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________________ भौतिक जगत में रहते हैं, अतः प्रायः एक तिहाई वर्णन भौतिक जगत से भी संबंधित है। इसके अतिरिक्त आध्यात्मिक प्रगति के लिये व्रत, उपवास, साधनाएँ एवं ध्यान जैसी भौतिक प्रवृत्तियां भी करनी पड़ती हैं। हमारे भौतिक जीवन में भी अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जो हमारे ज्ञान-विज्ञान को प्रभावित करते हैं। इन शास्त्रीय वर्णनों के ज्ञान के लिये हमारे आचार्यों ने अनेक संकेत दिये हैं। उन्होंने अपने शास्त्रों में मनुष्य को वैज्ञानिक बनकर धर्मरुचि जागृत करने की शिक्षा दी है। वस्तुतः मनुष्य अपना प्रासंगिक जीवन बाह्य जगत के निरीक्षणों से प्रारंभ करता है। फलतः वह वैज्ञानिक पहले है और अन्तर्जगत् के निरीक्षक या अनुभव के रूप में धार्मिक बाद में है। आचारांग में वैज्ञानिकता प्रकट हुई है, उसमें कहा है१. मैं दृष्ट, श्रुत, मनन एवं अनुभव सिद्ध धर्म का उपदेश दे रहा हूँ। २. जिज्ञासा ज्ञान की जननी है। ३. तत्त्व का अध्ययन कुशाग्र बुद्धि से करना चाहिए। ४. अनुभवकर्ता के लिये उपदेश की आवश्यकता नहीं है। उत्तराध्ययन तो स्पष्ट कहता है कि धर्म की परीक्षा बुद्धि, प्रज्ञा एवं विज्ञान या अनासक्ति से करना चाहिये। आचार्य कुंदकुंद ने भी कहा है कि वे अपने अनुभव के आधार पर ही बातें कह रहे हैं। यदि उनमें कोई पूर्वापर-विरोध हो, तो उसे दूर कर लेना चाहिए। समन्तभद्र ने भी प्रत्यक्ष और अनुमान के अविरोधी एवं खंडन रहित शास्त्रों की मान्यता की बात कही है। शास्त्रों में प्राप्त ज्ञान यथार्थ(न कम न अधिक), असंदिग्ध एवं अ-विपरीत या सम्यक् होता है। समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि को तो परीक्षा प्रधान ही माना गया है। इनके समय से ही परीक्षा ग्रंथ प्रारंभ हुए हैं। तर्कवाद के युग में भौतिक घटनाओं के निरीक्षणों की परीक्षा तर्क से की जाती है। यही कारण है कि अनेक न्याय- ग्रन्थों में दृश्य जगत् से संबंधित कितने ही प्रकरण मन एवं चक्षु की अप्राप्यकारिता, ज्ञान-प्राप्ति के उपाय, पुद्गल और जीव-जगत् आदि आये हैं। आचार्य हेमचन्द्र भी शास्त्र का एक लक्षण परीक्षण और उसकी योग्यता ही मानते हैं। सिद्धसेन ने भी यही कहा है कि मूर्त तत्त्वों का ज्ञान तर्क से और अमूर्त तत्त्वों का ज्ञान 'आगम' से करना चाहिए। आगमों में विज्ञान : मूर्त जगत सामान्यतः 'विज्ञान' शब्द को भौतिक जगत्-दृश्य जगत् की घटनाओं से संबंधित ज्ञान माना जाता है। पर वस्तुतः उसे दो रूपों में मानना चाहिए। मूर्त का ज्ञान और अमूर्त जगत् का ज्ञान। उसे आजकल 'विज्ञान' एवं 'अधि-विज्ञान' भी ___24 - स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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