________________
है। जो इन्द्रियाँ बाह्योन्मुखी हैं, वे अन्तर्मुखी हो जाती हैं। इन्द्रियां मन में लीन हो जाती हैं और मन आत्मा में रम जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण जो वापस लौटने की प्रक्रिया से चालू हुआ था, वह धीरे-धीरे 'आत्म स्वरूप स्थिति' में पहुँच जाता है। यही है प्रतिक्रमण का पूर्ण फला प्रतिक्रमण की यही है उपलब्धिा पाँचवा आवश्यक-कायोत्सर्ग
. छह आवश्यक में कायोत्सर्ग पाँचवाँ आवश्यक है। कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं-काय और उत्सर्ग। जिनका अर्थ है- काय का त्याग। अर्थात् शरीर के ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद कायोत्सर्ग का स्थान है। प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंद कर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है। जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त की शुद्धि न की जाय, तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है वह किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता। अनाभोग आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगे बड़े अतिचारों की कायोत्सर्ग शुद्धि करता है। इसीलिए कायोत्सर्ग को पाँचवां स्थान दिया गया है।
कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। वह पुराने पापों को धोकर साफ कर देता है। तस्सउत्तरी (उत्तरीकरण के पाठ) में यही कहा है कि पाप युक्त आत्मा को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशेष-शुद्धि करने के लिए, शल्यों का त्याग करने के लिए, पाप कर्मों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग (शरीर के व्यापारों का त्याग) किया जाता है।
अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग आवश्यक का नाम 'व्रण चिकित्सा' कहा है। व्रत रूप शरीर में अतिचार रूप व्रण (घाव, फोड़े) के लिए पाँचवां कायोत्सर्ग आवश्यक चिकित्सा रूप पुल्टिस (मरहम) का काम करता है। जैसे पुल्टिस, फोड़े के बिगड़े हुए रक्त को मवाद बना कर निकाल देता है और फोड़े की पीड़ा को शान्त कर देता है, उसी प्रकार यह काउस्सग्ग रूप पाँचवां आवश्यक व्रत में लगे हुए अतिचारों को और दोषों को दूर कर आत्मा को निर्मल एवं शांत बना देता है।
उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का फल इस प्रकार कहा है
__ "काउस्सग्गेणं भंते! जीवे कि जणयइ?" हे भगवन! कायोत्सर्ग करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है?
स्वाध्याय शिक्षा --
77
.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org