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संस्कृति समता प्रधान है। समता भाव की दृष्टि से ही सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान प्राप्त है।
दूसरा आवश्यक - चउवीसत्यव
प्रथम सामायिक आवश्यक के बाद दूसरा आवश्यक है - चतुर्विंशतिस्तव । सावद्य योग से विरति ‘सामायिक' आवश्यक है। जीवन को सावद्य योग से निवृत्त, राग-द्वेष रहित, समभाव युक्त विशुद्ध बनाने के लिए साधक को सर्वोत्कृष्ट जीवन जीने वाले महापुरुषों के आलम्बन की आवश्यकता रहती है। चौबीस तीर्थंकर जो राग-द्वेष रहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुष हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, त्याग, वैराग्य और संयम-साधना के महान आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना, उनके गुणों का कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' कहलाता है।
तीर्थंकरों, वीतराग देवों की स्तुति करने से साधक को महान् आध्यात्मिक बल व आदर्श जीवन की प्रेरणा मिलती है । अहंकार का नाश होता है, गुणों के प्रति अनुराग बढ़ता है और साधना का मार्ग प्रशस्त बनता है। शुभ भावों से दर्शन विशुद्धि होती है और दर्शन विशुद्धि से आत्मा कर्म मल से रहित होकर शुद्ध निर्मल हो जाती है - परमात्म पद को प्राप्त कर लेती है और वीतराग प्रभु के समान बन जाती है। चतुर्विंशतिस्तव के फल के लिए उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में पृच्छा की
है
"चउव्वीसत्थएणं भंते! जीवे किं जणयइ ?"
हे भगवन्! चतुर्विंशतिस्तव से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? "चउवीसत्थएणं दंसणविसोहि जणयइ । "
हे गौतम! चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन विशुद्धि होती है ।
समभाव में स्थित आत्मा ही वीतराग प्रभु के गुणों को जान सकती है, उनकी प्रशंसा कर सकती है। अर्थात् जब सामायिक की प्राप्ति हो जाती है तब ही भावपूर्वक तीर्थंकरों की स्तुति की जा सकती है । अतएव सामायिक आवश्यक के बाद चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है।
तीसरा आवश्यक - वंदना
चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरे आवश्यक में तीर्थंकर देवों की स्तुति की गई है । देव के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही है। तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश निर्ग्रन्थ मुनिराज ही देते हैं। तीसरे वंदना आवश्यक में गुरुदेव को वन्दन किया जाता है।
मन, वचन और काया का वह शुभ व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति
स्वाध्याय शिक्षा
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