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भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है 'वन्दना' कहलाता है।
जो साधु द्रव्य और भाव से चारित्र सम्पन्न है, जिनेश्वर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलते हुए जिन प्रवचन का उपदेश देते हैं, वे ही सुगुरु हैं। आध्यात्मिक साधना में सदैव रत रहने वाले त्यागी-वैरागी, शुद्धाचारी, संयमनिष्ठ सुसाधु ही वंदनीय पूजनीय होते हैं। ऐसे सुसाधु-गुरु भगवन्तों को भावयुक्त उपयोग पूर्वक निःस्वार्थ भाव से किया हुआ वंदन कर्म-निर्जरा और अंत में मोक्ष का कारण बनता
इसके विपरीत भाव चारित्र से ही द्रव्यलिंगी-कुसाधु अवंदनीय होते हैं। संयमभ्रष्ट वेशधारी कुसाधुओं को वंदन करने से कर्म-निर्जरा नहीं होती, अपितु वह कर्म-बंधन का कारण बनता है।
सुगुरुओं को यथाविधि वंदन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है। वंदनीय में रहे हुए गुणों के प्रति आदर भाव होता है। तीर्थकर भगवंतों की आज्ञा का पालन होता है। वंदना करने का मूल उद्देश्य ही नम्रता प्राप्त करना है। नम्रता अर्थात् विनय ही जिनशासन का मूल है।
उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २६ में गौतम प्रभु भगवान महावीर से पूछते हैं कि
"वंदएणं भंते! जीवे किं जणयड?" हे भगवन! वंदन करने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर में भगवान महावीर फरमाते हैं कि
"वंदएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ उच्चागोयं निबंधइ सोहग्गं च ण अप्पडिहयं आणाफलं निवत्तेइ, दाहिणभावं च णंजणयइ।"
वंदन करने से यह आत्मा नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र का बंध करता है। सुभग, सुस्वर आदि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सभी उसकी आज्ञा स्वीकार करते हैं और वहीं दाक्षिण्य भाव कुशलता एवं सर्वप्रियता को प्राप्त करता है।
___ जो व्यक्ति अपने इष्ट देव तीर्थकर भगवंतों की स्तुति करता है, गुण स्मरण करता है वही तीर्थकर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलने वाले, जिनवाणी का उपदेश देने वाले गुरुओं को यथाविधि भक्तिभाव पूर्वक वंदन-नमस्कार कर सकता है। अतएव चतुर्विंशतिस्तव के बाद वंदना आवश्यक को स्थान दिया गया है। चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण
___ छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है। आजकल 'आवस्सय' की संज्ञा प्रतिक्रमण' प्रचलित है। इसके कई कारण हो सकते हैं। 'पडिक्कमण' . स्वाध्याय शिक्षा र
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