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प्रदूषण को दूर करने की दृष्टि से तप का बड़ा महत्त्व है।
इसी प्रकार रात्रि भोजन त्याग, मांसाहार त्याग, मद्य त्याग, शिकार त्याग आदि जैन दर्शन के सिद्धान्तों से शारीरिक, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक प्रदूषणों से बचा जा सकता है। लेख के विस्तार के भय से इन पर यहाँ विवेचन नहीं किया जा रहा है। उपसंहार- प्राणी के जीवन के विकास का संबंध प्राण-शक्ति के विकास से है, न कि वस्तुओं के उत्पादन से तथा भोग-परिभोग सामग्री की वृद्धि से। आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्र के पर्यावरणों में प्रदूषण की उत्पत्ति प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से, भोग से होती है, क्योंकि भोग से ही समस्त दोष पनपते हैं जो प्रदूषण पैदा करते हैं और भोग के त्याग से, संयममय मर्यादित जीवन से उपर्युक्त सभी क्षेत्रों में विकास या पोषण होता है। पर्यावरण प्रदूषण से बचें तथा पर्यावरण का समुचित शुद्धीकरण हो, यही जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान का उद्देश्य है। किसी भी प्रकार का वातावरण दूषित न हो, इसके लिए जैन दर्शन में गृहस्थ धर्म के रूप में उपर्युक्त बारह व्रतों के पालन का प्रतिपादन किया गया है। इन बारह व्रतों में प्रथम तीन व्रत दूसरों के प्रति होने वाली बुराइयों व प्रदूषणों से बचाते हैं। चौथे से लेकर सातवें तक तथा दसवाँ व्रत भोग-परिभोग को, मर्यादित रखने के लिए हैं जिनसे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है। आठवाँ व्रत सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाता है। नवमा व ग्यारहवाँ व्रत आत्म-पर्यावरण-शुद्धि का पोषक है। बारहवाँ व्रत सर्व हितकारी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने वाला है। इस प्रकार जैन जीवन-पद्धति समस्त प्रकार के पर्यावरण शुद्धि में बड़ी सहायक है।
-82/141, मानसरोवर, जयपुर (राज.)
स्वाध्याय शिक्षा -
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