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गुण सर्वदा विद्यमान रहते हैं। यथा
"अह अट्ठहिँ ठाणेहि, सिक्खासीले ति वुच्चई। अहस्सिरे सया दंते, ण य मम्ममुदाहरे।। णासीले ण विसीले, ण सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलेत्ति वुच्चई।।"
-उत्तराध्ययन सूत्र 11.4-5 अर्थात्१. जो हास्य न करे। २. जो सदा इन्द्रिय और मन का दमन करे। ३. जो मर्म प्रकट न करे अर्थात् किसी भी गोपनीय बात का प्रकाशन न करे। ४. जो चारित्र से हीन न हो। ५. जिसका चारित्र दोषों से कलुषित न हो। ६. जो रसों में अतिलोलुप न हो ७. जो क्रोध न करे। ८.जो सत्य में रत हो।
जैनागमों में ऐसे व्यक्तियों का भी उल्लेख हुआ है। जो हर प्रकार से शिक्षा पाने के अयोग्य या अपात्र हैं। इनकी संख्या जैनागम में चार बतायी गई है। यथा
"चत्तारि अवायणिज्जा पण्णत्ता, तंजहाअविणीए, विगइपडिबद्धे, अविउसविय पाहुडे, मायी।।"
-स्थानांग सूत्र 4.3.336 अर्थात् १. अविनीत २. स्वादेन्द्रिय में गृद्ध ३. क्रोधी ४. कपटी
जैनागम में ऐसे अयोग्य, उद्दण्ड और अविनीत शिक्षार्थी की उपमा दुष्ट बैलों से की गई है। उत्तराध्ययन सूत्र 27.3-8
जैन आगम शिक्षार्थी को चलना, खड़ा होना, बैठना, सोना, खाना-पीना, बोलना आदि दैनिक क्रियाओं का कैसे प्रयोग किया जाए जिससे किसी को न कष्ट हो
और न जीवों की विराधना हो आदि बातों के बारे में ज्ञान कराते हैं। जैनागमों ने इस बारे में कहा है कि शिक्षार्जन करने वाला अपनी हर क्रिया को 'यत्नापूर्वक' करे
स्वाध्याय शिक्षा
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