीका में उल्लेख मिलता है कि ऐसे अवसर पर चित्त और संभूत नामक दो मातंग दारक तिसरय, वेणु और वीणा बजाते हुए अपनी टोली के साथ गंधर्व गाते हुए नगर में से गुजरे, जिससे सब लोग मुग्ध हो गए। कौमुदी-महोत्सव पर भी लोग गाते-बजाते और नृत्य करते थे। इन्द्र महोत्सव भी खूब ठाट-बाट से मनाया जाता था। इस अवसर पर नर्तिकाओं के सुन्दर नृत्य होते, सुकवियों द्वारा स्वरचित काव्यों का पाठ किया जाता और सभी लोग नृत्य और गान में मस्त हो जाते।' आवश्यकचूर्णि में राजा उदयन की घटना उल्लिखित है। वह अपने संगीत से हाथी को वश में कर लेता था। राजकुमारी वासवदत्ता को संगीत की शिक्षा देते-देते प्रेम में पड़ उसे भगा ले आया। सिन्धु सौवीर के राजा उद्रायण भी अच्छे संगीतज्ञ थे। वे वीणा बजाते एवं रानी नृत्य करती थी। जैन आगमों के अंग चौदह पूर्वो में एक पूर्व स्वरप्राभृत था, जिसमें विस्तार से स्वर एवं अलंकारों का वर्णन किया गया था। आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसका अध्ययन भरत और विशाखिल आदि ग्रन्थों से किया जा सकता है। जो स्वाध्याय शिक्षा - 83 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पूर्वों के आधार पर लिखे गए बताये जाते हैं।' स्थानांगसूत्र स्वर की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें सात स्वर ( षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद) सात स्वरों के सात स्वरस्थान जिहा का अग्रभाग, उरस्थल, कण्ठ, जिहा का मध्य भाग, नासा, दन्त - ओष्ठ संयोग, सिर, सात जीव निश्रित- मयूर, कुक्कुट, हंस, गवेलक, गोयल, क्रौंच, हाथी, सात अजीवनिश्रित स्वर- मृदंग, गोमुखी, शंख, झल्लरी, गोधिका, ढोल, महाभेरी वर्णित है । " सात स्वरों के सात स्वरलक्षण बताये गये हैं 2 १. षड्जस्वरवाला आजीविका प्राप्त करता है, उसका प्रयत्न व्यर्थ नहीं जाता। उसके गायें, मित्र और पुत्र होते हैं। वह स्त्रियों को प्रिय होता है। २. ऋषभस्वरयुक्त मनुष्य ऐश्वर्य, सेनापतित्व, धन, वस्त्र, गन्ध, आभूषण, स्त्री, शयन और आसन को प्राप्त करता है । ३. गान्धारस्वर वाला मनुष्य गाने में कुशल, वादित्र - वृत्तिवाला, कलानिपुण, कवि, प्राज्ञ और अनेक शास्त्रों का पारगामी होता है। ४. मध्यमस्वरसम्पन्न पुरुष सुख से खाता, पीता, जीता और दान देता है। ५. पंचमस्वरवाला पुरुष भूमिपाल, शूरवीर, संग्राहक और अनेक गणों का नायक होता है। ६. धैवतस्वरयुक्त मनुष्य कलहप्रिय, पक्षियों को मारने वाला, हिरण, शूकर और मच्छी मारने वाला होता है। ७. निषादस्वरवाला पुरुष चाण्डाल, वधिक, मुक्केबाज, गो-घातक, चोर और अनेक प्रकार के पाप करने वाला होता है। इन सात स्वरों के तीन ग्राम कहे हैं - षड्ज, मध्यम और गान्धार | षड्जग्राम, मध्यम और गान्धारग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएँ, सातों स्वर की योनि, उत्पत्ति स्थल, श्वासोच्छ्वास में गाया जाने वाला चरण, गीत का आकार, गीत के छह दोष, आठ गुण, तीन वृत्त और दो भणितियों का विस्तृत वर्णन स्थानांग सूत्र में किया गया है । " इन्हें जानने वाला व्यक्ति ही रंगमंच पर गा सकता है। इसी प्रसंग में गीत गाने वाली स्त्रियों के लक्षण बताते हुए कहा गया है- श्याम स्त्री मधुर गीत गाती है, काली स्त्री खर और कक्ष, केशी स्त्री चतुर, काणी स्त्री विलम्ब, अंधी स्त्री द्रुत और पिंगला स्त्री विस्वर गीत गाती है । " सप्तस्वरसीभर की व्याख्या स्थानांग सूत्र का विशेष आकर्षण है।' 15 16 84 स्वाध्याय शिक्षा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवें अंग प्रश्नव्याकरण में भी चर्चा मिलती है। अब हम वाद्यों की चर्चा आगमिक संदर्भ में करेंगे। अनेक प्रकार के वाद्यों का उल्लेख जैन सूत्रों में उपलब्ध होता है। स्थानांग सूत्र में तत (तन्तुवाद्य-जैसे वीणा), वितत (मढ़े हुए वाद्य-जैसे पटह आदि), घन (कांस्यताल आदि), झुसिर (फूंक से बजाये जाने वाले वाद्य बांसुरी आदि) नामक चार प्रकार के वाद्य बताये गये हैं।" राजप्रश्नीय में अनेक प्रकार के वाद्यों की चर्चा है। सूर्याभ देव आमलकप्पा नगरी में भगवान महावीर के दर्शनार्थ आया तो उसने अनेक प्रकार के वाद्यों की वैक्रियशक्ति से रचना की- शंख, शृंग, शृंगिका, खरमुही, पेया, पिरिपिरिका, पणव, पटल, भंभा, होरंभा, भेरी, झल्लरी", दुन्दुभि", मुरज, मृदंग, नंदीमृदंग, आलिंग', कुस्तुंब, गोमुखी, मर्दल', वीणा, विपंची, वल्लकी, चित्रवीणा, बद्धीस, सुघोषा, नंदिघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, करवादनी, तूणा, तुम्बवीणा, आमोट, झंझा, नकुल, मुकुन्द, हुडुक्का, विचिक्की, करटा', डिंडिभ, किणित, कडंब, दर्दर, दर्दरिका, कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिंगिसिका, लत्तिया, मगरिका, शिशुमारिका, वंश, वेणु, वाली, परिलि और बद्धक । वाद्यों की संख्या में मतभेद है। मूलपाठ में संख्या ४६ है और पाठानुसार संख्या ५६ है। इस पर टीकाकार ने इस भिन्नता का समन्वय किया है। आचारांग में किरिकिरिया वाद्य का वर्णन है", जो बांस आदि की लकड़ी से बना हुआ होता था। सूत्रकृतांग में 'कुक्कयय' और 'वेणुपलाशिय' बांसुरियों का वर्णन है, जो दांतों में बायें हाथ से पकड़कर वीणा की भांति दायें हाथ से बजाई जाती थी। भगवतीसूत्र की टीका में जीवाभिगम", जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति", निशीथसूत्र आदि में भी अनेक वाद्यों का उल्लेख है। बृहत्कल्पभाष्य में बारह वाद्यों का उल्लेख है।" रामायण" और महाभारत में भी मड्डक, पटह आदि वाद्य वर्णित हैं। भरत के नाट्यशास्त्र में, ततवाद्यों में, विपंची और चित्रा को मुख्य और कच्छपी एवं घोषका को उनका अंग माना है। चित्रवीणा की सात तंत्रिया थी, विपंची में नौ तंत्रिया थीं। ये क्रमशः हाथ और कोण से बजायी जाती थी।" संगीतदामोदर में तत के २६ प्रकार बताये हैं।" आयारचूला और निशीथ में तत के अन्तर्गत आठ वाद्य आते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्राचीन साहित्य में विविध वाद्यों की विविध एवं विस्तृत चर्चायें हैं। स्वाध्याय शिक्षा -- - 85 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब नाटक के संबंध में चर्चा की जा रही है। स्थानांग में चार प्रकार के नाट्यों का वर्णन मिलता है- अंचित, रिभित, आरभट, भसोला" इसी से मिलता-जुलता शब्द कर्ण भरतनाट्यशास्त्र में उपलब्ध होता है। कर्ण का अर्थ हैअंग और प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना। अंचित को तेईसवाँ कर्ण माना गया है।" राजप्रश्नीय में यह पच्चीसवाँ भेद माना गया है। रिभित के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। आरभट- माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्धांत प्रभृति चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बंधन आदि से उद्धत नाटक आरभटी है। साहित्यदर्पण में इसके चार प्रकार बताये गये हैं।" राजप्रश्नीय में आरभट को नाट्यभेद का अठारहवां प्रकार माना गया है। भसोल को राजप्रश्नीय में उनतीसवां प्रकार माना गया है। इन सबके अलावा राजप्रश्नीय सूत्र में बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि का उल्लेख मिलता है। सूर्याभदेव के द्वारा देवकुमारों और देवकुमारियों को नाट्यविधि के प्रदर्शन की आज्ञा दिये जाने पर वे भगवान महावीर तथा अन्य श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष बत्तीस नाट्य दिखलाते हैं। उत्तराध्ययन टीका में नाटकों का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पदासीन होने के समय नट मधुकरीगीति नामक नाट्यविधि प्रदर्शित करता है। सौधर्म इन्द्र के समक्ष सुधर्मा सभा में 'सौदामिनी' नाटक करने का भी उल्लेख वहाँ प्राप्त होता है।" नट स्त्री का वेश धारण करके नृत्य करते थे।" रास (रासपेक्खण) का भी उल्लेख मिलता है। _ निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि संगीतकला का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध है। जैन वाङ्मय में अनेक ध्वनियों एवं गायन शैलियों की चर्चा है। आज अपेक्षा है कि संस्कृति विभाग इस विषय पर ध्यान देकर अन्वेषण, शोध करे जिससे अनेक नये तथ्य उद्घाटित हों एवं आधुनिक संगीत में उन्हें जोड़कर उसे गौरवपूर्ण बनाया जा सके। संदर्भ 01. ज्ञातधर्मकथा 1, पृष्ठ 29, समवायांग पृ.77-अ, औपपातिक सूत्र 40, पृ.186, राजप्रश्नीय 211, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 2, पृ. 136 आदि। 02. खेल-खेल में (वट्टेहिं रमतेण) अक्षरज्ञान और गणित सिखाने का उल्लेख मिलता है। पृ.553 - आवश्यक चूर्णि 03. कामशास्त्र (1.3) में उल्लिखित 64 कलाओं और 72 कलाओं की तुलना- बेचरदास, भगवान महावीर नी धर्मकथाओं, पृ. 193 तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका (2 पृ.139) 04. संगीतरत्नाकर-1.21 स्वाध्याय शिक्षा 86 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 05. वही-1.24-25 06. उत्तराध्ययन टीका 13, पृ.185-अ 07. वही 6, पृ. 136 08. आवश्यकचूर्णि 2, पृ. 161 09. उत्तराध्ययन टीका 18, पृ. 253 10. स्थानांग 7, पृ. 372, अनुयोग द्वार पृ. 117 11. स्थानांग 7, पृ. 372-अ 12. वही 13. वही 14. वही 15. वही 16. वही 17. वही 4, पृ. 271-अ 18. यह बायें हाथ से पकड़कर दायें हाथ से बजाई जाती है- शांर्गधर-संगीत रत्नाकर 6,1237 19. देवालयों में बजाया जाने वाला मंगल एवं विजय सूचक वाद्ययंत्रा-वही 6,1146 20. गोपुच्छाकृति मृदंग जो एक सिरे पर चौड़ा और दूसरे पर संकड़ा होता है वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरित, पृ. 67 21. संगीतरत्नाकर, 1034 22. इसे आवाज अथवा स्कन्धावज भी कहा जाता है।-संगीतरत्नाकर 1075 23. संगीतरत्नाकर 1076 24. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पृ. 101 25. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र 64. पृ. 101 26. मूलभेदापेक्षया आतोद्यभेदा एकोनपंचाशत् शेषास्तु एतेषु एव । अन्तर्भवन्ति, यथा वंशातोद्यविधाने वालीवेणुपिरिलिबद्धगाः इति ।-राजप्रश्नीय सटीक,पृ.128 27. आचारांग 2.11, 391 पृ. 371 28. सूत्रकृतांग 4.2.7 29. भगवती सूत्र टीका-5.4, पृ. 216-अ 30. जीवाभिगम 3, पृ. 145-अ 31. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-2, पृ. 100-अ 32. निशीथ सूत्र 17.135-138 33. बृहत्कल्पभाष्यपीठिका-24 वृत्ति 34. रामायण-5.10.38 35. महाभारत-7.82.4 36. भरतनाट्य-33.15 37. वही-29.114 38. प्राचीन भारत के वाद्ययन्त्र-कल्याण (हिन्दूसस्कृति अंक) पृ. 721-722 स्वाध्याय शिक्षा 87 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. आयारचूला-11.2 40. निसीहज्झयणं 17.138 41. स्थानांग सूत्र 4.633 42. भारतीय संगीत का इतिहास पृ. 425 43. आप्टे डिक्शनरी में आरभट शब्द 44. साहित्य दर्पण 420 45. राजप्रश्नीय सूत्र 85-110, पृ. 52-59 46. उत्तराध्ययन टीका-13, पृ. 196 47. उत्तराध्ययन टीका-18, पृ. 240-अ 48. उत्तराध्ययन टीका-18, पृ. 250 49. उत्तराध्ययन टीका-18, पृ. 251 -सहायक आचार्य, जैनागम एवं प्राकृत विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं(राज.)341306 88 - स्वाध्याय शिक्षा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में अहिंसा श्री रतनलाल बाफना जैनागमों में अहिंसा का व्यापक प्रतिपादन हुआ है। अहिंसा जहाँ व्यक्तिगत जीवन को सुखी एवं शान्त बनाती है वहाँ जगत् के समस्त प्राणियों के जीवन एवं समानता का अधिकार सुरक्षित करती है। प्रेम एवं मैत्री का वातावरण अहिंसा के बिना संभव नहीं। आगमों में अहिंसा के पालन हेतु महाव्रत एवं अणुव्रत का विधान है। अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ के अध्यक्ष तथा सदाचार-शाकाहार एवं अहिंसा के प्रति सर्वतः समर्पितचेता श्री रतनलाल जी बाफना ने इस लेख में आगमों में उपलब्ध अहिंसा-विषयक कथनों का संकलन करते हुए अहिंसा के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया है। -सम्पादक दुनिया के प्रायः सभी धर्म-दर्शन अहिंसा को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार करते हैं। जैन धर्म-दर्शन का तो प्राण ही अहिंसा है। प्रत्येक आगम में अहिंसा की महत्ता व हिंसा के दुष्परिणामों का वर्णन स्थान-स्थान पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आज पूरे विश्व में हिंसा का ताण्डव नृत्य चल रहा है। आदमी पशु-प्राणियों को ही नहीं, आदमी को भी अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए कत्ल करते नहीं चूकता। कहा भी है *आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी, आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी। आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी, समझ कुछ आता नहीं, क्या कर रहा है आदमी।।" "आदमी अब जानवर की सरल परिभाषा बना है, ध्वंस करने विश्व को आज दुर्वासा बना है। क्या जरूरत राक्षसों की खून पीने आदमी का, आदमी ही आदमी के खून का प्यासा बना है।।" प्राणिमात्र की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि राम, कृष्ण और महावीर की पावन भूमि पर लाखों प्राणी प्रतिदिन मौत के घाट उतार दिये जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि इस देश में राजा मेघरथ ने एक प्राणी के प्राण बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने की तैयारी कर ली। धर्मरुचि अणगार ने नन्हें-नन्हें कीड़े-मकोड़ों की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण कर लिया, उसी पवित्र वसुन्धरा पर २५ लाख मुर्गे, ३ लाख बकरे व २५ हजार गो वंश का रोजाना खून बहाया जाता है। इन मूक, असहाय, बेजुबान प्राणियों की स्वाध्याय शिक्षा 89 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करुण पुकार किसी राजनेता के दिल तक नहीं पहुँचती । न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न लोकसभा, न विधानसभा, न यह पक्ष, न वह पक्ष, कोई नहीं सुन रहा इन पशुओं की पत्थर तक को पिघलाने वाली करुण पुकार को। अगर किसी अर्थाभाव से ग्रसित को यह कह दिया जाय कि पांच लाख देकर अपनी आंख दे दे, तो दुनिया का एक भी व्यक्ति आगे नहीं आयेगा । फिर क्यों विश्व के ६० प्रतिशत लोग इन प्राणियों का भक्षण कर रहे हैं। आँख, नाक और मुँह ही नहीं पूरे प्राणी को नष्ट किये जा रहे हैं। जबकि प्रकृति ने हजारों पदार्थ पेट भरने के लिए दिये हैं। बिना आवश्यकता के धरती माता के इन सपूतों का प्राण हरण किसी दिन कोई अनपेक्षित उपद्रव का सर्जन कर दे तो आश्चर्य की बात नहीं। हमारी आवाज के एक-एक बोल पूरे विश्व में परिभ्रमण करते हैं, तो क्या इन मूक प्राणियों की चीत्कार, करुण क्रंदन पूरे ब्रह्माण्ड को प्रभावित नहीं करेगा? प्रकृति समय-समय पर हमारे इस दुष्कृत्य का बदला लेती है। कच्छ का भूकम्प हो या लातूर उस्मानाबाद का धरती कंप, आन्ध्र का तूफान हो या बाढ़ पीड़ित प्रदेश हो, प्रकृति अपने सपूतों के रक्तपात का हिसाब रखती है। जिस तरह पानी व हवा जैसी जीवन में आवश्यक वस्तुएं हमें प्रकृति से प्राप्त हुई है उसी तरह जानवर मनुष्य के सदुपयोग व पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रकृति से प्राप्त हुए हैं। मनुष्य ने अपनी बुद्धि का विपरीत प्रयोग कर विनाश का सृजन किया। घास फूस खाकर अमृत तुल्य दूध देने वाले इन निष्पाप जीवों को मौत के घाट उतारना शुरू किया। जैन शास्त्रों में इन प्राणियों की हत्या को अपराध या पाप बताया गया है। जगह-जगह जैन आगमों में इसका वर्णन देखने को मिलता है। पंचेन्द्रिय जीवों की घात करने वाले को नरकगामी बताया गया है। बहुत दुःख है इस बात का कि, सदियों से यह पापकृत्य चला आ रहा है। अपराधी को दण्ड देने की प्रथा तो शुरू से चली आयी है । परन्तु निरपराधों को फांसी देकर, भूनकर पापी पेट की पूर्ति करने की यह क्रूरप्रथा बन्द करने के लिये भागीरथ प्रयासों की आवश्यकता है। क्योंकि यह उचित नहीं कि हम अपना पेट भरने के लिए किसी का पेट काट दें। अमृत तुल्य दूध पिलाने वाले इन परोपकारी प्राणियों को मौत के घाट उतार दें। विश्व के इतिहास की यह सबसे बड़ी दुर्घटना है। इसका सभी अहिंसा-प्रेमियों को डटकर प्रचार-प्रसार विज्ञान का सहारा लेकर करना चाहिए । यांत्रिक कत्लखाने, मांसाहार का प्रचार-प्रसार तथा हिंसा के खौफनाक तरीके जिस द्रुत गति से बढ़ रहे हैं उन्हें ब्रेक लगाने के लिए सभी जाति-धर्म के लोगों को, जो स्वाध्याय शिक्षा 90 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा में विश्वास रखते हैं संकल्प लेकर प्रयत्न करने चाहिये। जैनागमों में स्थान-स्थान पर अहिंसा भगवती की आराधना का महत्त्व स्पष्ट किया गया है, जिसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं " धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो ।। " - दशवैकालिक 1.1 अहिंसा, संयम और तप यही वास्तविक धर्म है। " सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । " - दशवैकालिक 6.11 विश्व के सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । " सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला । " - आचारांग सूत्र 1.2.3 सबको सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है। "जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग्गं जिणसासणयं । । " - बृहत्कल्पभाष्य4.5.8.4 जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिनशासन के कथनों का सार है। "जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणे वा न हणे नोवि घायए ।। - दशवैकालिक इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा न जानबूझ कर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ। क्योंकि सबके भीतर एक सी आत्मा है। 'अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियाउए । न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए । । " - उत्तराध्ययन 8.10 हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं, ऐसा मान कर भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। "सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए । तं वाऽणुजाणारं वड्ढइ अप्पणो ।। " -सूत्रकृतांग 1.1.1.3 जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है। अतः प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो जैसाकि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो । सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए। " अहिंसा - गहणे पंच महव्वयाणि गहियाणि भवति । संजो पुण ती चेव अहिंसाए उवग्गहे वट्टई । संपूण्णाय अहिंसाय संजमो वि तस्स वट्टई । । - दशवैकालिक चूर्णि अ. 1 अहिंसा महाव्रत को ठीक से ग्रहण करने पर पाँचों महाव्रत ग्रहण हो जाते हैं। अहिंसा के होने पर ही संयम होता है। जो अहिंसा में परिपूर्ण है उसी के संयम स्वाध्याय शिक्षा 91 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। "जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । संति सिं पट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा ।। " - सूत्रकृतांग, श्रु1, अ. 11, गा.36 जो बुद्ध (केवलज्ञानी) अतीत में हो चुके हैं और जो बुद्ध भविष्य में होंगे, उन सबका आधार (प्रतिष्ठान ) शान्ति ही ( कषाय मुक्ति या मोक्ष रूप भाव मार्ग) है, जैसे कि प्राणियों का जगती (पृथ्वी) आधार है। "मित्ती मे सव्वभूएस, वेरं मज्झं न केणई ।। " - आवश्यक सूत्र विश्व के सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, मेरा किसी के साथ कुछ भी वैर नहीं है। " सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सब्वे सत्ता । न हंतव्वा, न अज्जावेयब्वा न परिघेतव्वा, न उद्दवेयव्वा - एस धम्मे सुद्धे निच्चे सासए । । - आचारांग सूत्र सभी प्राणों को, सभी भूतों को, सभी जीवों को तथा सभी सत्त्वों को न तो मारना चाहिए, न पीड़ित करना चाहिए, न उनको घात करने की बुद्धि से स्पर्श करना चाहिए और न ही उन्हें अशान्त बनाना चाहिए । यही धर्म, शुद्ध, शाश्वत और नित्य है। “सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाइं पासओ । पिंहियासवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधई । । " - दशवैकालिक 4.9 जो व्यक्ति सर्वभूतात्मभूत है, सब प्राणियों को अपने हृदय में बसा कर विश्वात्मा बन गया है, संवरनिष्ठ उसे विश्व का कोई भी पाप कभी स्पर्श नहीं कर सकता । 92 "एगे आया । " - ठाणांग सूत्र 1.1 विश्व की सभी आत्माएँ एक हैं। "अप्पत्समे मन्निज्ज छप्पिकाए। " - दशवैकालिक सूत्र 10.5 विश्व के समग्र जीवनिकाय को अपनी आत्मा के समान समझो। 'आयतुले पयासु । ” - सूत्रकृतांग सूत्र 1.10.3 c " प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझो। "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।। " - तत्त्वार्थ सूत्र 7.43 प्रमादपूर्वक, रागद्वेष की वृत्ति से किसी के प्राणों का नाश हिंसा है। " एयं खु नाणिणो सारं जं न हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चैव एतावंतं वियाणिया ।।”–सूत्रकृतांग उद्दे. 4 ज्ञानी जीवन का यही सार है कि वह किसी की भी हिंसा न करे । अहिंसा का सिद्धान्त इतना ही समझना चाहिए। " सव्वे अक्कंतदुक्खा य अत्तो सव्वे ण हिंस्सिया । " - सूत्रकृतांग उद्दे. 9 स्वाध्याय शिक्षा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है। अतः किसी भी जीव की हिंसा न करो। "जइ मज्झ कारणा एए, हम्मति सुबहू जीवा। न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई।।"-उत्तराध्ययन 22 भगवान अरिष्टनेमी कहते हैं- यदि ये पशु मेरे विवाह निमित्त काटे जाते हैं तो यह हिंसाकारी कार्य मेरे परलोक के लिए कल्याणकारी नहीं होगा। "बहुजणस्सणेयारे, दिवं ताणं च पाणिणं। । एयारिसं नरहन्ता,महामोहे पकुम्बइ।।"-दशाश्रुतस्कन्ध 9.17 जो जनता का नेता है और जो दुःखीजनों के लिए द्वीप के समान रक्षक है, ऐसे व्यक्ति का घात करने वाला जीव महामोहनीय कर्म बांधता है। -अध्यक्षा, अभा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ 'नयनतारा' सुभाष चौक, जलगांव (महा.) स्वाध्याय शिक्षा 93 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध डॉ. राजकुमारी जैन मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान सभी संसारी सम्यग्दृष्टि जीवों में तथा मतिअज्ञान एवं श्रुतअज्ञान सभी मिथ्यादृष्टि जीवों में पाये जाते हैं। प्रायः श्रुतज्ञान के स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह मतिज्ञानपूर्वक होता है। लेखिका ने नन्दीसूत्र, विशेषावश्यक भाष्य आदि के आधार पर सिद्ध किया है कि कभी मतिज्ञान भी श्रुतज्ञानपूर्वक होता है। -सम्पादक जैन दर्शन के अनुसार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सद्भाव समस्त संसारी प्राणियों में होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों, विशेष रूप से मानव में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। एक ओर तो जैन आचार्यों द्वारा श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता का प्रतिपादन किया गया है तो दूसरी ओर नन्दीसूत्र, विशेषावश्यक भाष्य आदि आगम ग्रन्थों में मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित भेद भी किये गये हैं। यहाँ हम पहले मतिज्ञान के स्वरूप तथा फिर मति - श्रुतज्ञान के पारस्परिक संबंध की विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं। मतिज्ञान का स्वरूप जैन दार्शनिकों के अनुसार इन्द्रिय और मन द्वारा विषय के साक्षात्कार से उत्पन्न ज्ञान को मतिज्ञान कहा जाता है । इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के उपरान्त चेतना की निर्विकल्पक स्थिति को "दर्शन" तथा इसके पश्चात् उत्पन्न होने वाला निश्चयात्मक बोध ही “ज्ञान” कहलाता है । इन्द्रियों के द्वारा वस्तु का स्वरूप द्वितीय क्षण में ही स्पष्टतया ज्ञात नहीं हो जाता । इन्द्रिय प्रत्यक्ष कई क्षणों तक निरन्तर चलती रहने वाली प्रक्रिया है, जिसमें वस्तु का स्वरूप क्रमशः अस्पष्ट रूप से ज्ञात होते हुए स्पष्ट होता है। पूज्यपाद मतिज्ञान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "इन्द्रिय तथा मन के माध्यम से यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है तथा मनन करना मात्र मतिज्ञान है।"" हरिभद्र कहते हैं- " मनन करना, अर्थात् वस्तु के स्थूल धर्मों को जानते हुए सूक्ष्म धर्मों का आलोचन करने वाली बुद्धि मति है।”” उमास्वामी के अनुसार इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्धादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणा रूप से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। 