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________________ अभिप्राय में भी 'आचार' शब्द अभिव्यक्त हुआ है। धर्म एक सर्वथा व्यापक शब्द है और 'आचार' शब्द भी उतना ही अधिक व्यापक है। मानव के कर्त्तव्य के रूप में जिन-जिन नियमों एवं उपनियमों का होना अपेक्षित है, आवश्यक है, वे समग्र नियम, आचार एवं धर्म के अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं। आचार का संबंध आचार की उचितता और अनुचितता से है।आचार ही एक ऐसा प्राणभूत तत्त्व है, जो मानवीय आचरण के आदर्श की स्पष्टतः मीमांसा करता है। मानव आचरण की क्या-क्या विशेषताएँ हैं, यह जानकर ही उसका आदर्श निर्धारित किया जा सकता है। मानवीय आचरण का सूक्ष्मतम विश्लेषण उसका यथार्थ स्वरूप एवं स्रोत आदि का तलस्पर्शी अध्ययन मनोविज्ञान में होता है। वास्तव में आचार आदर्श निर्देशक विज्ञान है। जैन परम्परा आचारवादी परम्परा है। प्रस्तुत परम्परा में तत्त्ववाद की अपेक्षा आचार की व्याख्या और विवेचना अधिक हुई है। आचार और चारित्र ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। जैन परम्परा का आचार-पक्ष व्यवस्थित, सुविस्तृत और बहुआयामी है। यहाँ धर्म का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ है। अंश रूप से चारित्र की आराधना करना 'आगार धर्म' है और आमूलचूल अखण्ड चारित्र की आराधना करना 'अनगार धर्म' कहलाता है। इनको क्रमशः गृहस्थ धर्म एवं मुनि धर्म भी कहा जाता है। 'आगार धर्म' एकदेश धर्म है, श्रावक-आचार है तथा अनगार धर्म सर्वदेश धर्म अर्थात् श्रमण-आचार है। आचार की उपयोगिता एवं उसका मूल्य महत्त्व इसी में निहित है कि वह मोक्ष प्राप्ति का अनन्य निमित्त लिये हुए है और आचार, कल्प एवं समाचारी इन तीनों शब्दों के अर्थ में पर्याप्त रूपेण अन्तर है। जैन परम्परा में गुण का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ है। प्रथम मूल गुण हैं और द्वितीय उत्तर गुण हैं। मूल गुणों को आचार कहा गया है तथा कल्प एवं समाचारी इन दो शब्दों का प्रयोग उत्तर गुणों के लिये किया गया है। निष्कर्ष यह है कि 'आचार' आगमीय शब्द है, जैन परम्परा का पर्याय है। इसकी अर्थवत्ता वस्तुतः प्राणवत्ता लिये हुए है। आचार विहीन विचार निष्फल होता है। एतदर्थ आचार आचरणीय है और आदरणीय भी है। १६ प्रकृति ‘पयडी' और 'पगडी' ये दोनों प्राकृत भाषा के शब्द हैं। जैन आगम-साहित्य में इन दोनों शब्दों का प्रचुर प्रयोग बहुविध संदर्भो में प्राप्त होता है।" इन दोनों शब्दों का संस्कृत रूपान्तर 'प्रकृति' बनता है। 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'डुकृञ्' करणे धातु से 'क्तिन्' प्रत्यय लगने पर 'प्रकृति' शब्द निष्पन्न होता है। जहाँ नवविध और सप्तविध तत्त्व का वर्णन उपलब्ध होता है वहां बन्ध तत्त्व के चतुर्विध भेद का स्वाध्याय शिक्षा - - - 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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