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जिससे वह पाप कर्म के बंधन में नहीं जकड़ सके। यथा
"जयं चरे, जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए। जयं भुजन्तो भासन्तो, पावकम्मं न बंधई।।"
-दशवैकालिक सूत्र 4.8 इस प्रकार जैन शिक्षा प्रत्येक मनुष्य को प्रामाणिक और अप्रमादी बनाने का अवसर प्रदान करती है। चाहे वह मनुष्य किसी भी वर्ग, जाति, सम्प्रदाय से संबंधित क्यों न हो? अर्थात् जैन शिक्षा नीति के अनुसार स्त्री और शूद्र भी शिक्षा ग्रहण करने के आरम्भ से ही अधिकारी रहे हैं। ये भी दार्शनिक शिक्षा को पाकर अपने कल्याण का मार्ग खोज सकते हैं, मुक्त हो सकते हैं, अपने जन्म को सार्थक कर सकते हैं। जैनागम में वर्ण जाति को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। मनुष्य जन्म से नहीं, कर्म से महान् बनता है। कर्म से ही वह ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय होता है, वैश्य और शूद्र होता है। यथा
"कम्मुणा बम्भणो होइ, कम्मुणो होई खत्तिओ। वइस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा।।"
-उत्तराध्ययन सूत्र 25.33 जैनागम में इसका भी उल्लेख है कि हरिकेश नाम के चाण्डाल ने जैनागमों का अध्ययन किया और कालान्तर में वे गुण सम्पन्न, प्रतिभावान विद्वान ऋषि हुए।
यथा
"सोवागकुल - संभूओ गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएस बलो नाम आसि भिक्खू जिइन्दिओ।।"
___-उत्तराध्ययन सूत्र 1.12 जैनागमों के अध्ययन-अनुशीलन से यह अभिदर्शित है कि जैन शिक्षा लोगों को न केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही कराती है, अपितु जिज्ञासुओं को लौकिक ज्ञान में भी महारथ हासिल कराती है। बहत्तर और चौंसठ कलाओं का, लिपि- विज्ञान का, शकुन-अपशकुन विज्ञान का, इन्द्रजाल, चिकित्सा विज्ञान तथा गृह विज्ञान आदि सहित दस विद्याओं-छिन्न विद्या, स्वर विद्या, वास्तु विद्या, अंग विकार विद्या, स्वर-विचय विद्या, भौम विद्या, अन्तरिक्ष विद्या, स्वप्न विद्या, लक्षण विद्या तथा दण्ड विद्या का परिज्ञान कराना इस बात का प्रमाण है कि जैन शिक्षा का योगदान लौकिक क्षेत्र में भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। (त्रिषष्टि शलाका १/२, भगवती सूत्र ३१, अन्तकृद्दशांग सूत्र ३.१, उत्तराध्ययन सूत्र १५/७, स्थानांग सूत्र आदि)
____ अन्ततः जैन शिक्षा का सार है आत्मोन्मुख होना, सक्रिय ज्ञानात्मक आत्मसंयम परक, समस्त दुःखों की निवृत्ति का आधार किंवा मोक्ष की प्रतिष्ठा में 108
स्वाध्याय शिक्षा
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