723 अकलंक मतिज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- विषय - विषयी का सन्निधान होने पर वस्तु का दर्शन होता है। इसके उपरान्त होने वाले पदार्थ का आद्य ग्रहण 'अवग्रह' कहलाता है । अवगृहीत अर्थ के विशेष स्वरूप को जानने की Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकांक्षा 'ईहा' हैं। जैसे 'यह पुरुष है' ऐसा आद्य ग्रहण होने पर पुनः उसकी भाषा, उम्र, रूपादि विशेष स्वरूप को जानने की आकांक्षा ईहा कहलाती है। भाषादि विशेषताओं के द्वारा वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चय 'अवाय' है। जैसे यह दक्षिणी है, युवा है, गौरवर्ण है इत्यादि। निश्चित विशेषस्वरूप की कालान्तर में स्मृति के कारण को "धारणा" कहा जाता है। जिनभद्रगणि ने अवग्रह की अवस्था को ज्ञान न मानकर दर्शन कहा है तथा उसे पूर्णतया सामान्यमात्रग्राही माना है। उनके अनुसार अवग्रह में वस्तु का सभी विशेषताओं से रहित पूर्णरूपेण सामान्य ग्रहण होता है। अवगृहीत अर्थ के विशेष स्वरूप को जानने के लिये ईहा होती है, जिसके फलस्वरूप अवाय में ही वस्तु के विशेष स्वरूप का ग्रहण होता है। उदाहरण के लिये सर्वप्रथम जिस शब्द का प्रतिभास होता है, उसमें इस निश्चय का अभाव होता है कि "यह शब्द है, अशब्द नहीं" यह स्थिति अवग्रह है। अवगृहीत अर्थ के प्रति “यह शब्द है या अशब्द" इस प्रकार की जिज्ञासा ईहा है। इसके पश्चात् उत्पन्न होने वाला अवाय "यह शब्द ही है" वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चयात्मक बोध है। यदि अवग्रह को ही वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चायक मान लिया जाय तो सभी ज्ञान अवग्रह ही हो जायेंगे तथा अवाय की सत्ता ही नहीं रहेगी। अकलंक ने अवग्रह को निश्चयात्मक माना है तथा उनके परवर्ती अधिकांश जैन दार्शनिक इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वादिदेव कहते हैं कि दर्शन और अवग्रह में भेद है क्योंकि इनके कारण भिन्न-भिन्न हैं। जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु रूप भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट और पट भिन्न-भिन्न हैं उसी प्रकार दर्शनावरणीय और अवग्रहज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम रूप भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन और अवग्रह में भेद है।' दर्शन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में होने वाला संज्ञामात्र का अवलोकन है। इस स्तर पर किसी भी प्रकार के निश्चय का पूर्ण अभाव होता है। अवग्रह की उत्पत्ति दर्शन के पश्चात् होती है तथा यह मनुष्यत्व आदि अवान्तर जाति के निश्चयपूर्वक 'यह मनुष्य है' रूप निश्चयात्मक ज्ञान है। वास्तव में यदि अवग्रह में वस्तु की किसी भी विशेषता का किंचित् भी ज्ञान नहीं हो तो उसके प्रति किसी भी प्रकार का संशय तथा उस संशय की निवृत्ति हेतु अन्वेषण-ईहा नहीं हो सकती। संशय की उत्पत्ति वस्तु की सामान्य-व्यापक धर्मों के ज्ञात होने पर तथा विशेष व्याप्य धर्मों के ज्ञात नहीं होने पर होती है। इस संशय के निराकरण के लिये ईहा होती है . स्वाध्याय शिक्षा * - 95 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसका परिणाम वस्तु के अस्वरूप के निराकरण पूर्वक स्वरूप का निश्चय अवाय है। यदि अवग्रह में वस्तु की किसी भी विशेषता का किंचित् भी ज्ञान नहीं हुआ हो तो वह पूर्णतया अज्ञात होगी तथा अज्ञात वस्तु के प्रति किसी भी प्रकार का संशय, ईहादि संभव नहीं है। श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता अकलंक श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता तथा मानसिकता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इन्द्रिय तथा मन का अवलम्बन लेकर पहले जाने गये पदार्थ में मन की प्रधानता से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। ईहादि के मन निमित्तक होने के कारण श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनका विषय अवगृहीत पदार्थ ही होता है, जबकि श्रुतज्ञान नवीनता लिये हुए होता है। एक घट को इन्द्रिय तथा मन के द्वारा "यह घट है", इस प्रकार निश्चित करने के उपरान्त जो पहले नहीं जाने गये तज्जातीय तथा देशकालादि की दृष्टि से विलक्षण अनेक घटों को जानता है वह श्रुतज्ञान है, अथवा एक अर्थ का अनेक प्रकार से प्ररूपण करना श्रुतज्ञान है, इन्द्रिय और मन के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानकर उनका सत्, संख्या, क्षेत्र, अन्तर, काल, अल्पबहुत्वादि अनेक प्रकार से प्ररूपण करना श्रुतज्ञान है अथवा श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन द्वारा गृहीत अगृहीत पर्याय वाले शब्द और उनके वाच्यार्थ जीवादि को श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार के बिना विभिन्न नयों के द्वारा जानता है।' श्रुतज्ञान श्रुतपूर्वक भी होता है, लेकिन परम्परागत रूप से वह भी मतिज्ञान पर आधारित है। अकलंक कहते हैं कि 'घट' शब्द को सुनकर पहले घट अर्थ का ज्ञान तथा उस श्रुतज्ञान से जलधारणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान होता है वह श्रुतपूर्वक श्रुतज्ञान है। यहाँ प्रथम श्रुतज्ञान के मतिपूर्वक होने से द्वितीय श्रुतज्ञान में भी मतिपूर्वकत्व का उपचार कर लिया जाता है, अथवा पूर्व शब्द व्यवहित पूर्व को भी कहता है, तथा साक्षात् या परम्परया मतिपूर्वक उत्पन्न होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का आधार है। वही पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय हो सकता है जिसे पहले मतिज्ञान द्वारा जान लिया गया है। कभी कोई ऐसा पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय नहीं हो सकता जो व्यक्ति की मतिज्ञान की सीमा से पूर्णरूपेण परे हो। इन दोनों में कार्य-कारण संबंध है तथा मतिज्ञान के अभाव में, मतिज्ञान की व्यापकता के अभाव में श्रुतज्ञान की सत्ता और व्यापकता असंभव है। उमास्वाति कृत सूत्र “श्रुतं मतिपूर्वम्" का अर्थ स्पष्ट करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि जिसके द्वारा कार्य को 96 - स्वाध्याय शिक्षा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त किया जाता है, पूरित किया जाता है वह कारण उस कार्य का पूर्व कहलाता है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जाता है तथा मतिज्ञान की स्पष्टता के अभाव में श्रुतज्ञान का उत्तरोत्तर विकास दृष्टिगोचर नहीं होता। जिसके उत्कर्ष-अपकर्ष पर जिसका उत्कर्ष-अपकर्ष आश्रित हो वह उसका कारण कहलाता है तथा कार्य तत्पूर्वक होता है। जिस प्रकार घट मृत्तिकापूर्वक होता है, अतः उसकी उत्कृष्टता-अपकृष्टता मृत्तिका की उत्कृष्टता-अपकृष्टता पर निर्भर करती है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान की उत्कृष्टता-अपकृष्टता के मतिज्ञान की उत्कृष्टता-अपकृष्टता पर आश्रित होने के कारण श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है।" श्रुतनिश्रित मतिज्ञान और अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान _मनरहित जीवों में श्रुतज्ञान ही मतिज्ञान पर आश्रित होता है, जबकि समनस्क प्राणियों, विशेष रूप से मनुष्यों में मतिज्ञान भी श्रुतज्ञान पर आश्रित होता है। तत्त्वार्थ सूत्र में श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक कहा गया है।" इसे स्वीकार करने के साथ ही साथ नन्दीसूत्र," विशेषावश्यक भाष्य" आदि में मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित ये दो भेद किये गये हैं। श्रुतनिश्रित का अर्थ स्पष्ट करते हुए अभयदेव कहते हैं कि जो श्रुत के द्वारा निष्पन्न हो, श्रुत पर आश्रित हो वह श्रुतनिश्रित है। जो अवग्रहादि श्रुतज्ञान पूर्वक ही अथवा उसकी सहायता से ही अथवा उसकी अपेक्षा पूर्वक ही विषय को जानते हैं वे श्रुतनिश्रित मतिज्ञान हैं। श्रोत्रादि इन्द्रियों से उत्पन्न अथवा औत्पत्तिकी आदि बुद्धिरूप से उत्पन्न जो मतिज्ञान पूर्णरूपेण क्षयोपशमजन्य होते हैं तथा जिनमें श्रुतज्ञान का कोई योगदान नहीं होता, वे अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान है। पूर्ववर्ती मतिज्ञान श्रुतज्ञान द्वारा परिकर्मित है तथा परवर्ती मतिज्ञान श्रुतातीत संज्ञी पंचेन्द्रिय, विशेषकर मानवीय संदर्भ में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परस्पर कारण-कार्य रूप से संबंधित हैं। श्रुतज्ञान की उत्पत्ति मतिज्ञान पूर्वक तथा मतिज्ञान का विकास श्रुतज्ञान पूर्वक होता है। किसी व्यक्ति के कथनों का आशय हम हमारे अनुभवों का अवलम्बन लेकर ही समझ सकते हैं तथा शब्दप्रमाण के द्वारा हम वस्तु के नये पक्षों को पहचानना सीखते हैं। मतिश्रुतज्ञान की इस परस्पराश्रितता के सिद्धान्त में अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, अपितु ये बीजांकुर न्याय से एक-दूसरे को विकसित करते हैं। मतिज्ञान प्राथमिक होता है तथा उसी के धरातल पर श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। यह प्रारम्भिक स्तर पर अश्रुतनिश्रित ही होता है। यह बहुत छोटा बच्चा स्वाध्याय शिक्षा - 97 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप, रसादि की संवेदनाएं प्राप्त करता हुआ धीरे-धीरे उनके विशिष्ट स्वरूप को पहचानना सीखता है। इस स्तर पर मतिज्ञान का कारण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम एवं पूर्वानुभव के संस्कार होते हैं। मतिज्ञान का यह विकास बहुत ही स्थूल होता है तथा उसमें स्पष्टता एवं व्यापकता श्रुतज्ञानपूर्वक ही आती है। एक बच्चे को विभिन्न सम्प्रत्यय समाज में रहते हुए अन्य व्यक्तियों के व्यवहार के निरीक्षण तथा प्रशिक्षण पूर्वक प्राप्त होते हैं। उसे अन्य व्यक्तियों द्वारा विभिन्न वस्तुओं को पहचानना सिखाया जाता है तथा इस प्रकार वह वस्तु को विशिष्ट और अधिक विशिष्ट स्वरूप में पहचानना सीखता है। उदाहरण के लिये एक बच्चे को एक इन्द्रिय विशेष से सन्निकृष्ट पदार्थ के रूप, आकारादि का मतिज्ञान अश्रुतनिश्रित रूप से होता है, लेकिन "यह वृक्ष है", "नीम का वृक्ष है" आदि रूप से वस्तु का प्रत्यक्ष करना परोपदेशपूर्वक ही सीखता है। किसी क्षेत्र विशेष में जैसे रोगी का प्रत्यक्ष करते समय अथवा किसी कलाकृति का प्रत्यक्ष करते समय एक सामान्य व्यक्ति और एक विशेषज्ञ के प्रत्यक्ष में व्यापक अन्तर होता है जिसका कारण व्यक्ति के आवरण कर्मों के क्षयोपशम में अन्तर के साथ ही साथ उनकी शिक्षा का अन्तर भी है। यदि किसी बच्चे का पालन-पोषण मानवीय समाज से दूर रख कर किया जाय अथवा उसकी शिक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाय तो उसके मतिज्ञान का विकास असंभव है। यद्यपि व्यक्ति के मतिज्ञान के विकास में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है तथापि उसका समस्त ज्ञान प्रशिक्षणजन्य नहीं होता। उसमें बहुत से ज्ञान की क्षमता निरन्तर किसी कार्य को करते हुए अथवा गुरुजनों की विनय, सेवा आदि से उत्पन्न होती है तथा शिक्षा द्वारा यह क्षमता उत्पन्न नहीं की जा सकती। इस प्रकार के मतिज्ञान के चार भेद हैं- औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि। किसी परिस्थति विशेष में जो बुद्धि विशेष क्षयोपशम होने पर स्वतः उत्पन्न हो तथा शास्त्राभ्यास, किसी क्रिया के निरन्तर सम्पादन आदि की अपेक्षा से रहित हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहा जाता है। किसी विषय में जो योग्यता गुरु की विनय, सेवा आदि से उत्पन्न होती है, उसे वैनयिकी बुद्धि कहा जाता है। जो कार्य गुरु के उपदेश बिना किये जाते हैं, उन्हें कर्म तथा जिन कार्यों के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उन्हें शिल्प कहा जाता है। कर्म नित्य तथा शिल्प कादाचित्क होते हैं। इनके निरन्तर अभ्यास पूर्वक जो इनके प्रति नवीन ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे कर्मजा बुद्धि कहा जाता है। निरन्तर गमन करना परिणाम है। सुदीर्घ काल तक निरन्तर आलोचनात्मक जो विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है अथवा एक अनुभवी व्यक्ति की स्वाध्याय शिक्षा 98 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय के प्रति विशिष्ट समझ पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है। इस प्रकार की क्षमता व्यक्ति में परोपदेशपूर्वक उत्पन्न नहीं की जा सकती, इसलिये इन्हें अश्रुतनिश्रित कहा जाता है। श्रुतनिश्रित तथा अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान दोनों ही क्षयोपशम जन्य होते हैं, लेकिन श्रुतनिश्रित मतिज्ञान की उत्पत्ति क्षयोपशम का सद्भाव होने पर भी परोपदेशपूर्वक होती है, जबकि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान परोपदेश निरपेक्ष होता है। मानवीय ज्ञान के क्षेत्र में मतिज्ञान आधारभूत स्थान रखता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान आदि सभी मतिज्ञान के अवलम्बन पूर्वक ही उत्पन्न होते हैं। मानवीय ज्ञान के संदर्भ में आधारभूत स्थान रखने वाला मतिज्ञान स्वयं शिक्षा, परोपदेश आदि द्वारा अर्जित श्रुतज्ञान से परिष्कृत किया जा सकता है। इस प्रकार जैन आचार्यों के अनुसार मतिश्रुतज्ञान परस्पर 'बीजांकुर न्याय के अनुसार कारण-कार्यभाव से संबंधित है। संदर्भ 01. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 93 02. नन्दीसूत्र हरिभद्रसूरि वृत्ति, पृ. 58 03. अवग्रहहावायधारणाः- तत्त्वार्थसूत्र 1/15 ____04. तत्त्वार्थवार्तिक, पृ.60 05. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा-251-255 06. लघीयस्त्रय 1/5 तथा उस पर स्ववृत्ति 07. किं च यथा मृत्तन्तुकारणभेदाद्घटपटलक्षणकार्यभेदस्तथा दर्शन-ज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात्तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इत्यस्ति प्रागवग्रहाद्दर्शनम्। -स्याद्वाद रत्नाकर, पृ. 348 08. वही, पृष्ठ 347 09. तत्त्वार्थवार्तिक पृ. 48-49 10. तत्त्वार्थवार्तिक पृ. 315 11. पूर्यते प्राप्यते च येन कार्य तत् पूर्वं ऊणादिको वक् प्रत्ययः कारणमित्यर्थः । मतिः पूर्वम् यस्य तत् मतिपूर्व श्रुतम् श्रुतज्ञानं तथाह, मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतेन खलु मतिपाटवविभवमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति तत्तु तथादर्शनात यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशात् उत्कर्षापकर्षभाक् न तस्य कारणं यथा घटस्य मृपिण्डः | मत्युत्कर्षापकर्षवशात् श्रुतस्योत्कर्षापकर्षों तत कारणं मतिः श्रुतज्ञानस्य। -नन्दीसूत्र मलयगिरि वृत्ति, पृ. 263-264 12. तत्त्वार्थ सूत्र 1/20 13. नन्दीसूत्र 46 14. विशेषावश्यक भाष्य, पृ. 96 15. स्थानांग सूत्र भाग-1, पृ. 50 16. नन्दीसूत्र, हरिभद्रसूरिवृत्ति, पृ. 47-48 -व्याख्याता, दर्शनशास्त्र, राजकीय महाविद्यालय, अजमेर स्वाध्याय शिक्षा 99 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम का महत्त्व पाश्चात्त्य जगत के महामनीषी डॉ. हरमन जेकोबी, डॉ. शुब्रिग जिन्होंने वर्षों तक जैन आगमों का गहराई से अनुशीलन और परिशीलन किया और उसके पश्चात् उन्होंने ये विचार व्यक्त किये कि अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त व सर्वधर्म समन्वय के चिन्तन से ओतप्रोत आध्यात्मिक जीवन को आलोक प्रदान करने वाला यदि कोई साहित्य है तो वह जैनागम है। -आचार्य देवेन्द्र मुनि जिस प्रकार पर्वतीय निर्झर निईरित होते हुए सरिता का स्वरूप धारण कर जनजीवन के लिए उपयोगी बनकर उसकी तृषा को शान्त करता है, उसी प्रकार जिनवाणी की गंगा मानव जीवन में आत्मचेतना एवं जागृति पैदा कर ज्ञान तृषा को बुझाती है। -श्री गणेश मुनि शास्त्री साधक के लिए आगम का बहुत बड़ा महत्त्व है। भौतिक शरीर में जो स्थान नेत्रों का होता है, साधक जीवन में वही स्थान आगम का है। इसलिए कहा भी है'आगमचक्खू साहू'। जिसका यह तृतीय नेत्र उद्घाटित हो जाता है वह पारदृश्टवा बन जाता है। -संघशास्ता मुनिश्री रामकृष्ण जी महाराज साधक को जब भी अवकाश मिले, वह सूत्र और अर्थ के चिन्तन की गहराई में अवगाहना करें। ज्ञान पारावार है। स्वयंभूरमण की तरह विशाल है । इसमें कितने रत्न छिपे पड़े हैं, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके भीतर छिपी सम्पदा को तो कोई निर्भय गोताखोर ही पा सकता है। -अध्यात्मयोगी आ. श्री चन्दनमुनि "मुत्तूण दिट्ठिवायं कालिय-उक्कालियंगसिद्धंतं। थी-बाल-वायणत्थं पाइयमुइयं जिणवरेहि।। दृष्टिवाद को छोड़कर शेष कालिक-उत्कालिक, अंग-सिद्धान्त साहित्य का बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सब सरलता से वाचन एवं अध्ययन कर सके, इसलिए तीर्थंकरों ने श्रुत साहित्य का उपदेश प्राकृत भाषा में दिया। 100 स्वाध्याय शिक्षा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों में शिक्षार्थी का स्वरूप डॉ. राजीव प्रचण्डिया एम.ए.संस्कृत, बी-एस.सी., एल-एल.बी., पी-एच.डी. शिक्षा ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख साधन है। जैनागमों में शिक्षा-प्राप्ति को लेकर गहन विचार मिलते हैं। शिक्षा के साधक एवं बाधक कारणों का कथन करने के साथ विनयभाव पर बल दिया गया है। इन्द्रिय निग्रह भी आवश्यक माना गया है। डॉ. प्रचण्डिया ने आगम-वाङ्मय के आधार पर शिक्षार्थी की विशेषताओं का इस आलेख में निरूपण किया है। -सम्पादक वैज्ञानिक और क्रमबद्ध ढंग से जीव और जगत् का, लोक और अलोक का, ज्ञान और विज्ञान का, आत्मा और परमात्मा का, जैन आचार और विचार का, जैन धर्म-दर्शन और संस्कृति आदि का निदर्शन जिस शास्त्र में हो, वह शास्त्र वस्तुतः जैनागम कहलाता है। जैनागम जैनधर्म के उन्नायक तीर्थकरों की आत्म साधना का नवनीत है। विशेषावश्यक भाष्य की गाथा ५५६ में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है कि जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुत ज्ञान कहलाता है। लोकालोक में प्राणवन्त जीवधारियों के कल्याणार्थ-मंगलार्थ तीर्थंकरों की देशना से बढ़कर और कौनसी सही और सार्थक शिक्षा होगी, जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय मुखरित हो ? संभवतः कोई नहीं। यद्यपि जैनागमों का कैनवास विपुल है तथापि उसमें मुख्यरूपेण जीवन जीने की कला के साथ-साथ मरने की कला का अर्थात् जन्म, जीवन और मरण की सार्थकता का प्रामाणिक रूप से निरूपण हुआ है जिसके कारण जैनागम सार्वभौमिक व सार्वकलिक कहे गए हैं। जिन जैनागमों में शिक्षा के रूप-स्वरूप पर विस्तार पूर्वक विवेचन-विश्लेषण हुआ है, उनमें प्रमुख हैं-आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, भगवती सूत्र, अन्तकृतदशांग सूत्र, स्थानांग सूत्र, समवायांग सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र आदि। प्रस्तुत आलेख में जैनागमों में शिक्षा का रूप और शिक्षार्थी का स्वरूप पर संक्षेप में चर्चा करना हमें ईप्सित है। शिक्षा शब्द 'शिक्ष्' धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना। प्रश्न है क्या सीखा जाए? अधिकांशतः यह कहा सुना जाता है कि अज्ञान की अपेक्षा ज्ञान का सीखना होता है। पर, ज्ञान तो प्रत्येक आत्मा में विद्यमान रहता है। यह आत्मा का स्वाभाविक गुण है, फिर उसका सीखना कैसा? जैनागम में आत्मा और ज्ञान के संदर्भ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कहा गया है कि जिस प्रकार अगाध जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरपूर है, उसी प्रकार बहुश्रुत आत्मा अक्षय ज्ञान गुण से परिपूर्ण होता है। यथा "जहा से संयभूरमणे, उदही अक्ख-ओदए। नाणारयणपडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए।।" -उत्तराध्ययनसूत्र 11.30 वास्तव में ज्ञान आत्मा का ही एक गुण है। अस्तु वह आत्मा से कभी भिन्न हो ही नहीं सकता। जो ज्ञान आत्मा में प्रच्छन्न है, अज्ञान के अनेक आवरणों से आच्छादित है, उन आवरणों को हटाने की प्रक्रिया का नाम सीखना है, शिक्षा है। जीवन का सार है प्रगति और प्रगति का आधार है ज्ञान। यह ज्ञान क्रिया से भी अन्यतम रूप में इसीलिए जुड़ा रहता है और अनुभव यह कहता है कि क्रिया में ही ज्ञान का यथार्थ स्वरूप प्रकट होता है। सम्यक् क्रियापरक ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान होता है, यही मोक्ष का आधार है और इसी के द्वारा 'स्व' और 'पर' का कल्याण होता है। इस प्रकार ज्ञान के आवरणों को हटाना जहां शिक्षा है, वहीं उसका दूसरा पहलू मोक्ष है। ... अज्ञान आवरणों को हटाने के लिए जैनागम में स्वाध्याय पर विशेष बल दिया गया है। सतत स्वाध्याय से साधक में ज्ञान का दीप सदा प्रज्वलित रहता है और अज्ञान के घेरे समाप्त होते हैं, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन १६ की गाथा २४ में कहा गया है कि ज्ञान की आराधना करने से जीव अज्ञान का क्षय करता है। यथा ___ "सुयस्स आराहणयाए णं अन्नाणं खवेइ।" अज्ञान का पर्दा जब हट जाता है तब मनुष्य के सभी दुःखों का कारण समाप्त हो जाता है और मनुष्य दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति पा लेता है। यथा "सज्झाए वा निउत्तेणं। सव्वदुक्खादिमोक्खाणे।।'' -उत्तराध्ययन सूत्र अ.26 गाथांक 10 जैनागमानुसार स्वाध्याय का अर्थ केवल शब्द ज्ञान नहीं है, प्रत्यत उसका अभिप्राय है- अर्थ समझ कर पठन-पाठन। स्वाध्याय का जो मुख्य प्रयोजन है, वह है मनुष्य अपनी सारी चित्तवृत्तियों को 'पर' से हटाकर 'स्व' पर केन्द्रित करे, जिससे 'स्व' का स्वरूप उजागर हो सके। जिसमें 'स्व' जग जाता है उसका स्वाध्याय सार्थक होता है, शिक्षा भी पूर्ण होती है। शिक्षार्जन का तात्पर्य है जीवन की समस्याओं का 102 स्वाध्याय शिक्षा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्विकार रूप से निराकरण कर सकने में समर्थ होना। क्योंकि जीवन एक पहेली है, जो इस पहेली को सहज सुलझा लेता है, सही अर्थों में वह शिक्षा के मर्म को समझ लेता है। निरन्तर और नियमित स्वाध्याय से एक ओर जहां पदार्थ का बोध होता है वहीं दूसरी ओर भेद-विज्ञानात्मक दृष्टि भी विकसित होती है अर्थात् स्वाध्याय रत साधक में पदार्थ के बोध होने पर क्या हेय है और क्या उपादेय है, यह सोच समझ प्रभूतता के साथ प्रतिबिम्बित हो उठती है। जैनागमान्तर्गत आचारांग सूत्र में स्वाध्यायी की इस बोधात्मक स्थिति को ज्ञ-परिज्ञा तथा भेद विज्ञानात्मक दृष्टि को प्रत्याख्यान-परिज्ञा कहा गया है। ज्ञ-परिज्ञा की स्थिति में स्वाध्यायी ज्ञान ग्रहण करता है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा में स्वाध्यायी साधक बन जाता है। अर्थात् अपने चरित्र को निर्मल बनाए रखने का सतत प्रयास करता है। पंचकल्प भाष्य में सम्पूर्ण शिक्षार्जन अर्थात् स्वाध्याय के लिए दो चरण निरूपित हैं- एक ग्रहण और दूसरा आसेवन। ग्रहण और आसेवन के द्वारा ही साधक सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकता है। ग्रहण और आसेवन में ही स्वाध्याय की पाँच विधियाँ समाहित हैं। यथा१. वाचना २. पृच्छना ३. परिवर्तना ४. अनुप्रेक्षा ५. धर्मोपदेश प्रथम शताब्दी के बहुश्रुत कवि तिरूवल्लियार ने भी अपनी काव्यकृति 'कुरल' में ग्रहण और आसेवन को ही महत्त्व दिया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि "प्राप्त करने योग्य ज्ञान को पूरी तरह से प्राप्त करो और जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका अनुकरण करो अर्थात् अपने जीवन में उतारो।" इस प्रकार स्वाध्याय के माध्यम से साधक बोध और विवेक को प्राप्त कर 'स्व' और 'पर' के कल्याण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैनागम में यह स्पष्ट रूप से अंकित है कि जैन शिक्षा चाहे लौकिक हो या अलौकिक, दोनों के मूल में विनय है। क्योंकि शिक्षा का वास्तविक प्रस्फुटन 'विनय' में ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के सत्ताइसवें अध्याय में यह उल्लेख है कि ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा दो महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में समायोजित है- विनय और अनुशासन में। विनय और अनुशासन के अभाव में कोई भी व्यक्ति या साधक न तो शिक्षाशील स्वाध्याय शिक्षा __103 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकता है और न ही बहुश्रुत। जैनागम में विनय के माहात्म्य को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि विनय यदि धर्म का मूल है तो मोक्ष उसका फल। इस प्रकार धर्मरूपी वृक्ष की जड़ विनय है और उसका फल मोक्ष है। विनय से ही मनुष्य को कीर्ति, प्रशंसा, श्रुतज्ञान आदि समस्त इष्ट तत्त्वों की प्राप्ति होती है। यथा “एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति, सयं, सिघंनिस्ससंचाभिगच्छई।।" __-दशवैकालिक सूत्र 9.2.2 इसलिए जिनके पास धर्म शिक्षा ग्रहण की जाए उनके प्रति सदा विनय भाव रखना हितकारी है। यथा "जस्संतिए धम्मपयाइं सिक्खे। तस्सतिए वेणइयं पउंजे।।'' -दशवैकालिक सूत्र 9.1.2 विनय को भगवती आराधना में पाँच रूपों में विभक्त किया गया है१. दर्शन विनय २. ज्ञान विनय ३. चारित्र विनय ४. तप विनय ५. औपचारिक विनय "विणओ पुण पंचविहो णिदिट्ठो णाणदंसणचरित्ते। तवविणओ य चउत्थो, इदरओ उवयारिओ विणओ।।" शंका आदि दोषों से रहित तत्त्वार्थ में श्रद्धा दर्शन-विनय, शुद्ध परिवेश में आत्मविश्वास पूर्वक अध्ययन ज्ञान-विनय, संयमपूर्वक अध्ययन चारित्र-विनय, तपश्चर्या और साधुजन के प्रति श्रद्धा तप-विनय, गुरु के प्रति आदर भाव रखना औपचारिक-विनय है। शिक्षार्जन करने वाले शिक्षार्थी के लिए जैनागम में यह स्पष्ट निर्देश है कि अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को सम्पत्ति। जिसने ये दोनों तथ्य आत्मसात् कर लिए हों, वही शिक्षार्जन का अधिकारी होता है। यथा “विवत्ती अविणीयस्स, सम्पत्ती विणीयस्स य। जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई।।'' -दशवैकालिक सूत्र 9.2.21 विनीत शिष्य के क्या लक्षण होने चाहिए, इसकी भी जैनागम में चर्चा हुई है। यहाँ कतिपय प्रमुख लक्षण दिए जा रहे हैं 104 - स्वाध्याय शिक्षा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. विनीत शिष्य आसन पर अथवा शय्या पर बैठा हुआ ही गुरु से प्रश्न पूछने की अपेक्षा उनके समीप जाकर उत्कटुकासन करता हुआ हाथ जोड़कर सविनय अपनी शंका को गुरु के समक्ष रखता है । - उत्तराध्ययन सूत्र 1.22 २. विनीत शिष्य गुरु की दृष्टि के अनुसार चलता है, उनकी निस्संगता का अनुगमन करता है, उन्हें हर बात में आगे रखकर उनमें श्रद्धा रखता है। आचारांग सूत्र 5.4 ३. वनीत शिष्य लज्जाशील और इन्द्रिय विजेता होता है । - उत्तराध्ययन सूत्र 5.4 ४. विनीत शिष्य गुरु के द्वारा एक बार या बार-बार बुलाने पर कभी भी बैठा नहीं रहता, अपितु आसन छोड़कर यत्नपूर्वक उनके आदेश को स्वीकार करता है। ५. विनीत शिष्य आचार्यों द्वारा बुलाए जाने पर किसी रहता। -- उत्तराध्ययन सूत्र 1.20 ६. विनीत शिष्य अनन्तर ज्ञान सम्पन्न होने पर भी गुरु की विनयपूर्वक सेवा के लिए उसी प्रकार सदा तत्पर रहता है जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण मधु, घृत आदि विविध पदार्थों की आहुति तथा मन्त्र पदों से अभिषिक्त अग्नि को नमस्कार करता है । - दशवैकालिक सूत्र 9.1.11 - उत्तराध्ययन सूत्र 1.21 भी अवस्था में मौन नहीं ७. विनीत शिष्य गुरु की आशातना नहीं करता है। - दशवैकालिक सूत्र 9.3.2 ८. गुरु कोमल अथवा कठोर शब्दों में जो शिक्षा देते हैं, उसमें मेरा हित समाहित है, मुझे ही लाभ है, ऐसा विचार कर विनीत शिष्य अत्यन्त सावधानीपूर्वक गुरु से शिक्षा ग्रहण करता है । - उत्तराध्ययन सूत्र 1.27 ६. विनीत शिष्य कभी भी किसी व्यक्ति का निरादर नहीं करता और न आत्म प्रशंसा ही करता है, वह शास्त्र ज्ञान प्राप्त करके भी अभिमान नहीं करता। वह जाति, तप अथवा बुद्धि का भी अहंकार नहीं करता है। - दशवैकालिक सूत्र 8.30 १०. विनीत शिष्य गुरु के वचन की बार-बार अपेक्षा नहीं रखता है। - उत्तराध्ययन सूत्र 1.12 ११. विनीत शिष्य गुरु के इंगित और आकार को देखकर अशुभ प्रवृत्ति को इस प्रकार छोड़ देता है जिस प्रकार विनीत अश्व चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है । - उत्तराध्ययन सूत्र 1.12 १२. विनीत शिष्य, जिस स्थान पर क्लेष - संघर्ष की संभावना रहती है, उस स्थान से सदा दूर रहता है : - उत्तराध्ययन सूत्र5.1.16 स्वाध्याय शिक्षा 105 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. विनीत शिष्य इच्छा तथा लोभ का सेवन नहीं करता।