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आवश्यकता है। आत्मा की अथवा अध्यात्म की साधना अपने आप में निरालम्ब है। परन्तु साध्य तक पहुंचने के लिए शुद्धतम आलम्बनों की नितान्त अपेक्षा है। जिस आध्यात्मिक यात्री को तत्त्वार्थ श्रद्धान हो गया है उसे देव, गुरु एवं धर्म रूप त्रिविध श्रद्धेयों के प्रति श्रद्धान अवश्य होना चाहिए। क्योंकि जो तत्त्वभूत पदार्थ प्रतिपादित हुए हैं उनके प्ररूपक मार्गदर्शक तो देव, गुरु और धर्म ही हैं। इसलिये इस त्रिपुटी पर अचल श्रद्धान होना अनिवार्य है। 'दर्शन' शब्द जब विचार के अर्थ में प्रयुक्त होता है तब धर्म का आशय 'आचार' से लिया जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के रूप में आचार-विचार का समन्वय स्थापित हो जाता है। १४. संवेग
'संवेग' शब्द प्राकृत और संस्कृत इन दोनों भाषाओं में एक जैसा ही है। एतदर्थ भाषाशास्त्रीय दृष्टि से यह शब्द 'तत्सम' कहलाता है। 'सम्' उपसर्ग-पुरस्सर 'विज्' धातु से 'संवेग' शब्द निष्पन्न होता है। यह आगमीय शब्द भी है एवं
आगमेतर वाङ्मय में भी इसका प्रयोग हुआ है। 'विज्' धातु का प्रथम अर्थ 'कांपना' है तथा द्वितीय अर्थ 'दौड़ना' अर्थात् तीव्र गति करना है। इन्द्रिय, मन और मति इन तीनों का वेग जब ऊर्ध्वमुखी हो जाता है तब वह वेग 'संवेग' कहलाता है। वैषयिक सुखों की प्राप्ति हेतु दौड़ लगाना 'अधोमुखी वेग' है। मोक्ष- सुख एवं आत्म-सुख की ओर दौड़ लगाना 'ऊर्ध्वमुखी वेग' है। जब आत्मा को स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के सच्चिदानन्दमय स्वरूप की अनुभूति, परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति की तीव्रता अथवा उत्कट उत्कण्ठा जागती है, तब उस वेग को संवेग कहा जाता है। निष्कर्ष यह है कि मोक्ष-सुख की अभिलाषा वस्तुतः संवेग है। सम्यग्दर्शन के जो पंचविध रूप से लक्षण हैं उनमें 'संवेग' द्वितीय लक्षण है। संवेग वह विलक्षण लक्षण है जिसके माध्यम से सम्यग्दृष्टि की स्पष्टतः पहचान हो जाती है, परख हो जाती है। 'संवेग' का शुद्धतम फल 'मोक्ष सुख' है, जिसको प्राप्त कर अध्यात्म साधक कृतकृत्य हो जाता है। १५. आचार
'आयार' शब्द प्राकृत भाषा का महत्त्वपूर्ण शब्द है। जैन आगम-साहित्य के विविध संदर्भो में इस शब्द का विशेष रूपेण प्रयोग हुआ है।" आयार शब्द का संस्कृत रूपान्तर 'आचार' बनता है। 'आङ्' उपसर्ग पुरस्सर 'चर्' गतिभक्षणयोः धातु से “आचार" शब्द की निष्पत्ति हुई है। आचार शब्द अनेक आशयों और भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। जैसे नीति, धर्म, कर्त्तव्य तथा नैतिकता के 138
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