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१३. विनीत शिष्य इच्छा तथा लोभ का सेवन नहीं करता।-आचारांग सूत्र 8.8.23 १४. विनीत शिष्य स्खलना होने पर भी किसी पर दोषारोपण नहीं करता और न
कभी मित्रों पर क्रोध ही करता है। यहां तक कि अप्रिय मित्र की परोक्ष में भी
प्रशंसा ही करता है। उत्तराध्ययन सूत्र 11.12 १५. विनीत शिष्य किसी भी गोपनीय बात को कभी प्रकट नहीं करता है।
-सूत्रकृतांग 1.9.20 जैनागम में यह भी उल्लिखित है कि शिक्षार्जन के लिए शिक्षार्थी पाँच प्रकार के दुर्गुणों से अपने को सदा अलग रखता है। ये पाँच दुर्गुण शिक्षा में अवरोध उत्पन्न करते हैं। इन दुर्गुणों के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाती। क्योंकि विद्या कभी भी अयोग्य स्थान को स्वीकार नहीं करती है। ये पाँच दुर्गुण हैं१. अहंकार २. क्रोध ३. प्रमाद (विषयासक्ति) ४. रोग ५. आलस्य यथा- . “अह पंचहि ठाणेहि,जेहि सिक्खा न लब्भई। थम्भा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएणय।।"
-उत्तराध्ययन सूत्र 11.3 __ यथार्थतः जो आलसी और प्रमादी होता है, उसकी न तो प्रज्ञा बढ़ती है और न उसका श्रुत ही बढ़ पाता है। प्रमादहीन जीवन ही प्रज्ञा और शिक्षा का आधार है। शिक्षार्थी प्रमाद से रहित विनयशील जीवन के द्वारा अपना उद्देश्य पूरा करने में सफल हो सकता है। इसलिए जैनागम में कहा गया है कि जो शिक्षार्थी अपने आचार्यों-गुरुओं-उपाध्यायों की सेवा-सुश्रूषा तथा उनकी आज्ञा का पालन करता है, उसकी शिक्षाएँ-विद्याएँ विनय रूपी जल से सींचे जाने के कारण वृक्ष की भांति बढ़ती हैं। यथा
"जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणंकरा। तेसिं सिक्खा पवड्ढ़ति, जलसित्ता इव पायवा।।"
____-दशवैकालिक सूत्र 9.12 वास्तव में वही शिष्य अभीष्ट शिक्षा प्राप्त कर सकता है जो प्रिय करता है, प्रिय बोलता है, गुरुजनों की भावनाओं का आदर करता है। यथा
"पियंकरे पियवाई, से सिक्खं लधुमरिहई।।"-उत्तराध्ययन सूत्र 11.14
जैनागमानुसार वही शिक्षार्थी शिक्षाशील कहलाता है, जिसमें आठ प्रकार के ___106 -
स्वाध्याय शिक्षा
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