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चतुर्थ 'आवस्सय' है और सब आवश्यको में अक्षर प्रमाण में बड़ा है। अतः सभी आवश्यकों को ‘प्रतिक्रमण' नाम से पुकारा जाने लगा हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । दूसरा कारण श्रमण भगवान महावीर का सप्रतिक्रमण धर्म है। अतः प्रतिदिन प्रातः, सायं प्रतिक्रमण करना साधक के लिए आवश्यक है अर्थात् सायं प्रातः प्रतिक्रमण 'आवश्यक' का ही नियत काल है, अन्य आवश्यक का नहीं। उन समयों में जो अन्य आवश्यक किये जाते हैं वे प्रतिक्रमण आवश्यक की पूर्ण भूमिका की उत्तरक्रिया के रूप में ही प्रायः होते हैं। इसलिए सभी आवश्यकों का 'प्रतिक्रमण' नाम हो जाना सहज लगता है।
वंदना आवश्यक के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग-द्वेष रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं, वे ही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। जो गुरुदेव को वंदन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रखेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा? जो पाप मन से, वचन से और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से कराये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, इन सब पापों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आती है।
व्रत में लगे हुए दोषों की सरल भावों से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है। प्रतिक्रमण का लाभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र अ. २६ में पृच्छा की है कि
"पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ ?"
हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
"पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिहेइ, पिहियवयच्छिदे पुण जीवे णिरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ । "
प्रतिक्रमण करने वाला व्रतों में बने हुए छिद्रों को बंद करता है, फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शब्दादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटा कर संयम मार्ग में विचरण करता है अर्थात् आत्मा संयम के साथ एकमेक हो जाती
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