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________________ अर्द्धमागधी आगम-साहित्य की काव्यशास्त्रीय समीक्षा डॉ. हरिशंकर पाण्डेय आगमों में आचार, धर्म एवं दर्शन के तत्त्व तो सन्निहित हैं ही, किन्तु इनका अपना साहित्यिक महत्त्व भी है। जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के डॉ. हरिशंकर पाण्डेय ने अर्द्धमागधी आगम-वाड्मय का साहित्यिक मूल्यांकन करते हुए उसमें निहित रस, गुण एवं अलंकारों की चर्चा की है। -सम्पादक _आप्त-प्ररूपित एवं गुरु-शिष्य परम्परा से आगत ज्ञान-परम्परा को आगम कहते हैं, जो अनिष्टपरिहारक, इष्टोपकारक तथा मंगल संस्थापक होता है। पूर्ण-प्रज्ञ ऋषियों की वह अमरा वाणी आगम है, जो देश, काल आदि की सीमाओं को अतिक्रांत कर स्वतः प्रामाण्य के रूप में प्रतिष्ठित रहती है। जिसमें जीवन का पूर्ण सत्य समुद्घाटित होता है तथा जिसके हर पद में परम मंगल और शिव का सुमधुर संगीत सुनाई पड़ता है। जन्म-जन्मान्तर में साधना-संलीन, समाधि-सिद्ध पुरुष परम सत्य का साक्षात्कार कर शेष संसार के कल्याण की सात्त्विक भावना से विभूषित होकर जब साक्षात्कृत सत्य की अभिव्यक्ति करता है, तो वही शब्दाभिव्यक्ति 'आगम' शब्द से वाच्य होती है। मुख्यवृत्ति से आगम शब्द परमविद्या, श्रेष्ठविद्या, पराशक्ति, पराविद्या आदि का वाचक है, गौण रूप से शब्द संदर्भ या आत्मविद्या के प्रतिपादक ग्रंथ को भी आगम कहा जाता है। . आगम की अनेक परम्पराएं हैं। जैनागम उनमें से प्रमुख है। जैनागम की दो परम्पराएँ हैं-श्वेताम्बर और दिगम्बर। आचारांगादि आगम श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत हैं, दिगम्बर इनका लोप मानते हैं। प्रस्तुत संदर्भ में श्वेताम्बर किंवा अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के काव्य-वैशिष्ट्य पर दृष्टिपात अभिधेय है। उपदेश की तीन पद्धतियाँ स्वीकृत हैं१. प्रभु सम्मित २. मित्र सम्मित (सुहृद् सम्मित) ३. कान्ता सम्मित इन तीनों उपदेश पद्धतियों में “कान्तासम्मित" श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि इसकी सफलता निश्चित है। पति कितना ही भ्रष्ट क्यों न हो, सदाचारिणी पत्नी अपने मीठे-मीठे वचनों से समझाकर मार्ग पर ला ही देती है,उसी तरह की काव्यात्मक उपदेश पद्धति को कान्तासम्मित उपदेश पद्धति कहते हैं।' गीत, संगीत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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