-आचारांग सूत्र 8.8.23 १४. विनीत शिष्य स्खलना होने पर भी किसी पर दोषारोपण नहीं करता और न कभी मित्रों पर क्रोध ही करता है। यहां तक कि अप्रिय मित्र की परोक्ष में भी प्रशंसा ही करता है। उत्तराध्ययन सूत्र 11.12 १५. विनीत शिष्य किसी भी गोपनीय बात को कभी प्रकट नहीं करता है। -सूत्रकृतांग 1.9.20 जैनागम में यह भी उल्लिखित है कि शिक्षार्जन के लिए शिक्षार्थी पाँच प्रकार के दुर्गुणों से अपने को सदा अलग रखता है। ये पाँच दुर्गुण शिक्षा में अवरोध उत्पन्न करते हैं। इन दुर्गुणों के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाती। क्योंकि विद्या कभी भी अयोग्य स्थान को स्वीकार नहीं करती है। ये पाँच दुर्गुण हैं१. अहंकार २. क्रोध ३. प्रमाद (विषयासक्ति) ४. रोग ५. आलस्य यथा- . “अह पंचहि ठाणेहि,जेहि सिक्खा न लब्भई। थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएणय।।" -उत्तराध्ययन सूत्र 11.3 __ यथार्थतः जो आलसी और प्रमादी होता है, उसकी न तो प्रज्ञा बढ़ती है और न उसका श्रुत ही बढ़ पाता है। प्रमादहीन जीवन ही प्रज्ञा और शिक्षा का आधार है। शिक्षार्थी प्रमाद से रहित विनयशील जीवन के द्वारा अपना उद्देश्य पूरा करने में सफल हो सकता है। इसलिए जैनागम में कहा गया है कि जो शिक्षार्थी अपने आचार्यों-गुरुओं-उपाध्यायों की सेवा-सुश्रूषा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ-विद्याएँ विनय रूपी जल से सींचे जाने के कारण वृक्ष की भांति बढ़ती हैं। यथा "जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणंकरा। तेसिं सिक्खा पवड्ढ़ति, जलसित्ता इव पायवा।।" ____-दशवैकालिक सूत्र 9.12 वास्तव में वही शिष्य अभीष्ट शिक्षा प्राप्त कर सकता है जो प्रिय करता है, प्रिय बोलता है, गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है। यथा "पियंकरे पियवाई, से सिक्खं लधुमरिहई।।"-उत्तराध्ययन सूत्र 11.14 जैनागमानुसार वही शिक्षार्थी शिक्षाशील कहलाता है, जिसमें आठ प्रकार के ___106 - स्वाध्याय शिक्षा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण सर्वदा विद्यमान रहते हैं। यथा "अह अट्ठहिँ ठाणेहि, सिक्खासीले ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे।। णासीले ण विसीले, ण सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलेत्ति वुच्चई।।" -उत्तराध्ययन सूत्र 11.4-5 अर्थात्१. जो हास्य न करे। २. जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे। ३. जो मर्म प्रकट न करे अर्थात् किसी भी गोपनीय बात का प्रकाशन न करे। ४. जो चारित्र से हीन न हो। ५. जिसका चारित्र दोषों से कलुषित न हो। ६. जो रसों में अतिलोलुप न हो ७. जो क्रोध न करे। ८.जो सत्य में रत हो। जैनागमों में ऐसे व्यक्तियों का भी उल्लेख हुआ है। जो हर प्रकार से शिक्षा पाने के अयोग्य या अपात्र हैं। इनकी संख्या जैनागम में चार बतायी गई है। यथा "चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, तंजहाअविणीए, विगइपडिबद्धे, अविउसविय पाहुडे, मायी।।" -स्थानांग सूत्र 4.3.336 अर्थात् १. अविनीत २. स्वादेन्द्रिय में गृद्ध ३. क्रोधी ४. कपटी जैनागम में ऐसे अयोग्य, उद्दण्ड और अविनीत शिक्षार्थी की उपमा दुष्ट बैलों से की गई है। उत्तराध्ययन सूत्र 27.3-8 जैन आगम शिक्षार्थी को चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, खाना-पीना, बोलना आदि दैनिक क्रियाओं का कैसे प्रयोग किया जाए जिससे किसी को न कष्ट हो और न जीवों की विराधना हो आदि बातों के बारे में ज्ञान कराते हैं। जैनागमों ने इस बारे में कहा है कि शिक्षार्जन करने वाला अपनी हर क्रिया को 'यत्नापूर्वक' करे स्वाध्याय शिक्षा - 107 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिससे वह पाप कर्म के बंधन में नहीं जकड़ सके। यथा "जयं चरे, जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुजन्तो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई।।" -दशवैकालिक सूत्र 4.8 इस प्रकार जैन शिक्षा प्रत्येक मनुष्य को प्रामाणिक और अप्रमादी बनाने का अवसर प्रदान करती है। चाहे वह मनुष्य किसी भी वर्ग, जाति, सम्प्रदाय से संबंधित क्यों न हो? अर्थात् जैन शिक्षा नीति के अनुसार स्त्री और शूद्र भी शिक्षा ग्रहण करने के आरम्भ से ही अधिकारी रहे हैं। ये भी दार्शनिक शिक्षा को पाकर अपने कल्याण का मार्ग खोज सकते हैं, मुक्त हो सकते हैं, अपने जन्म को सार्थक कर सकते हैं। जैनागम में वर्ण जाति को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है। कर्म से ही वह ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय होता है, वैश्य और शूद्र होता है। यथा "कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणो होई खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।।" -उत्तराध्ययन सूत्र 25.33 जैनागम में इसका भी उल्लेख है कि हरिकेश नाम के चाण्डाल ने जैनागमों का अध्ययन किया और कालान्तर में वे गुण सम्पन्न, प्रतिभावान विद्वान ऋषि हुए। यथा "सोवागकुल - संभूओ गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएस बलो नाम आसि भिक्खू जिइन्दिओ।।" ___-उत्तराध्ययन सूत्र 1.12 जैनागमों के अध्ययन-अनुशीलन से यह अभिदर्शित है कि जैन शिक्षा लोगों को न केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही कराती है, अपितु जिज्ञासुओं को लौकिक ज्ञान में भी महारथ हासिल कराती है। बहत्तर और चौंसठ कलाओं का, लिपि- विज्ञान का, शकुन-अपशकुन विज्ञान का, इन्द्रजाल, चिकित्सा विज्ञान तथा गृह विज्ञान आदि सहित दस विद्याओं-छिन्न विद्या, स्वर विद्या, वास्तु विद्या, अंग विकार विद्या, स्वर-विचय विद्या, भौम विद्या, अन्तरिक्ष विद्या, स्वप्न विद्या, लक्षण विद्या तथा दण्ड विद्या का परिज्ञान कराना इस बात का प्रमाण है कि जैन शिक्षा का योगदान लौकिक क्षेत्र में भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। (त्रिषष्टि शलाका १/२, भगवती सूत्र ३१, अन्तकृद्दशांग सूत्र ३.१, उत्तराध्ययन सूत्र १५/७, स्थानांग सूत्र आदि) ____ अन्ततः जैन शिक्षा का सार है आत्मोन्मुख होना, सक्रिय ज्ञानात्मक आत्मसंयम परक, समस्त दुःखों की निवृत्ति का आधार किंवा मोक्ष की प्रतिष्ठा में 108 स्वाध्याय शिक्षा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक होना। इस प्रकार जैनागमों में अभिव्यक्त शिक्षा और शिक्षार्थी का वास्तविक रूप-स्वरूप यदि स्थिर किया जाए तो कहा जा सकता है कि शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति के अन्दर आत्मबल जाग्रत हो और उसे प्राप्त कर व्यक्ति में सामर्थ्य व स्वावलम्बन के संस्कारों की सुस्थापना हो तथा शिक्षार्थी वह है जिससे शिक्षार्जन करने के उपरान्त विनय, बल और विवेक की भावना जागृत हो। इनके रूप-स्वरूप को यदि आत्मसात् कर लिया जाए तो आज जो समस्याएं समाज और राष्ट्र में फैली हुई हैं, वे समाप्त हो सकती हैं। समस्याओं का समाधान होने पर ही समाज और राष्ट्र अपने आदर्श और अभ्युदय की स्थापना कर सकता है, उन्नति कर सकता है। -मंगल कलरा, ३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़ (उ.प्र.) स्वाध्याय शिक्षा 109 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशाश्रुतस्वधा : एक परिचय सुश्री श्वेता जैन छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध की गणना सर्वप्रथम की जाती है। छेदसूत्र श्रमण-श्रमणियों को शुद्धाचार पालन एवं प्रायश्चित्त आदि के विधान की विधि बतलाते हैं। दशाश्रुतस्कन्ध की दशाओं में श्रमण-श्रमणियों के आचार एवं उपासकों की प्रतिमाओं का विवरण है। इसमें आचार्य की आठ सम्पदाओं, 20 असमाधिस्थानों, 21 शबल दोषों, 33 आशातनाओं, 12 भिक्षु प्रतिमाओं, मोहनीय कर्म के 30 बन्ध-स्थानों का भी वर्णन उपलब्ध है। लेखिका ने दशाश्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु को संक्षेप में स्पष्ट किया है। -सम्पादक जैन संस्कृति के उद्गमस्थल आगम अंग-उपांग-मूलसूत्र-छेदसूत्र में विभाजित हैं। अंग, उपांग और मूलसूत्र जैन दर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष को पुष्ट करते हैं, वहीं छेदसूत्र आचार पक्ष को संपुष्ट करते हैं। आचार की रिक्तता में सैद्धान्तिक पक्ष सदैव पंगु रहता है। अतः जैन दर्शन के सिद्धान्तों को व्यवहार योग्य बनाने में और उसे सुरक्षा प्रदान करने में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। . छेदसूत्रों का श्रमण जीवन में उत्सर्ग और अपवाद की दृष्टि से विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। साधनामय जीवन में संभावित दोषों से बचने एवं दोष शुद्धि करने के उपायों का वर्णन ही इन छेदसूत्रों का विषय रहा है। परम्परा के अनुसार छेदसूत्रों का प्रकाशन तथा सार्वजनिक रूप से उन पर प्रवचन वर्जित था। परन्तु साहित्य सरिता के प्रवाह ने उन मर्यादाओं का अतिक्रमण कर दिया। 'छेद' शब्द का सामान्य अर्थ विभाग या अवयवों के छेदन-भेदन से लिया जाता है, किन्तु धर्मसंबंधी छेद का लक्षण इस प्रकार है बज्झाणुवाणे जेण प बाहिज्जए तोनियया। संभवइ य परिसुद्धं सो पुप धमम्मि छेउत्ति।। जिन बाह्यक्रियाओं से धर्म में बाधा न आती हो और जिससे निर्मलता की पुष्टि हो, उसे छेद कहते हैं। पुरानी सावध पर्याय को छोड़कर अहिंसा आदि पाँच प्रकार के यमरूप धर्म में आत्मा को स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। छेदोपस्थापना संयम का उल्लेख स्थानांग में श्रमणों के पाँच चारित्र के संबंध में मिलता है। वर्तमान में सामायिक स्वल्पकालीन और छेदोपस्थापनिक चारित्र ही जीवन पर्यन्त रहता है। प्रायश्चित्त का संबंध भी इसी चारित्र से है। संभवतः इसी चारित्र को लक्ष्य में रखकर प्रायश्चित्त सूत्रों को छेदसूत्र की संज्ञा दी गई है। श्वेताम्बर श्रमणों की संख्या प्रारम्भ से ही अत्यधिक रही, जिससे समाज की सुव्यवस्था हेतु छेदसूत्रों का निर्माण हुआ। छेदसूत्रों में श्रमणाचार के निगूढ रहस्य Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सूक्ष्म क्रिया कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए, यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। आचार संबंधी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा के कल्पसूत्र, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेदसूत्र बने थे, पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का सर्वप्रथम नामोल्लेख आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। इसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य आदि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। श्रमण जीवन की साधना का सर्वांगीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक् करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का विषय है। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में मतभेद और वर्तमान मान्यता समाचारी शतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छः बताई है१. महानिशीथ २. दशाश्रुतस्कन्ध ३. व्यवहार ४. बृहत्कल्प ५. निशीथ सूत्र ६. जीतकल्प। __ स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुसार चार छेदसूत्र मान्य हैं१. दशाश्रुतस्कन्ध २. बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. नन्दीसूत्र जीतकल्प को जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति होने से आगम की श्रेणी में नहीं लिया गया है। महानिशीथ के मूल संस्करण को दीमकों ने उदरस्थ कर लिया था, किन्तु आचार्य हरिभद्र के द्वारा इसका पुनरुद्धार किया गया। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ को भी आगम कोटि में नहीं गिना गया है। इस प्रकार वर्तमान में मौलिक छेदसूत्र उपर्युक्त चार ही माने गये हैं। दशाश्रुतस्कन्ध का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ पूज्य श्री घासीलाल जी म.सा. ने दशाश्रुतस्कन्ध की मुनिहर्षिणी टीका में इस प्रकार दिया है - दश अध्ययन के विवेचन करने वाले शास्त्र को दशा कहते हैं। गुरु के समीप जो सुना जाता है, उसको श्रुत कहते हैं जो कि सर्वोत्तम अर्थ का प्रतिपादन करता है। यह भगवान के मुखकमल से स्वाध्याय शिक्षा - M - 111 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकलकर भव्यजीव के कर्णविवर में प्रवेश कर क्षायोपशमिक भाव को प्रकट करने का हेतु है अथवा जो सुना जाता है वह श्रुत है, श्रुतों का स्कन्ध अर्थात् समूह रूप यह दश अध्ययनों का प्रतिपादन करने वाला दशाश्रुतस्कन्ध आगम है अथवा छेदसूत्रों में आगम विशेष का नाम दशाश्रुतस्कन्ध है और इसे दशाकल्प भी कहते हैं। ___ठाणांग सूत्र में दशाश्रुतस्कन्ध को आचारदशा भी कहा है। स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख होने से ‘दशाश्रुतस्कन्ध' यह नाम अधिक प्रचलित हो गया है। दस अध्ययनों के नाम-१. असमाधिस्थान २. शबल दोष ३. आशातना ४. गणिसम्पदा ५. चित्तसमाधि स्थान ६. उपासक प्रतिमा ७. भिक्षु प्रतिमा ८. पर्युषण कल्प ६. मोहनीय स्थान १०. आयति स्थान। दशाश्रुतस्कन्ध का १८३० अनुष्टुप श्लोक प्रमाण उपलब्ध पाठ है। २१६ गद्यसूत्र और ५२ पद्य सूत्र है। प्रकारान्तर से दशाश्रुतस्कन्ध की दशाओं के प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख इस प्रकार से है१. प्रथम, द्वितीय, तृतीय दशा में और नवीं-दसवीं दशाओं में साधक के हेयाचार का वर्णन। २. चौथी दशा में ज्ञेयाचार और उपादेयाचार का कथन। ३. पांचवीं दशा में उपादेयाचार का निरूपण। ४. छठी दशा में अनगार के लिए ज्ञेयाचार और श्रावक के लिए उपादेयाचार का कथन। ५. सातवीं दशा में अनगार के लिए उपादेयाचार और श्रावक के लिए ज्ञेयाचार का कथना ६. आठवी दशा में अनगार के लिए कुछ ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार और कुछ उपादेयाचार का निरूपण। अतः दशाश्रुतस्कन्ध आगार और अनगार दोनों के लिये उपयोगी है। एक-एक विषय को लेकर अलग-अलग अध्याय का निर्माण किया गया है। इन सभी दशाओं की विषय सामग्री इस प्रकार हैप्रथम दशा- इसका नाम 'असमाधिस्थान दशा' है। “समाधानं समाधिचेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः" अर्थात् चित्त का स्वास्थ्य भाव और मोक्ष की ओर लगना ही समाधि कहलाता है, इसके विपरीत हो, वह असमाधि है। असमाधि के यहाँ बीस स्थान बताए गए हैं। ये बीस से अधिक भी हो सकते हैं, किन्तु यहां नयों के अनुसार ही असमाधि के बीस स्थान कहे हैं। असमाधि के २० स्थान निम्न हैं 112 - स्वाध्याय शिक्षा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. द्रुत-द्रुतचारी होना २. अप्रमार्जितचारी होना ३. दुःप्रमार्जितचारी होना ४. अतिरिक्त शय्या आसन रखना ५. रात्निक (ज्येष्ठ साधु) के सामने बोलना ६. स्थविरों का उपघात करना ७. भूत (पृथ्वी आदि) का घात करना ८. आक्रोश करना ६. क्रोध करना १०. निन्दा करना ११. निश्चयात्मक भाषा बोलना १२. कलह उत्पन्न करना १३. पुरानी बातें पुनः उठाना १४. अकाल में स्वाध्याय करना १५. सचित्तरज युक्त व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना १६. अनावश्यक बोलना १७. संघ में भेद करने वाले वचन कहना १८. कलह करना १६. सूर्योदय से सूर्यास्त तक कुछ न कुछ खाते रहना २०. अनेषणीय भक्त-पानादि की एषणा करना। दूसरी दशा- असमाधि स्थानों के आसेवन से शबल दोष की प्राप्ति होती है। अतः इस दशा में २१ शबल दोषों का विस्तृत वर्णन है। “मूलगुणेषु आदिमेषु भंगेषु शबलो भवति चतुर्थे भंगे सर्वभंगः" अर्थात् मूल गुणादि में प्रथम तीन का भंग शबल दोषाधायक (दोष करने वाला) होता है और चतुर्थ का भंग सर्वभंग कहलाता है। २१ शबल दोष इस प्रकार हैं- १. हस्तकर्म २. मैथुन प्रतिसेवन ३. रात्रि भोजन करना ४. आधार्मिक आहार खाना ५. राजपिंड खाना ६. औद्देशिक क्रीत, प्रमित्यक, आच्छिन्न, अनिसृष्ट और आहृत्य दीयमान आहार को खाना ७. पुनः पुनः प्रत्याख्यान करके खाना ८. ६ मास के भीतर एक गण से दूसरे गण में जाना ६. एक मास के भीतर तीन बार उदक लेप करना १०. एक मास में तीन बार माया करना ११. शय्यातर का आहार लेना १२. जानबूझ कर प्राणातिपात करना १३. असत्य बोलना १४. अदत्त वस्तु ग्रहण करना १५. सचित्त स्थान पर कायोत्सर्ग करना १६. सचित्त रज आदि से युक्त भूमि पर शयन एवं स्वाध्याय करना १७. जीव विराधना की संभावना हो, ऐसे स्थान पर कायोत्सर्ग, आसन, शयन और स्वाध्याय करना १८. जानकर के कन्दमूल, स्कन्ध, त्वक्, पत्र, बीज आदि का भोजन करना १६. एक वर्ष में दस बार उदक लेप करना २०. एक वर्ष में दस बार माया करना २१. शीत-उदक के गीले हाथ से, पात्र से अशन-पान-खादिम-स्वादिम आहार को ग्रहण कर खाना। तीसरी दशा- जो शबल दोषी होते हैं, उनसे निश्चित रूप से आशातना होती है। "ज्ञान- दर्शने शातयति-खण्डयति-तनुतां नयतीत्याशातना' अर्थात् जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का हास अथवा भंग होता है, वह आशातना कहलाती है। बड़े साधु के आगे चलना, अति समीप चलना, आगे खड़े होना, आसन्न खड़े होना आदि दोष हैं। आहार अपने बड़े साधु से पूछकर एवं दिखाकर नहीं करना, बड़े साधु के सामने बोलना, उनके आसन से ऊँचे आसन पर बैठना स्वाध्याय शिक्षा 113 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि ३३ प्रकार की आशातनाएँ इस अध्याय में बताई गई हैं। चतुर्थी दशा- जो दोषों का सेवन नहीं करते वे गणिसम्पदाओं से विभूषित होते हैं। अतः इस दशा में गणि सम्पदा का वर्णन किया गया है। गणि सम्पदा आठ प्रकार की है- १. आचार सम्पदा २. श्रुतसम्पदा ३. शरीर सम्पदा ४. वचन सम्पदा ५. वाचना सम्पदा ६. मति सम्पदा ७. प्रयोगमति सम्पदा ८. संग्रह परिज्ञा सम्पदा।। पंचमी दशा- जिन्होंने गणिसम्पदाओं को प्राप्त कर लिया है, उनका चित्त समाधि को प्राप्त कर लेता है अर्थात् उनका चित्त अपनी चंचलता को छोड़ कर मोक्ष मार्ग में स्थिर हो जाता है, इस हेतु गणिसम्पदा के बाद चित्तसमाधि का वर्णन आता है। अतः इस दशा में १० प्रकार के चित्तसमाधि-स्थान बताए गए हैं- १. पहिले कभी उत्पन्न नहीं हुई ऐसी धर्म भावना उत्पन्न होना २. पूर्व अदृष्ट यथार्थ स्वप्न दिखना ३. जातिस्मरण ज्ञान होने पर ४. पूर्व अदृष्ट देव दर्शन ५. पूर्व असमुत्पन्न अवधि ज्ञान उत्पन्न होने पर ६. पूर्व असमुत्पन्न अवधि दर्शन के उत्पन्न होने पर ७. पूर्व असमुत्पन्न मनःपर्यवज्ञान होने पर ८. पूर्व असमुत्पन्न केवलज्ञान होने पर ६. पूर्व असमुत्पन्न केवल दर्शन होने पर १०. पूर्व असमुत्पन्न केवल मरण प्राप्त होने पर। षष्ठी दशा- इसमें उपासक प्रतिमाओं का वर्णन है। "उप समीपम् आस्ते निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति उपासकः" अर्थात् साधुओं के समीप जो धर्म-श्रवण की इच्छा से बैठे, उसको उपासक कहते हैं। उपासक का प्रथम मनोरथ आरम्भ-परिग्रह की निवृत्तिमयी साधना करना है। उस निवृत्तिमयी साधना के समय वह विशिष्ट साधना के लिए उपासक-प्रतिमाओं को धारण करता है। वे प्रतिमाएँ निम्न हैं- १. दर्शन प्रतिमा २. व्रत प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा ४. पौषध प्रतिमा ५. दिवा ब्रह्मचर्य प्रतिमा ६. दिवारात्रि ब्रह्मचर्य प्रतिमा ७. सचित्त परित्याग प्रतिमा ८. आरम्भ परित्याग प्रतिमा ६. प्रेष्य परित्याग प्रतिमा १०. उद्दिष्ट भक्त परित्याग प्रतिमा ११. श्रमणभूत प्रतिमा। सातवीं दशा- इसमें १२ भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन है। भिक्षु का यह दूसरा मनोरथ होता है- मैं एकल विहार प्रतिमा धारण करके विचरण करूँ। विशिष्ट साधना के लिए एवं कर्मों की अत्यधिक निर्जरा के लिए आवश्यक योग्यता से सम्पन्न भिक्षु इन १२ प्रतिमाओं को धारण करता है। इनको धारण करने के लिए प्रारम्भ के तीन संहनन, ६ पूर्वो का ज्ञान, २० वर्ष की दीक्षा पर्याय एवं २६ वर्ष की उम्र होना आवश्यक है। अनेक प्रकार की साधनाओं और परीक्षाओं के बाद ही भिक्षु प्रतिमा धारण करने की आज्ञा मिलती है। वे प्रतिमाएँ इस प्रकार हैं- १. मासिकी भिक्षु 114 - स्वाध्याय शिक्षा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा २. द्विमासिकी ३. त्रिमासिकी ४. चातुर्मासिकी भिक्षु प्रतिमा ५. पंचमासिकी भिक्षु प्रतिमा ६. पाण्मासिकी भिक्षु प्रतिमा ७. सप्तमासिकी भिक्षु प्रतिमा ८. प्रथमा रात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा ६. द्वितीया सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा १०. तृतीया सप्तरात्रिदिवा भिक्षु प्रतिमा ११. अहोरात्रि की भिक्षु प्रतिमा १२. एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा। आठवीं दशा- इसका नाम 'पर्युषणाकल्प' है। इस अध्ययन के मूल रूप के बारे में मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल' का मत हैं कि आचार दशा के इस अध्ययन में केवल वर्षावास की समाचारी है। कुछ शताब्दियों पूर्व इस पर्युषणाकल्प को तीर्थंकरों के जीवन चरित्र तथा स्थिरावली से संयुक्त कर दिया गया था। यह शनैः शनैः कल्पसूत्र के नाम से जनसाधारण में प्रसिद्ध हो गया। अतः इसका मूलरूप व्यवच्छिन्न हो गया। इसमें भिक्षुओं के चातुर्मास एवं पर्युषण संबंधी समाचारी के विषयों का कथन था। देवेन्द्रमुनि जी लिखते हैं कि दशाश्रुतस्कन्ध की प्राचीनतम प्रतियाँ, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की हैं, उनमें आठवें अध्ययन में पूर्ण कल्पसूत्र आया है, जो यह स्पष्ट प्रमाणित करता है कि कल्पसूत्र स्वतन्त्र रचना नहीं, किन्तु दशाश्रुतस्कन्ध का ही आठवाँ अध्ययन है। कल्पसूत्र के पहले सूत्र में 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे....' और अंतिम सूत्र में ....भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ पाठ है। वही पाठ दशाश्रुतस्कन्ध की आठवीं दशा में है। यहाँ पर शेष पाठ को 'जाव' शब्द के अन्तर्गत संक्षेप कर दिया है। कल्पसूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध इन दोनों के रचयिता भद्रबाहु हैं। इसलिए दोनों एक ही रचनाकार की रचना होने से यह कहा जा सकता है कि कल्पसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन ही है। वृत्ति, चूर्णि, पृथ्वीचंदटिप्पण और अन्य कल्पसूत्र की टीकाओं में यह स्पष्ट प्रमाणित है।' भिक्षु प्रतिमा समाप्त करने के अनन्तर वर्षा ऋतु में निवास के योग्य क्षेत्र की गवेषणा करनी पड़ती है। उचित स्थान प्राप्त कर उसको सारी वर्षा ऋतु, वहीं पर व्यतीत करनी पड़ती है, इस दशा में इसी संबंध में कथन होने से इसका नाम 'पर्युषणाकल्प' रखा गया। इस दशा में महावीर स्वामी के जन्मादि कल्याणक जिस जिस नक्षत्र में हुए हैं, उसकी सूचना दी गई है। नवमी दशा- इसमें मोहनीय बन्ध के स्थान उल्लिखित है। 'मोहयत्यात्मानं मुह्यत्यात्मा वानेन' मोहनीय वह कर्म है जो आत्मा को मोहता है अथवा जिसके द्वारा आत्मा मोह में फंसता है। अर्थात् जिस कर्म के परमाणुओं के संसर्ग से आत्मा विवेक शून्य और मूक हो जाता है, उसी को मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म- बंध के - 115 स्वाध्याय शिक्षा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणों की कोई सीमा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी-कभी ऐसे मोहनीय कर्म का बंध भी हो जाता है, जिससे आत्मा ७० कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। ऐसे ३० स्थान हैं-त्रस प्राणियों को जल में डुबाकर मारने से, श्वास रोक देने से, धुआँ करके मारने से, सिर पर प्रहार करने से, मारकर(छलकर) हंसने से, मायाचार करने से, मिथ्या आक्षेप करने से, ब्रह्मचारी नहीं होने पर भी स्वयं को ब्रह्मचारी बतलाने से, नेता आदि लोकप्रिय व्यक्ति को मारने से, पापों से विरत दीक्षार्थी को और संयत तपस्वी को धर्म भ्रष्ट करने से, जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद करने से, भव्य जीवों को भ्रष्ट करने से, तपस्वी नहीं होते हुए भी स्वयं को तपस्वी कहने से, मतभेद पैदा करने से, देवताओं का अवर्णवाद करने से और अपने आपको बहुश्रुत एवं स्वाध्यायी बता कर आत्मप्रशंसा करने से महामोहनीय कर्म का बंध होता है। दसवीं दशा- इसका नाम आयति स्थान है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्पा निदान के कारण मानव की इच्छाएँ भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं, जिससे वह जन्म-मरणं की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्य कालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम आयतिस्थान रखा गया है। आय का अर्थ है- लाभ। