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अर्थात् जो सदा गुरुकुल में वास करता है, योगवान और तपस्वी होता है, मृदुल होता है तथा मधुर बोलता है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
इसी ग्रंथ में बताया गया कि आठ कारणों या स्थितियों से व्यक्ति शिक्षाशील कहा जाता है - १. हंसी-मजाक नहीं करना २. इन्द्रिय और मन पर सदा नियंत्रण रखना ३. किसी का मर्म (रहस्य) प्रकट नहीं करना ४. शील रहित ( आचार - विहीन) नहीं होना ५. विशील - दोषों से कलुषित नहीं होना ६. अति रस - लोलुप नहीं होना ७. क्रोध नहीं करना ८. सत्य में रत रहना।
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जैन आगमों में शिक्षार्थी के लिए विनय, अनुशासन एवं प्रामाणिक जीवन पर बल दिया गया। इन्हीं गुणों से व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ बनता है । उपदेशमाला में
कहा गया
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“विणओ सासणे मूलं विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स, कओ धम्मो कओ तवो?" अर्थात् विनय जिनशासन का मूल है। संयम और तप से विनीत बनना चाहिए। जो विनय से रहित है, उसका कैसा धर्म और कैसा तप? दशवैकालिक सूत्र में भी कहा गया
अभिगच्छइ । । '
"विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती, जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अर्थात् अविनीत को विपत्ति और सुविनीत को सम्पत्ति- ये दो बातें जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। इसी सूत्र में यह भी कहा गया" एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ ।।
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अर्थात् इसी तरह धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम लक्ष्य है।
विनय के द्वारा ही मनुष्य बड़ी जल्दी शास्त्र ज्ञान एवं कीर्ति का संपादन करता है । अंत में निःश्रेयस् (मोक्ष) भी इसी के द्वारा प्राप्त होता है।
इसी प्रकार आगम में विवेकसम्मत आचार पर जोर दिया गया। शिक्षार्थी प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करे। कहा है
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विणीयस्स
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"चरदि जदं जदि णिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवो । अर्थात् यदि साधक (शिक्षार्थी) प्रत्येक कार्य यतना (विवेक) से करता है, तो वह जल में कमल की भांति जगत् में निर्लेप रहता है । आगम में वाणी के विवेक पर भी जोर दिया गया। कहा है
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व ।
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“हिअ - मिअ- अफरुसवाई, अणुवीइभासि वाइओ विणओ ।।'
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स्वाध्याय शिक्षा
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