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________________ उनकी कारणभूत प्रकृतियों का सहजतः अनुमान लगाया जा सकता है। कार्य से कारण का अनुमान करना न्यायोचित है। निष्कर्ष यह है कि प्रकृति बन्ध का जो भी कार्य है वह वास्तव में कर्मों के भिन्न स्वभाव को सूचित करता है। १७ भाव 'भाव' शब्द प्राकृत एवं संस्कृत इन दोनों भाषाओं में समान रूपेण प्रयुक्त होता है। एतदर्थ यह तत्सम शब्द है। उक्त भाव शब्द का प्रचुर प्रयोग जैन आगम-साहित्य के अनेक संदर्भो में हुआ है।" भाव और भावना ये दो शब्द हैं। भाव एक विचार है, मन की तरंग है। जब भाव प्रवाह रूप में प्रवाहित होता है तब वह भावना के रूप में परिणत होता है। भावना में अखण्ड प्रवाह होता है, जिससे मन में संस्कार स्थायी हो जाते हैं। भाव पूर्व रूप है जबकि भावना उत्तर रूप है। भव और भाव इन दोनों शब्दों में एक मात्रा का अन्तर है। भव संसार है, जबकि भाव विचार है। जिस प्रकार सागर और उसकी तरंगों की अभिन्नता है उसी प्रकार जीव और उसके भाव की अभिन्नता है। सागर की विभिन्न अवस्थापन्न लहरों के सदृश ये पंचविध भाव जीवात्मा रूपी सागर की अवस्था रूपी लहरें हैं, पर्याय हैं। इनके कर्म-शास्त्रीय नाम 'औपशमिक', 'क्षायिक', 'क्षायोपशमिक', 'औदयिक' और 'पारिणामिक' हैं। इन पाँच भावों के अतिरिक्त षष्ठ 'सान्निपातिक" भाव का उल्लेख भी प्राप्त होता है। जिस प्रकार लहरों के विषय में प्रश्न किया जा सकता है कि लहरें कहाँ से उत्पन्न होती हैं। उसी प्रकार यह पंचविध भाव कहाँ होता है? कहाँ रहता है? कहाँ से उत्पन्न होता हैं? और भाव का अधिकरण क्या है? इन सर्वप्रश्नों का उत्तर यह है कि भाव द्रव्य में ही रहता है अथवा होता है, द्रव्य से ही उठता है। क्योंकि गुणी के बिना गुणों का रहना असंभव है। जीव द्रव्य में ये पाँचों भाव रहते हैं। वास्तव में वे पाँचों जीव के गुण या जीव के भाव हैं। बहुत प्रकार के अर्थों में विस्तीर्ण अर्थात् फैले हुए हैं। ये पंचविध भाव आत्मा के असाधारण धर्म हैं। इसलिये ये स्वतत्त्व कहलाते हैं। निष्कर्ष यह है कि ये पाँचों भाव आत्मा के स्वभाव हैं। यहाँ पर असाधारण का तात्पर्य केवल इतना ही है कि ये पाँचों भाव जीव द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं होते हैं। जैसे सागर और उसकी तरंगों में जलधारत्व अर्थात् सागरत्व है, उसी प्रकार जीव में जीवत्व गुण असाधारण है। वही उसका स्वतत्त्व है जो अन्य द्रव्यों में नहीं होता है। जैसे सागर और उसकी तरंगों में जलधारत्व अर्थात् सागरत्व है, उसी प्रकार जीव में जीवत्व गुण असाधारण है। वही उसका स्वतत्त्व है जो अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता है। निष्कर्ष यह है कि इन पंचविध भावों से जो द्रव्य स्वाध्याय शिक्षा 141 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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