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है, उसका नाम आयति है। इस दशा के अन्तर्गत नव निदान बताए गए हैं१. निर्ग्रन्थ द्वारा पुरुष के भोगों का निदान। २. निर्ग्रन्थी द्वारा स्त्री के भोगों का निदान। ३. निर्ग्रन्थ द्वारा स्त्री के भोगों का निदान। ४. निर्ग्रन्थी द्वारा पुरुष के भोगों का निदान। ५. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान। ६. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान (भिन्न रूप) ७. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान (भिन्न रूप) ८. श्रावक अवस्था प्राप्ति का निदान ६. साधु जीवन प्राप्ति का निदान दशाश्रुतस्कन्ध और अन्य आगमों का तुलनात्मक अध्ययन आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने आचार्य भद्रबाहु को दशाश्रुतस्कन्ध 116 स्वाध्याय शिक्षा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का रचयिता नहीं, संकलनकर्ता स्वीकार किया है, क्योंकि दशाश्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु विभिन्न आगमों से मेल खाती है। यहां पर कुछ आगमों के साथ तुलना प्रस्तुत की जा रही है। समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध- इसमें प्रायः बहुत सा भाग समवायांग सूत्र से केवल कुछ ही परिवर्तन के साथ लिया गया है। जैसे-पहली दशा में बीस असमाधि स्थानों का वर्णन है, वैसा ही वर्णन 'समवायांग सूत्र' के बीसवें स्थान में सूत्र रूप में उद्धृत है। भेद केवल इतना ही है कि 'समवायांग सूत्र' के 'बीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता तंजहा' इतना ही पाठ देकर असमाधि स्थानों का वर्णन प्रारम्भ कर दिया गया है। किसी-किसी जगह पर स्थान परिवर्तन भी कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त और कोई भेद इनमें नहीं मिलता। दूसरी दशा के इक्कीस शबल दोष भी समवायांग सूत्र से ही ज्यों के त्यों उद्धृत कर दिए हैं। भेद केवल पहली दशा के समान भूमिकावाक्य में ही है। तीसरी दशा की आशातनाएँ भी इसी सूत्र में उक्त रूप से ली गई हैं। पांचवीं दशा में दस चित्त समाधियों का वर्णन है। इन चित्त समाधियों का गद्य रूप पाठ समवायांग सूत्र के दसवें स्थान से उद्धृत किया गया है। छठी दशा में श्रमणोपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन आता है। इनका सूत्ररूप मूल पाठ समवायांग सूत्र के ग्यारहवें स्थान के समकक्ष है। सातवीं दशा का मूल समवायांग के बारहवें स्थान के समान है। नवमी दशा के तीस महामोहनीय स्थानों का पद्यरूप वर्णन समवायांग सूत्र के तीसवें स्थान में उद्धृत पद्य से मिलता-जुलता है। स्थानांग और दशाश्रुतस्कन्ध- दशाश्रुतस्कन्ध की चौथी दशा में आठ प्रकार : की गणिसम्पत् का वर्णन है। इस प्रकार की आठ गणिसम्पत् का नाम निर्देश : 'स्थानांग सूत्र' के आठवें स्थान में भी मिलता है। सातवीं दशा के अन्तर्गत भिक्षु . प्रतिमाओं की विस्तृत व्याख्या की गई है। उसी के समान स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थान में भी मिलती है। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पांच कल्याणकों का वर्णन आठवी दशा में है। इस दशा के मूल सूत्र में और स्थानांग सूत्र के पंचम स्थान के प्रथमोद्देश में समरूपता है। औपपातिक और दशाश्रुतस्कन्ध- दशाश्रुतस्कन्ध की पाँचवीं दशा का उपोद्घात भाग और नवमी दशा का उपोद्घात भाग औपपातिक सूत्र में भी मिलता है। दसवीं दशा में निरूपित निदान कर्मों का भी कुछ भाग औपपातिक सूत्र के समान - स्वाध्याय शिक्षा - 117 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन परम्परा के आगमों में छेद सूत्रों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जैन संस्कृति का सार श्रमण धर्म है। श्रमण धर्म की सिद्धि के लिए आचार की साधना अनिवार्य है । आचार धर्म के निगूढ़ रहस्य और सूक्ष्म क्रियाकलाप को समझने के लिए छेदसूत्रों का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है। साधक के जीवन में अनेक प्रतिकूल प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं। ऐसे विषम विषयों में किस प्रकार निर्णय लिया जाए इस बात का सम्यक् निर्णय एक मात्र छेदसूत्र ही कर सकते हैं। संक्षेप में छेदसूत्र साहित्य जैन आचार की कुंजी है, जैन विचार की अद्वितीय निधि है, जैन संस्कृति की गरिमा है, महिमा है। संदर्भ 1. स्थानांग सूत्र, स्थान 5, उद्देशक 2, सूत्र 428 2. जं च महाकप्पसुयं, जाणि असेसाणि छेअसुत्ताणि। चरण करणाणुओगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि।। -आवश्यक नियुक्ति, 777 3. समाचारी शतक, आगम-स्थापनाधिकार 4. अथ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रशब्दार्थो निरुप्यते-दशाध्ययनप्रतिपादकं शास्त्रं दशा, सा चाऽसौ श्रुतस्कन्धः- गुरुसमीपे श्रूयते श्रवणविषयीक्रियते इति श्रुतम्प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं भगवती निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरप्रविष्टं क्षायोपशमिकभावपरिमाविर्भावकारणं तत्, स्कन्धः वृक्षप्रकाण्ड इव। अथवा श्रूयन्ते इति श्रुतानि पूर्वोक्तानि तेषां स्कन्धः समूहः स एव सूत्रम्- आगम इति दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्। यद्वा-दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रमिति शब्द आगमविशेष प्रसिद्धः | यस्य दशाकल्प इति पर्यायः। 5. त्रीणि छेदसूत्राणि, ब्यावर, सम्पादकीय, पृष्ठ 14 6. वही, सारांश, पृ. 123 7 छेदसूत्र : एक परिशीलन, पृ. 47 8. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रम्, आत्मारामजी महाराज, भूमिका पृ. 6 समता कुज, १२/७ ए, जालम विलास स्कीम पावटा बी रोड़, जोधपुर - 118 स्वाध्याय शिक्षा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों का सर्वमान्य रूप आवश्यक श्री जशकरण डागा यह आवश्यकता सदैव अनुभव की जाती है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों को मान्य एक ऐसा जैनागम हो, जिसे कुरान, बाइबल, अवेस्ता आदि के समान मान्यता हो। वरिष्ठ स्वाध्यायी श्री डागा जी ने अपना आलेख इसी बिन्दु को केन्द्र में रखकर लिखा है। इस संबंध में मेरा निवेदन है कि 'तत्त्वार्थसूत्र' दोनों परम्पराओं को मान्य है। उसे आगमवत् मान्यता दी जा सकती है। इस पर टीकाएँ भी बहुत हुई हैं। आधुनिक रचनाओं या संकलनों को वैसी मान्यता मिलना कठिन कार्य है। 'समणसुत्त' एवं 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' के संबंध में ऐसा अनुभव हो चुका है। समन्वय/एकता के प्रोत्साहन हेतु लेख प्रकाशित है। -सम्पादक जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति के मूलाधार जैनागम हैं। सर्वज्ञ (सम्पूर्ण आत्म द्रष्टा) वीतराग भगवंतों द्वारा प्ररूपित जिनवाणी, सूत्र या आगम कही जाती है। तीर्थकर भगवंतों द्वारा सर्व जीवों के कल्याणार्थ, अलौकिक तत्त्वमयी दी गई दिव्य देशना मुक्त सुमनों के समान अर्थ रूप होती है। महान् प्रज्ञावान गणधर उसका अनंतवाँ भाग ही सूत्र रूप में गुम्फित कर पाते हैं। कहा है 'अत्थ भासइ अरहा, सुत्न गति गपहरा निउण।' ये ग्रथित सूत्र ही जिनागम हैं। ये जिनागम ही प्राचीन काल में गणिपिटक कहलाते थे। गणिपिटक में समग्र द्वादशांगी समाहित होती है। पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद आदि अनेक भेद किए गए। इनमें ज्ञान-विज्ञान का, न्याय-नीति का, आचार-विचार का, धर्म-दर्शन का, अध्यात्म-अनुभव का, आत्मा-परमात्मा का, साध्य-साधना का, गति-आगति आदि की जानकारी का अनुपम व अक्षय कोष है। वैदिक धर्म में जो स्थान वेदों का, बौद्धों में त्रिपिटक का, पारसी धर्म में अवेस्ता का, ईसाई धर्म में बाइबिल का व इस्लाम धर्म में कुरान का है, वही स्थान जैन धर्म में आगम- साहित्य का है। जहां वेद अनेक ऋषि-महर्षियों के निर्मल विचारों का संकलन है, वहाँ उपलब्ध जैनागम सर्वज्ञ सर्वदर्शी भ. महावीर की दिव्य देशना, जिसमें विशुद्ध मोक्ष मार्ग का निरूपण है, का ऐसा अनुपम संग्रह है कि वैसा अध्यात्म तत्त्वज्ञान किसी भी अन्य धर्म या दर्शन के ग्रंथों में नहीं मिलता है। वस्तुतः जो अज्ञान, राग, द्वेष आदि का क्षय कर जिन, तीर्थकर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुए हैं, उन आप्त महापुरुषों के तत्त्वचिन्तन एवं देशनामयी दिव्य वाणी का संकलन ही आगम है। आगम व्याख्या साहित्य- यह अभी पाँच प्रकार से उपलब्ध होता है Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे १. निर्युक्तियाँ - आगमों पर जो पद्यबद्ध प्राकृत भाषा में टीकाएँ लिखी गईं, नियुक्तियों के नाम से प्रसिद्ध है। २. चूर्णियाँ - ये गद्यात्मक संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी मिलती हैं। ३. टीकाएँ - टीकाओं में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है। ४. भाष्य- आगमों पर प्राकृत में विस्तृत व्याख्याएँ लिखी गई, जिन्हें भाष्य कहा है। ५. लोक भाषा में लिखित व्याख्या साहित्य- आगमों पर लोक भाषाओं यथा गुजराती, राजस्थानी आदि में लिखा गया व्याख्या साहित्य | मूल आगमवाणी के उपदेष्टा अज्ञान व मोह भाव से सर्वथा रहित होने से, उनकी देशना में दोष, अपूर्णता या विपरीतता की, किंचित् मात्र भी संभावना या पूर्वापर विरोध अथवा युक्तिबाध नहीं होता है। उनके द्वारा प्ररूपित 'तत्त्व वाणी' प्रामाणिक व द्रव्य, क्षेत्र, काल से अबाधित होती है। आगम सभी समस्याओं के सम्यग् समाधान प्रदाता आधुनिक भौतिक युग में बढ़ते तनाव, नैतिक मूल्यों का पतन, चारित्रिक गिरावट, आत्मा-परमात्मा के प्रति अनास्था आदि सभी के सम्यक् समाधान के लिए जैनागमों का स्वाध्याय कामधेनु के दोहन के समान है। जैसे कामधेनु से सभी प्रयोग सिद्ध होते हैं, वैसे ही जैनागमों के स्वाध्याय से सभी समस्याओं का चाहे वे सामाजिक हों या पारिवारिक, भौतिक हों या आध्यात्मिक, उनके यथार्थ समाधान प्राप्त होते हैं। ये जैनागम वास्तव में ज्ञान रूपी मेघ की वह अमृत धारा है जो सभी समस्याओं की ज्वालाओं को शान्त कर देती है। जैनागमों में ऐसे तथ्य विद्यमान हैं जो राम बाण औषधि के रूप में, समस्याओं के महारोगों को नष्ट कर देते हैं। किन्तु इनके पठन-पाठन में नीर-क्षीर के विवेक की महती आवश्यकता है और हेय, ज्ञेय, उपादेय का विवेक भी अपेक्षित है, अन्यथा शास्त्र भी शस्त्र हो जाते हैं। कालप्रभाव से विशुद्ध व संपूर्ण जैनागमों की अनुपलब्धि यह खेद का विषय है कि आज सर्वज्ञों की वह आप्तवाणी जो जैनागमों में गूंथित रही हैं, संपूर्ण रूप से ज्यों की त्यों शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है । द्रव्य, क्षेत्र, काल के बदलाव, सम्प्रदाय व्यामोह, राग, द्वेष तथा अज्ञान के कारण अनेक आगमों के मूलपाठ विच्छेद हो गए, तो अनेक पाठ प्रक्षिप्त हो गए। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ८४ आगमों की प्ररूपणा है, जिनमें ४५ आगम उपलब्ध हैं। जबकि नन्दीसूत्र में ७२ आगमों का इस प्रकार उल्लेख है- १२ अंग, २६ उत्कालिक, ३० स्वाध्याय शिक्षा 120 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक व १ आवश्यक। स्थानकवासी परम्परा में ३२ आगम ही मान्य हैं। जो इस प्रकार हैं- ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र, ४ छेद व १ आवश्यकं सूत्र। इनमें भी अनेक पाठ लुप्त हो गए। उदाहरणार्थ द्वादशांग के प्रथम अंग आचारांग में अठारह हजार पद निर्दिष्ट थे।' किन्तु आज मात्र दो हजार छ: सौ चौवालीस श्लोक ही उपलब्ध हैं। इसी तरह अन्तगड़ सूत्र में भी नन्दीसूत्र के अनुसार जहां २३०४००० पदों के होने का उल्लेख है, वहाँ आज उसमें मात्र ६०० श्लोकों का संकलन ही उपलब्ध है। अन्य अनेक आगमों में भी इसी प्रकार से बड़ी संख्या में पद व श्लोकों का विच्छेद हो चुका है। इन्हीं आग़मों में अनेक पाठ व पद प्रक्षिप्त भी कर दिए गए हैं, तथा अनेक सूत्र ऐसे भी हैं, जिनका यथार्थ अर्थ, भाव व मर्म गीतार्थ ज्ञानियों के द्वारा ही समझा जा सकता है। अतः उपलब्ध आगमों के पठन-पाठन में भी नीर-क्षीर विवेक की दृष्टि आवश्यक है। प्रक्षिप्त पाठों के संबंध में एक उदाहरण श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र का सतरहवां पाहुड का लिया जा सकता है, जिसमें विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओं का भोजन करने का अधिकार है। इसमें बताया गया है कि ऐसा भोजन करके जावे तो कार्य सिद्ध होवे। जैसे रेवती नक्षत्र में जलचर, फूलन आदि का भोजन करके जावे। स्व. बहुश्रुत पं. रत्न श्री समर्थमल जी म.सा. ने इन पाठों को भगवद् वाणी परम्परा से मेल नहीं खाते हैं ऐसा बताकर कहा है कि वीतराग तो ऐसी अभक्ष्य भक्षण रूप वाणी कभी फरमाते नहीं। ऐसे पाठ स्वार्थी पुरुषों द्वारा बाद में प्रक्षिप्त कर दिए प्रतीत होते हैं? अथवा जिस संदर्भ में यह कथानक है वह विलुप्त हो गया हो यह भी संभव है। वैसे भी “शास्त्रप्रयोजनम् तत्त्वदर्शनम्" के अनुसार शास्त्रों में इस प्रकार के उल्लेख नहीं होने चाहिए। फिर सूर्यप्रज्ञप्ति व चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों शास्त्र अलग-अलग होकर भी इनके पाठों में समानता क्यों है? इससे भी प्रतीत होता है कि इन्हें लिपिबद्ध करते समय(जो भ. महावीर के निर्वाण के करीब ६५० वर्ष बाद किए गए थे) भूल हो गई हो। इस प्रकार से स्मृति दोष, स्खलना दोष या रागादि कारणों से ये जैन आगम वर्तमान में मूल विशुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं रह सके हैं। दिगम्बर परम्परा तो मूल अंग रूप जिनवाणी का विच्छेद मानकर वर्तमान में उपलब्ध सभी आगमों को बाद के श्रुतधर आचार्यों की रचनाएँ मानती है। इससे भी जिनवाणी के शत-प्रतिशत विशुद्ध रूप में आज उपलब्ध नहीं होने की पुष्टि होती है। एक आगम की मान्यता नहीं वर्तमान में कोई एक आगम ऐसा नहीं है जिसे सभी जैन प्रामाणिक रूप से मानते हों। यह खेद का विषय है कि जहाँ प्रत्येक धर्म में उसके अनुयायियों के द्वारा स्वाध्याय शिक्षा - 127 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वमान्य ग्रंथ उपलब्ध हैं, जैसे हिन्दुओं के लिए गीता, मुसलमानों के लिए कुरान, ईसाइयों के लिये बाइबिल, पारसी धर्मवालों के लिये अवेस्ता, बौद्ध धर्मवालों के लिए त्रिपिटक उपलब्ध हैं, वैसे ही जैनों का कोई एक ग्रंथ या आगम ऐसा नहीं हैं जिसे सभी जैन मान्यता देते हो। अतः वर्तमान में आगम मनीषियों व श्रुतधरों के लिए यह अति आवश्यक है कि वे सभी मिलकर सभी जैनागमों का अध्ययन व मनन कर, एक ऐसा जैन आगम संकलित कर उपलब्ध कराएँ जो श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी व मूर्तिपूजक-सभी जैनों को गीता, कुरान या बाइबिल की तरह मान्य व प्रामाणिक हो। यद्यपि इस बारे में कुछ प्रयास हुए भी हैं, जैसे निर्ग्रन्थ प्रवचन (बड़ा भाष्य), श्रमण सूत्र, जैन महागीता आदि। किन्तु इनमें कोई ग्रंथ सर्व सम्प्रदायों का समर्थन प्राप्त न होने से वे उक्त अपेक्षित बड़ी कमी की पूर्ति नहीं कर सके हैं। जब सभी जैन एक देव, एक गुरु, एक धर्म और एक महामंत्र णमोक्कार को मान्य करते हैं तो फिर उन सभी का मान्य एक आगम भी क्यों नहीं हो सकता? अतः जैन धर्म के अग्रणी कर्णधारों द्वारा इस हेतु विशेष प्रयास कर, सर्व जैन सम्प्रदायों द्वारा समर्थित, सर्वमान्य एक जैन आगम संकलित किया जाकर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। सर्वमान्य जैन आगम में विशुद्ध जिनसूत्र ही संकलित हों विशुद्ध जिनसूत्रों का चयन कैसे हो, इस हेतु निम्न मापदण्डों का उपयोग किया जा सकता है१. जिनवाणी की विशेषताओं एवं लक्षणों का ध्यान रखा जावेजिनवाणी की महिमा गरिमा अपार है। उसमें अनंत सत्य समाहित है। किन्तु असत्य के अनंतवें अंश को भी उसमें कोई स्थान नहीं है। 'जिनवाणी' कैसी है, उसका किंचित् वर्णन करते हुए तत्त्ववेत्ता श्रीमद्राजचन्द्र जी जैन कहा है "अनंत अनंत भाव भेद थी भरीली भली, अनंत अनंत नय निक्षेप व्याख्यानी छे, सकल जगत हितकारिणी, हारिणी मोह, तारणी भवाब्धि मोक्ष चारिणी प्रमाणी छे। ओपमा आप्या ने जेने तमा राखवानुं व्यर्थ, ओपमा आप्या ते निज मति ने मपाई छे, अहो राजचन्द्र बाल ख्याल न ता पामतीए, जिनेश्वर तणी वाणी जाणी तेणे जाणी छे।।" यह जिनवाणी 'इणमेव निग्गथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं" के अनुसार अनुपम 122 - स्वाध्याय शिक्षा Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, अनुत्तर है व सर्वोत्तम है। इसीलिए इसके लिए कहा गया है- 'वाणी तो घणेरी पर वीतराग तुल्य नहीं, इसके सिवाय और छोरा सी कहानी है। इस परम पावन जिनवाणी की पहचान, इसमें रही पाँच बड़ी विशेषताओं से होती है जो इस प्रकार "प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च। सम्यक् तत्त्वोपदेशाय सतां सूक्तिः प्रवर्तते।।" अर्थात् जो १. मोह निद्रा से सुप्त प्राणियों को जगाकर तत्त्वों का बोध कराती है २. आत्म ज्ञान को प्रगट करने वाली है ३. प्राणी मात्र के लिए ऐकान्तिक और आत्यन्तिक हितकर्ता है ४. कषायादि विकारों का शमन करने वाली है तथा ५. नय, निक्षेप, प्रमाण आदि से तत्त्वों के हेय, ज्ञेय व उपादेय का सम्यक् स्वरूप प्रकट करने वाली सूत्र रूप में है तथा संत ज्ञानी महापुरुषों के माध्यम से प्ररूपित हुई है। इस परम पुनीत जिनवाणी की विशेषताओं के संबंध में और भी कहा गया है "रत्नत्रयी रक्षति येन, जीवा विरज्यतेऽत्यन्तशरीरसौख्यात्। रुणद्धि पापं कुरुते, विशुद्धिज्ञानं तदिष्टम् सकलार्थविद्भिः ।।" ___ अर्थात् जिससे जीव रत्नत्रय की रक्षा करता है, पाप कर्म को रोकता है तथा आत्म-विशुद्धि करता है, वही ज्ञान (जिनवचन) सर्वज्ञों को अभीष्ट है। सर्वज्ञ वीतराग भगवंतों की वाणी त्रिदोष रहित होती है, जो इस प्रकार है-१. अव्याप्ति २. अतिव्याप्ति ३. असंभव। २. जिनसूत्र (जिनवाणी) पक्षपात व रागद्वेष रहित होते हैं- जिन सूत्रों की एक बड़ी विशेषता यह भी है, कि वे स्व-पर मत, परंपरा, संप्रदाय आदि के रागद्वेष से प्ररूपित न होकर वस्तुस्वरूप की यथार्थ प्ररूपणा करते हैं। इसीलिए कहा गया है"पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।।" अर्थात् इनमें न तो वीर के प्रति पक्षपात है, न कपिलादि के प्रति द्वेष है। किन्तु जिनके वचन युक्तियुक्त हैं, तर्क शुद्ध हैं, उसी को स्वीकार किया गया है। ३. जिनसूत्र विज्ञान के अनुभव सिद्ध सत्य से विपरीत नहीं-सम्यग् व सार्थक जीवन के लिए विज्ञान और धर्म का यथोचित समन्वय परम आवश्यक है। इस हेतु जिनसूत्रों के नाम से प्रचलित ऐसे कथानक, जो विज्ञान के प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध तथ्यों से विपरीत हैं या मैल नहीं खाते, उन पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है। इस संदर्भ में यहां दो उदाहरण प्रस्तुत हैं- १. भूगोल - स्वाध्याय शिक्षा 123 - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक- सूर्य प्रज्ञप्ति आदि सूत्रों में बड़े से बड़ा दिन १८ मुहूर्त व छोटे से छोटा दिन १२ मुहूर्त का कहा है, जबकि लन्दन (यूरोप) में बड़े से बड़ा दिन २२.५ मुहूर्त का व छोटे से छोटा दिन ७.५ मुहूर्त का होता है जो प्रत्यक्ष सत्य है। इसी तरह आगे ध्रुव की तरफ और भी बड़े व छोटे दिन होते हैं। टुन्ड्रा में तो ६ माह का दिन व ६ माह की रात्रि भी होती है। 2. कालगणना विषयक-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में कालाधिकार में कालमाप में एक मुहूर्त (४८ मिनिट) में ३७७७३ श्वासोच्छ्वास माने हैं जबकि एक मिनिट में स्वस्थ पुरुष के १५ श्वासोच्छ्वास होते हैं जिससे एक मुहूर्त में १५ X ४८=७२० श्वासोच्छ्वास ही होते हैं। इसी प्रकार से अन्य उदाहरण भी जिन आगमों में मिलते हैं, जिन पर आगम मनीषियों को आगमों का गंभीरता पूर्वक मंथन कर, उनका सही अर्थ और भाव स्पष्ट करना चाहिए और जहाँ संशोधन आवश्यक हो तो सर्वसम्मति से उसके लिए यथोचित कदम उठाना चाहिए। अन्त में जैन धर्म के सभी कर्णधारों, आचार्यों, प्रमुखों व जिनागम मनीषियों से विनम्र निवेदन है कि वे सब संयुक्त रूप से जिनागमों के संशोधन की ओर ध्यान दें। वर्तमान में जिन आगमों को जो प्रतिष्ठा, जो सम्मान प्राप्त है, वह अक्षुण्ण रहे और आने वाले युग में भी सभी इनके प्रति पूर्ण निष्ठावान रहें, इस हेतु वे सभी एक ऐसे जैन महाशास्त्र की रचना करें, जो कुरान, बाइबिल व गीता की तरह ख्याति प्राप्त हो और जैनों के सभी सम्प्रदायों को मान्य हो, प्रामाणिक हो तथा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भी सभी को स्वीकार्य हो। दूसरे ऐसे जिनसूत्र जो उपर्युक्त वर्णित दोषों से युक्त हों उनमें भी यथोचित संशोधन किया जाय अथवा उनका युक्तिसंगत समुचित स्पष्टीकरण किया जाय, जिससे जैनागमों पर कोई शंका या अश्रद्धा का भाव किसी में पैदा न हो। संदर्भ १. आचारांग नियुक्ति, हारिभद्रीया नन्दीवृत्ति, चूर्णि व अभयदेवसूरि की समवायांग वृत्ति अनुसार। २. समर्थ समाधान भाग १ पृ. ७७० ३. श्रीमद् राजचन्द्र के पदों से ४. निर्ग्रन्थ प्रवचन से। ५. व्याख्यान स्तुति से। ६. ज्ञानार्णव पृ.६ ७. सुभाषित से ८. आचार्य हरिभद्र। -डागा सदन, संघपुरा मौहल्ला, टोंक (राज) 124 - स्वाध्याय शिक्षा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-आहित्य के कतिपय शब्दों की मीमांसा श्री रमेशमुनि जी शास्त्री (उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म.सा. के शिष्य) जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की अपनी महत्ता है। इन शब्दों की विवेचना में अभिधान राजेन्द्र कोश, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश आदि कोश भी बने हैं, किन्तु पं. रत्न श्री रमेशमुनि जी शास्त्री ने कतिपय पारिभाषिक शब्दों का चयन कर विशेष रीति से उनकी विवेचना की है। -सम्पादक यह यथार्थपूर्ण तथ्य है कि अभिव्यक्ति स्वयं सिद्ध दिव्य शक्ति है और असीम क्षमता भी है। अभिव्यक्ति एवं आर्थिक व्यंजना में शब्द शक्ति की भूमिका रही है वह शिरसि शेखरायमाण है। शब्द और अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर यह है कि शब्द एक शक्ति है जबकि अभिव्यक्ति उस शक्ति का परिणाम है। प्रत्येक शब्द अपनी आर्थिक सम्पदा के दृष्टिकोण से विशिष्ट है, वरिष्ठ है। उस शाब्दिक अर्थ की अपनी परिभाषा है। अभिव्यक्ति के बहुविध उपकरणों में भाषा का जो स्थान है वह वस्तुवृत्त्या महत्त्वपूर्ण है। शब्द के रूप और अर्थ में काल एवं क्षेत्र का प्रभाव अमिट रूप से अंकित होता है। इतना ही नहीं, कालान्तर में उसके मौलिक स्वरूप में निश्चितरूपेण परिवर्तन भी परिलक्षित होता है। परिवर्तन की इस नित्य निरन्तर धारा में आगमीय शब्दावली भी अपना अर्थ-अभिप्राय विशेषतः ग्रहण करती है। शब्द वास्तव में स्थूल है और उसमें व्यंजित अर्थ अति सूक्ष्म है। यद्यपि सूक्ष्म की अभिव्यक्ति स्थूल के माध्यम से कदापि संभव नहीं है, तथापि जो शब्द किसी न किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है, व्यवहृत हो जाता है, अतिशय अर्थ की अपेक्षा से वह शब्द सामान्य रूप नहीं रह पाता है। अपितु पारिभाषिक शब्द के रूप में, उसकी महत्त्वपूर्ण और विलक्षण पहचान बन जाती है। किसी भी भाषा विशेष में पारिभाषिक शब्दावली की विद्यमानता उस भाषा-भाषी के बौद्धिक उत्कर्ष एवं बौद्धिक-उन्मेष का जीवन्त ज्वलन्त प्रतीक है और जहाँ उसका सद्भाव भी नहीं है वहाँ बौद्धिक दारिद्र्य का एकछत्र आधिपत्य ही है। भाषाओं की शब्दावली में पारिभाषिक शब्दों का सर्वतन्त्र स्वतन्त्र स्थान होता है। विशिष्ट अस्तित्व और वरिष्ठ महत्त्व सर्वदा एवं सर्वथा रहा है। जैन वाङ्मय विपुल है, विस्तृत है और विविध विद्याओं में विद्यमान है। उसमें 'आगम साहित्य' का अपना गौरवपूर्ण स्थान है। यह वह साहित्य है, जिसका यथार्थतः मूल्यांकन कर पाना शक्ति एवं मति से परे है। वास्तव में प्रस्तुत बहुविध वाङ्मय अगाध-अपार अमृत सागर है। सागर में मुक्ता प्राप्त होते हैं, अन्य असार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुएँ भी सम्प्राप्त हो जाती हैं और उसका जल भी क्षारपूर्ण है, किन्तु आगम सागर में मुक्ता ही मुक्ता हैं, क्षीर ही क्षीर है। यह क्षीर सुधा सा माधुर्य पूर्ण है, जीवनदायक है। जो भी इसमें निरन्तर अवगाहन करता है, इसका मन्थन करता है, वह रिक्त हस्त नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान का दिव्यरत्न अथवा पारिभाषिक शब्दों की मणि मुक्ता निश्चित रूपेण प्राप्त कर लेता है। मैं स्वयं भी एक अतीव सामान्य सा अवगाहक हूँ, छोटा सा गोताखोर हूँ। अवगाहन करना अथवा मन्थन करना मेरा व्यवसाय नहीं है, व्यसन है। जीवन के निर्णीत संलक्ष्यों में एक लक्ष्य है। एतदर्थ जब-तब भी अवकाश के पुण्य पल प्राप्त हुए, आगम सागर का मन्थन कर लेता हूँ। प्रस्तुत निबन्ध की परिधि में आगमीय शब्दावली में से कतिपय शब्दों की मुक्ता एकत्र करना मेरा अभिप्रेत लक्ष्य बिन्दु है। शाब्दिक मुक्ताओं की जो अर्थ आत्मा है, तद् विषयक विचारणा और विमर्शना संप्रस्तुत की जा रही है। जो शब्दगत अर्थ ज्योति अनावृत्त करेगा उसे यह आर्थिक आलोक वस्तुवृत्त्या ज्ञानवृद्धि और विषय स्पष्टता में सहायक हो सकेगा और शब्दों की लाक्षणिकता एवं वैज्ञानिकता भी सहन किरण दिनकर के सदृश प्रदीप्तिमान होगी, इस कथन में अणुमात्र भी अतिशयपूर्ण उक्ति नहीं, अपितु समग्रतः यथार्थता है। यहाँ पर आगम में प्रयुक्त कतिपय शब्दों पर विचार किया जा रहा है। 