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समुल्लेख प्राप्त होता है।" उनमें सर्वप्रथम प्रकार 'प्रकृति' बन्ध है । शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, शील और आकृति ये सभी शब्द प्रकृति के एकार्थवाची हैं।” ज्ञानावरण, दर्शनावरण प्रभृति अष्टविध कर्मों का जो स्वभाव है, वह प्रकृति बन्ध है।" प्रकृति बन्ध के मूल रूप से दो प्रकार हैं। प्रथम मूल प्रकृति है और द्वितीय उत्तर प्रकृति है। मूल प्रकृति एवं उत्तर प्रकृति के अनेक प्रकार हैं और इनके विषय में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है । " आत्मा से लिप्त होते समय कर्म जीव के मन, वचन एवं काय के योग की शुभता, अशुभता, मन्दता - तीव्रता प्रभृति कारणों से विशेष प्रकार की परिणति तथा आत्मा के विशेष गुणों को आवृत्त, कुण्ठित एवं विकृत करने का स्वभाव लेकर बद्ध होते हैं। इस बंध को ही प्रकृति बन्ध कहा जाता है। यह वास्तव में स्वभाव निर्णयात्मक बन्ध कहलाता है । जैसे प्राणियों के स्वभाव के आधार पर उनका पृथक्करण अथवा विभाजन किया जाता है वैसे ही कर्मों के स्वभाव से उनका वर्गीकरण अथवा विभाजन किया जाता है। आत्मा के साथ कर्म का बन्ध अथवा श्लेष होने के साथ ही उस कर्म के स्वभाव का विश्लेषण स्वतः हो जाता है। आत्मा द्वारा गृहीत कर्म का स्वभाव कैसा है ? अथवा कैसा होगा? इसका निर्णय कर्म-बन्ध के समय में हो जाता है। बान्धा हुआ कर्म किस प्रकार का फल देगा? इसका स्पष्टतः निर्णय कर्म की प्रकृति अर्थात् स्वभाव से हो जाता है। प्रकृति बन्ध अर्थात् कर्म की प्रकृति का निर्णय आत्मा के द्वारा गृहीत कर्म - पुद्गलों के बन्ध के साथ ही हो जाता है। प्रकृति बन्ध स्वयं ही उक्त कर्म के स्वभाव का विश्लेषण, सुनिर्णय और परिणाम देने का अधिकार रखता है।
यह तथ्य है कि जीव जैसा - जैसा चित्र-विचित्र योग तथा उपयोग करता है उसके निमित्त से वैसी-वैसी ही चित्र-विचित्र शक्तियाँ अथवा प्रकृतियाँ उस कार्मण शरीर में पड़ जाती हैं, अंकित हो जाती हैं। कतिपय कर्म वर्गणाएँ किसी एक प्रकृति तथा दूसरी किसी प्रकृति को धारण कर लेती हैं। जिस प्रकार एक ही विराट्काय वृक्ष काष्ठ, पत्र, पुष्प, फल, प्रभृति के रूप में अनेक जातीयता को प्राप्त हो जाता है अथवा जिस प्रकार एक ही शरीर हस्त, पाद, जिह्वा, कर्ण, चक्षु, प्रभृति के रूप में चलने-फिरने, ग्रहण करने, बोलने, सुनने, देखने इत्यादि रूप अनेक शक्तियों अथवा प्रकृतियों को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार एक ही कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न प्रकृतियों को प्राप्त कर अनेक अंगों अथवा भेदों वाला हो जाता है । यद्यपि कर्म तथा उनकी प्रकृति इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं है तथापि उनके निमित्त से होने वाले कार्य अर्थात् अपने अन्तरंग भाव, शरीर तथा संयोग-वियोग आदि सभी के प्रत्यक्ष हैं। इन पर से
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स्वाध्यक्ष
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