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अर्थात् क्रियाविहीन का ज्ञान और अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है वैसी ही स्थिति ज्ञानविहीन एवं क्रियाविहीन की होती है। आगे भी कहा गया कि “संजोअसिद्धीइ फलं वयति"" अर्थात् ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की प्राप्ति होती है।
जैन आचार्यों ने चारित्रशुद्धि या आचारशुद्धि पर बहुत अधिक जोर दिया। शिक्षा द्वारा मनुष्य के उदात्त भावों की जागृति होनी चाहिए। उसमें प्रेम, करुणा, अनुकम्पा, परदुःखकातरता, क्षमा आदि मूल्यों का जागरण हो, वह मात्र जानकारियों तक सीमित नहीं रहे। आचारांग नियुक्ति में कहा गया
"अंगाणं कि सारो? आयारो।।" अर्थात् अंग-साहित्य का सार क्या है? उसका सार आचार है। शीलपाहुड में कहा गया
__"सीलेण विणा विसया, णाणं विणासंति।।15
अर्थात् शील के बिना इन्द्रियों के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। इसी ग्रंथ में कहा गया
"सीलगुणवज्जिदाणं, णिरत्थयं माणुसं जम्म।।" अर्थात् शील गुण से रहित व्यक्तियों का मनुष्य जन्म पाना निरर्थक ही है।
मनुष्य चाहे कितना भी ज्ञान प्राप्त कर ले, बिना चारित्र के ज्ञान का कोई मूल्य नहीं। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया
"सुबहुसि सुयपहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि।।"" ___ अर्थात् शास्त्रों का अत्यधिक अध्ययन भी चरित्रहीन के लिए किस काम .. का? क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है? इस प्रकार जैन आचार्यों ने उस शिक्षा को ग्रहण करने का प्रतिपादन किया जो चारित्र को उन्नत करने वाली हो। शिक्षाशील कौन?
___ आगम शास्त्रों में शिक्षार्थी के गुणों-अवगुणों पर भी विचार किया गया। शिक्षा- प्राप्ति की योग्यता किस में है? इसका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है
"वसे गुरुकुले निच्च जोगवं उवहाणव। पियंकरे पियवाई से सिक्खं लद्भुमरिहई।।"
स्वाध्याय शिक्षा
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