09. आगम आगम शब्द 'आ(आङ्)' उपसर्ग पुरस्सर 'गम्' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ 'समन्तात्' है अर्थात् पूर्ण है तथा 'गम्' धातु का अर्थ 'गतिप्राप्ति' है। आगम शब्द की बहुविध परिभाषा है। जो गुरु परम्परा से अविच्छिन्न गति से आ रहा है तथा जिसके माध्यम से सब ओर से जीव-अजीव प्रभृति पदार्थों को जाना जाता है वह आगम कहलाता है।' जो तत्त्व आचार-परम्परा से वासित होकर आता है वह आगम कहलाता है। जिसके द्वारा सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र ‘आगम' कहलाता है। तथ्य यह है कि 'आगम' शब्द समग्र श्रुति का परिचायक है। सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय, जिनवचन और श्रुत ये सर्व शब्द आगम के पर्यायवाची हैं। वास्तव में 'आगम' शब्द शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जहाँ आगम व्यवहार का वर्णन हुआ है, वहाँ उसके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो भेदों का प्रतिपादन भी स्पष्टतः हुआ है। एक अपर विवक्षा के आधार पर आगम का - 126 126 - स्वाध्याय शिक्षा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गीकरण त्रिविध रूप से हुआ है - आत्मागम, अनन्तरागम एवं परम्परागमा आगम के अर्थ-रूप एवं सूत्र-रूप ये दो भेद हैं। तीर्थंकर महाप्रभु अर्थ -रूप आगम का उपदेश करते हैं। अतएव अर्थ-रूप आगम तीर्थंकरों का आत्मागम कहलाता है। क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है। अन्य से उन्होंने नहीं लिया है। किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है। गणधर एवं तीर्थंकर के मध्य किसी तृतीय व्यक्ति का व्यवधान नहीं है। एतदर्थ गणधरों के लिये वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है। किन्तु उस अर्थागम के आधार पर स्वयं गणधर सूत्र रूप . रचना करते हैं। इसलिये सूत्रागम गणधरों के लिये “आत्मागम" कहलाता है। गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा प्राप्त होता है। उनके मध्य में कोई भी व्यवधान रूप नहीं होता है। एतदर्थ उन शिष्यों के लिये सूत्रागम 'अनन्तरागम' है। किन्तु अर्थागम ‘परम्परागम' है, क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्म गुरु गणधरों से प्राप्त किया है, जो गणधरों को भी आत्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्यों एवं प्रशिष्यों के लिये सूत्र एवं अर्थ वास्तव में परम्परागम है। निष्कर्ष यह है कि जैन आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से नहीं है, अपितु उसके अर्थ प्ररूपक तीर्थकर की वीतरागता और सर्वार्थ साक्षात्कारित्व से है। 'आगम'. संस्कृत भाषा का शब्द है। जिसका सामान्य अर्थ 'आना' होता है। परन्तु निरुक्त में इसका वाच्य अर्थ 'किसी शब्द में किसी वर्ण का आना तथा प्रत्यय होता है।' धर्म शास्त्र में 'आगम' का अर्थ धर्मग्रन्थ तथा परम्परा से चला आने वाला 'सिद्धान्त' है। यथार्थता यह है कि 'आगम' जैन परम्परा का प्रचुर प्राचीन पारिभाषिक शब्द है। इतना ही नहीं, संस्कृत एवं प्राकृत इन दोनों भाषाओं में इसका एक जैसा रूप-स्वरूप दृष्टिगत होता है। अतएव यह शब्द तत्सम शब्द है। ०२ आत्मा प्राकृत भाषा में 'आया', 'अत्ता' एवं 'अप्पा' शब्द 'आत्मा' के लिए प्रयुक्त हुए हैं और ये आगम-साहित्य में बहुधा रूपेण व्यवहृत हैं। आत्मा और जीव ये एक ही तत्त्व के दो नाम है। आत्मा शब्द "अत सातत्य गमने" अर्थात् अत् धातु से निष्पन्न हुआ है। 'अतति सततं भवं गच्छति इति आत्मा' रूप में आत्मा की परिभाषा है। आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधन में बंध कर निरन्तर भ्रमण करती है। 'गमन' अर्थ वाली धातु ज्ञानार्थक भी होती है। इसलिये जो 'ज्ञान' आदि गुणों में 'आ' अर्थात् समन्तात् रहता है, रमण करता है, वह आत्मा है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से - 127 स्वाध्याय शिक्षा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा एक है, किन्तु पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से परिणात्मक होने के कारण इसके तीन भेद भी हैं और वे ये हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा। इनमें संसारी आत्मा शरीर, वैभव प्रभृति पर द्रव्यों में आत्मबुद्धि रखता है। अतएव वह बहिरात्मा है। जब उसकी यह पर-बुद्धि दूर हो जाती है अर्थात् उसके 'मिथ्यात्व' के मिट जाने पर 'सम्यक्त्व' आ जाता है तब वह अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा जब सर्वज्ञ बन जाता है, तब वह 'परमात्मा' कहलाता है। स्वरूप लक्षण के अनुसार आत्मा उपयोगमय है।" आत्मा और उपयोग वस्तुतः भिन्न-भिन्न नहीं हैं, अपितु एकाकार हैं। इस विवक्षा से आत्मा एवं उपयोग परस्पर पर्याय हैं। ये दोनों सर्वथा अक्षुण्ण रूप से अभेदात्मक स्थिति को प्राप्त हैं। आत्मा नवविध तत्त्व में एक तत्त्व है।" षड्विध द्रव्य में एक द्रव्य है और दो राशियों में एक राशि है। वास्तव में आत्मा ही एक ऐसा द्रव्य है, जो प्रत्येक द्रव्य का यथार्थतः विज्ञायक है और निर्णायक भी है। 03. आश्रव (आस्रव) ___'आसव' प्राकृत भाषा का रूप है और प्रस्तुत शब्द जैनागम-वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त भी हुआ है।' 'आसव' शब्द का संस्कृत रूपान्तर दो प्रकार से प्राप्त होता है। प्रथम रूप “आश्रव" है और द्वितीय रूप "आम्रव" है। इन दोनों रूपों का प्रचुर प्रयोग जैन साहित्य में सम्प्राप्त है। आनव शब्द 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक 'नु' धातु से 'अण्' प्रत्यय होने पर निष्पन्न हुआ है। जिसका पारिभाषिक अर्थ है- जिसके द्वारा आत्मा में पुण्य-पाप रूप कर्म प्रवेश करते हैं। उसी का नाम 'आम्नव' या 'आश्रव' है। आश्रव वस्तुतः एक ऐसा द्वार है जिसके द्वारा ही आत्मा कार्मिक पुद्गलों को ग्रहण करती है। आश्रव जीव का विभाव में रमण करने का कारण होता है। इसलिये विभाव और स्वभाव को समझ कर स्वभाव में संस्थित होना ही आश्रव से मुक्त होना है। आश्रव के संदर्भ में एक सर्वथा सटीक रूपक है। एक सागर खुला रहता है, उसके कोई बान्ध अथवा तट नहीं बना होता है। एतदर्थ जल-परिपूर्ण सरिताएँ चारों ओर से आ-आ कर उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं। वह सागर जल से भर जाता है। सागर चाहे कि मेरे भीतर नदियाँ प्रविष्ट न हों, वे मुझे जल से न भरें, यह कदापि संभव नहीं है। क्योंकि सागर के चारों ओर के छोर खुले हैं। कोई तटबन्ध अथवा बान्ध नहीं बना हुआ है। इसी प्रकार जागतिक आत्मा रूपी समुद्र के चारों ओर कर्म रूपी जल के आने के छोर अथवा द्वार उद्घाटित हों, ऐसी स्थिति में कर्म निश्चित रूपेण आयेंगे। आत्मा की रागात्मक एवं द्वेषात्मक अथवा कषाय-संयुक्त परिणामधारा कर्म-परमाणुओं के आकर्षण का कारण अवश्य बनती .. 128 स्वाध्याय शिक्षा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। वह उन कर्म पुद्गल परमाणुओं को आकृष्ट करने की क्रिया भी है। ये दोनों ही आश्रव के रूप हैं। इनमें प्रथम 'भावाश्रव' है और 'द्रव्याश्रव' उसका कार्य है। आश्रव शुभ रूप भी है और अशुभ रूप भी है। पुण्य का आश्रव शुभ है, जबकि पाप का आश्रव अशुभ होता है। आश्रव के मूलतः पंचविध भेद हैं"- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। ये पाँचों भेद वास्तव में आश्रव रूपी आग के उत्पादक एवं उत्तेजक हैं। इसीलिये ये 'हेय' हैं। ०४. संवर संवर' तत्सम शब्द है। प्रस्तुत शब्द प्राकृत और संस्कृत इन दोनों भाषाओं में प्रयुक्त हुआ है। जैन आगम साहित्य में इस शब्द का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगत होता है।" सम् उपसर्ग-पुरस्सर 'वृञ्' वरणे धातु से 'अप्' प्रत्यय प्रयुक्त करने पर ‘संवर' शब्द निष्पन्न हुआ है। संवर वस्तुतः आश्रव निरोध की प्रक्रिया है। आश्रव द्वारों को अवरुद्ध कर देना, आश्रव जनित दोषों का परिवर्जन करना “संवर" है। संवर और आश्रव ये दोनों एक दूसरे के लिये विजातीय हैं। यह सुनिश्चित है कि पुण्य और पाप ये दोनों ही क्रमशः शुभ एवं अशुभ आश्रव हैं। संवर इन दोनों आश्रवों तथा उनके शुभ-अशुभ उपयोगों से आत्मा को हटा कर उसे शुद्धोपयोग रूप धर्म में सुस्थिर कर देता है। वास्तव में संवर आश्रव-निरोध की क्रिया है," पद्धति है और साधन है। संवर की साधना के माध्यम से नये कर्मों का आगमन नहीं होता है और यह आत्मा की जागृति, विकास एवं स्वरूप में स्थिरता के लिये उपादेय तत्त्व है। इसके मुख्य पाँच भेद हैं- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। ये पाँचों भेद आश्रव के विरोधी हैं और आध्यात्मिक समुत्कर्ष के क्रमिक सोपान हैं। द्रव्य-संवर और भाव-संवर के रूप में संवर दो प्रकार का प्रतिपादित है।" आत्मा के मोह, राग, द्वेष आदि आन्तरिक वैभाविक परिणामों का निरोध करना "भाव संवर" है। जबकि आत्मा के निमित्त से योग द्वारों से प्रविष्ट होने वाले कर्म-पुद्गलों का निरोध करना "द्रव्य संवर" है। निष्कर्ष की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संवर जीव का स्वभाव में रमण करने का प्रमुख कारण होता है। अतएव वह स्वानुभूति का राजमार्ग है। . 04. कषाय ___'कसाय' आगमीय शब्द है, जो जैन आगम में एक पारिभाषिक शब्द के रूप में व्यवहृत हुआ है। यह वह शब्द है, जिसका प्रचुर प्रयोग जैन आगम वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में परिदृश्यमान है। 'कसाय' प्राकृत भाषा का शब्द है, जिसका स्वाध्याय शिक्षा - 129 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत रूपान्तर 'कषाय' है। कष और आय इन दो शब्दों के योग से “कषाय" शब्द का गठन हुआ है। 'कष' शब्द का अर्थ 'कर्म' है अर्थात् जन्म-मरण है और 'आय' का अर्थ 'लाभ' है। जिससे कर्मों का आय अथवा बन्धन होता है, जिससे जीवात्मा को पुनः पुनः जन्म-मृत्यु के चंक्रमण में पड़ना पड़ता है, वास्तव में वही वृत्ति "कषाय" है। जो मनोवृत्तियाँ आत्मा को कलुषित कर देती हैं, जिनके प्रभाव से आत्मा अपने स्वभाव से विमुख हो जाता है वे कषाय हैं। आवेग और लालसा विषयक वृत्तियाँ कषाय का प्रजनन करती हैं और इन विविध वृत्तियों का नाना प्रकार से व्यवहार कषाय-कौतुक को जन्म देता है। जो क्रोध, मान आदि जीवों के सुख-दुःख रूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्म रूप खेत का कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिये संसार की चारों गतियां मर्यादा अथवा मेंड रूप हैं वे "कषाय" हैं। जो काषाय रस के समान है वह कषाय है। जैसे बड़ आदि वृक्षों का काषाय रस श्लेष अर्थात् चिपकने का कारण है। चारित्र-परिणामों का कर्षण अर्थात् घात करने के कारण क्रोधादि चतुष्टय कषाय कहलाते हैं। क्रोधादि परिणाम आत्मा को दुर्गति में ले जाने के कारण आत्मिक स्वरूप का कर्षण अर्थात् हनन करते हैं, इस कारण वे कषाय कहलाते हैं। निष्कर्ष यह है कि क्रोधादि रूप कालुष्य ही कषाय हैं। कषाय के मूलतः चार भेद हैं - क्रोध, मान, माया और लोभा संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं- प्रथम राग है और दूसरा द्वेष है।" माया और लोभ ये दोनों राग के अन्तर्गत हैं जबकि क्रोध एवं मान इनका अन्तर्भाव द्वेष के अंतर्गत हो जाता है। कषाय के जो भी भेद-प्रभेद हैं वे अपेक्षा के आधार पर आधृत हैं। कर्मबन्ध के दो कारण है-प्रथम योग है द्वितीय कषाय है। प्रकृति एवं प्रदेश इन दोनों का बन्ध योग से होता है तथा स्थिति एवं अनुभाग इन दोनों का बन्ध कषाय से होता है। संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबन्ध का मूल एवं मुख्य हेतु है। वास्तव में कषाय का आवेग प्रबल होता है। जन्म-मृत्यु रूप विषवृक्ष कषाय से हरा भरा रहता है। वास्तव में कषाय एक ऐसा कौतुक है, जो आत्मा को कर्म जाल में जकड़ लेता है। ०६. समिति 'समिई' यह आगमीय पारिभाषिक शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रयोग जैनागमों में बहुविध स्थलों पर हुआ है।" 'समिई' का संस्कृत रूपान्तर “समिति" बनता है। 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'इण्' धातु में ‘क्तिन्' प्रत्यय करने पर “समिति" शब्द निर्मित होता है। 'समिति' शब्द का अर्थ 'सभा' भी है। किन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समिति का अर्थ इस रूप में किया गया है- श्रमण की चारित्र में जो सम्यक् प्रवृत्ति है, 130 स्वाध्याय शिक्षा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह समिति है। प्राणी पीड़ा का परिहार करते हुए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। वास्तव में चारित्र के अनुकूल होने वाली प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है। इस आधार पर समिति का वर्गीकरण पाँच प्रकार से हुआ है।" उनके नाम हैं- ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान- निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति। इन पंचविध समितियों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला श्रमण पापकर्मों से लिप्त नहीं होता है। वास्तव में विवेकयुक्त प्रवृत्ति “समिति” है। ०७ प्रतिक्रमण 'पडिक्कमण' आगमिक शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रचुररूपेण प्रयोग जैनागमों में स्पष्टतः हुआ है। " पडिक्कमण का संस्कृत रूपान्तर 'प्रतिक्रमण' होता है। 'प्रति' उपसर्ग 'क्रमु' पाद निक्षेपे धातु से 'प्रतिक्रमण' शब्द निष्पादित हुआ है। ‘प्रति’ का तात्पर्य ‘प्रतिकूल’ है और 'क्रम' धातु का अर्थ 'पद निक्षेप' है। साधक जिन प्रवृत्तियों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप स्वस्थान से हट कर मिथ्यात्व, अज्ञान तथा असंयम रूप पर-स्थान में चला गया है उसका पुनरपि अपने आप में लौट आना, प्रतिक्रमण है। पाप क्षेत्र से आत्म-: -शुद्धि के क्षेत्र में आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता है । प्रायश्चित्त के दशविध भेदों में " प्रतिक्रमण " द्वितीय प्रकार है।" नियम भंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे लौट आना अर्थात् भविष्य में उसे न करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आपराधिक स्थिति से अनपराधिक स्थिति में लौट आना "प्रतिक्रमण" है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण में पर्याप्त अन्तर यह है कि आलोचना में अपराध को पुनः सेवन न करने का निश्चय नहीं होता है, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है, अनिवार्य है। निष्कर्ष यह है कि मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, दूसरे जनों के द्वारा कराया जाता है तथा अन्यान्य व्यक्तियों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के लिये कृत पापों की समीक्षा करना और पुनः पुनः न करने की प्रतिज्ञा करना " प्रतिक्रमण" है। शुभ योग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने आपको पुनरपि शुभ योग में लौटा लाना 'प्रतिक्रमण' है।" मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय एवं अशुभ योग में चला गया हूँ तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और शुभ योग में आना चाहिए। इसी दृष्टि से इन पाँचों का प्रतिक्रमण किया जाता है। यथार्थता यह है कि प्रतिक्रमण अध्यात्म - साधना का प्राणभूत तत्त्व है, आत्म-शोधन की विशिष्ट एवं वरिष्ठ कला है और जीवन परिष्कार की प्रभावी प्रक्रिया है । 31 32 स्वाध्याय शिक्षा 131 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } ०८. अनुयोग 33 34 'अणुओग' यह प्राकृत भाषा का रूप है। उक्त शब्द जैनागमों में बहुविध स्थलों पर सप्रसंग प्रयुक्त हुआ है। " 'अणुओग' का संस्कृत रूपान्तर 'अनुयोग' है । 'अनु' उपसर्ग पुरस्सर 'युज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर 'अनुयोग' शब्द निष्पन्न होता है। जिसका अर्थ 'परिच्छेद' अथवा 'प्रकरण' है । " वास्तव में 'अनुयोग' शब्द यों तो संसार के समस्त पदार्थों का यथायोग्य योग करने के अर्थ में है । परन्तु यहाँ पर अनुयोग शब्द शास्त्र में प्रतिपादित प्रत्येक वस्तु का बहुविध पहलुओं से विश्लेषण करने के अर्थ में है, वास्तव में शब्द दो प्रकार के होते हैं। प्रथम 'यौगिक' और द्वितीय 'रूढ' । उनमें से कई शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं जो भिन्न-भिन्न देश काल में भिन्न-भिन्न अर्थ प्रसंग के अनुसार प्रचलित हैं । किन्तु प्रयोगकर्ता के आशय के अनुसार एक अर्थ स्पष्टतः प्रमुख रहता है। तदनुसार अनुयोग शब्द के दो अर्थ अपेक्षित हैं। प्रथम अर्थ - सूत्र के अनुकूल अर्थ का योग करना है । द्वितीय अर्थ - एक - एक विषय के अनुरूप अर्थात् सदृश विषयों का योग करना अथवा वर्गीकरण संकलन करना। ‘अनुयोग' में जो 'अनु' उपसर्ग है उसका अर्थ ‘अनुकूल’ है। 'अनु' का अर्थ पश्चाद्भाव अथवा स्तोक है । उस दृष्टि से अर्थ के पश्चात् जायमान अथवा स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह 'अनुयोग' कहलाता है। निष्कर्ष यह है कि अनुयोजन को 'अनुयोग' कहा है। 'अनुयोग' यहाँ पर जोड़ने अथवा संयुक्त करने के अर्थ में व्यवहृत है। जिससे एक-दूसरे को संबंधित किया जा सके जो भगवत् कथन से संयोजित करता है वह अनुयोग है। अनुयोग में 'अनु' का प्राकृत रूपान्तर ‘अणु’ बनता है। सूत्र 'अणु' अर्थात् सूक्ष्म होता है, लघुकाय रूप होता है, छोटा सा होता है । एक ही सूत्र के अनन्त अर्थ होने से उस सूत्र का अर्थ महान् होता है। इस प्रकार अणु सूत्र के साथ महान् अर्थ का योग संबंध स्थापित करना 'अनुयोग' कहलाता है । 'अनुयोग' शब्द का अन्य अर्थ इस रूप में भी किया है- अनुयोग अर्थात् व्याख्या । व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग का वर्गीकरण चार प्रकार से हुआ है। उनके मुख्य भेद ये हैं- चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग । इन चार भेदों के अतिरिक्त अनुयोग के 'प्रथमानुयोग और 'गण्डिकानुयोग' ये दो भेद भी प्रतिपादित हुए हैं। " निष्कर्ष यह है कि सूत्र के अर्थ को अर्थात् व्याख्या करने की पद्धतियों को 'अनुयोग' शब्द से परिलक्षित किया गया है और अनुयोग के आधार पर विषयानुसार वर्गीकरण करने से एक विषय का समग्र वर्णन युगपत् रूप से प्राप्त हो जाता है। 35 132 स्वाध्याय शिक्षा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०९. श्रमण 37 'समण' यह प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैन आगम - साहित्य का जब भी सर्वेक्षण और अन्वीक्षण किया जाता है, तब यह " समण" शब्द न केवल शतशः अपितु सहस्रशः दृष्टिगत होता है । वास्तव में जैनागमों में यह शब्द बहुधा प्रयुक्त हुआ है। " 'समण' शब्द के संस्कृत रूपान्तर चार बनते हैं। वे हैं - श्रमण, शमन, समन एवं समण। अर्थ की दृष्टि से उक्त शब्दों में पर्याप्तरूपेण अन्तर है । 'श्रमण' शब्द 'श्रम्' धातु से निष्पन्न हुआ है। जो मोक्ष - प्राप्ति के लिए श्रम अर्थात् परिश्रम करता है, तप करता है, वह 'श्रमण' है। 'श्रमण' शब्द से यह अभिव्यक्त होता है कि श्रमण संस्कृति का आदर्श प्रतीक श्रमण स्वयं श्रम से अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष करता है, स्वयं श्रम से मोक्ष प्राप्त करता है। इतना ही नहीं वह तपस्या से क्षीणकाय तथा तपस्वी “श्रमण" कहलाता है । " समण' का द्वितीय संस्कृत रूपान्तर 'शमन' है। शमन का अर्थ है - जो अपने राग-द्वेष रूप कषाय का शमन करता है, कषाय को उपशान्त कर देता है, वह वस्तुतः शमन कहलाता है । 'समण' का तृतीय संस्कृत रूप 'समन' बनता है । सर्व जीवों को आत्मतुला की दृष्टि से तोलने वाला समतायोगी “समन” कहलाता है। वास्तव में राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ वृत्ति वाला 'समन' होता है । " निष्कर्ष यह है कि जो किसी से द्वेष नहीं करता है, जिसको सर्वजीव समान भावेन प्रिय हैं और वह अपने मन को शत्रु मित्र, निन्दा - स्तुति, उदय-अस्त, कंचन- कांच तथा लाभ-हानि में संतुलित रखकर समता भाव में अवस्थित रहता है, यही 'समन' शब्द का अर्थ और आशय है। 'समण' का चतुर्थ रूप संस्कृत भाषा में 'समण' बनता है। जो सर्व जीवात्माओं के साथ समान रूप से व्यवहार करता है। अन्य के सुख और दुःख को अपने समान समझता है और सर्व जीवों के साथ स्थायी रूप से मैत्री भाव संस्थापित करता है वह समण है । " 'श्रमण' मुनि और निर्ग्रन्थ का ही पर्यायवाची शब्द है । वास्तव में 'श्रमण' श्रमण-संस्कृति का सजग प्रहरी होता है, उसके जीवन में संयम और समता का 'मणिकांचन संयोग' परिलक्षित होता है। 39 40 १०. आचार्य ‘आयरिय’ प्राकृत भाषा का शब्द है। जैन आगम वाङ्मय में प्रस्तुत शब्द का अनेक स्थलों पर स्पष्टतः प्रयोग हुआ है।" 'आयरिय' का संस्कृत रूपान्तर 'आचार्य' बनता है। 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक 'चर्' गतिभक्षणयोः धातु से 'आचार्य' शब्द निर्मित हुआ है। आचार्य शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार से प्रतिपादित है"- 'आ' स्वाध्याय शिक्षा 133 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् मर्यादापूर्वक अथवा मर्यादा के साथ जो भव्य जनों द्वारा चर्या अर्थात् सेवनीय है वह 'आचार्य' है। जिनेन्द्र तीर्थकर द्वारा प्ररूपित आगमीय ज्ञान को हृदयंगम कर उसे आत्मसात करने की उत्कट उत्कण्ठा वाले अन्तेवासियों द्वारा जो विनय आदि पूर्ण मर्यादापूर्वक सेवित हो उनको 'आचार्य' कहा जाता है। जो सूत्र और अर्थ उभय के परिज्ञाता हों, उत्कृष्ट लक्षणों से संयुक्त हों, चतुर्विध संघ के लिए मेढिभूत अर्थात् आधार स्तम्भ के समान हों, जो अपने गण-गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सर्वथा सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को जैनागमों की गूढार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो पंचविध आचार अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्याचार का स्वयं सम्यक् प्रकार से प्रपालन, प्रकाशन, प्रसारण तथा उपदेश करते हैं तथा अपने अन्तेवासियों से भी उसी प्रकार का आचरण करवाते हैं, उन्हें “आचार्य" कहा जाता है। आचार्य को प्रदीप की उपमा से उपमित किया गया है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाशित होते हुए औरों को भी प्रकाशमान कर देता है तथा उससे अन्य शतशः सहस्रशः दीप प्रदीप्त किये जा सकते हैं। श्रमण संघ में कतिपय पदों की व्याख्या का उल्लेख प्राप्त होता है। धर्म संघ का श्रमण-श्रमणीवर्ग सुदृढ़ संगठन तथा पूर्णरूपेण अनुशासन में रहते हुए सम्यग् रीति से ज्ञानाराधना तथा अध्यात्म साधना का निरन्तर उत्तरोत्तर समुत्कर्ष, धर्म का प्रचार-प्रसार-प्रभावना-अभ्युत्थान तथा निर्दोष रूपेण संयम और जीवन का निर्वाह कर सके, इसी दृष्टि से धर्म संघ में पदों की व्यवस्था की गई हैं। सप्तविध पदों का जहाँ उल्लेख प्राप्त होता है वहां आचार्य का पद सर्वप्रथम है।" यह यथार्थपूर्ण कथन है कि चतुर्विध धर्म संघ में 'आचार्य' का पद अप्रतिम, गौरव गरिमापूर्ण एवं सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन तथा सर्वतोमुखी समुत्कर्ष का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व आचार्य पर रहता है। वास्तव में आचार्य को तीर्थकर के समान एवं सकल संघ का नेत्र बताया गया है। आचार्य के प्रभावी व्यक्तित्व के माध्यम से चतुर्विध धर्मसंघ में सौहार्द का संचार होता है, फलतः श्रीसंघ विकसित एवं समुन्नत बनता है। ११. ध्यान 'झाण' प्राकृत भाषा का शब्द है। जैन आगम-साहित्य में उक्त शब्द का प्रयोग बहुविध-संदर्भो में हुआ है। 'झाण' का संस्कृत रूपान्तर 'ध्यान' बनता है। 'ध्यै' चिन्तायाम् धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय होने पर 'ध्यान' शब्द निर्मित होता है। चेतना ... 134 - स्वाध्याय शिक्षा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रकार की है- प्रथम 'चल' चेतना और द्वितीय 'स्थिर' चेतना है। चंचल चेतना की संज्ञा 'चित्त' है तथा 'स्थिर' चेतना का नाम 'ध्यान' है। जैसे अग्नि की अपरिस्पन्दमान ज्वाला को 'शिखा' कहा जाता है वैसे ही चंचलता से रहित चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। किसी एक विषय में निरन्तर ज्ञान की अनुभूति होते रहना 'ध्यान' है। इस निरन्तरता को 'एकाग्रता' भी कहा जा सकता है अर्थात् 'एकाग्रज्ञान' ध्यान है। प्रस्तुत कथन में 'एकाग्र' का आशय 'व्यग्रता-रहित' लिया जायेगा। यह ध्यान मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों को युगपद् अर्थात् एक साथ अवरुद्ध करने पर होता है तथा इन तीनों की पृथक्-पृथक् प्रवृत्ति को रोकने पर भी होता है। इसी दृष्टि से मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यान इस प्रकार ध्यान को त्रिविध रूप में रूपायित किया गया है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा का आत्मा के द्वारा आत्मा के विषय में एकाग्रता-पुरस्सर, चिन्तन और मनन करना यथार्थ रूपेण ध्यान है और यही ध्यान श्रेयस्कर है। १२. संलेखना . 'संलेहणा' शब्द प्राकृत भाषा का है। इस शब्द का प्रयोग आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है।" संलेहणा के दो संस्कृत रूपान्तर प्राप्त होते हैं। प्रथम 'संलेखना' है और द्वितीय ‘सल्लेखना' है। 