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________________ वर्षों में समुद्र की सतह इतनी ऊपर उठ जायेगी कि जिससे बंगाल आदि समुद्रों के तटों पर स्थित अनेक क्षेत्रों की भूमि जलमग्न हो जायेगी तथा पर्वतों से निकल कर ग्रीष्म ऋतु में बहने वाली नदियां सूख जायेंगी, जिससे खेती की सिचांई की समस्या उत्पन्न हो जायेगी। अणुबम और परमाणुबम से प्रज्वलित अग्नि तो इतना भीषण प्रदूषण पैदा करती है कि कुछ ही क्षणों में लाखों लोगों को मृत्यु की गोद में पहुँचा देती है और शेष रहे मनुष्यों को अपंग कर देती है तथा भावी संतान के लिए विकलांगता का खतरा पैदा कर देती है। आशय यह है कि अग्निकाय का प्रदूषण मानव जाति के स्वास्थ्य एवं अस्तित्व के लिए भयंकर खतरनाक है । इसीलिए जैन साधु कृत्रिम अग्नि का उपयोग कभी नहीं करते हैं। वायुकाय का प्राणातिपात प्रदूषण- वायु में विकृत तत्त्व मिलने से वायुकाय के प्राणों का अतिपात होता है। यही वायु प्रदूषण है। बड़े कारखानों की चिमनियों से लगातार विषैला धुआं निकल कर वायु को दूषित करता जा रहा है, लाखों कारखानों में विषैली गैसों का उपयोग हो रहा है। वे गैसें वायु में मिलकर वायु में निहित प्राणशक्ति को क्षय कर रही हैं। इस प्रदूषण के प्रभाव से ध्रुवों में ओजोन परत भी क्षीण हो गई है, उसमें छेद होते जा रहे हैं, जिससे सूर्य की हानिकारक किरणें सीधे मानव शरीर पर पड़ेंगी, फलस्वरूप कैंसर आदि भयंकर असंख्य असाध्य रोगों का खतरा उत्पन्न हो जाने वाला है। वायु प्रदूषण से नगरों में नागरिकों को श्वास लेने के लिये स्वच्छ वायु मिलना कठिन हो गया है, दम घुटने लगा है, जिससे दमा / क्षय आदि रोग भयंकर रूप में फैलने लगे हैं। जैन धर्म में इस प्रकार के वायु के प्राणातिपात को, प्रदूषण को पाप माना है। वनस्पतिकाय प्राणातिपात प्रदूषण - जैनागम आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में वनस्पति की तुलना मनुष्य जीवन से की है। जैसे मनुष्य का शरीर बढ़ता है, खाता है उसी प्रकार वनस्पति भी बढ़ती है, भोजन करती है। वर्तमान में वनस्पतिकाय का प्राणातिपात भयंकर रूप से हो रहा है। लकड़ी के प्रलोभन से जंगल / वन काटे जा रहे हैं। पहले जहां पहाड़ों पर व समतल भूमि पर घने जंगल थे, जिनमें होकर पार होना कठिन था, जिन्हें अटवी कहा जाता था उनका तो आज नामोनिशां ही नहीं रहा। जो जंगल बचे हैं और जिन वनों को सरकार द्वारा सुरक्षित घोषित किया गया है उन वनों में भी चोरी छिपे भयंकर कटाई हो रही है। इसका स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only 49 www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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