________________
का साम्राज्य रहा है। सूक्तियाँ सामाजिक-व्यवस्था, अध्यात्म-शास्त्र, साहित्यिक एवं लोकतत्त्वों से संबंधित होती हैं। सूक्ति शोभन एवं चारु उक्ति है, जिसके प्रयोग से भाषा में प्रभविष्णुता, सशक्तता, चारुता, सहजग्राह्यता, चित्रात्मकता, रसनीयता एवं अलंकाररूपता आदि गुण सहजतया समाहित हो जाते हैं । आगम सूक्ति- कोश है। जीवन जगत् से संबद्ध सूक्तियों का मनोरम लास्य यहां विद्यमान होता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
1. अस्सिं लोए पव्वहिए (आ.1.1.14) अज्ञानी व्यथा का अनुभव करते हैं।
2. णत्थि कालस्स णागमो(आ. 1.2.62) मृत्यु के लिए कोई क्षण अनवसर नहीं है।
3. कामा दुरतिक्कमा (आ.1.2.121) काम दुर्लघ्य हैं।
4. नो य उप्पज्जए असं (सू. 1.1.1.16) असत् का उत्पाद नहीं होता है।
5. जं छन्नं तं न वत्तव्वं (सू. 1.9.26) किसी की गोपनीय बात का उद्घाटन नहीं करना
चाहिए।
6. बालजणो पगढमई (सू.1.11.2) अज्ञानी अभिमान करता है।
इस प्रकार आगम साहित्य में समस्त काव्यप्रविधियों का प्रयोग किया गया है । दार्शनिक क्रम में सुन्दर अलंकारों का नियोजन भी आगमों की कवित्व प्रतिभा का निदर्शन है।
संदर्भ
०१. काव्यप्रकाश १.२
०२. अणुओगदाराइं (जैन वि.भा.सं. १६६६) ८.३०६-३१८
०३. अनुयोगद्वार मल्लधारीया वृत्ति पत्र १२६
०४. आचारांगभाष्य (जै. वि.) १.१.१७, ४०, ७१,६६, १२६,१५०
०५. अण ु ओगदाराई ८.३१८.२
०६. तत्रैव ८.३१८.२
०७. आचारांगभाष्य १.६. १-३
०८. ज्ञाताधर्मकथा-(ब्यावर सं . ) १.१६, राजप्रश्नीय ( ब्यावर सं.) पृ. ६, सूत्र ५
. अनुयोगद्वार ८.३११.२
०६.
१०. तत्रैव ८.३११.२
११. आचारांगभाष्य १.६.३.८ १२. तत्रैव
१.६.३.१३
१३. काव्यप्रकाश ८.८७
१४. तत्रैव ८.८६
. तत्रैव ८६ पर वामन झलकीकर टीका
१५.
१६. आचारांग २.१२८-१२६
68
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
स्वाध्याय शिक्षा
www.jainelibrary.org