'लिख लेखने' धातु से 'युच्' प्रत्यय करने पर 'लेखना' शब्द निष्पन्न हुआ है। उक्त शब्द में 'सम्' उपसर्ग प्रयुक्त करने पर संलेखना एवं 'सत्' जोड़ने पर सल्लेखना शब्द निष्पन्न होता है। ये दोनों रूप जैन वाङ्मय में सम्प्राप्त हैं। जिस क्रिया के द्वारा शरीर और कषाय को दुर्बल एवं कृश . किया जाता है वह 'संलेखना' है। इसी अर्थ और आशय को अन्य स्थल पर स्वीकार किया गया है। चरम अनशन की विधि को 'संलेखना' कहा गया है। 'सल्लेखना' यह शब्द 'सत्' और 'लेखना' इन दोनों के संयोग से निर्मित हुआ है। सत् का अर्थ 'सम्यक्' है और लेखना का आशय 'कृश' करना है। समीचीन रूप से कृश करना, . यह सल्लेखना का अभिप्रेत अभिप्राय है। काय और कषाय ये दोनों कर्मबन्ध के मूलभूत हेतु हैं। इसीलिये उनको कृश करना ही सल्लेखना है। इसी भाव का सशक्त शब्दों में समर्थन भी प्राप्त होता है। वहाँ मरण के दो प्रकार प्रतिपादित हुए हैं-'नित्यमरण' और तद्भवमरण। तद्भवमरण को सुधारने के लिये 'संलेखना' का स्पष्टतः वर्णन है। जहाँ मरण के सप्तदश भेदों का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है, वहाँ 'तद्भवमरण' का भी निरूपण हुआ है। 'काय' संलेखना को बाह्य संलेखना कहते हैं तथा कषाय संलेखना को आभ्यन्तर संलेखना कहा गया है। साधनाशील स्वाध्याय शिक्षा 135 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक बाह्य संलेखना में आभ्यन्तर कषाय को परिपुष्ट करने वाले कारणों को शनैः शनैः कृश करता है। इस प्रकार संलेखना में कषाय क्षीण होने के साथ तन क्षीण होने पर भी अन्तर्मन में अपूर्व आनन्द का संचार होता है। निष्कर्ष यह है कि साधक शरीर और कषाय को इतना अधिक कृश कर लेता है कि उससे उसके अन्तर्मन में किसी भी प्रकार की कामना नहीं होती है। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है। अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है, पर आयुकर्म क्षीण न हो, और वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है। जैसे दीपक में तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है। वैसे ही आयुकर्म और शरीर एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण होता है। वास्तव में संलेखना व्रतराज है, हमारे जीवन रूपी सुरम्य मन्दिर का चमकता हुआ स्वर्ण कलश है। . 93. दर्शन 'दसंण' प्राकृत भाषा का शब्द है। प्रस्तुत शब्द जैन आगम के विविध संदर्भो में प्रयुक्त हुआ है। 'दसण' का संस्कृत रूपान्तर 'दर्शन' निष्पन्न होता है। 'दृश अवलोकने' भ्वादिगणी परस्मैपदी धातु से ल्युट् प्रत्यय होने पर 'दर्शन' शब्द बनता है। यह दृश् धातु से उत्पन्न 'दर्शन' शब्द चक्षु से समुद्भूत होने वाले ज्ञान का बोध कराता है। दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ तथा सामान्य रूप से प्रचलित अर्थ भी 'चक्षु' से उत्पन्न होने वाला ज्ञान होता है। आंखों से देखने की इस प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए 'साक्षी' शब्द का अर्थ साक्षात् द्रष्टा माना जाता है। 'दर्शन' शब्द के अर्थ के विषय में विचार कर लेना अपेक्षित है। दर्शन शब्द के मूलतः त्रिविध अर्थ या आशय हैं। प्रथम अर्थ यथार्थ दृष्टिकोण है, द्वितीय अर्थ श्रद्धा है तथा तृतीय अर्थ अनुभूति है। इसमें अनुभूतिपरक अर्थ का संबंध तो ज्ञानमीमांसा से है और इस संदर्भ में वह ज्ञान का पूर्ववर्ती है। यदि हम 'दर्शन' का दृष्टिकोण परक अर्थ लेते हैं तो साधना मार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए। क्योंकि यदि मानव का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, अयथार्थ है तो न उसका ज्ञान सम्यक् होगा और न चारित्र ही सम्यक् हो सकता है। अविचल श्रद्धा एवं अटूट आस्था तो ज्ञान के अनन्तर ही उत्पन्न हो सकती है एतदर्थ ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है, जिसमें 'दर्शन' का अर्थ 'श्रद्धा' परक किया गया है और उसे ज्ञान के बाद स्थान दिया गया है। ज्ञान के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को जाने और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करे। मानव के स्वानुभव अर्थात् ज्ञान के पश्चात् जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, उसमें जो स्थायित्व होता है वह ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा से नहीं हो सकता है। ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती 136 स्वाध्याय शिक्षा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उसमें संशय होने की संभावना हो सकती है। ऐसी श्रद्धा यथार्थ श्रद्धा नहीं, अपितु अन्धश्रद्धा ही होती है। यद्यपि अध्यात्मसाधना के लिये और आचरण के लिये सम्यक् श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है और यह श्रद्धा ज्ञान प्रसूत होनी चाहिये। मेरे विनम्र मन्तव्य के अनुसार यथार्थ दृष्टि परक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए, जबकि श्रद्धा परक अर्थ में सम्यग्दर्शन को ज्ञान के अनन्तर स्थान देना चाहिए। यह सुस्पष्ट है कि चारित्र की अपेक्षा ज्ञान एवं दर्शन को प्राथमिकता दी गई है। चारित्र, ज्ञान और दर्शन इन तीनों का परस्पर संबंध है और अपेक्षाकृत अन्तर भी है। चारित्र साधना-मार्ग में गति है, जबकि ज्ञान-साधना पथ का बोध है और दर्शन यह विश्वास जाग्रत कर देता है कि वह मार्ग उसे अपने निश्चित लक्ष्य बिन्दु की ओर ले जाने वाला है। वास्तव में दृष्टिकोण अथवा श्रद्धा ही एक ऐसा मूलभूत प्राण रूप तत्त्व है जो जन-जन के ज्ञान एवं आचरण इन दोनों का यथार्थरूपेण दिशा निर्देश करता है। सम्यग्दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सर्वथा रूपेण सफल होते हैं। सम्यग् और दर्शन इन दो शब्दों के संयोग से निर्मित सम्यग्दर्शन का आशय है अच्छी प्रकार से देखना। विकार विहीन दृष्टि से देखना। नयन की विकृति हमारे चक्षुइन्द्रिय के बोध को विकृत कर देती है। आध्यात्मिक जगत में राग और द्वेष हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं। जिसके फलस्वरूप हम सत्य का यथार्थ रूप में दर्शन नहीं कर पाते हैं। यह एक ज्ञातव्य बिन्दु है कि सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा, देव, गुरु एवं धर्म के प्रति श्रद्धा के अर्थ में भी रूढ़ है, प्रचलित है।" तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा करना ‘सम्यग्दर्शन' है। इतना सा लक्षण मान कर किसी व्यक्ति की तत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा तब तक सम्यक् श्रद्धा नहीं मानी जा सकती, जब तक वह व्यक्ति तत्त्व क्या है? वे कितने हैं? उनका अर्थ अथवा भाव क्या है? उन पर श्रद्धान क्यों और कैसे किया जाए? उन तत्त्वों का स्वरूप क्या है? इन और इनसे संदर्भित तथ्यों को गहराई से न समझ ले। जो पदार्थ हेय, उपादेय और ज्ञेय जैसा जिस रूप में अवस्थित है उसका जिनेन्द्र भगवन्तों ने वैसा स्वरूप बता कर, इन नवविध अथवा सप्तविध पदार्थों की तत्त्वरूपता सुस्पष्ट कर दी है। एतदर्थ ये ही जिनोक्त पदार्थ तत्त्वभूत माने जाते हैं। हां, इनके नाम अन्य दर्शनों में चाहे और हों, परन्तु तत्त्वतः ये ही पदार्थ सम्यग्दृष्टि के लिए श्रद्धान योग्य हैं। परम श्रद्धेय रूप हैं, विश्वसनीय हैं। आध्यात्मिक यात्रा की प्राथमिक उड़ान के लिए 'सम्यक् श्रद्धा' की प्रथम पांख के रूप में 'तत्त्वार्थश्रद्धान' प्रतिपादित किया गया है। सम्यक् श्रद्धा की द्वितीय पांख देव, गुरु एवं धर्म पर श्रद्धान है। अध्यात्म यात्रा की अंतिम मंजिल पर पहुंचने के लिये इन दोनों पांखों की स्वाध्याय शिक्षा - 137 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यकता है। आत्मा की अथवा अध्यात्म की साधना अपने आप में निरालम्ब है। परन्तु साध्य तक पहुंचने के लिए शुद्धतम आलम्बनों की नितान्त अपेक्षा है। जिस आध्यात्मिक यात्री को तत्त्वार्थ श्रद्धान हो गया है उसे देव, गुरु एवं धर्म रूप त्रिविध श्रद्धेयों के प्रति श्रद्धान अवश्य होना चाहिए। क्योंकि जो तत्त्वभूत पदार्थ प्रतिपादित हुए हैं उनके प्ररूपक मार्गदर्शक तो देव, गुरु और धर्म ही हैं। इसलिये इस त्रिपुटी पर अचल श्रद्धान होना अनिवार्य है। 'दर्शन' शब्द जब विचार के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब धर्म का आशय 'आचार' से लिया जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के रूप में आचार-विचार का समन्वय स्थापित हो जाता है। १४. संवेग 'संवेग' शब्द प्राकृत और संस्कृत इन दोनों भाषाओं में एक जैसा ही है। एतदर्थ भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यह शब्द 'तत्सम' कहलाता है। 'सम्' उपसर्ग-पुरस्सर 'विज्' धातु से 'संवेग' शब्द निष्पन्न होता है। यह आगमीय शब्द भी है एवं आगमेतर वाङ्मय में भी इसका प्रयोग हुआ है। 'विज्' धातु का प्रथम अर्थ 'कांपना' है तथा द्वितीय अर्थ 'दौड़ना' अर्थात् तीव्र गति करना है। इन्द्रिय, मन और मति इन तीनों का वेग जब ऊर्ध्वमुखी हो जाता है तब वह वेग 'संवेग' कहलाता है। वैषयिक सुखों की प्राप्ति हेतु दौड़ लगाना 'अधोमुखी वेग' है। मोक्ष- सुख एवं आत्म-सुख की ओर दौड़ लगाना 'ऊर्ध्वमुखी वेग' है। जब आत्मा को स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के सच्चिदानन्दमय स्वरूप की अनुभूति, परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति की तीव्रता अथवा उत्कट उत्कण्ठा जागती है, तब उस वेग को संवेग कहा जाता है। निष्कर्ष यह है कि मोक्ष-सुख की अभिलाषा वस्तुतः संवेग है। सम्यग्दर्शन के जो पंचविध रूप से लक्षण हैं उनमें 'संवेग' द्वितीय लक्षण है। संवेग वह विलक्षण लक्षण है जिसके माध्यम से सम्यग्दृष्टि की स्पष्टतः पहचान हो जाती है, परख हो जाती है। 'संवेग' का शुद्धतम फल 'मोक्ष सुख' है, जिसको प्राप्त कर अध्यात्म साधक कृतकृत्य हो जाता है। १५. आचार 'आयार' शब्द प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैन आगम-साहित्य के विविध संदर्भो में इस शब्द का विशेष रूपेण प्रयोग हुआ है।" आयार शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'आचार' बनता है। 'आङ्' उपसर्ग पुरस्सर 'चर्' गतिभक्षणयोः धातु से “आचार" शब्द की निष्पत्ति हुई है। आचार शब्द अनेक आशयों और भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। जैसे नीति, धर्म, कर्त्तव्य तथा नैतिकता के 138 - स्वाध्याय शिक्षा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिप्राय में भी 'आचार' शब्द अभिव्यक्त हुआ है। धर्म एक सर्वथा व्यापक शब्द है और 'आचार' शब्द भी उतना ही अधिक व्यापक है। मानव के कर्त्तव्य के रूप में जिन-जिन नियमों एवं उपनियमों का होना अपेक्षित है, आवश्यक है, वे समग्र नियम, आचार एवं धर्म के अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं। आचार का संबंध आचार की उचितता और अनुचितता से है।आचार ही एक ऐसा प्राणभूत तत्त्व है, जो मानवीय आचरण के आदर्श की स्पष्टतः मीमांसा करता है। मानव आचरण की क्या-क्या विशेषताएँ हैं, यह जानकर ही उसका आदर्श निर्धारित किया जा सकता है। मानवीय आचरण का सूक्ष्मतम विश्लेषण उसका यथार्थ स्वरूप एवं स्रोत आदि का तलस्पर्शी अध्ययन मनोविज्ञान में होता है। वास्तव में आचार आदर्श निर्देशक विज्ञान है। जैन परम्परा आचारवादी परम्परा है। प्रस्तुत परम्परा में तत्त्ववाद की अपेक्षा आचार की व्याख्या और विवेचना अधिक हुई है। आचार और चारित्र ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। जैन परम्परा का आचार-पक्ष व्यवस्थित, सुविस्तृत और बहुआयामी है। यहाँ धर्म का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ है। अंश रूप से चारित्र की आराधना करना 'आगार धर्म' है और आमूलचूल अखण्ड चारित्र की आराधना करना 'अनगार धर्म' कहलाता है। इनको क्रमशः गृहस्थ धर्म एवं मुनि धर्म भी कहा जाता है। 'आगार धर्म' एकदेश धर्म है, श्रावक-आचार है तथा अनगार धर्म सर्वदेश धर्म अर्थात् श्रमण-आचार है। आचार की उपयोगिता एवं उसका मूल्य महत्त्व इसी में निहित है कि वह मोक्ष प्राप्ति का अनन्य निमित्त लिये हुए है और आचार, कल्प एवं समाचारी इन तीनों शब्दों के अर्थ में पर्याप्त रूपेण अन्तर है। जैन परम्परा में गुण का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ है। प्रथम मूल गुण हैं और द्वितीय उत्तर गुण हैं। मूल गुणों को आचार कहा गया है तथा कल्प एवं समाचारी इन दो शब्दों का प्रयोग उत्तर गुणों के लिये किया गया है। निष्कर्ष यह है कि 'आचार' आगमीय शब्द है, जैन परम्परा का पर्याय है। इसकी अर्थवत्ता वस्तुतः प्राणवत्ता लिये हुए है। आचार विहीन विचार निष्फल होता है। एतदर्थ आचार आचरणीय है और आदरणीय भी है। १६ प्रकृति ‘पयडी' और 'पगडी' ये दोनों प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम-साहित्य में इन दोनों शब्दों का प्रचुर प्रयोग बहुविध संदर्भो में प्राप्त होता है।" इन दोनों शब्दों का संस्कृत रूपान्तर 'प्रकृति' बनता है। 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'डुकृञ्' करणे धातु से 'क्तिन्' प्रत्यय लगने पर 'प्रकृति' शब्द निष्पन्न होता है। जहाँ नवविध और सप्तविध तत्त्व का वर्णन उपलब्ध होता है वहां बन्ध तत्त्व के चतुर्विध भेद का स्वाध्याय शिक्षा - - - 139 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 69 समुल्लेख प्राप्त होता है।" उनमें सर्वप्रथम प्रकार 'प्रकृति' बन्ध है । शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, शील और आकृति ये सभी शब्द प्रकृति के एकार्थवाची हैं।” ज्ञानावरण, दर्शनावरण प्रभृति अष्टविध कर्मों का जो स्वभाव है, वह प्रकृति बन्ध है।" प्रकृति बन्ध के मूल रूप से दो प्रकार हैं। प्रथम मूल प्रकृति है और द्वितीय उत्तर प्रकृति है। मूल प्रकृति एवं उत्तर प्रकृति के अनेक प्रकार हैं और इनके विषय में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है । " आत्मा से लिप्त होते समय कर्म जीव के मन, वचन एवं काय के योग की शुभता, अशुभता, मन्दता - तीव्रता प्रभृति कारणों से विशेष प्रकार की परिणति तथा आत्मा के विशेष गुणों को आवृत्त, कुण्ठित एवं विकृत करने का स्वभाव लेकर बद्ध होते हैं। इस बंध को ही प्रकृति बन्ध कहा जाता है। यह वास्तव में स्वभाव निर्णयात्मक बन्ध कहलाता है । जैसे प्राणियों के स्वभाव के आधार पर उनका पृथक्करण अथवा विभाजन किया जाता है वैसे ही कर्मों के स्वभाव से उनका वर्गीकरण अथवा विभाजन किया जाता है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध अथवा श्लेष होने के साथ ही उस कर्म के स्वभाव का विश्लेषण स्वतः हो जाता है। आत्मा द्वारा गृहीत कर्म का स्वभाव कैसा है ? अथवा कैसा होगा? इसका निर्णय कर्म-बन्ध के समय में हो जाता है। बान्धा हुआ कर्म किस प्रकार का फल देगा? इसका स्पष्टतः निर्णय कर्म की प्रकृति अर्थात् स्वभाव से हो जाता है। प्रकृति बन्ध अर्थात् कर्म की प्रकृति का निर्णय आत्मा के द्वारा गृहीत कर्म - पुद्गलों के बन्ध के साथ ही हो जाता है। प्रकृति बन्ध स्वयं ही उक्त कर्म के स्वभाव का विश्लेषण, सुनिर्णय और परिणाम देने का अधिकार रखता है। यह तथ्य है कि जीव जैसा - जैसा चित्र-विचित्र योग तथा उपयोग करता है उसके निमित्त से वैसी-वैसी ही चित्र-विचित्र शक्तियाँ अथवा प्रकृतियाँ उस कार्मण शरीर में पड़ जाती हैं, अंकित हो जाती हैं। कतिपय कर्म वर्गणाएँ किसी एक प्रकृति तथा दूसरी किसी प्रकृति को धारण कर लेती हैं। जिस प्रकार एक ही विराट्काय वृक्ष काष्ठ, पत्र, पुष्प, फल, प्रभृति के रूप में अनेक जातीयता को प्राप्त हो जाता है अथवा जिस प्रकार एक ही शरीर हस्त, पाद, जिह्वा, कर्ण, चक्षु, प्रभृति के रूप में चलने-फिरने, ग्रहण करने, बोलने, सुनने, देखने इत्यादि रूप अनेक शक्तियों अथवा प्रकृतियों को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार एक ही कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न प्रकृतियों को प्राप्त कर अनेक अंगों अथवा भेदों वाला हो जाता है । यद्यपि कर्म तथा उनकी प्रकृति इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं है तथापि उनके निमित्त से होने वाले कार्य अर्थात् अपने अन्तरंग भाव, शरीर तथा संयोग-वियोग आदि सभी के प्रत्यक्ष हैं। इन पर से 140 स्वाध्यक्ष Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी कारणभूत प्रकृतियों का सहजतः अनुमान लगाया जा सकता है। कार्य से कारण का अनुमान करना न्यायोचित है। निष्कर्ष यह है कि प्रकृति बन्ध का जो भी कार्य है वह वास्तव में कर्मों के भिन्न स्वभाव को सूचित करता है। १७ भाव 'भाव' शब्द प्राकृत एवं संस्कृत इन दोनों भाषाओं में समान रूपेण प्रयुक्त होता है। एतदर्थ यह तत्सम शब्द है। उक्त भाव शब्द का प्रचुर प्रयोग जैन आगम-साहित्य के अनेक संदर्भो में हुआ है।" भाव और भावना ये दो शब्द हैं। भाव एक विचार है, मन की तरंग है। जब भाव प्रवाह रूप में प्रवाहित होता है तब वह भावना के रूप में परिणत होता है। भावना में अखण्ड प्रवाह होता है, जिससे मन में संस्कार स्थायी हो जाते हैं। भाव पूर्व रूप है जबकि भावना उत्तर रूप है। भव और भाव इन दोनों शब्दों में एक मात्रा का अन्तर है। भव संसार है, जबकि भाव विचार है। जिस प्रकार सागर और उसकी तरंगों की अभिन्नता है उसी प्रकार जीव और उसके भाव की अभिन्नता है। सागर की विभिन्न अवस्थापन्न लहरों के सदृश ये पंचविध भाव जीवात्मा रूपी सागर की अवस्था रूपी लहरें हैं, पर्याय हैं। इनके कर्म-शास्त्रीय नाम 'औपशमिक', 'क्षायिक', 'क्षायोपशमिक', 'औदयिक' और 'पारिणामिक' हैं। इन पाँच भावों के अतिरिक्त षष्ठ 'सान्निपातिक" भाव का उल्लेख भी प्राप्त होता है। जिस प्रकार लहरों के विषय में प्रश्न किया जा सकता है कि लहरें कहाँ से उत्पन्न होती हैं। उसी प्रकार यह पंचविध भाव कहाँ होता है? कहाँ रहता है? कहाँ से उत्पन्न होता हैं? और भाव का अधिकरण क्या है? इन सर्वप्रश्नों का उत्तर यह है कि भाव द्रव्य में ही रहता है अथवा होता है, द्रव्य से ही उठता है। क्योंकि गुणी के बिना गुणों का रहना असंभव है। जीव द्रव्य में ये पाँचों भाव रहते हैं। वास्तव में वे पाँचों जीव के गुण या जीव के भाव हैं। बहुत प्रकार के अर्थों में विस्तीर्ण अर्थात् फैले हुए हैं। ये पंचविध भाव आत्मा के असाधारण धर्म हैं। इसलिये ये स्वतत्त्व कहलाते हैं। निष्कर्ष यह है कि ये पाँचों भाव आत्मा के स्वभाव हैं। यहाँ पर असाधारण का तात्पर्य केवल इतना ही है कि ये पाँचों भाव जीव द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं होते हैं। जैसे सागर और उसकी तरंगों में जलधारत्व अर्थात् सागरत्व है, उसी प्रकार जीव में जीवत्व गुण असाधारण है। वही उसका स्वतत्त्व है जो अन्य द्रव्यों में नहीं होता है। जैसे सागर और उसकी तरंगों में जलधारत्व अर्थात् सागरत्व है, उसी प्रकार जीव में जीवत्व गुण असाधारण है। वही उसका स्वतत्त्व है जो अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता है। निष्कर्ष यह है कि इन पंचविध भावों से जो द्रव्य स्वाध्याय शिक्षा 141 . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त है वही जीव कहलाता है। पर्याय की अपेक्षा से जीव औपशमिक, क्षायोपशमिक आदि भावपर्याय रूप है। निश्चय से वह एकमात्र पारिणामिक भाव साधन रूप है। यद्यपि जीव का स्वरूप उपयोगात्मक है, किन्तु यहाँ कर्मजन्य अवस्थाओं तथा मूल स्वभाव को बतलाने की मुख्य विवक्षावशात् औपशमिक आदि पंचविध भावों को जीव का स्वरूप बताया गया है। इन्हीं पाँच भावों के कारण आत्मा की पाँच प्रकार की अवस्थाएँ अथवा पर्यायें हैं, अन्तःकरण की पंचविध परिणतियाँ हैं। आत्मा के पर्यायों की बहुविध अवस्थाएँ ही भाव कहलाती हैं। पूर्वोक्त पाँचों भाव सर्व जीवों में एक साथ होने का नियम भी नहीं है। सिद्धमुक्त जीवों में क्षायिक तथा पारिणामिक ये दो भाव पाये जाते हैं। सांसारिक जीवों में कोई तीन भाव वाला, कोई चार भाव वाला तथा कोई पांच भाव वाला होता है। किन्तु यह पूर्ण स्पष्ट है कि कोई भी संसारी जीव दो भाव वाला नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि मुक्त आत्मा के पर्याय दो भावों तक तथा संसारी आत्माओं के पर्याय तीन से लेकर पाँच भावों तक पाये जाते हैं। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि जीवों की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाएँ बताने के लिये पंचविध भावों का निरूपण किया गया है। औदयिक भाव वाले पर्याय वैभाविक हैं और अन्य चार भाव स्वाभाविक पर्याय हैं। १८. योग 'जोग' प्राकृत भाषा का शब्द है और जैन आगम-साहित्य का जब सिंहावलोकन किया जाता है, अध्यवसायपूर्वक स्वाध्याय किया जाता है तब यह स्पष्टतः विदित होता है कि प्रस्तुत शब्द का प्रयोग विविध संदर्भो में हुआ है।" 'जोग' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'योग' है अतः 'जोग' तद्भव शब्द है। योग शब्द संस्कृत की 'युज्' धातु से 'घञ्' प्रत्यय द्वारा निर्मित हुआ है। संस्कृत व्याकरण में युज् नाम की दो धातुएँ हैं। उनमें प्रथम धातु 'युजिर् योगे' है।" इस धातु का अर्थ 'जोड़ना' है तथा द्वितीय धातु 'युजि च समाधौ"" मन की स्थिरता अर्थ में है। यदि सरल और सुगम शब्दों में कहा जाय तो 'योग' शब्द का अर्थ संबंध स्थापित करना तथा मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक सुस्थिरता प्राप्त करना- ये दोनों ही इस शब्द के वाच्यार्थ हैं। इस प्रकार साधन एवं साध्य इन दोनों ही रूपों में योग शब्द वास्तव में अर्थवान है। योग शब्द का अर्थ युग से भी है, जिसका ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से प्रयोग ‘कालमान' से है। 'युग' का आशय जोतना भी है तथा गणितशास्त्र में 'योग' का वाच्य अर्थ जोड़ भी है। जैन आगम में योग का अर्थ संयम भी है। जुगा/वाहन को वहन करते हुए भी बैल जैसे अरण्य को लांघ जाता है उसी प्रकार योग को स्वाध्याय शिक्षा 142 - Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् संयम को वहन करते हुए मुनिजन संसार रूपी अरण्य को पार कर जाता है। 'जोगवं' अर्थात् योगवान प्रयोग प्राप्त होता है।" यह संयम के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'जोगवाहियाए' शब्द भी समाधिभाव में सुस्थिर अनासक्त पुरुष के लिये प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार 'योग' शब्द अनेक स्थानों पर 'संयम' एवं 'समाधि' अर्थ में प्राप्त होता है। मन, वचन और काय का व्यापार अर्थ में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार योग शब्द जहाँ संयम और समाधि के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है। जैन योग के दो प्रमुख और महत्त्वपूर्ण सूत्र हैं। प्रथम संवर योग है एवं द्वितीय तपोयोग है। तप को परिपुष्ट करने तथा उसमें गहराई लाने के लिये द्वादश भावना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। अतएव 'भावनायोग' भी जैन योग-साधना पद्धति का अभिन्न अंग है। योग शब्द का वाच्य अर्थ समाधि एवं ध्यान के रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में भी समाधि और ध्यान के अर्थ में योग का स्पष्टतः प्रयोग हुआ है। यथार्थता यह है कि जो आत्मा को केवलज्ञान प्रभृति परम सात्त्विक एवं ज्ञान चेतना के साथ जोड़ता है वह योग है। योग वास्तव में आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है अर्थात् मोक्ष तक पहुँचाता है। वस्तुस्थिति भी यह है कि जहाँ योग 'समाधि' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहाँ वह साध्य रूप से भी निर्दिष्ट है और जहाँ योजन, संयोजन अथवा संयोग के अर्थ में योग का प्रयोग किया गया है, वहाँ वह साधन के रूप में निर्दिष्ट है। यह तथ्य है कि बिना साधन के साध्य की प्राप्ति नहीं होती है। समाधि आत्मा की विक्षेपरहित समभाव की साधना है, समभाव परिणतिरूप समाहित अवस्था है। जिसमें चित्त की एक प्रकार की विशिष्ट एकाग्रता अपेक्षित है और यह चित्त की एकाग्रता ध्यान-साध्य है। मोक्षाभिलाषी आत्मा को अध्यात्म योगी बनने की सप्राण प्रेरणा प्रदान की गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि चारित्र विशुद्धि के लिये मुमुक्षु आत्मा को अध्यात्म-योग के अनुष्ठान की नितान्तरूपेण आवश्यकता होती है। निष्कर्ष की भाषा में यही कहा जा सकता है कि योग जैनागमों का एक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्द रहा है। अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में योग अन्यत्र कहीं का नवागत अतिथि नहीं है, अपितु चिर पुरातन है। तप, जप, संयम, समता, समाधि, भावना, ध्यान प्रभृति के साथ योग भी एक सहयोगी रूप में रहता आया है। १९. अनुप्रेक्षा 'अणुप्पेहा' प्राकृत भाषा का एक भावपूर्ण शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रचुर प्रयोग जैन आगम वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में हुआ है। 