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________________ कहा गया है- सम्मत्तदंसी न करेइ पावं-1.3.2 अर्थात् सम्यग्द्रष्टा कोई पाप नहीं करता है। आचारांग में मन को जानने अथवा अप्रमत्त चेतना की जो बात बार-बार कही गई है, वह मन को वासनामुक्त करने का या मन के पवित्रीकरण का एक ऐसा उपाय है जिसकी प्रामाणिकता आधुनिक मनोविज्ञान के प्रयोगों से सिद्ध हो चुकी है। जब साधक अप्रमत्त चेतना से युक्त होकर द्रष्टा भाव में स्थित होता है तब सारी वासनायें और सारे आवेग स्वतः शिथिल हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र यह कहकर कि “आयंकदंसी न करेइ पावं-1.3.21' पुनः एक मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया गया है। जो अपनी पीड़ा या वेदना को देख लेता है, उसके लिये पाप कर्म में फंसना एक मनोवैज्ञानिक असंभावना बन जाती है। जब व्यक्ति पापकर्म या हिंसाजनित पीड़ा का स्वयं आत्मनिष्ठ रूप में अनुभव करता है, तो हिंसा करना उसके लिये असंभव हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सूत्रकार पाप से विरत होने के लिए मनोवैज्ञानिक सत्यों पर अधिष्ठित पद्धति प्रस्तुत करता है। धर्म की मनोवैज्ञानिक व्याख्या आचारांग में अहिंसा, समाधि और प्रज्ञा को मोक्षमार्ग कहा गया है। इसमें अहिंसा को पूर्ण स्थान दिया गया है। यहाँ साधना का क्रम अन्दर से बाहर की ओर न होकर बाहर से अन्दर की ओर है, जो अधिक मनोवैज्ञानिक है। अहिंसा की साधना के द्वारा जब तक परिवेश एवं चित्तवृत्ति निराकुल नहीं बनेगी, समाधि नहीं होगी और जब तक समाधि नहीं आएगी प्रज्ञा का उदय नहीं होगा। इस संदर्भ में आचारांग के दृष्टिकोण में और परवर्ती जैन दर्शन के दृष्टिकोण में स्पष्ट अन्तर है। वह आचार शुद्धि से विचार शुद्धि की ओर बढ़ता है। आचारांग में धर्म क्या है? इसके दो निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में अहिंसा को शाश्वत, नित्य और शुद्ध धर्म कहा गया है, (सव्वे भूया, सब्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतवा- एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोये खेयण्णेहिं पवेइए-1.4.1) और प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्याय के तीसरे उद्देशक में समता को धर्म कहा गया है, समियाए धम्मे आरियेहि पवेइए (1.8.3) वस्तुतः धर्म की ये दो व्याख्याएँ दो दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करती है। अहिंसा व्यावहारिक समाज सापेक्ष धर्म है, जबकि वैयक्तिक एवं आन्तरिक दृष्टि से समभाव ही धर्म है। सैद्धान्तिक दृष्टि से अहिंसा और समभाव में अभेद है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अलग हैं। समभाव की बाह्य अभिव्यक्ति अहिंसा बन जाती है और यही अहिंसा जब स्वकेन्द्रित (स्वदया) होती है स्वाध्याय शिक्षा - - 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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