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________________ वह समिति है। प्राणी पीड़ा का परिहार करते हुए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। वास्तव में चारित्र के अनुकूल होने वाली प्रवृत्ति को समिति कहा जाता है। इस आधार पर समिति का वर्गीकरण पाँच प्रकार से हुआ है।" उनके नाम हैं- ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान- निक्षेपण समिति और प्रतिष्ठापना समिति। इन पंचविध समितियों का सम्यक् प्रकार से पालन करने वाला श्रमण पापकर्मों से लिप्त नहीं होता है। वास्तव में विवेकयुक्त प्रवृत्ति “समिति” है। ०७ प्रतिक्रमण 'पडिक्कमण' आगमिक शब्द है। प्रस्तुत शब्द का प्रचुररूपेण प्रयोग जैनागमों में स्पष्टतः हुआ है। " पडिक्कमण का संस्कृत रूपान्तर 'प्रतिक्रमण' होता है। 'प्रति' उपसर्ग 'क्रमु' पाद निक्षेपे धातु से 'प्रतिक्रमण' शब्द निष्पादित हुआ है। ‘प्रति’ का तात्पर्य ‘प्रतिकूल’ है और 'क्रम' धातु का अर्थ 'पद निक्षेप' है। साधक जिन प्रवृत्तियों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप स्वस्थान से हट कर मिथ्यात्व, अज्ञान तथा असंयम रूप पर-स्थान में चला गया है उसका पुनरपि अपने आप में लौट आना, प्रतिक्रमण है। पाप क्षेत्र से आत्म-: -शुद्धि के क्षेत्र में आना 'प्रतिक्रमण' कहलाता है । प्रायश्चित्त के दशविध भेदों में " प्रतिक्रमण " द्वितीय प्रकार है।" नियम भंग को अपराध के रूप में स्वीकार कर पुनः उससे लौट आना अर्थात् भविष्य में उसे न करने की प्रतिज्ञा करना ही प्रतिक्रमण है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आपराधिक स्थिति से अनपराधिक स्थिति में लौट आना "प्रतिक्रमण" है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण में पर्याप्त अन्तर यह है कि आलोचना में अपराध को पुनः सेवन न करने का निश्चय नहीं होता है, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा करना आवश्यक है, अनिवार्य है। निष्कर्ष यह है कि मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, दूसरे जनों के द्वारा कराया जाता है तथा अन्यान्य व्यक्तियों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के लिये कृत पापों की समीक्षा करना और पुनः पुनः न करने की प्रतिज्ञा करना " प्रतिक्रमण" है। शुभ योग से अशुभ योग की ओर गये हुए अपने आपको पुनरपि शुभ योग में लौटा लाना 'प्रतिक्रमण' है।" मैं मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय एवं अशुभ योग में चला गया हूँ तो मुझे पुनः सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और शुभ योग में आना चाहिए। इसी दृष्टि से इन पाँचों का प्रतिक्रमण किया जाता है। यथार्थता यह है कि प्रतिक्रमण अध्यात्म - साधना का प्राणभूत तत्त्व है, आत्म-शोधन की विशिष्ट एवं वरिष्ठ कला है और जीवन परिष्कार की प्रभावी प्रक्रिया है । 31 32 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only 131 www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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