'अणुप्पेहा' का संस्कृत स्वाध्याय शिक्षा - 143 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपान्तर 'अनुप्रेक्षा' बनता है। एक शब्द 'प्रेक्षा' है। उसका आशय देखना है, गहराई से देखना है, तटस्थता पुरस्सर देखना है, केवल देखना है। उसमें कोई चिन्तन मनन नहीं होता। एकमात्र प्रेक्षा होती है। द्वितीय शब्द अनुप्रेक्षा है। ‘अनु' और 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'ईक्ष्' धातु से अनुप्रेक्षा' शब्द बना है। प्रेक्षा के पूर्व में 'अनु' उपसर्ग प्रयुक्त होते ही 'प्रेक्षा' शब्द का आशय परिवर्तित हो गया। अभिप्राय भी स्पष्टतः परिवर्तित हो गया। उसमें चिन्तन-मनन का समावेश हो गया। इस प्रकार अनुप्रेक्षा शब्द का अभिप्राय पुनः पुनः देखना है। गहराई से देखना है। चिन्तन-मनन पूर्वक देखना है। मन, चित्त और चैतन्य को उस विषय में रमाना है। उन संस्कारों को दृढ़ीभूत करना है। अनुप्रेक्षा अर्थात् सत्य को देखना है, सत्य पर चिन्तन करना है। अपनी जो पूर्व धारणाएँ हैं, उन्हें निकालकर पूर्वकालीन संस्कारों को हटा कर जो सत्य है, यथार्थ है, वास्तविकता है, उसका चिन्तन करना ‘अनुप्रेक्षा' है। सत्य के प्रति एकनिष्ठ बुद्धि से देखना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त सत्य-दर्शन का सिद्धान्त है। अपनी समग्र पूर्व धारणाओं एवं संस्कारों को नकार कर सत्य को ग्रहण करने का, उसे धारण करने का सिद्धान्त है। अनुप्रेक्षा भी योग-साधना का एक अभिन्न अंग है। इस अनुप्रेक्षा योग की साधना करने वाला साधक अपने पूर्व संस्कारों एवं धारणाओं तथा रागद्वेष समन्वित मान्यताओं एवं मूढ़ताओं से परे हटकर, सत्यं के प्रति सर्वात्मना-समर्पण भाव से समर्पित हो जाता है और सत्य को ही अपने मन में एवं अणु-अणु में रमाता है। इस सत्य को अपने मन-मस्तिष्क में रमाने के लिए वह द्वादश अनुप्रेक्षाओं का बार-बार चिन्तन करता है। वास्तव में अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन-मनन करके साधक इन संस्कारों से अपनी आत्मा को भावित करता है। अतएव इन्हें 'भावना' भी कहा जाता है। अनुप्रेक्षा और भावना ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। भावना अर्थात् अनुप्रेक्षाओं में वाणी नहीं मुख्यतः मन ही गतिशील रहता है। अतएव मौनपूर्वक गंभीर चिन्तन-मनन को अनुप्रेक्षा अथवा भावना कहा गया है। अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार प्रभृति स्वरूपों का अनुप्रेक्षण अर्थात् अनुचिन्तन करना, स्मरण करना अथवा देखना 'अनुप्रेक्षा' है। द्वादश भावनाओं का नित्यशः चिन्तन एवं अभ्यास करने से मानव के हृदय में कषाय की अग्नि बुझ जाती है, पर-भाव के प्रति राग गल जाता है। अज्ञान रूपी घनीभूत अंधकार विलय होकर ज्ञान रूप दीप अर्थात् बोधि दीप का प्रकाश हो जाता है। वास्तव में बारह अनुप्रेक्षाओं का भावन अर्थात् चिन्तन करने से श्रमण जीवन में संवर-निर्जरा रूप धर्म का महान् उद्यम होता है। कर्मों का क्षय होता है। 144 --- - स्वाध्याय शिक्षा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तविकता यह है कि भावना, अनुप्रेक्षा, धारणा और संस्कार इन सर्व शब्दों का अभिप्रेत अभिप्राय एक जैसा है। भावना एक-एक अर्थ विषय पर एकाग्रता पुरस्सर चिन्तन करना भी है। किसी साधक ने कोई ध्येय, अध्यात्मलक्ष्यी विषय अथवा कोई आत्म-विकास भाव मन में निश्चित किया है। उसका तदनुसार पुनः-पुनः चिन्तन, मनन एवं तन्मयता पुरस्सर निदिध्यासन करता है, यही भावना है। भावना का निर्वचन भी यही है- भाव्य व्यक्ति अथवा पदार्थ के प्रति एकाग्र अथवा तन्मय हो जाना भावना है। यही धारणा का अर्थ है। जिस वस्तु की धारणा करनी है अथवा की गई है, उसके प्रति तल्लीन एवं दत्तचित्त हो जाना धारणा है। जप और ध्यान का भी यही अर्थ है-जप्य अथवा ध्येय वस्तु के प्रति एकतान, एकनिष्ठ हो जाना ध्यान है। साधक जिस विषय अथवा व्यक्ति के प्रति भावना करता है, जिसका पुनः पुनः अभ्यास करता है उसी रूप में उसका संस्कार बन जाता है। इसलिये इसे संस्कार भी कहा जाता है। निष्कर्ष यह है कि अनुप्रेक्षा कर्मक्षय अथवा कर्मनिरोध की दृष्टि एवं नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक प्रयोजन से की जाती है, जिससे अशुभ विचार एवं कुसंस्कार विदा हो जाते हैं और अज्ञात मन में शुभ विचार एवं सुसंस्कार स्थापित हो जाते हैं। इतना ही नहीं, साधक संवर और निर्जरा का अचिन्त्य लाभ 'अनुप्रेक्षा' से प्राप्त कर लेता है। यथार्थता की दिव्य ज्योति, जो मूर्छा एवं विमूढ़ता की भस्म से आच्छादित थी, वह प्रगट हो जाती है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि अनुप्रेक्षा अर्थात् भावना कब और कैसे भवतारिणी नौका बन सकती है। इस भावना रूप नौका का उपयोग कैसे हो। इसमें क्या- क्या जागरूकताएँ रखनी अपेक्षित हैं, अनिवार्य हैं। इसका विवेक साधक को होना चाहिए। सर्वप्रथम साधक को चाहिये कि भावना का उद्देश्य विशुद्ध हो, आत्मावलोकन हो, क्योंकि भावनाएँ अर्थात् अनुप्रेक्षाएँ संवेग, वैराग्य, निर्वेद, भाव शुद्धि के लिये आत्मा और पर पदार्थों के संयोग पर गहराई से मनन-मंथन करने के लिये हैं। इसलिये कर्म-मुक्ति की दृष्टि से ही इनका बार-बार चिन्तन किया जाय। धैर्य, एकाग्रता, तन्मयता तथा तीव्रतम अध्यात्मलक्ष्यी भाव धारा प्रवाहित होने पर ही भावितात्मा बन कर साधक अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है अर्थात् भावना से भावित होने पर ही मानव जो भी होना चाहता है, हो जाता है। जो भी घटित करना चाहता है, वह घटित हो जाता है। मन को, स्वभाव को जिस रूप में ढालना चाहता है, ढाल सकता है। भावना और अनुप्रेक्षा इन दोनों का यथायोग्य स्वरूप तथा उनसे संवर, निर्जरा एवं मोक्ष रूप लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है। इसे भली-भाँति निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों दृष्टियों से समझना आवश्यक है। स्वाध्याय शिक्षा - - - 145 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में अनुप्रेक्षा इन दोनों का यथायोग्य स्वरूप तथा उनसे संवर, निर्जरा एवं मोक्ष रूप लाभ कैसे प्राप्त हो सकता है। इसे भली-भांति निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों दृष्टियों से समझना आवश्यक है। वास्तव में अनुप्रेक्षा के द्वारा सत्य तथ्य का बार-बार अनुचिन्तन करने से मन पर जमी हुई भ्रान्तियों, विपर्ययों एवं दुराग्रहों के मैल को काटा जा सकता है, तोड़ा जा सकता है। अनुप्रेक्षक व्यक्ति अपनी पूर्वकालीन धारणाएँ, मान्यताएँ और पूर्वाग्रह की दृष्टि से अथवा काल्पनिक दृष्टिकोण से नहीं देखता । अपितु यथार्थ को, सत्य तथ्य को और वास्तविकता को देखता है। मानव के समक्ष सबसे बड़ी समस्या यह है कि मनुष्य जो वस्तु तत्त्व है अथवा सत्य तथ्य है उस दृष्टि से न देखकर अपनी धारणा और मान्तया का रंगीन उपनेत्र लगाकर उसी दृष्टि से देखता है, सोचता है। इसीलिये स्पष्ट भाषा में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि अपनी आत्मा से अपनी आत्मा का सम्प्रेक्षण करो, अपनी आत्मा से सत्य का अन्वेषण करो। इसका तात्पर्य भी यही है कि अनुप्रेक्षा के माध्यम से सत्य को देखने और सोचने के लिये- सत्य के प्रति समग्रतः समर्पित हो जाओ। जो सत्य तथ्य है, उसे स्वीकार करो। तभी मानने की भूमिका से ऊपर उठकर अनुप्रेक्षक साधक जानने की भूमिका पर पहुँचता है। निष्कर्ष यह है कि अनुप्रेक्षा आध्यात्मिक रसायन है। जो साधक इस रसायन से पूर्णतः भावित हो जाता है वह भव रूपी कारागृह से सर्वथारूपेण मुक्त हो जाता है। २०. कर्म 'कम्म' प्राकृत भाषा का एक महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैन आगम - साहित्य में 'कम्म' शब्द का प्रचुर प्रयोग विविध संदर्भों में हुआ है।" 'कम्म' का संस्कृत रूपान्तर 'कर्म' निष्पन्न होता है। 'डुकुञ्' करणे धातु से 'कर्म' शब्द की रचना हुई है। कर्म शब्द आगमीय शब्द है, पारिभाषिक शब्द है और यह शब्द वास्तव में ऐसा विलक्षण शब्द है कि वह अपने आप में अनेक अर्थो को समग्र रूपेण समाहित किये हुए है। यह सत्यपूर्ण तथ्य है कि शब्द की एक सीमा होती है। शब्द में अनेक अर्थ और अनेक आशय सन्निहित होते हैं। उसके अनेक अर्थों एवं अनेक आशयों को विविध संदर्भों से ही जाना जाता है। कर्म शब्द जब-जब भी प्रयुक्त हुआ है तब-तब वह अपने व्यक्तित्व और व्यापकत्व की छटा निश्चित रूपेण दिखलाता है । 'कर्म' शब्द का सामान्यतः अर्थ कार्य, क्रिया, कर्त्तव्य और परिणति होता है। कार्य अथवा कर्त्तव्य की अपने कोई आकृति नहीं है, किन्तु जब वह अध्यात्म के क्षेत्र में, देह में विदेह को प्राप्त करने के आशय से प्रयुक्त होता है, तब उसकी एक ठोस आकृति होती है। यह स्वाध्याय शिक्षा 146 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पष्ट है कि शरीर पाँच हैं" - औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मणा। इन पाँच शरीरों में कार्मण शरीर कर्मरूप है, जबकि शेष चार शरीर नो कर्म रूप हैं। यद्यपि कर्म वास्तव में चेतन प्रवृत्ति का नाम है तथापि उसका कार्य तथा कारण होने से कार्मण शरीर को भी उपचार से कर्म कहा जाता है। विशेषता इतनी है कि चेतन की रागादि प्रवृत्ति के समान यह भावात्मक न होकर कर्मवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित होने के कारण द्रव्यात्मक है, द्रव्यकर्म है। जिस प्रकार कारण में कार्य का उपचार करके कार्मण शरीर को द्रव्य कर्म कहा गया है उसी प्रकार औदारिक, वैक्रिय, प्रभृति शरीरों को भी द्रव्यकर्म कहा जा सकता है । परन्तु कार्मण शरीर रूप द्रव्य कर्म जिस प्रकार आत्मा की शक्ति का घात करता है, उस प्रकार ये द्रव्य कर्म आत्मा की शक्ति का घात नहीं करते हैं। यही कारण है कि इनको कर्म नहीं कहना चाहिये, अपितु 'नोकर्म' कहा जा सकता है। यह स्पष्ट है कि आत्मा अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है, जब जीव के साथ संबंध होता है। जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार प्रवृत्ति से कर्म एवं कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिंड रूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा जाता है तथा राग-द्वेष आदि प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा जा सकता है । द्रव्य कर्म के होने में भाव कर्म और भाव कर्म के होने में द्रव्य कर्म कारणभूत है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है इसी प्रकार द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म की परम्परा वास्तव में अनादि काल से चली आ रही है। यह भी पूर्णतः प्रगट है कि जड़ और चेतन इन दोनों के संमिश्रण से कर्म का निर्माण होता है । द्रव्य कर्म हो अथवा भाव कर्म हो, उसमें जड़ एवं चेतन नामक दोनों प्रकार के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। जड़ और चेतन के मिले बिना कर्म की रचना नहीं हो सकती है । द्रव्य कर्म और भाव कर्म में पुद्गल और आत्मा की प्रधानता मुख्य है । किन्तु एक दूसरे के सद्भाव और असद्भाव का कारण मुख्य नहीं है । द्रव्य कर्म में पौद्गलिक तत्त्व की मुख्यता होती है और आत्मिक तत्त्व गौण होता है। भाव कर्म में आत्मिक तत्त्व की प्रधानता होती है और पौद्गलिक तत्त्व गौण होता है। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का संबंध संसारी आत्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं है । संसारी आत्मा कर्मों से आबद्ध है। उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है। मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है। उसमें विशुद्ध स्वाध्याय शिक्षा 147 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्य ही होता है। कर्मबद्ध आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण पुद्गल परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीर-क्षीरवत् एक हो जाते हैं। चेतन और जड़ का पृथक्करण मुक्तावस्था में ही होता है। संसारी आत्मा कर्मयुक्त ही होती है। आत्मा से संबद्ध पुद्गल द्रव्य कर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकर्म है। कर्म का मुख्य कार्य है-आत्मा को संसार में आबद्ध रखना। जब तक कर्मबन्ध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान है तब तक आत्मा कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है। यह कर्म का सामान्य कार्य है। विशेषरूपेण देखा जाय तो भिन्न-भिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जितने कर्म हैं, उतने कार्य हैं। वास्तव में शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन को 'आसव' कहा जाता है। अर्थात् जिस प्रवृत्ति अथवा क्रिया से जीव में कर्मों का नाव-आगमन होता है, वह आम्नव है। जीव सीधा कमों को नहीं बुलाता है। किन्तु परोक्ष रूप से वह मन, वचन एवं काया द्वारा ऐसी प्रवृत्ति कर बैठता है, जिससे कर्म आ जाते हैं। कर्म प्रायोग्य पुद्गल परमाणु समग्र आकाश में तथा जीव के परिपार्श्व में विकीर्ण हैं, फैले हुए हैं। वे घूमते रहते हैं और प्रवेश भी उसी जीव में, वहीं करते हैं, जहां उनके साथी पहले से विद्यमान हों अथवा राग-द्वेष की स्निग्धता हो। कर्म पुद्गलों को खींच कर आत्मा में ले आने अथवा प्रवेश कराने के कारण ही उन्हें आस्रव कहते हैं। आत्मा अपनी अज्ञान दशा में आस्रव के द्वार को सदा उद्घाटित रखता है, खुला रखता है। कर्म बन्धते रहते हैं और इस प्रकार कर्मचक्र चिरंजीवी रहता है। संसारी प्राणी जब तक इन कर्मों के कौतुक में सक्रिय रहता है तब तक बहिरात्मा कहलाता है। बहिरात्मा पर-पदार्थों को अपना मानती है। जीव जब अपने कर्म द्वारा चक्र का संचालन करता है तब वह . कर्मचक्र कहलाता है। कर्मचक्र का अपर नाम 'संसार चक्र' है। वास्तव में किसी क्रिया का परिणाम कर्म कहलाता है। कर्म शुभ और अशुभ के रूप में दो प्रकार का है। शुभ कर्म जीवन में सुखद परिणाम जुटाते हैं और अशुभ कर्म दुःखद परिणाम जुटाते हैं। ' कर्म से ही संसार है और यही सुख और दुःख का दाता है। मोह से अनुप्राणित कर्म और उसका फल जीव को मिथ्यात्व की प्रेरणा देता है। कर्म से निष्कर्म होना ही आत्मा की मुक्तावस्था है। इस प्राकृत कर्म विधान में कोई शक्ति कदापि परिवर्तन नहीं कर सकती। यदि कोई परिवर्तन कर सकता है तो कर्म का कर्ता ही स्वयं कर्मों में परिवर्तन कर पाता है। वास्तव में जीव ही कर्म का कर्ता है, धर्ता है, हर्ता है और भोक्ता है। यह कर्म शब्द कर्ता, कर्म और भाव इन तीनों में भी निष्पन्न होता है। 148 स्वाध्याय शिक्षा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. प्रत्यक्ष 'पच्चक्ख' प्राकृत भाषा का एक भावपूर्ण शब्द है। जैन आगम-साहित्य में उक्त शब्द का प्रयोग विविध स्थलों पर हुआ है। 'पच्चक्ख' शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'प्रत्यक्ष' निष्पन्न होता है। 'प्रति' उपसर्ग पुरस्सर 'अक्ष' से "प्रत्यक्ष" शब्द की निष्पत्ति हुई है। 'अक्ष' शब्द आत्मा और इन्द्रिय का वाचक है। ज्ञान का सामान्य अर्थ 'जानना' है। यह जानना कभी इन्द्रिय और मन के माध्यम से होता है और कभी इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना भी सीधा आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष-प्रमाण कहलाता है, जैसे कि अवधिज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान। प्रत्यक्ष प्रमाण की जो यह व्याख्या है, वह निश्चय नय की अपेक्षा से है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह व्याख्या व्यवहार नय की दृष्टि से की गई है। निष्कर्ष यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रधानतः दो शाखाएँ हैं-आत्म-प्रत्यक्ष तथा इन्द्रिय-अनिन्द्रिय प्रत्यक्षा प्रथम शाखा परमार्थश्रयी है, एतदर्थ यह वास्तविक प्रत्यक्ष है और द्वितीय शाखा व्यवहारश्रयी है, एतदर्थ यह औपचारिक प्रत्यक्ष है। आत्म प्रत्यक्ष के दो मुख्य भेद हैं- प्रथम सकल प्रत्यक्ष तथा द्वितीय विकल प्रत्यक्षा केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान एवं मनःपर्याय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान प्राप्त होता है वह इन्द्रिय के लिये प्रत्यक्ष है तथा आत्मा के लिए परोक्ष होता है। इसी दृष्टि से उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा संव्यवहार प्रत्यक्ष कहते हैं। जहाँ प्रमाण का वर्गीकरण हुआ है वहाँ प्रमाण के दो भेद प्रतिपादित हुए हैं -एक प्रत्यक्ष प्रमाण और द्वितीय परोक्ष प्रमाण। जहाँ पंचविध ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है वहाँ भी ज्ञान के आधार पर प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में ज्ञान का विभाजनं दो प्रकार से हुआ है।" २२ लोक . 'लोय' और 'लोग' ये दोनों प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम वाङ्मय में इन दोनों शब्दों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। यह भी पूर्ण स्पष्ट है कि उक्त लोय एवं लोग का संस्कृत रूपान्तर 'लोक' निष्पन्न होता है। 'लोकृ' अवलोकने अर्थात् 'लोक्' धातु से 'लोक' शब्द की निर्मिति हुई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्यों का समूह ही लोक कहलाता है। जहाँ हम रहते हैं, वह लोक है। लोक अलोक के बिना नहीं हो सकता है। इसलिये अलोक भी है। अलोक केवल आकाश है। लोक और अलोक का विभाजन नया नहीं है, काल्पनिक नहीं है, अपितु शाश्वत है और उसके विभाजक तत्त्व भी शाश्वत है। छहों स्वाध्याय शिक्षा 149 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य शाश्वतिक हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों द्रव्य आकाश को दो विभागों में विभक्त करते हैं। ये जहाँ तक हैं, वहाँ तक लोक है और जहाँ पर इनका अभाव है, वहाँ अलोक है। लोक ससीम है। असंख्यात प्रदेशात्मक है। चतुर्दश रज्जूपरिमाण परिमित है। लोक नीचे विस्तृत है, मध्य में संकरा है और ऊपर मृदंगाकार है। तीन शरावों में से एक शराव ओंधा है, द्वितीय शराव सीधा है तथा तृतीय शराव उसके ऊपर ओंधा रखने से जो आकार बनता है वह आकार त्रिशराव संपुट आकार कहलाता है और वही आकार लोक का है। दूसरे शब्दों में लोक का जो आकार है, वह सुप्रतिष्ठक संस्थान कहलाता है। लोक का आकार मध्य में पोल वाले गोले के समान है। अलोक का कोई विभाग नहीं है, वह एकाकार है। लोक तीन भाग में विभक्त है"-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। इन तीनों लोकों की लम्बाई चौदह रज्जू है। ऊर्ध्वलोक सप्त रज्जू से कुछ न्यून है, मध्य लोक अष्टादश सौ योजन प्रमाण है तथा अधोलोक सप्तरज्जू से कुछ अधिक है। व्यवहार नय की दृष्टि से यह लोक त्रिविध है, जबकि निश्चयनय की अपेक्षा से लोक एक है। यह अनेकता में एकता का सुस्पष्ट निदर्शन है। 23. क्रिया ___ 'किरिया' प्राकृत भाषा का शब्द है। जैन आगम साहित्य में बहुविध संदर्भो में 'किरिया' शब्द का प्रचुर मात्रा में प्रयोग हुआ है। 100 'किरिया' का संस्कृत भाषा में क्रिया रूपान्तर बनता है। 'डुकृञ् करणे' अर्थात् 'कृ' धातु से क्रिया शब्द का निर्माण होता है। यह एक आगमिक शब्द है। इसका संबंध योग से है और योग त्रिविध रूप है- मन, वचन और काया। जब तक जीव में योग की सत्ता है, विद्यमानता है तब तक उसमें क्रिया विद्यमान है।" जब जीवात्मा अयोगी अवस्था अथवा सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब वह निश्चित रूपेण अक्रिय बन जाता है। इसका फलितार्थ यही है कि योग के अभाव में क्रिया नहीं होती है। क्रिया का प्रमुख कारण अथवा माध्यम योग है। सामान्यरूपेण हम किसी कार्य को सम्पादित करने के लिये जो प्रवृत्ति करते हैं उसको क्रिया कहा जाता है और वह क्रिया जीव में भी हो सकती है और अजीव में भी संभव है। इस दृष्टि से क्रिया के दो भेद प्रतिपादित हुए हैं। 102 क्रिया का मूलतः संबंध जीव से है। जीव अपनी क्रिया से अजीव में यथासंभव परिस्पन्दन कर सकता है तथापि तात्त्विक दृष्टि से क्रिया का फल जीव को प्राप्त होता है। इसी विवक्षा से जीव में क्रिया मानी गई है। अजीव क्रिया के ऐर्यापथिकी एवं साम्परायिकी नाम से दो प्रकार निरूपित हुए हैं। वे भी मूलतः जीव से संबंधित हैं, अजीव से संबद्ध नहीं हैं। __ 150 - - स्वाध्याय शिक्षा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों की जो निष्पत्ति होती है, वह क्रिया के द्वारा ही होती है, क्रिया इस अर्थ में कर्म की जननी है। क्रिया का वाच्य अर्थ करना है। शुभ-अशुभ सर्व प्रकार की चेष्टाओं को क्रिया कहा जाता है अथवा कर्मबन्ध के हेतु को क्रिया कहते हैं। द्रव्य षट्विध हैं। 103 उनमें जीव एक द्रव्य है और द्रव्य मात्र में अर्थ क्रियाकारित्व धर्म रहता है। जब जीव स्वरूपाचरण में क्रिया करता है तब वह क्रिया कर्मबन्ध का कारण नहीं बनती है। अवशेष क्रियाएँ जीव के लिए कर्मबन्ध की कारण हैं। जो योग और कषाय के कारण से क्रिया होती है वह क्रिया साम्परायिकी क्रिया कहलाती है। जीव को सम्परायबद्ध अर्थात् कषाय बद्ध करने वाली क्रिया को साम्परायिकी क्रिया कहा जाता है। यह क्रिया सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान अथवा सूक्ष्म सम्पराय चारित्र पर्यन्त रहती है। निष्कर्ष यह है कि कषाय की उपस्थिति में जो क्रिया होती है, उस क्रिया का नाम साम्परायिकी क्रिया है और कषाय रहित दशा में जो क्रिया होती है, वह ऐर्यापथिकी क्रिया कहलाती है। इसका अभिप्राय यह है कि क्रिया कषाय सापेक्ष नहीं है, कषाय निरपेक्ष है। उसका अर्थात् क्रिया का कषाय के सद्भाव और अभाव से कोई संबंध नहीं है। वास्तव में उसका संबंध योग के होने न होने से है। आत्मा जब क्रियाओं से विमुक्त हो जाता है तब वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। निर्वाण पद को सम्प्राप्त कर लेता है। २४. ज्ञान 104 'नाण' और 'णाण' ये दोनों शब्द प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम का जब भी पर्यवलोकन किया जाता है, तब उक्त शब्द प्रचुर रूपेण दृष्टिगत होते हैं।' 'नाण और णाण' इन दोनों का संस्कृत रूपान्तर “ज्ञान” बनता है । 'ज्ञा' धातु से “ज्ञान” शब्द निष्पन्न होता है। जिसके माध्यम से जाना जाता है अथवा जिससे जाना जाता है, वह ज्ञान है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से युक्त होकर जो अपने विषय स्वरूप को जानता है वह भी ज्ञान है। इसका आशय यह भी है कि जीव का अपने आपको अथवा अपने स्वरूप को जानना भी ज्ञान है। स्वरूपगत भेद के आधार पर ज्ञान के पाँच प्रकार प्रतिपादित हुए हैं। ज्ञान और आत्मा इन दो में कोई भेद नहीं है, अपितु इनमें कथंचित् तादात्म्य संबंध है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है। इसलिये ज्ञान आत्मा को भिन्न नहीं किया जा सकता। आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है । यह ज्ञातव्य तथ्य है कि ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को सर्वथा रूपेण आवृत्त नहीं करता है, परन्तु केवल ज्ञान का सर्वथा निरोध करता है। निगोदस्थ जीवों में भी ज्ञानावरणीय कर्म का उत्कट उदय रहता है, किन्तु 105 106 स्वाध्याय शिक्षा 151 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन जीवों में भी ज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्यशः अनावृत्त रहता है। ज्ञान गुण कदापि पूर्णतः तिरोहित नहीं होता है। यदि ऐसा हो जाय तो जीव अजीव हो जाय। जब भी हम वस्तु तत्त्व को जानते हैं, तब ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु उस समय उसका प्रयोग होता है। जानने की क्षमता हमारे में रहती है। जितनी जिसमें ज्ञान की क्षमता होगी वह उतना ही जानने में सफल होगा। ज्ञान और ज्ञेय का जो संबंध है, वह विषय-विषयी भाव संबंध है। प्रमातृत्व ज्ञान का स्वभाव है एतदर्थ वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय स्वभाव है, इसलिये वह विषय है। ये दोनों स्वतन्त्र हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय ये ज्ञेय हैं। ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है और ज्ञान से ज्ञेय उत्पन्न नहीं होता है। हमारा ज्ञान जाने अथवा नहीं भी जाने तथापि पदार्थ अपने स्वरूप में अवस्थित है। आत्मा का स्वरूप जानने के लिये ज्ञान का स्वरूप समझना नितान्त अनिवार्य है। इसीलिये ज्ञान का इतना अधिक मूल्य और महत्त्व है। उपसंहार सारपूर्ण भाषा में यही कहा जा सकता है कि जैन आगम-साहित्य वस्तुतः एक ऐसा आदित्य है, जो सर्वदिशा से और सर्वविदिशा में अहर्निश उदीयमान है, प्रदीप्तिमान है। यह वह साहित्य है जो सहस्रशः पारिभाषिक शब्दों की शुभ्र आभा से प्रभास्वर है। जैनागम वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि और उसके अर्थ अभिप्राय में शब्द शक्ति की महती भूमिका रही है। शब्द के अर्थ एवं रूप में काल तथा क्षेत्र का प्रभाव भी अंकित रहा है। इतना ही नहीं कालान्तर में उसके स्वरूप एवं अर्थ में परिवर्तन भी हुआ है। परिवर्तन की इस अजम्न धारा में आगम-साहित्य में प्रयुक्त शब्दावली का अपना अर्थ एवं आशय विशेष रूप ग्रहण करना चाहिए। किं बहुना आगमीय पारिभाषिक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न विषयों में भी पृथक्-पृथक् हो जाता है। जो आगमिक शब्द किसी विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, अर्थ की दृष्टि से उसी शब्द को पारिभाषिक शब्द के रूप में रूपायित किया है। जिससे पारिभाषिक शब्दों का अर्थ अभिप्राय नियत निश्चित हो जाता है। तदनन्तर उस शब्द के अर्थ और आशय को संदर्भ से ही जाना जाता है और वही शब्द अपने व्यक्तित्व एवं व्यापकत्व की दिव्य प्रभा अनुपम रूप से प्रदर्शित कर देता है। संदर्भ 1. गुरुपारम्पर्येणागच्छतीति आगमः, आ-समन्तात् ज्ञायन्ते-गम्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वा।-अनुयोगद्वार सूत्र वृत्ति 219/5 2. भाष्यानुसारिणी टीका, पृष्ठ 87, सिद्धसेनगणिकृत। 3. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-559 - 152 * स्वाध्याय शिक्षा Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. क. अनुयोगद्वार सूत्र 4 ख. विशेषावश्यक भाष्य गाथा-8/97 5. क. भगवती सूत्र 5/3/192, ख. स्थानांग सूत्र 338 6. व्यवहार भाष्य गाथा 201, संघादासगणी 7. क. अनुयोगद्वार सूत्र 470, ख. स्थानांग सूत्र 3 8. क. आवश्यनियुक्ति गाथा 192 ख. श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गाथा 112 ग. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 550 घ. बृहत्कल्प भाष्य गाथा 144 ड़.तत्त्वार्थ भाष्य, 1-20 9. क. आचारांगसूत्र 1/1/1-3, ख. सूत्रकृतांग 2/4/743-753 10. क. समाधि शतक श्लोक 4, ख. द्रव्य संग्रह टीका 14/46 11. स्थानांग सूत्र 5/3/53, ख. भगवती सूत्र 13/4/480 ग. उत्तराध्ययन सूत्र 28/10, घ. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय-2/ सूत्र 8 12. क. उत्तराध्ययन सूत्र अ.28/गा.14, ख. स्थानांग सूत्र स्थान 9 13. क. अनुयोगद्वार सूत्र 269, ख. भगवती सूत्र श.25, उ.4, सूत्र 8 14. क. समवायांग सूत्र 149/1, ख. प्रज्ञापना सूत्र पद 1, सूत्र 3 15. क. स्थानांग सूत्र 5/3/466, ख. उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 29/सू.15 16. . क. तत्त्वार्थ सूत्र अ.6/सू.1.2. ख. स्थानांग सूत्र वृत्ति-स्था.1, सूत्र 13 17. क. स्थानांग सूत्र 5/1/418, ख. प्रज्ञापना सूत्र 1,आ.1, सू.1, गा.2 ग. समवायांग सूत्र समवाय 5, घ. तत्त्वार्थ सूत्र अ.8, सूत्र1 18. क. दशवैकालिक सूत्र अध्ययन 5, उद्देशक 2 गाथा 39,41 ख. भगवती सूत्र, श.8/उ.5/ सू.6,8 ग. स्थानांग सूत्र, स्थान 1, सूत्र 14 19. क. तत्त्वार्थ सूत्र अ.9/सू.1, ख. योगशास्त्र श्लोक 76 ग.जीतकल्पचूर्णि पृष्ठ 5, घ. पंचास्तिकाय अमृत वृत्ति 108 20. क. समवायांग सूत्र समवाय-5, ख. स्थानांग सूत्र स्थान 5, सूत्र 33 ग. नवतत्त्व प्रकरण गाथा 35, घ. प्रश्नव्याकरण सूत्र-संवर द्वार 21. क. योग शास्त्र श्लोक 79,80, ख. स्थानांग सूत्र टीका 1/14 ग. सप्ततत्त्व प्रकरण-श्लोक 112, घ. द्रव्य संग्रह 2/34 22. क. स्थानांग सूत्र स्थान 10/सू.739, ख. भगवती सूत्र श.25/उ.7/सू.21 ग. उत्तराध्ययन सूत्र अ.33/गा.10, घ. औपपातिक सूत्र, सूत्र 19 23. क. स्थानांग सूत्र 4/1/249, ख. समवायांग सूत्र समवाय-4 ग. भगवती सूत्र 18/4/3, घ. जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति-1/सू.1 24. उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन-32, गाथा 7 25. क. प्रज्ञापना सूत्र पद 23, ख. स्थानांग सूत्र 2/3 26. क. स्थानांग सूत्र, स्थान 4, ख. पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 96 27. क. स्थानांग सूत्र स्थान 8, सू. 603, ख. समवायांग सूत्र, समवाय-5 28. क. स्थानांग सूत्र 5/3/457, ख. समवायांग सूत्र, समवाय-5 ग. उत्तराध्ययन सूत्र 24/1, घ. उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 458,459 स्वाध्याय शिक्षा -* 153 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. क. स्थानांग सूत्र 5/3/466, ख. औपपातिक सूत्र, सूत्र 20 30. क. भगवती सूत्र 25/7/125, ख. उत्तराध्ययन सूत्र अ.30/गा.31 ग. जीतकल्पसूत्र 4, घ. मूलाचार गाथा 362, ङ. चारित्रसार, श्लोक 137, च. धवला 13/5,4,26 31. योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति-3 32. आवश्यकनियुक्ति गाथा-1250 33. क. स्थानांग सूत्र, स्थान 10/सू.726, ख. अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र 4 34. अनुयोगोऽधिकारः परिच्छेदः प्रकरणामित्याये कोऽर्थः । -बृहद् द्रव्य संग्रह, पृष्ठांक 165 35. क. आवश्यकनियुक्ति गाथा 363-377, ख. दशवैकालिक नियुक्ति-3 टीका ग. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 2284-2295, घ. आवश्यक कथा श्लोक-174 ङ. सूत्रकृतचूर्णि-पत्र-4, च. प्रभावक चरित्र, आर्यरक्षित-श्लोक 82-84 क. पढमाणुओगे, गंडियाणुओगे। श्री नन्दीचूर्णि पृष्ठांक 58 ख. श्री समवायांग सूत्र वृत्ति-पृष्ठांक 120 37. क. सूत्रकृतांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध-1, अध्ययन-16, सूत्र 632 ख. स्थानांग सूत्र अ.3, उ.4 सूत्र 210, ग. भगवती सूत्र शतक 14/उद्दे.9/सू.17 घ. दशवैकालिक सूत्र अ.5,उद्दे.2, गाथा40, च. उत्तराध्ययन सूत्र, अ.32/गा.21 छ. कल्पसूत्र, सूत्र 3, ज. अनुयोगद्वार सूत्र, लोकोत्तरिक भावावश्यक सूत्र 27 38. क. श्राम्यति-तपसा खिद्यत इति कृत्वा श्रमणः।-सूत्रकृतांक सूत्र 1/16/1 शीलंकाचार्य टीका, पृष्त 263 ख. श्राम्यन्तीति श्रमणा, तपस्यन्तीत्यर्थः-दशवैकालिक हरिभद्रीया टीका, पृ.68 39. क. अनुयोगद्वार सूत्र, सू.129-131, ख. स्थानांग सूत्र 4/4/263 अभयदेवटीका 40. दशवैकालिक सूत्र नियुक्ति गाथा, 155-156 41. क. स्थानांग सूत्र-स्था.3,उ.3.सूत्र 180, ख. व्यवहार सूत्र, उद्दे.10/ सू.14,15 ग. भगवती सूत्र-श.25, उद्दे.7, सू.235, घ. औपपातिक सूत्र, सू.30 ड़.उपासकदशांगसूत्र 188, च. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30/ गा.33 42. भगवती सूत्र, अभयदेव वृत्ति पत्रांक-3 43. आचारांग नियुक्ति गाथा-8/आचार्य भद्रबाहु 44. क. स्थानांग सूत्र वृत्ति-4,3,323, ख. बृहत्कल्पसूत्र 4,123 45. गच्छाचार पयन्ना, अधिकार-1 46. क. उपासकदशांग सूत्र-सू.77, ख, उत्तराध्ययन सूत्र-अ.30, गा.35 ग. स्थानांग सूत्र-स्था.6,सू.511, घ. समवायांग सूत्र-सम.6/ सू.1 ङऔपपातिक सूत्र-सू.30, च. भगवती सूत्र श.25, उद्दे.7, सू.217 47. क. उपासकदशांग सूत्र-सू.57,73,89,122,252,259 . ख. आवश्यक सूत्र, अध्ययन 1 सू.57 48. क. स्थानांग सूत्र, स्था.2, उद्दे.2, वृत्ति ख. सर्वार्थ सिद्धि 7/22/3/63 49. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र-1.1 वृत्ति 50. क. तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि 7-22, भाष्य, पृ.363, आचार्य पूज्यपाद ख. तत्त्वार्थ वृत्ति 7-22, भाष्य पृ. 246, आचार्य श्रुतसागर 154 - स्वाध्याय शिक्षा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग. बाहयस्य कायस्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारण हायनयाक्रमेण-सम्यकलेखना संलेखना-चारित्रसार 22, श्री चामुण्डराय 51. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 2-22/आचार्य अकलंक 52. क. समवायांग सूत्र-समवाय17, ख. उत्तराध्ययन नियुक्ति गा.212-213, पत्र 230 ग. मूलाराधना आश्वास 1/ गा.25, पत्र 85 53. क. स्थानांग सूत्र-स्थान 3, उद्दे.4, सू.158, ख. समवायांग सूत्र-समवाय-22, सू.1 ग. उत्तराध्ययन सूत्र -अ.2/सू.3, घ.भगवती सूत्र-श.8, उद्दे.10, सू.78 ङ. आवश्यक सूत्र-अ.4, सू.22, च. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र-दशा.10, सू. 39, 40 54. सिद्धहैमशब्दानुशासन, लघुवृत्ति-7/1/197 55. उत्तराध्ययन सूत्र अ.28/गा.35 56. आचारांग नियुक्ति गाथा 221 57. क. उत्तराध्ययन सूत्र-अ.28, गाथा 15, ख. तत्त्वार्थ सूत्र अ.1/2 ग. तत्त्वार्थ भाष्य 1/2/1, घ. लाटी संहिता सर्ग-3/श्लोक 8 - ङ. सूत्र प्राभृत गाथा-5, च. बसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 10, छ. दर्शन पाहुड़, गा.19 ज. पंच संग्रह प्राकृत-1/159, झ. पंचास्तिकाय 107, ञ. मूलाचार 203 ट. द्रव्य संग्रह गाथा 41, ठ. धवला 1/1,1,4 ड. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय-22 ढ़. मोक्ष पाहुड-38, ण. नियम सार-5, त. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-317, थ. योगशास्त्र 2/2 58. क. सूत्रकृतांग सूत्र 1/12/11, ख. स्थानांग सूत्र 2/63 ग. आवश्यक नियुक्ति गाथा 94 से 99 तक 59. क. उत्तराध्ययन सूत्र अ.28, प्रथम बोल, ख. आचारांग चूर्णि 1/43 ग. दशवैकालिक सूत्र अ.1, टीका, घ. उत्तराध्ययन सूत्र बृहद् पत्र 577 ङ. सर्वार्थसिद्धि 6/24, च. द्रव्यसंग्रह टीका 35/112/7 छ. पंचाध्यायी उत्तरार्ध 431 60. धर्म संग्रह-अधिकार-2/श्लोक 22/पृ. 43 61. क. व्यवहार सूत्र, उद्दे.5, सूत्र 15, ख. स्थानांग सूत्र 4/2/282 ग. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र दशा 4, सू.3, घ. उत्तराध्ययन सूत्र अ.11, गाथा 1 62. क. स्थानांग सूत्र-स्थान 2, उद्दे.1, सूत्र 72, ख. चारित्र सार 3/1 ग. बारसअणुवेक्खा 68, घ. कार्तिकेयानुप्रेक्षा-304 ङ. पंचाध्यायी उत्तरार्ध-717. च. पद्मनन्दि पंचविंशतिका 6/4 छ. पुरुषार्थसिद्धयुपाय 40, ज. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 50 63. क. सूत्रकृतांग सूत्र-1, अ.14, नियुक्ति गाथा-129 ख. पंचाशक विवरण 5, गा.2 टीका। क. भगवती सू. श.25, उद्दे.7, सूत्र 1 से 188 ख. प्रज्ञापना सूत्र पद 23, उद्दे.1, सूत्र 1665, ग. समवायांग सूत्र समवाय 17 65. क. स्थानांग सूत्र, स्थान 9, उद्दे.1, सू.5, ख. उत्तराध्ययन सूत्र 28/14 ग. पंचास्तिकाय-2/108, घ. दर्शनपाहुड़-19, ङ. पंचसंग्रह (प्राकृत) गा.1/159 च. तत्त्वार्थ सूत्र, अ.1 सूत्र 4 66. क. स्थानांग सूत्र स्था 4, उद्दे. 2, सूत्र 296, ख. समवायांग सूत्र 4/5 स्वाध्याय शिक्षा - 155 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग, कर्मग्रन्थ भाग-1, गा.2,.घ.मूलाचार गाथा 1221 ङ. तत्त्वार्थ सूत्र 8/4, च.गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा.89/73 छ. द्रव्य संग्रह गाथा 33, ज. पंचाध्यायी उत्तरार्ध 935/5 67. क. पंचाध्यायी उत्तरार्ध-48, ख. गोम्मट सार कर्मकाण्ड 2/3 68. नियमसार तात्पर्य वृत्ति, गाथा 40 69. क. मूलाचार 1221, ख. पंचसंग्रह (प्राकृत) 2/1 ग. कषाय पाहुड़-2/2-22, ग. राजवार्तिक-8/3/11/567/20 70. क. षट्खण्डागम-13/5.5 सू. 19/205, ख. द्रव्यसंग्रह टीका-31/90/6 ग. तत्त्वार्थ सूत्र-8/5, घ. पंचसंग्रह (संस्कृत) 2/1 71. क. उत्तराध्ययन सूत्र अ.32, गा.87, ख. स्थानांग सूत्र 5/3/466 ग. समवायांग सूत्र, समवाय-27/ सू.1, घ. उपासगदशांग सूत्र-अ.6/ सू.168 72. क. राजवार्तिक-9/7/672, ख. तत्त्वार्थ सूत्र-अ.2/सू.1 73. क. अनुयोगद्वार सू.233, ख. स्थानांग सूत्र, स्थान 6/सू.537 ग. भगवती सूत्र 14/7, घ. कर्मग्रन्थ भाग-4, गाथा 64 74. पंचास्तिकाय गाथा 56 75. सर्वार्थसिद्धि-2/1, पृष्ठांक 149 76. पंचसंग्रह (प्राकृत) 212, पृ. 6 77. क. भगवती सूत्र-श.25, उद्दे.7, सू.114, ख. उत्तराध्ययन सूत्र-अ.29, सू.39 ग. स्थानांग सूत्र-5/3/466, घ. समवायांग सूत्र, समवाय-32, सूत्र 1 78. यु जुंपी योगे-हेमचन्द्र धातुमाला, गण-7 79. युजि च समाधौ-हेमचन्द्र धातुमाला, गण-4 80. उत्तराध्ययन सूत्र, अ.27, गाथा-2 81. क. सूत्रकृतांग सूत्र श्रुतस्कन्ध-1/अ.2/उद्दे.1/ गा.11 ख. उत्तराध्ययन सूत्र-अ.11/गाथा 14 82. स्थानांग सूत्र, स्थान 3/उद्दे.1/ सू.144 83. क. स्थानांग सूत्र 3/1/124, ख. भगवती सूत्र श.25/उद्दे.1/सू.719 ग. प्रज्ञापना सूत्र पद 16/सू.202, घ. समवायांग सूत्र, समवाय-5 84. सूत्रकृतांग सूत्र-श्रुतस्कन्ध-1, अध्ययन 15, गाथा 5 85. क. भगवती आराधना-1178/1187,4, ख. नियमसार गाथा 139 ग. सर्वार्थसिद्धि-6/12/331/3, घ. गोम्मट सार कर्मकाण्ड 801/980/12 ङ. तत्त्वार्थ राजवार्तिक-6/12/8/522/31 86. सूत्रकृतांग सूत्र 1/16/3 87. क. स्थानांग सूत्र-स्था.4, उद्दे.1 सू.247, ख. दशवैकालिक सूत्र चूर्णि पृ. 29 ग. उत्तराध्ययन सूत्र 30/34, घ. भगवती सूत्र श.25/उद्दे.7/ सूत्र 236 ङ. औपपातिक सूत्र, सूत्र 30 88. क. अनु पुनः पुनः प्रेक्षणं-चिन्तनं स्मरणं अनित्यादि-स्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, टीका-1 ख. शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। -तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 9/2/40 89. क. तत्त्वार्थ सार 6/43/351, ख. सर्वार्थ सिद्धि 9/7/416 : 90. क. दशवैकालिक सूत्र चूलिका 2, ख. उत्तराध्ययन सूत्र अ.6, गाथा 2 156 स्वाध्याय शिक्षा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91. क. आवश्यक सूत्र अ.6/ सूत्र 79, ख. सूत्रकृतांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध 1, अ.8, गा.1-3 ग. दशाश्रुतस्कन्ध, दशा-5/ सूत्र 6/ गा.15 घ. आचारांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध1/अध्य.4/उद्दे.4/ सूत्र 143 ङ. उत्तराध्ययन सूत्र अ.32, गा.7, च. उपासकदशांग सूत्र 74,76,85,193,218 छ. स्थानांग सूत्र 8/3/596, ज. प्रज्ञापना सूत्र 23/1 झ. दशवैकालिक सूत्र अ.4/गा.9, ञ.भगवती सूत्र श.1, उद्दे.3, सूत्र 13 92. क. स्थानांग सूत्र स्था.5, उद्दे.1 सूत्र 395, ख. प्रज्ञापना सूत्र पद 21, सूत्र 267 ग. कर्मग्रन्थ-- भाग-1/गा.33 93. क. अनुयोगद्वार सूत्र 144, ख. भगवती सूत्र श.5, उद्दे.4, सूत्र 193 ग. स्थानांग सूत्र, स्थान-4, उद्दे.3, सूत्र 120 94. क. अनुयोगद्वार सूत्र 147, ख. प्रमाण नय तत्त्वालोक 2/4 ग. विशेषावश्यक भाष्य गाथा-95, घ. लघीयस्त्रीय, श्लोक 4 95. क. प्रमाणनय तत्त्वालोक-2/1, ख. प्रमाण मीमांसा-1/1/9-10 96. क. नन्दीसूत्र-सूत्र 2, ख. स्थानांग सूत्र-स्था.2/उद्दे.1, सूत्र 60 97. क. उपासकदशांग सूत्र अ.2, सू.123 ख. आचारांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध-1, अ.1, उद्दे.3, सूत्र 22 ग. उत्तराध्ययन सूत्र-अ.1, गा.15, घ. स्थानांग सूत्र-स्था.2, उद्दे.1, सूत्र 1 ङ. भगवती सूत्र, शतक 2, उद्दे. 10, सूत्र 2-6 98. क. उत्तराध्ययन सूत्र अ.36, गा.2, ख. भगवती सूत्र 2/10/121 99. क. भगवती सूत्र श.11/उद्दे.10/सू.420, ख. लोक प्रकाश भाग 2, सर्ग-1 100. क. सूत्रकृतांग सूत्र, श्रुतस्कन्ध 2/अ.5/ गा.772 ख. उत्तराध्ययन सूत्र, अ.28, गा.25, ग. प्रज्ञापना सूत्र, पद 22, सूत्र157 घ. समवायांग सूत्र, समवाय-1, सूत्र 5, ङ. स्थानांग सूत्र स्थान 1, सूत्र 4 च. भगवती सूत्र श.3/उद्दे.1, सूत्र1-2, छ. आवश्यक सूत्र अ.4, सूत्र 24 ज. जीवाजीवाभिगम प्रतिपत्ति--3, उद्दे.2, सूत्र 104 101. क. स्थानांग सूत्र, स्थान 3, उद्दे.1, सूत्र 124, ख. तत्त्वार्थ सूत्र अ.6, सूत्र 1 102. स्थानांग सूत्र, स्थान 2, उद्दे. 1 सूत्र 5 103. क. अनुयोगद्वार सूत्र 218, ख. भगवती सू श.25, उद्दे.4, सूत्र 8 104. क. उपासकदशांग सूत्र, अ.1, सूत्र 83, ख. औपपातिक सूत्र, सूत्र 30 ग. आवश्यक सूत्र अ.4, प्रतिक्रमण आवश्यक, घ. दशवैकालिक सूत्र अ.6, गा.1 105. क. भगवती सूत्र श.8, उद्दे.2, सूत्र 22, ख. अनुयोगद्वार सूत्र-सूत्र1 ग. नन्दीसूत्र, सूत्र 1, घ. स्थानांग सूत्र स्थान 5, उद्दे. 3, सूत्र 464 ङ. उत्तराध्ययन सूत्र, अ.28, गा. 4, च. राजप्रश्नीय सूत्र-सूत्र 165 106. आचारांग सूत्र 5/5/166 107. क. स्थानांग सूत्र 2/4/105 टीका, ख. नन्दीसूत्र सूत्रांक 43 -तारक गुरु ग्रन्थालय, पुष्कर मार्ग, अहिंसा सर्कल, उदयपुर (राज.) स्वाध्याय शिक्षा - 157 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ की गतिविधियाँ मेवाड़ क्षेत्र में धार्मिक प्रचार-प्रसार यात्रा सम्पन्न स्वाध्यायियों, श्रीसंघों के अध्यक्ष, मंत्री, श्रावक एवं श्राविकाओं को सामायिक-स्वाध्याय एवं व्यसन मुक्ति की प्रेरणा देने हेतु श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर एवं स्वाध्याय संघ शाखा मेवाड़ क्षेत्र के संयुक्त तत्त्वावधान में दिनांक १५.१२.२००२ से १८.१२.२००२ तक धार्मिक प्रचार-प्रसार कार्यक्रम मेवाड़ क्षेत्र के नीमच, कुकड़ेश्वर, महागढ़, कंजार्डा, जाट, सिंगोली, कांस्या, बेगू, पारसोली, छोटा भटवाड़ा, आरणी, सहाड़ा, डोरिया, पहुंना, भीलवाड़ा आदि स्थानों पर आयोजित किया गया। इस प्रचार-प्रसार कार्यक्रम में श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर की संयोजक श्रीमती सुशीला जी बोहरा, जोधपुर, सचिव श्रीमान रिखबचन्द जी मेहता, जोधपुर, वरिष्ठ एवं चिन्तनशील तत्त्वज्ञ स्वाध्यायी श्रीमान फूलचन्द जी मेहता एवं स्वाध्याय संघ के कार्यालय प्रभारी श्री प्रकाश जी सालेचा, जोधपुर ने अपनी अमूल्य सेवाएँ प्रदान की। इस प्रचार-प्रसार कार्यक्रम में स्वाध्यायी आमंत्रित करने, आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड द्वारा संचालित धार्मिक परीक्षाओं में भाग लेने और सामूहिक प्रार्थना एवं सामायिक-स्वाध्याय करने की प्रेरणा की गई। इस दौरान ८ नये स्वाध्यायी बनाये गये तथा १७ मई से ३० जून २००३ की अवधि में छोटा भटवाड़ा, कांस्या और पहुंना में स्थानीय शिविर आयोजित करने का निर्णय लिया गया। आगामी प्रचार-प्रसार कार्यक्रम श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर द्वारा दिनांक २०.०२.२००३ से २४.०२.२००३ तक पल्लीवाल क्षेत्र के ग्राम-नगरों में एवं दिनांक ०३.०३. २००३ से महाराष्ट्र क्षेत्र के ग्राम - नगरों में धार्मिक प्रचार-प्रसार यात्रा का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत क्षेत्रों में सामायिक - स्वाध्याय की प्रेरणा के साथ स्वाध्यायी तैयार करने एवं पर्युषण पर्वाराधना हेतु क्षेत्रों को प्रेरणा की जायेगी । मार्च से मई २००३ की अवधि में पोरवाल क्षेत्र, मंगलदेश क्षेत्र एवं दक्षिण क्षेत्र का प्रचार-प्रसार भी संभावित है। सुशीला बोहरा संयोजक 158 रिखबचन्द मेहता सचिव स्वाध्याय शिक्षा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषण पर्वाराधना हेतु स्वाध्यायी आमन्त्रित कीजिए श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर विगत ५८ से भी अधिक वर्षों से सन्त-सतियों के चातुर्मासों से वंचित गांव / शहरों में 'पर्वाधिराज पर्युषण पर्व' के पावन अवसर पर धर्माराधन हेतु योग्य, अनुभवी एवं विद्वान स्वाध्यायियों को बाहर क्षेत्र में भेजकर जिनशासन एवं समाज की महती सेवा करता आ रहा है। इस वर्ष भी उन क्षेत्रों में जहां जैन सन्त-सतियों के चातुर्मास नहीं हैं, स्वाध्यायी बन्धुओं को भेजने की व्यवस्था है। इस वर्ष पर्युषण पर्व 24 अगस्त से 31 अगस्त 2003 तक रहेंगे। अतः देश - विदेश के इच्छुक संघ के अध्यक्ष / मंत्री निम्नांकित बिन्दुओं की जानकारी के साथ अपना आवेदन पत्र दिनांक 15 जुलाई 2003 तक इस कार्यालय को अवश्य प्रेषित करने का श्रम करावें । पहले प्राप्त आवेदन पत्रों को प्राथमिकता दी जायेगी। 1. गांव / शहरका नाम... .जिला.. 2. श्री संघ का नाम व पूरा पता. .प्रान्त. 3. संघाध्यक्ष का नाम व पता.. 4. संघ मंत्री का नाम व पता.. 5. संबंधित जगह पहुंचने के विभिन्न साधन.. 6. समस्त जैन घरों की संख्या.... 7. क्या आपके यहां धार्मिक पाठशाला चलती है ?. 8. क्या आपके यहां स्वाध्याय का कार्यक्रम नियमित चलता है ?. 9. पर्युषण सेवा संबंधी आवश्यक सुझाव. 10. अन्य विशेष विवरण.. आवेदन करने का पता-संयोजक/सचिव, श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, प्रधान कार्यालय-घोड़ों का चौक, जोधपुर - ३४२००१ (राज.) फोन नं. २६२४८६१, फैक्स २६३६७६३ स्वाध्यायियों के लिये आवश्यक सूचना श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर के समस्त स्वाध्यायियों को सूचित करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि आगामी पर्वाधिराज पर्युषण पर्व २४ अगस्त से ३१ अगस्त २००३ तक मनाये जायेंगे । आप सभी स्वाध्यायी बन्धुओं से निवेदन है कि आप पर्युषण पर्व में अवश्य पधारकर अपनी अमूल्य सेवायें संघ को प्रदान करावें । बाहर गांव पधारने से आपकी धर्म - साधना तो सुचारू रूप से होगी ही, अन्य भाई-बहिनों की साधना में भी आप निमित्त बन सकेंगे। अतः आपसे निवेदन है कि आप अपनी पर्युषण स्वीकृति स्वाध्याय संघ कार्यालय-घोड़ों का चौक, जोधपुर - ३४२००१ (राज.) फोन नं. २६२४८६१ के पते पर अवश्य भिजवाने का श्रम करावें । स्वाध्याय शिक्षा 159 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुणोत फाउण्डेशन, मुम्बई द्वारा धार्मिक पाठशालाएँ संचालित सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर के अन्तर्गत श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर द्वारा मुणोत फाउण्डेशन, मुम्बई के सहयोग से बालक- बालिकाओं को नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि से सुसंस्कारित करने के उद्देश्य से श्री महावीर जैन धार्मिक पाठशालाओं का संचालन किया जा रहा है। ये पाठशालाएँ धर्म- शिक्षण के क्षेत्र में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई हैं। फाउण्डेशन के द्वारा वर्तमान में २४ पाठशालाएँ चल रही हैं। इन पाठशालाओं का स्वाध्याय संघ के द्वारा समय-समय पर निरीक्षण कर मार्गदर्शन किया जाता है। प्रायः स्थानीय अध्यापक ही शिक्षण का कार्य करते हैं। जो संघ अपने यहाँ धार्मिक पाठशालाएँ चलाने में रुचि रखते हों वे स्वाध्याय संघ, जोधपुर से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं। -सुशीला बोहरा, संयोजक श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, घोड़ों का चौक, जोधपुर-342001(राज.) ग्रीष्मकालीन अवकाश में स्थानीय शिविर राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग के नियमानुसार इस वर्ष १७ मई २००३ से ३० जून २००३ तक ग्रीष्मकालीन अवकाश घोषित किया गया है। प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी अवकाश के समय विभिन्न क्षेत्रों में धार्मिक शिक्षण शिविर आयोजित करने का संघ ने निर्णय लिया है। श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ, जोधपुर द्वारा विभिन्न स्थानों पर स्थानीय शिविर आयोजित किये जाने हेतु कार्यक्रम बनाया जा रहा है। कोई भी संघ अपने यहाँ स्थानीय शिविर आयोजित करवाना चाहते हों तो यथाशीघ्र अपनी स्वीकृति इस कार्यालय को भिजवाने का श्रम करावें। शिविर कम से कम ५ दिन अथवा अधिक से अधिक ७ दिन का रहेगा। इच्छुक संघ ग्रीष्मकालीन समयावधि में कितने दिन का व कौनसी तिथियों को शिविर आयोजित करवाना चाहते हैं, स्वाध्याय संघ कार्यालय से सम्पर्क कर सकते है। आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड की आगामी परीक्षा २७ जुलाई २००३ को अखिल भारतीय श्री जैन रत्न आध्यात्मिक शिक्षण बोर्ड की कक्षा १ से ११ तक की आगामी परीक्षा २७ जुलाई २००३, रविवार को दोपहर १२ से ३ बजे तक आयोजित की जायेगी। १६ जनवरी २००३ को आयोजित परीक्षा में जिन्होंने भाग लिया है, उन्हें आगामी परीक्षा हेतु अब आवेदन-पत्र भरकर भिजवाने की आवश्यकता नहीं है। उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों को अगली कक्षा का तथा अनुत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों को पुनः उसी कक्षा का प्रवेश-पत्र भेजने की व्यवस्था बोर्ड कार्यालय द्वारा की जा रही है। नये परीक्षार्थियों एवं दसवीं-ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा देने वालों को ही आवेदन-पत्र भरकर बोर्ड कार्यालय को भिजवाना आवश्यक है। विस्तृत जानकारी के लिये सम्पर्क करें- अ.भा. श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, घोड़ों का चौक, जोधपुर-342001 (राज.) फोन नं. 0291-2630490, फैक्स -2636763 स्वाध्याय शिक्षा 160 SXo Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर के महत्वपूर्ण प्रकाशन 20/ 10/ 20/10/2/ 10/ 15/ 3/ 12. 5/10/20/110/ 50/ 17. निःशुल्क 1/ 16. पुस्तक का नाम मूल्य 43. नमो गणिगजेन्द्राय अपरिग्रह : विचार और व्यवहार 50/- 44. नूतन सप्त चरित्र संग्रह अहिंसा : विचार और व्यवहार 100/- 45. निर्ग्रन्थ भजनावली अहिंसा (जिनवाणी विशेषांक) 50/- 46. पथ की रूकावटें अन्तगडदसा सूत्र 20/- 47. पच्चीस बोल (अर्थ) अमरता का पुजारी 15/- 48. पच्चीस बोल (विवेचन) अहिंसा निउणा दिट्ठा 40/- 46. पर्युषण गीतिका अध्यात्म की ओर 30/- 50. पर्युषण साधना आध्यात्मिक आलोक (साधारण) 30/- 51. पर्युषण पर्वाराधन आध्यात्मिक आलोक (सजिल्द) 50/- 52. पर्युषण सन्देश 10. आचार्य श्री हस्ती : व्यक्तित्व एवं कृतित्व 50/- 53. पांच बात 11. आत्म चिन्तन 5/- 54. प्रथमा पाठ्यक्रम आचार्य श्री हस्ती : व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रार्थना प्रवचन (जिनवाणी विशेषांक) 50/- 56. रत्नवंश के धर्माचार्य 13. आध्यात्मिक पाठावली 2/- 57. सकारात्मक अहिंसा 14. आनुपूर्वी 2/- 58. सप्त कुव्यसन आत्म परिष्कार 5/- 56. सम्यग्दर्शन : शास्त्र और व्यवहार 16. आहार-संयम और रात्रि भोजन-त्याग 4/- 60. सामायिक सूत्र एवं प्रवेशिका पाठ्यक्रम भक्तामर स्तोत्र 5/- 61. सामायिक सूत्र (अंग्रेजी) चौदह नियम 4/- 62. सुजान पद सुमन वाटिका दशवैकालिक सूत्र 40/- 63. स्वाध्याय स्तवन माला दुर्लभ अंग चतुष्टय 5/- 64. स्वाध्याय दीपिका दुर्गादास पदावली 5/- 65. स्वाध्याय गीतिका एवं वृहद् आलोयणा 22. दो बात 2/- 66. स्वाध्याय शिक्षा (भाग 1 से 44 प्रत्येक) 23. गजेन्द्र सूक्ति-सुधा 20/- 67. शिवपुरी की सीढियाँ 24. गजेन्द्र पद मुक्तावली 5/- 68. शास्त्र स्वाध्याय माला 25. गणी गजेन्द्र गुणावली निःशुल्क श्रमण आवश्यक सूत्र 26. गजेन्द्र गुण गरिमा निःशुल्क 70. श्रद्धांजलि विशेषांक 27. गजेन्द्र व्या. माला (भाग 1 से 7 प्रत्येक) 15/- 71. श्रावक सामायिक-प्रतिक्रमण सूत्र 28. गृहस्थ साधक टीप 1/- 72. श्रावक के बारह व्रत 26. हीरा प्रवचन-पीयूष (भाग 1) 15/- 73. श्री सामायिक सूत्र (अर्थ सहित) 30. जय श्री शोभाचन्द निःशुल्क 74. श्री सामायिक सूत्र (मूल) 31. जीवन निर्माण भजनावली 2/- 75. श्री नव पद आराधना 32. जैन संस्कृति और राजस्थान 25/- 76. षद्रव्य विचार पंचाशिका 33. जैन तमिल साहित्य और तिरुकुरल 20/- 77. उत्तराध्ययन सूत्र भाग -1 34. जैन दर्शन : आधुनिक दृष्टि 20/- 78. उत्तराध्ययन सूत्र भाग - 2 35. जैन तत्त्व प्रश्नोत्तरी 5/- 76. उत्तराध्ययन सूत्र भाग - 3 36. जैन स्वाध्याय सुभाषित माला 10/- 80. उत्तराध्ययन सूत्र (पद्यानुवाद) 37. जैन आचार्य चरितावली 15/- 81. उपमिति भव प्रपंच कथा 38. जैन धर्म का मौलिक इतिहास वैराग्य शतक (भाग 1 से 4 प्रत्येक 250/- 83. व्रत प्रवचन संग्रह 36. जैनागम (जिनवाणी विशेषांक) 75/- 84. झलकियां जो इतिहास बन गई जैनागम के स्तोक रत्न 10/- 85. ज्ञाता सूत्र की कथाएँ 41. कर्म ग्रन्थ 8/- 86. सुखविपाक सूत्र |Jam Educal xRinteकियोद्धार एक नव चेतनाFor Private &P:Ronal use only 21. 25/12/15/10/15/15/ 10/ 1/ 25/ 35/ 50/ 20/150/ 5/7/21/ 10/ www.jainelibrary